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सराहन से बशल चोटी तथा बाबाजी

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25 अप्रैल 2013
हमेशा की तरह उठने की वही बात- सिर पर सूरज आ गया जब मैं उठा। कल तो नहाया नहीं था। कमरे में गीजर भी लगा था, इरादा था नहाने का लेकिन देखा कि बिजली नहीं है तो इरादा बदलते कितनी देर लगती है?
बस अड्डे के पास एक ढाबा है जहां सुबह से शाम तक खाने पीने को मिलता रहता है। कल वहां जाकर चावल खाये थे। अब सुबह का समय, आलू के परांठे की तैयारी थी। एक परांठा मैंने भी बनवा लिया। साथ में चाय और आमलेट भी। पहले तो सोचा कि इतना बडा तीर्थ- भीमाकाली- यहां कहां अण्डे आमलेट मिलेंगे? फिर दिमाग में आया कि यह देवी भेड बकरे तक नहीं छोडती, अण्डा कहां ठहरता है? आमलेट को कहा तो तुरन्त हाजिर हो गया।
खा-पीकर डकार लेकर पैसे देकर जब बाहर निकला तो दुकान वाले से पूछा कि यहां से बशल चोटी दिखती है क्या? उसने एक ऐसी चोटी की तरफ इशारा कर दिया जो उस बूढे के सिर की तरह दिख रही थी जिस पर दो चार सफेद बाल ही रह गये हों। दो-चार जगह बर्फ थी वहां।
मैंने वहां जाने का इरादा जाहिर किया तो बोला कि अब दस बज रहे हैं, अब मत जाओ। वहां जाने के लिये सुबह पांच बजे निकलना पडता है, तब दिन छिपने तक लौटने हैं। मैंने रास्ता पूछा तो बताया कि रास्ता ठीकठाक है और स्पष्ट दिखता है। दूरी बताई सात किलोमीटर लेकिन वास्तव में ज्यादा ही है।
मन्दिर के कमरों के इंचार्ज से इस बारे में बात की तो उसने उत्साहित किया। पूरा रास्ता समझाते हुए बताने लगा कि पहले वहां उधर मोबाइल टावरों के पास जाना, वहां से बायें मुडकर और ऊपर चढकर उन बडे बडे पेडों के नीचे से रास्ता जाता है। वहां से एक नाले के साथ साथ ऊपर चढते हैं तो छोटा सा मैदान आता है, जिसमें गडरियों की टूटी फूटी झौंपडियां भी हैं। चढाई जारी रखोगे तो एक बाबा की कुटिया पर पहुंचोगे। कुटिया चोटी के ठीक नीचे है। एक बार कुटिया तक पहुंच गये तो समझो चोटी तक ही पहुंच गये।
हां, बाबा के लिये थोडी सी सब्जी भी लेते जाना। बडे भले आदमी हैं। सर्दियों भर भी वहीं रहते हैं। जाओगे तो समझ जाओगे कि मैं क्यों उनकी प्रशंसा कर रहा हूं। वहीं खाना भी खा लेना।
आज मन्दिर के सभी कमरे बुक थे। इसलिये पास ही में बुशहर होटल में कमरा लेना पडा। चार सौ से मोलभाव होकर तीन सौ में मिल गया- अटैच बाथरूम गीजर के साथ और टीवी नहीं। टीवी का मुझे करना भी क्या था?
बैग से सारा सामान जैसे कपडे, लैपटॉप, सभी चार्जर आदि यहीं छोड दिये। खाली बैग लेकर बाजार में गया। एक किलो आलू, पाव-पाव भर प्याज-टमाटर और डेढ किलो के आसपास बन्दगोभी ले लिये। कुल सत्तर रुपये लगे। पता नहीं बाबा प्याज खाते हैं या नहीं। यहां इस सन्देह के बारे में किसी से भी पूछता तो पता चल जाता लेकिन फिर सोचा कि नहीं खाते होंगे तो प्याज वापस ले आऊंगा।
