Skip to main content

सारनाथ

इस यात्रा वृत्तान्त को शुरू से पढने के लिये यहां क्लिक करें
सात बजे काशी विश्वनाथ एक्सप्रेस वाराणसी पहुंची। यह दो घण्टे से भी ज्यादा लेट थी। इसके लेट होने का फायदा यह निकला कि हमें जहां पांच बजे ही उठना पडता, अब सात बजे सोकर उठे, ज्यादा नींद ले ली।
स्टेशन के बाहर ही चन्द्रेश भाई इंतजार कर रहे थे। चन्द्रेश वाराणसी से करीब पच्चीस किलोमीटर दूर अपने गांव में रहते हैं। इसके बावजूद भी वे बाइक लेकर सुबह छह बजे से पहले कैंट स्टेशन आ गये। वाराणसी जंक्शन को कैंट भी कहते हैं।
अब हम दोनों चन्द्रेश के अधीन थे। उन्होंने सबसे पहले एक कमरा दिलाया, सामान रखा, नहाये धोये और सारनाथ के लिये निकल पडे। सबसे अच्छी बात थी कि उन्होंने दो बाइकों का इंतजाम कर लिया था। बाइक से सारनाथ गये।
सारनाथ एक बौद्ध तीर्थ स्थल है। बोधगया में जब महात्मा बुद्ध को ज्ञान प्राप्त हो गया तो उन्होंने पहला उपदेश सारनाथ में दिया था। चूंकि वाराणसी पहले से ही भयंकर हिन्दू तीर्थ रहा है तो जरूर काशी वालों की तथा बुद्ध की भिडन्त हुई होगी। हो सकता है कि बुद्ध काशी ही जा रहे हों और उन्हें नास्तिक घोषित करके काशी के बाहर ही रोक लिया गया हो। देखा जाये तो सारनाथ काशी से बाहर ही है। जिसे ज्ञान प्राप्त हो जाता है, वो पत्थर की मूर्तियों में भगवान को नहीं ढूंढता, इसलिये काशी वालों ने उन्हें नास्तिक बताया होगा।
सारनाथ में सबसे पहले चौखण्डी स्तूप है। हमें यहां कोई भी पर्यटक नहीं दिखा। इसका चक्कर काटकर और दो चार फोटो खींचकर यहां से निकल चले।
सारनाथ में सबसे पहले एक पुरातत्व संग्रहालय है। संग्रहालय में घूमने में उसे ही मजा आता है जिसे उसमें रखी चीजों का सिर-पैर मालूम हो। चूंकि मुझे इतिहास की उतनी ज्यादा जानकारी नहीं है, इसलिये संग्रहालय में ठण्डी एसी के अलावा ज्यादा अच्छा नहीं लगा। अगर मुझे खासकर उस जमाने की थोडी सी भी जानकारी होती, तो आनन्द आ जाता इस म्यूजियम में घूमने में।
पता नहीं क्यों यहां फोटोग्राफी पर प्रतिबन्ध है। बैग, कैमरा, मोबाइल सबकुछ गेट पर ही रखवा लिये। फोटो खींचते हैं तो याद आ जाता है बाद में कि यह अशोक के काल की चीज है, अशोक इस सन से इस सन तक राजा रहा आदि आदि। लेकिन अब कुछ भी याद नहीं आ रहा। और संग्रहालय में घूमने का टिकट भी पचास रुपये का है।
इसके बराबर में ही धमेख स्तूप व मूलगन्ध कुटी है। चूंकि बात हजारों साल पुरानी है, इसलिये अब सब टूटा हुआ है, हालांकि भारतीय पुरातत्व विभाग ने काफी मेहनत भी कर रखी है।
मूलगन्ध कुटी के बराबर में एक मिनी चिडियाघर है या कहना चाहिये कि मृग विहार है। यहां छोटा सा तालाब भी है जिसमें नौका विहार भी होता है।
दोपहर होते होते हम चारों यहां से निकल गये अपने अगले ठिकाने गंगा के घाटों की तरफ।


































अगला भाग: बनारस के घाट

लखनऊ- बनारस यात्रा
1.वर्ष का सर्वश्रेष्ठ घुमक्कड- नीरज जाट
2.बडा इमामबाडा और भूल-भुलैया, लखनऊ
3.सारनाथ
4.बनारस के घाट
5.जरगो बांध व चुनार का किला
6.खजूरी बांध और विन्ध्याचल

Comments

  1. नीरज बाबू हिंदू ओर बोद्ध में कोई फर्क नहीं हैं, दोनों एक ही सिक्के के दो पहलु हैं. भगवान बुद्ध, भगवान विष्णु के दसवे अवतार माने गए हैं. ये तो कुछ सिरफिरे लोग ही हैं जो आपस में लड़ते हैं...

    ReplyDelete
  2. समय के साथ लेखनी, वर्णन एवें चित्रों में प्रौढता आ रही है. हमारी शुभकामनाएं हैं, ऐसे ही प्रगति करते रहिये.

    ReplyDelete
  3. This comment has been removed by the author.