रंगोरी जाने वाली सडक पकडी और करीब आधा किलोमीटर चलकर स्टेडियम से जरा सा पहले बायें एक पगडण्डी ऊपर चढती दिखी। एक आदमी नीचे उतर रहा था, रास्ता पूछा तो यही पगडण्डी काम आई। पगडण्डी पर कदम बढाते ही जंगल शुरू हो गया। अकेला होने के कारण डर भी खूब लग रहा था। यह भालुओं का इलाका है। हिमालय में 2000 मीटर से 3500 मीटर तक की ऊंचाईयों पर जहां भी घने जंगल हैं, वहां भालू होने की प्रबल सम्भावना होती है। जंगल का राजा अगर शेर है तो भालू जंगल का राक्षस है। आप अगर ‘राजमहल’ में जाओगे तो हो सकता है कि राजा आपको दण्डित न करे लेकिन अगर ‘राक्षसमहल’ में चले गये तो पकडे जाने पर माफी नाम की कोई चीज नहीं। भालू इंसान को खाता नहीं है, लेकिन इतना तोड-फोड देता है कि चलने फिरने लायक हो गये तो समझना पुनर्जन्म हो गया।
तभी पीछे एक आदमी और आता दिखाई दिया। रास्ता पूछा तो बातचीत का सिलसिला शुरू हो गया। कुछ दूर चलने पर उसने कहा कि अब मेरा बगीचा आने वाला है। मैं यहीं रुक जाऊंगा। तुम्हें आगे जाकर पानी की टंकी मिलेगी, बायें मुड जाना। सीधा रास्ता है। बगीचा यानी सेब का बागीचा।
पानी की टंकी आई। मैदानों की तरह यहां चार टांगों पर खडी टंकी नहीं हुआ करती। जमीन पर ही कुछ कमरे यानी टैंक बना दिये जाते हैं जिनमें ऊपर पहाड पर इधर उधर से पानी पाइपों में लाकर इकट्ठा किया जाता है और फिर नीचे आवश्यकतानुसार पाइपों से भेज दिया जाता है। इनकी सुरक्षा के लिये इनके चारों तरफ जाली भी लगा दी जाती है। यहां जाली की मरम्मत का काम चल रहा था। कमेरों से रास्ता पक्का कर लिया।
थोडा आगे जाकर जंगल खत्म हो गया और सेब के बगीचे दिखने लगे। बगीचों के उस तरफ कुछ घर भी दिखे। रास्ता घरों की तरफ ही जा रहा था।
ये गडरियों के घर थे। बाडे में भेडें बन्द थीं, गायें इधर उधर चर रही थीं। भेडों को भी खोलने की तैयारी चल रही थी। बाडा बिल्कुल सडा पडा था, बदबू आ रही थी।
यहां से आगे रास्ता अस्पष्ट हो गया। गडरिये से पूछा तो बोला कि साथ ही चलो, मेरी भेडें भी उधर ही जा रही हैं। अभी तक मैंने जीपीएस चालू नहीं किया था। सोचा कि वापसी में जब चलने की गति तेज रहेगी, तो जीपीएस रिकार्डिंग मोड में चला दूंगा। एक एक कदम की जानकारी रिकार्ड हो जायेगी। लेकिन यह मेरी भूल थी। मुझे अभी भी जीपीएस चालू कर लेना चाहिये था, कम से कम ऊंचाई तो पता चलती रहती।
गडरिये और उसकी भेडों के साथ साथ चलता रहा। एक तरफ जंगल तो दूसरी तरफ सेब की क्यारियां। सेब ही यहां की अर्थव्यवस्था का मुख्य भाग है, इसलिये इसकी खूब खातिरदारी की जाती है। तने को जमीन से दो फीट ऊपर तक दवाईयां मिलाकर सफेद रंग से रंगा जाता है ताकि कीडे न लगें। नारकण्डा के आसपास सेब को तिरपाल से ढका देखा ही था।
एक भेड से मित्रता हो गई। वह बार बार मेरे पैरों में आकर खडी हो जाती। ना टक्कर मारती, ना खुजलाती, ना धकेलती, बस खडी हो जाती। मैं चल देता तो पीछे पीछे चल देती, रुक जाता तो रुक जाती।
एक स्थान पर गडरिये ने कहा कि यहां से दाहिने ऊपर चढ जाओ। वे वहां बडे बडे दरख्त दिख रहे हैं, उनके नीचे से रास्ता है। ऊपर चढते जाओगे तो एक छोटा सा मैदान मिलेगा, मैदान के एक सिरे पर उजडी झौंपडियां हैं। थोडा ही और ऊपर जाकर एक झौंपडी और मिलेगी। वहां से बाबाजी की कुटिया दिख जाएगी। आगे का रास्ता बाबाजी बता देंगे।
मैंने गडरिये और उसकी भेडों को छोडकर ऊपर की ओर राह पकडी। थोडा ऊपर गया तो गडरिये की आवाज सुनाई दी। वह चिल्लाकर कह रहा था- अगर रास्ता भटक जाओगे तो यहां से थोडा बायें एक नाला है, उसके साथ साथ चलते जाना। कुटिया नाले के पास ही है।
उसका यह दूसरा मार्गदर्शन काम आया। पक्का रास्ता तो दूर, धुंधली पगडण्डी तक नहीं दिखी। मैं रास्ता भटकने के डर से सबसे पहले बायें चलकर उस नाले तक पहुंचा, जिसके बारे में उसने बताया था कि इसे मत छोडना। इसमें काफी पानी था। अपनी मर्जी से पार भी नहीं किया जा सकता था। जंगल तो खैर था ही।
नाले के साथ साथ ऊपर चढना शुरू किया। चढाई तीव्र थी, इसलिये एक डण्डा ले लिया। जंगल में भला डण्डों की क्या कमी?
एक मैदान मिला। इसके एक सिरे पर टूटी झौंपडी भी दिख गई। मैदान के बीचोंबीच जमीन के अन्दर से पानी निकल रहा था। हिमालय में ऐसे नजारे आम हैं। लेकिन पगडण्डी कहीं नहीं दिखी। मैंने मैदान पार करके पुनः नाले के साथ साथ बढना शुरू कर दिया। मैं पगडण्डी से दसेक मीटर दूर से निकल गया था, यह बात वापसी में पता चली।
पहले भी कहा है कि हिमालय पर इस ऊंचाई पर भालुओं की भरमार है। यह बात मेरे दिमाग में थी। घोर जंगल और कोई आदमजात नहीं। ऊपर से यह नाला आसपास के भालुओं के लिये पेयजल का शानदार स्त्रोत है। बुरी तरह डरा हुआ था मैं। बार बार ‘भालू’ दिख भी जाते।
तभी कुछ दूर कुछ सफेद सी छत दिखाई पडी। छत देखते ही सारा डर काफूर हो गया। बाबाजी की कुटिया आ गई। इसके पास गया तो पता चला यह बर्फ थी। आगे यहां वहां बर्फ मिलने लगी। कई जगहों पर बर्फ से होकर भी निकलना पडा। 3500 मीटर से कम क्या रही होगी ऊंचाई? जंगल होने के कारण हवा नहीं लग रही थी। पसीने से सारे कपडे भीगे हुए थे। मैं मात्र एक तौलिये के अलावा कुछ भी साथ नहीं लाया था। पछता रहा था।
जब बर्फ बढने लगी तो मन में आया कि वापस चलो। लेकिन कमर पर लटके बैग में आलू गोभी भी दिखते कि इन्हें इतनी दूर ढोकर लाया हूं, ठिकाने पर तो पहुंचनी ही चाहिये। चल थोडा और देख ले। नहीं तो सारी सब्जी यहीं छोड दूंगा, भालू खा लेंगे।
जब नाले के साथ साथ ही एक तीव्र चढाई चढ रहा था तो पीछे निगाह चली गई। मैं चौकस होकर चल रहा था। पेडों की चोटियां भी मेरी निगाह से नहीं बच रही थीं। भालू कहीं भी हो सकता है, यही डर था बस। पीछे निगाह गई तो फिर से एक छत दिखी। बर्फ भी यहां वहां छिटकी हुई थी। सोचा कि कहीं इस बार भी तो बर्फ नहीं है। कुछ नीचे उतरकर गौर से देखा तो खुशी का ठिकाना नहीं रहा। वास्तव में वहां दो कुटियां थीं।
बाबाजी से जब मैंने कहा कि मैं कुछ सब्जियां लाया हूं तो तुरन्त बोले कि जूते उतारकर ऊपर आ जाओ। मैं ऊपर पहुंचा तो अन्दर कमरे के बीचोंबीच आग जल रही थी। यह हवनकुण्ड था लेकिन अत्यधिक शीत के कारण इसमें हमेशा आग जलाकर गर्मी रखी जाती है। खाना भी इसी पर बनाया जाता है।
जाते ही बाबाजी ने चाय पिलाई- पाउडर के दूध की। स्वयं नहीं पीते लेकिन आगन्तुकों को पिलाते हैं। इसके बाद फक्कड-भोज बनाने पर सहमति बनी। फक्कड-भोज यानी खिचडी। आलू, बन्दगोभी तो मैं ले गया था, बाबा ने चावल और थोडी सी दाल भी मिला दी। मैंने पूछा कि क्या आप प्याज खा लेते हो? बोले कि खाता नहीं हूं लेकिन कल से प्याज की इच्छा हो रही थी, इसलिये आज खाऊंगा। उन्होंने बताया कि नमक नहीं खाता, इसलिये खिचडी में नमक नहीं डलेगा, बाद में मुझे अलग से डालना पडेगा।