    ReplyDelete
  4. आपकी ये पोस्ट पढ़कर मुझे बहुत अच्छा लगा। मेरे नए पोस्ट "श्रद्धांजलि : सदाबहार देव आनंद " पर भी आप एक बार अवश्य पधारे। धन्यवाद
    मेरा ब्लॉग पता है:- harshprachar.blogspot.com

    ReplyDelete
  5. वाह... बेहतरीन फोटोग्राफ्स... मज़ा आया देखकर...

    ReplyDelete
  6. तपस्या करते हुए बहुत प्रसन्न लग रहे हो जाटराम .क्या सोच रहे थे ? हा हां हां . एक और बढ़िया लेख . आपकी रूपकुंड वाली यात्रा का बेसबरी से इन्तेज़ार है.

    ReplyDelete
  7. बहुत ही सुंदर वृतांत ....आभार

    ReplyDelete

Post a Comment

Popular posts from this blog

शिमला के फोटो

2 मई 2009, शनिवार। बीस दिन से भी ज्यादा हो गए थे, तो एक बार फिर से शरीर में खुजली सी लगने लगी घूमने की। प्लान बनाया शिमला जाने का। लेकिन किसे साथ लूं? पिछली बार कांगडा यात्रा से सीख लेते हुए रामबाबू को साथ नहीं लिया। कौन झेले उसके नखरों को? ट्रेन से नहीं जाना, केवल बस से ही जाना, पैदल नहीं चलना, पहाड़ पर नहीं चढ़ना वगैरा-वगैरा। तो गाँव से छोटे भाई आशु को बुला लिया। आखिरी टाइम में दो दोस्त भी तैयार हो गए- पीपी यानि प्रभाकर प्रभात और आनंद। ... तय हुआ कि अम्बाला तक तो ट्रेन से जायेंगे। फिर आगे कालका तक बस से, और कालका से शिमला टॉय ट्रेन से। वैसे तो नई दिल्ली से रात को नौ बजे हावडा-कालका मेल भी चलती है। यह ट्रेन पांच बजे तक कालका पहुंचा देती है। हमें कालका से सुबह साढे छः वाली ट्रेन पकड़नी थी। लेकिन हावडा-कालका मेल का मुझे भरोसा नहीं था कि यह सही टाइम पर पहुंचा देगी।

विशाखापटनम- सिम्हाचलम और ऋषिकोण्डा बीच

इस यात्रा वृत्तान्त को आरम्भ से पढने के लिये यहां क्लिक करें । 16 जुलाई 2014 की सुबह आठ बजे ट्रेन विशाखापट्टनम पहुंची। यहां भी बारिश हो रही थी और मौसम काफी अच्छा हो गया था। सबसे पहले स्टेशन के पास एक कमरा लिया और फिर विशाखापट्टनम घूमने के लिये एक ऑटो कर लिया जो हमें शाम तक सिम्हाचलम व बाकी स्थान दिखायेगा। ऑटो वाले ने अपने साले को भी अपने साथ ले लिया। वह सबसे पीछे, पीछे की तरफ मुंह करके बैठा। पहले तो हमने सोचा कि यह कोई सवारी है, जो आगे कहीं उतर जायेगी लेकिन जब वह नहीं उतरा तो हमने पूछ लिया। वे दोनों हिन्दी उतनी अच्छी नहीं जानते थे और हम तेलगू नहीं जानते थे, फिर भी उन दोनों से मजाक करते रहे, खासकर उनके जीजा-साले के रिश्ते पर। बताया जाता है कि यहां विष्णु के नृसिंह अवतार का निवास है। यह वही नृसिंह है जिसने अपने भक्त प्रह्लाद की उसके जालिम पिता से रक्षा की थी।

लद्दाख बाइक यात्रा- 13 (लेह-चांग ला)

(मित्र अनुराग जगाधरी जी ने एक त्रुटि की तरफ ध्यान दिलाया। पिछली पोस्ट में मैंने बाइक के पहियों में हवा के प्रेशर को ‘बार’ में लिखा था जबकि यह ‘पीएसआई’ में होता है। पीएसआई यानी पौंड प्रति स्क्वायर इंच। इसे सामान्यतः पौंड भी कह देते हैं। तो बाइक के टायरों में हवा का दाब 40 बार नहीं, बल्कि 40 पौंड होता है। त्रुटि को ठीक कर दिया है। आपका बहुत बहुत धन्यवाद अनुराग जी।) दिनांक: 16 जून 2015 दोपहर बाद तीन बजे थे जब हम लेह से मनाली रोड पर चल दिये। खारदुंगला पर अत्यधिक बर्फबारी के कारण नुब्रा घाटी में जाना सम्भव नहीं हो पाया था। उधर चांग-ला भी खारदुंगला के लगभग बराबर ही है और दोनों की प्रकृति भी एक समान है, इसलिये वहां भी उतनी ही बर्फ मिलनी चाहिये। अर्थात चांग-ला भी बन्द मिलना चाहिये, इसलिये आज उप्शी से शो-मोरीरी की तरफ चले जायेंगे। जहां अन्धेरा होने लगेगा, वहां रुक जायेंगे। कल शो-मोरीरी देखेंगे और फिर वहीं से हनले और चुशुल तथा पेंगोंग चले जायेंगे। वापसी चांग-ला के रास्ते करेंगे, तब तक तो खुल ही जायेगा। यह योजना बन गई।