खिचडी मेरा पसन्दीदा भोजन है। दिल्ली में अकेला रहता हूं, तो ज्यादातर गुजारा इसी खिचडी पर ही होता है। आज इसकी इज्जत और बढ गई- फक्कड-भोज के कारण। पांच-चार चीजें डालो और पका लो। भोज तैयार। आज यहां भी छौंक मैंने ही लगाया। हवनकुण्ड के ऊपर लोहे की जालियां रखकर कुकर को सैट किया गया। और ऐसा छौंक लगाया कि बाबा ने भी प्रशंसा की।
बाबा से मैंने पूछा कि आप कहां के रहने वाले हो। मुकरने वाली मुद्रा में आ गये तो मैंने प्रश्न वापस ले लिया। बोले कि भारत का रहने वाला हूं। और राज्य-जिला? अभी यह शरीर हिमाचल में है तो हिमाचली हूं। उनका अपने मूलस्थान को बताने का इरादा नहीं था। बोलचाल से मुझे गुजराती लगे।
घर से कैसे भागे?
ग्यारहवीं में था, तभी घर छोडने का मन था। इस बारे में मां से जिक्र किया था एक बार, लेकिन उन्होंने कहा कि आज के बाद यह बात कभी मत मत कहना। आखिरकार जब रुका नहीं गया तो आधी रात को घर से निकल पडा। कलकत्ता पहुंचा ट्रेन से। सुना था कि वहां सुन्दरवन है। सुन्दरवन है तो सुन्दर ही होगा। कलकत्ता पहुंचा तो सुन्दरवन की असलियत पता चली। वो तो शेरों से भरा दलदली इलाका है, जहां मनुष्य के रहने का कोई मतलब नहीं। फिर मेरा कलकत्ता में क्या काम था भला? सीधा हरिद्वार पहुंचा। ऋषिकेश में गंगा किनारे एक साधु के यहां रहने लगा। सिलसिला चल पडा। काफी समय नर्मदा किनारे भी बिताया है धावडीकुण्ड में। फिर केदारनाथ के पास भी रहा हूं। अब यहां हूं पिछले डेढ साल से। सामने हमेशा श्रीखण्ड कैलाश दिखता है, पीछे किन्नर कैलाश जी हैं, बायें यमुनोत्री वाली बर्फीली पहाडियां हैं। इससे रमणीक स्थान और कहां? और क्या चाहिये?
यहां फोन नेटवर्क काम करता है। बाबा के पास तीन फोन हैं। साधु ऐसे ही होने चाहिये। दुनिया के साथ कदम मिलाकर चलने वाले। मैंने कहा कि आप उन परम सिद्ध महात्माओं से सत्तर गुने अच्छे हैं, जो हिमालय की दुर्गम गुफाओं में जाकर तपस्या करते हैं और उनसे भी सैंकडों गुना अच्छे हैं जो दुनिया में रहते हुए भी दुनिया से सम्बन्ध नहीं जोड पाते। दूसरी बात कि साधु एक नम्बर के घुमक्कड होते हैं। इसलिये भी मेरी दृष्टि में वे उत्तम हैं। कुछ लोग साधुओं को देखते ही उनके अवगुण ढूंढना शुरू कर देते हैं और उन्हें ढोंगी सिद्ध कर देते हैं, यह मानसिकता की बात है बस।
ज्यादातर लोगों के लिये साधु का अर्थ है एक ऐसा इंसान जो भगवा ढीले ढाले कपडे पहने हो, दिनरात भजन में लीन रहता हो और दुनियादारी से वास्ता न रखता हो। पिछले साल जब मैंने तपोवन से लौटकर मौनी बाबा के बारे में लिखा और कहा कि हमसे बिछडते समय बाबा की आंखों में आंसू थे, तो एक मित्र की टिप्पणी थी- तो बाबा में अभी भी मोह बचा हुआ है। लोगों के लिये साधु का अर्थ है एकदम भावशून्य, भावनाशून्य, विचारशून्य इंसान।
खैर, बाबा के पास एक कॉल आई। यह नीचे किसी गांव से आई थी और पूछा गया था कि उनकी पत्नी इतने साल की है, ऐसे ऐसे मामला है, लडका होगा या लडकी। बाबा ने बाद में बताने की बात कहकर फोन काट दिया। मुझसे कहने लगे कि पुरानी भारतीय विद्या बडी जबरदस्त थी। वे बता देते थे कि लडका होगा या लडकी। मैंने कहा कि यह कोई मुश्किल नहीं है। गांव की बडी बूढियां भी इस तरह की सटीक भविष्यवाणियां कर दिया करती हैं। डॉक्टर तो खैर करते ही हैं। लेकिन यह बताओ कि वो इस बात को पूछ क्यों रहा है?
- जिज्ञासा होती है अपनी अपनी। कुछ लोगों को लडके की चाहत होती है, कुछ को लडकी की।
- ठीक है। अगर इस आदमी को लडके की चाहत है और पता चला कि गर्भ में लडकी है, तो क्या होगा?
- करेगा कुछ इंतजाम। गर्भपात करायेगा और अगली बार कोशिश करेगा।
- और इस गर्भपात का पाप आपको लगेगा। बडा भीषण पाप होता है यह। पता है आपको?
- हां, लेकिन क्या किया जा सकता है?
- जन्म से पहले लिंगजांच कराना कानूनी दृष्टि से भी अपराध है। बडे बडे डॉक्टर जेल चले जाते हैं इस काम को करके। अगर आप भी जन्म से पहले लिंगजांच करते हैं तो यह कानून आप पर भी लागू होता है और आप भी जेल में जाने योग्य अपराधी बन जाते हो। ... आप एक समाज में रह रहे हो। नीचे के लोग आपके बारे में अपशब्द तक नहीं सुन सकते। पूजा करते हैं आपकी। आपका दायित्व है कि समाज की ऐसी बीमारियों को दूर करने में आगे आयें। कोई अगर इस तरह की बात पूछता है तो उसे ऐसी ऐसी सुना दें कि वो अगली बार इस बारे में सोचते हुए भी हीन भावना महसूस करे।
मैंने बडी कांटे वाली बात सुना दी बाबा को। ये लोग समाज सुधारक हैं, समाज बिगाडक भी बन सकते हैं। ये ही समाज की बीमारियों को भगाने की पहल करेंगे तो समाज भी इनके पीछे हो लेगा। यह बात बाबा की समझ में आ गई।
बाबा ने बताया कि जिस नाले के साथ साथ मैं यहां तक आया हूं, उसके उस पार भालुओं का इलाका है। उधर बडी बडी चट्टानें हैं, तो भालुओं को छिपने के लिये गुफाएं मिल जाती हैं। पानी के लिये नाले तक आते हैं और कभी कभी इस पार भी देखे गये हैं। कोई भी जानवर इंसान पर हमला तभी करता है जब अचानक दोनों आमने-सामने आ जाते हैं। जानवर सोचता है कि इंसान मुझ पर हमला करेगा, तो वो खुद ही हमला कर देता है। इससे बचने का सही तरीका है कि आवाज करते हुए चलें। हर जेब में मोबाइल हैं, अधिकतम आवाज में संगीत बजाकर चलना चाहिये। जानवरों के कान बडे शक्तिशाली होते हैं। वे अगर रास्ते में होंगे भी तो दूर से आती संगीत ध्वनि को सुनकर हट जायेंगे।
एक बार बाबा के किसी अमीर भक्त ने पूछा कि वो एक उपहार देना चाहता है। बाबा ने तुरन्त कहा कि उपहार दो, मगर मेरी पसन्द का। चालीस हजार का सैमसंग का टैबलेट है आज बाबा के पास। इंटरनेट भी चलाते हैं। बडी शानदार बात बताई कि इसमें मौसम की भविष्यवाणी मेरे बडे काम की है। जब भी सराहन में अच्छी धूप निकलने की भविष्यवाणी होती है तो मैं कपडे धो लेता हूं और केश भी। पहले मैं कपडे धोता था, केश धोता था, पता चला कि कई कई दिनों तक धूप ही नहीं निकली तो बडी परेशानी होती थी। इसी में एक वीडियो दिखाई जो जनवरी में बनाई थी उन्होंने। इसमें कुटिया के चारों ओर चार-चार फीट बर्फ में संकरा रास्ता खुद बनाकर उसमें टहलते हुए चल रहे थे। उस दौरान यहां कोई नहीं आता। बर्फ से पहले ही भक्त लोग कुंटलों लकडी और पर्याप्त राशन इकट्ठा कर देते हैं।
एक भक्त ने सोलर पैनल दे दिया। इसी से कुटिया में प्रकाश होता है और मोबाइल-टैबलेट चार्ज होते हैं।
शाम पांच बजे तक यहीं बैठा रहा। अब कहां बशल चोटी जाने का समय बचा था? वापस सराहन जाना ही उपयुक्त था।

जंगल में

सेब के बौराये पेड और बैकग्राउण्ड में श्रीखण्ड पर्वतमाला।

गडरिये का घर


सेब के पेडों के तने दवाईयों से रंगे जाते हैं ताकि कीडे न लगें।




कुछ ऊपर जाने पर यह मैदाना आया था जिसके एक सिरे पर कहीं टूटी हुई झौंपडी है।



रास्ता तो भटक ही गया था। ऐसे ही बढते जाना है।

इसी नाले के साथ साथ

एक जगह पीछे मुडकर देखा तो झुरमुटों के पीछे यह दिखाई दी।

यह रही बाबा की कुटिया

बाबाजी




कुटिया के आसपास बर्फ



अगला भाग: सराहन में जानलेवा गलती

1. सराहन की ओर
2. सराहन से बशल चोटी तथा बाबाजी
3. सराहन में जानलेवा गलती
4. शिमला-कालका रेल यात्रा

Comments

  1. राम राम जी, खूबसूरत अति सुन्दर, क्या नज़ारे है हिमालया के. असली संत तो यही होते हैं, दीन दुनिया, ऐशी आराम से दूर..और नीरज भाई असली घुमक्कड तुम ही हो, जंहा पैर निकल पड़े वही पहुँच गए. लगे रहो और हमें भी घुमाते रहो धन्यवाद, वन्देमातरम...

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  2. राम राम जी, बहुत ही सुन्दर पोस्ट हैं, हिमालया का, सेवो के बागों का, विहंगम नज़ारा, असली बाबा तो ऐसे ही होते हैं. फक्कड, मस्त मलंग. नीरज भाई घुमक्कडी में लगे रहो और हमें भी घुमाते रहो. धन्यवाद. वन्देमातरम...

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  3. बिलकुल सही नीरज भाई !

    साधु ऐसे ही होने चाहिये। दुनिया के साथ कदम मिलाकर चलने वाले !

    ये लोग समाज सुधारक हैं, समाज बिगाडक भी बन सकते हैं। ये ही समाज की बीमारियों को भगाने की पहल करेंगे तो समाज भी इनके पीछे हो लेगा।

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  4. बहुत बढ़िया यात्रा विवरण नीरज. बाबाजी को नीरज बाबा का प्रवचन बिलकुल सटीक था.

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  5. वाह, यह पढ़कर आनन्द आ गया..नेटवर्क हो तो ब्लॉगिंग भी कर सकते हैं।

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  6. Bahut badhiya..maza aya padh ke.. Babaji tho ek dum HI FI wale hain...inse milne ki talab jaag gai..

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  7. हा..हा...भालू वाली बात ने मजा बाँध दिया... राजा एक बार छोड़ दे, राक्षस नहीं.....:D

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  8. naseeb wale ho neeraj babu jo aise aise babaon se mil paate ho............

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  9. main bhi such shimla neeraj ji ke sath ghum lun, badha maja aya,, age shimla tak dekhana hain setting on chair,,

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  10. स्वामी जी ओमानन्द सरस्वती की लिखी पुस्तक "मांस मनुष्य का भोजन नहीं " में शाकाहारी जाटों के बारे में बहुत कुछ लिखा है । पूरी पुस्तक http://www.jatland.com/home/Human_Beings_are_Vegetarians पर उपलब्ध है । पुस्तक के कुछ अंश :
    श्री मास्टर चन्दगीराम जी सब पहलवानों को हराकर दो बार (सन् १९६२ और १९६८ ई०) हिन्दकेसरी विजेता बने और दो बार (सन् १९६८ और १९६९ ई०) भारतकेसरी विजेता बने । इन्होंने बड़े बड़े भारी भरकम प्रसिद्ध मांसाहारी पहलवानों को पछाड़कर दर्शकों को आश्चर्य में डाल दिया । जैसे मेहरदीन पहलवान मांसाहारी है । दोनों बार भारतकेसरी की अन्तिम कुश्ती इसी के साथ मा० चन्दगीराम की हुई है और दोनों बार मा० चन्दगीराम शाकाहारी पहलवान जीता तथा मांसाहारी मेहरदीन हार गया । एक प्रकार से यह शाकाहारियों की मांसाहारियों से जीत थी । प्रथम बार जिस समय मेहरदीन के मुकाबले पर मा० चन्दगीराम जी अखाड़े में कुश्ती के लिये निकले तो उनके आगे बालक से लगते थे । किसी को भी यह आशा नहीं थी कि वे जीत जायेंगे ।
    क्योंकि चन्दगीराम की अपेक्षा मेहरदीन में १६० पौंड भार अधिक है । ३५ मिनट तक घोर संघर्ष हुवा । इसमें मेहरदीन इतना थक गया कि अखाड़े में बेहोश होकर गिर पड़ा, स्वयं उठ भी नहीं सका, आर्य पहलवान रूपचन्द आदि ने उसे सहारा देकर उठाया । यदि मेहरदीन में मांस खाने का दोष नहीं होता तो चन्दगीराम उसे कभी भी नहीं हरा सकता था । मांसाहारी पहलवानों में यह दोष होता है कि वे पहले ५ वा १० मिनट खूब उछल कूद करते हैं, फिर १० मिनट के पीछे हांफने लगते हैं । उनका दम फूल जाता है और श्वास चढ़ जाते हैं । फिर उनको हराना वामहस्त का कार्य है । गोश्तखोर में दम नहीं होता, वह शाकाहारी पहलवान के आगे अधिक देर तक नहीं टिक सकता । इसी कारण सभी मांसाहारी पहलवान थककर पिट जाते हैं, मार खाते हैं । इसी मांसाहार का फल मेहरदीन को भोगना पड़ा । यह १९६८ में हुई कुश्ती की कहानी है । इस बार १९६९ ई० में दिल्ली में पुनः भारत केसरी दंगल हुवा और फिर अन्तिम कुश्ती मा० चन्दगीराम और मेहरदीन की हुई । यह कुश्ती मैंने प्रोफेसर शेरसिंह की प्रेरणा पर स्वयं देखी । मैं काशी जा रहा था । मेरे पास समय नहीं था, चलता हुआ कुछ देख चलूं, यह विचार कर वहां पहुँच गया । उस दिन बड़ी भारी भीड़ थी । कुश्ती देखने के लिए दिल्ली की जनता इस प्रकार उमड़ पड़ेगी, मुझे यह स्वप्न में भी ध्यान नहीं आ सकता था । वैसे यह दंगल २८ अप्रैल से चल रहा था । इस भारत केसरी दंगल में क्रमशः सुरजीतसिंह, भगवानसिंह, सुखवन्तसिंह तथा रुस्तमे अमृतसर बन्तासिंह को १० मिनट के भीतर अखाड़े से बाहर करने वाला हरयाणा का सिंहपुरुष अखाड़े में उतरा । उधर जिससे टक्कर हुई थी, वह उपविजेता मेहरदीन सम्मुख आया । दोनों में टक्कर होनी थी । बड़े-बड़े पहलवान कुश्ती जीतकर पुनः उसी प्रतियोगिता में भाग नहीं लेते । क्योंकि पुनः हार जाने पर सारे यश और कीर्ति के धूल में मिलने का भय रहता है । किन्तु कौन चतुर व्यक्ति हरयाणे के इस नरकेसरी की प्रशंसा किये बिना रह सकता है ? जो अपनी शक्ति और बल पर आत्मविश्वास करके पुनः भारतकेसरी के दंगल में कूद पड़ा और अपने द्वारा हराये हुये मेहरदीन से पुनः टकराने के लिये अखाड़े में उतर आया । इधर मा० चन्दगीराम को अपने भुजबल पर पूर्ण विश्वास था । उसने गतवर्ष इसी आधार पर समाचार पत्रों में एक बयान दिया था –
    “भीमकाय मेहरदीन पर दाव कसना खतरे से खाली नहीं था । भारतकेसरी की उपाधि मैंने भले ही जीत ली, पर मेहरदीन के बल का मैं आज भी लोहा मानता हूँ । पर इतना स्पष्ट कर दूं कि अब वह मुझे अखाड़े में चित्त नहीं कर पायेगा । मैंने उसकी नस पकड़ ली है और अब मैं निडर होकर उससे कुश्ती लड़ सकता हूं और इन्हीं शब्दों के साथ मैं मेहरदीन को चुनौती देता हूं कि वह जब भी चाहे, जहां उसकी इच्छा हो, मुझ से फिर कुश्ती लड़ सकता है ।"

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  11. स्वामी जी ओमानन्द सरस्वती की लिखी पुस्तक "मांस मनुष्य का भोजन नहीं " में शाकाहारी जाटों के बारे में बहुत कुछ लिखा है । पूरी पुस्तक http://www.jatland.com/home/Human_Beings_are_Vegetarians पर उपलब्ध है । पुस्तक के कुछ अंश :
    "मेरी जीत का रहस्य कोई छिपा नहीं, मैं शक्ति (स्टेमिना) और धैर्य के बल्पर ही अपने से अधिक शक्तिशाली और भारत के रुस्तमे-हिन्द मेहरदीन को पछाड़ने में सफल रहा ।”
    “मुझे पूरा विश्वास था कि यदि दस मिनट तक मैं मेहरदीन के आक्रमण को विफल करने में सफल हो सका तो उसे निश्चय ही हरा दूंगा । आपने ही क्या, दुनियां ने देखा कि आरम्भ के १०-१२ मिनट तक मैं मेहरदीन पर कोई दाव लगाने का साहस नहीं कर सका । १३वें मिनट में मेहरदीन ने ज्यों ही पटे निकालने का यत्न किया, त्यों ही मैंने उसकी कलाई पकड़कर झटक दी । वह औंधे मुंह अखाड़े पर गिरता-गिरता बचा और दर्शकों ने दाद देकर (प्रशंसा करके) मेरे साहस को दूना कर दिया । कई बार जनेऊ के बल पर मैंने नीचे पड़े मेहरदीन को चित्त करने का यत्न किया । यदि आपने ध्यान किया हो तो मैं निरन्तर अपने चेहरे से मेहरदीन की स्टीलनुमा (फौलादी) गर्दन को रगड़ता रहा था ।”
    “मैं हरयाणे के एक साधारण किसान परिवार का जाट हूं । स्वर्गीय चाचा सदाराम अपने समय के एक नामी (प्रसिद्ध) पहलवान थे । मरते समय उन्होंने मेरे पिता श्री माड़ूराम से कहा था - इसे दो मन घी दे दो, यही पहलवानी में वंश का नाम उज्ज्वल कर देगा ।”
    “मैं किसी प्रकार से इण्टर पास कर आर्ट एण्ड क्राफ्ट में प्रशिक्षण ले मुढ़ाल गांव के सरकारी स्कूल में खेलों का इन्चार्ज मास्टर लग गया । मैं बचपन से उदास रहता था । प्रायः यही सोचा करता था कि संसार में निर्बल मनुष्य का जीवन व्यर्थ है ।”
    उपर्युक्त कथन से यह प्रकट होता है कि अपने चचा की प्रेरणा से ये पहलवान बने । पहलवानी इनके घर में परम्परा से चली आती थी । वैसे तो तीस-चालीस वर्ष पूर्व हरयाणे के सभी युवक-युवती कुश्ती का अभ्यास करते थे । उसी प्रकार के संस्कार मास्टर जी के थे, अपने पुरुषार्थ से वे इतने बड़े निर्भीक नामी पहलवान बन गये । इस प्रकार एक वर्ष की पूर्ण तैयारी के बाद १९६९ में होने वाले दंगल में पुनः १२ मई के सायं समय भारत केसरी दंगल में मेहरदीन से आ भिड़े । आज भारत केसरी का निर्णायक दंगल था । इससे पूर्व इसी दिन हरयाणे के वीर युवक मुरारीलाल वर्मा “भारत कुमार” के उपाधि विजेता बने थे । यह भी पूर्णतया निरामिषभोजी विशुद्ध शाकाहारी हैं । यह भी सारे भारत के विद्यार्थी पहलवानों को जीतकर भारतकुमार बना था । अब विख्यात पहलवान दारासिंह की देखरेख में (निर्णायक के रूप में) भारत-केसरी उपाधि के लिये मल्ल्युद्ध प्रारम्भ हुआ । प्रारम्भ में ही मा० चन्दगीराम ने अपने फौलादी हाथों से मेहरदीन के हाथ को जकड़ लिया । मेहरदीन पहली पकड़ में ही घबरा गया । उसे अपने पराजय का आभास होने लगा । जैसे-तैसे टक्कर मारकर हाथ छुड़ाया किन्तु फिर दूसरी पकड़ में वह हरयाणे के इस शूरवीर के पंजे में फंस गया, वह सर्वथा निराश हो गया । विवश होकर केवल ७ मिनट ४५ सैकिण्ड में उससे छूट मांग ली अर्थात् बिना चित्त हुये उसने आगे लड़ने से निषेध कर दिया और अपनी पराजय स्वीकार कर भीगे चूहे के समान अखाड़े से बाहर हो गया । दर्शकों को भी ऐसा विश्वास नहीं था कि विशालकाय मेहरदीन हलके फुलके मा० चन्दगीराम से इतना घबरा कर बिना लड़े अपनी पराजय स्वीकार कर अखाड़ा छोड़ देगा । दर्शकों को तो भय था कि कभी चन्दगीराम हार न जाये । लोग उसकी जीत के लिये ईश्वर से प्रार्थना कर रहे थे । हार स्वीकार करने से पूर्व दारासिंह निर्णायक ने मेहरदीन को कुश्ती पूर्ण करने को कहा था, किन्तु वह तो शरीर, मन, आत्मा सबसे पराजित हो चुका था । उसके पराजय स्वीकार करने पर निर्णायक दारासिंह ने हजारों दर्शकों की उपस्थिति में मास्टर चन्दगीराम को विजेता घोषित कर दिया । फिर क्या था, तालियों की गड़गड़ाहट तथा मा० चन्दगीराम के जयघोषों से सारा क्रीडाक्षेत्र गूंज उठा । श्री विजयकुमार मल्होत्रा मुख्य कार्यकारी पार्षद ने दूसरी बार विजयी हुये मा० चन्दगीराम को भारतकेसरी के सम्मानजनक गुर्ज से अलंकृत किया । सारे भारत में इनके विजय की धूम मच गई । स्थान-स्थान पर स्वागत होने लगा । इनके अपने ग्राम सिसाय (जि० हिसार) में भी इनका बड़ा भारी स्वागत हुवा । उस स्वागत समारोह में मैं स्वयं भी गया और मा० चन्दगीराम को इनके दोबारा विजय पर स्वागत करते हुये बधाई दी । गत वर्ष प्रथम भारत केसरी विजय पर हरयाणे के आर्य महासम्मेलन पर सारे आर्यजगत् की ओर से भारतकेसरी मा० चन्दगीराम तथा हरयाणाकेसरी आर्य पहलवान रामधन - इन दोनों का रोहतक में स्वागत किया था ।

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  12. bahut hi achcchi post hai , vivran padh kar maza aaya , bahut enjoy kiya padhte hue . pics bhi bahut sundar thi , dhanyawad .

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  13. बहुत सुंदर जगह ....साधू को नमन और इतनी सी सुंदर जगह रहने के लिए जलन भी ...काश स्त्री न होती तो ऐसी रमणीय जगह रहकर जीवन गुजारती ...पहली बार सेव के की बोरे देखि ..

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