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बनारस के घाटों के सिलसिले में हम सबसे पहले पहुंचे मणिकर्णिका घाट। इससे पहले जब सारनाथ से आ रहे थे तो एक फाटक से गुजरना पडा। फाटक बन्द था और कृषक एक्सप्रेस यहां से निकली थी। कृषक एक्सप्रेस लखनऊ से मण्डुवाडीह जाती है और गोरखपुर का चक्कर लगाकर आती है। इस तरह यह ट्रेन लखनऊ-वाराणसी की तीन सौ किलोमीटर की दूरी को तय करने के बजाय साढे पांच सौ किलोमीटर का चक्कर लगाकर आती है।
इस मामले में कौन सी ट्रेन सबकी गुरू है? यानी एक जगह से दूसरी जगह के लिये सीधी रेल लाइन होने के बावजूद भी बडे आडे तिरछे रूट से जाती है, खासकर दूर का चक्कर लगाकर। वो ट्रेन है विन्ध्याचल एक्सप्रेस (11271/11272) जो भोपाल और इटारसी के बीच चलती है। वैसे तो भोपाल से इटारसी 100 किलोमीटर भी नहीं है, दो घण्टे भी नहीं लगते दूसरी ट्रेनों में जबकि विन्ध्याचल एक्सप्रेस 738 किलोमीटर की दूरी तय करके भोपाल से इटारसी जाती है और साढे अठारह घण्टे लगाती है। यह भोपाल से चलकर पहले बीना जाती है, फिर सागर, कटनी, जबलपुर और पिपरिया रूट से इटारसी पहुंचती है। कौन इस ट्रेन में धुर से धुर तक की यात्रा करता होगा?
इसी के पास एक पुल भी मिला जहां नीचे से गोरखपुर वाली लाइन और ऊपर से मुगलसराय वाली लाइन गुजरती है। मुगलसराय वाली लाइन विद्युतीकृत है। इससे सिद्ध होता है कि पहले वाराणसी- भटनी लाइन यानी वाराणसी- छपरा लाइन मीटर गेज थी। और हां, वाराणसी से इलाहाबाद वाली लाइन के भी मीटर गेज होने के लक्षण मिल रहे हैं। मुझे लग रहा है कि इलाहाबाद सिटी स्टेशन पहले मीटर गेज होता था।
खैर, मणिकर्णिका घाट पहुंचे। गंगा पूरे उफान पर थी। सब घाट डूबे थे, मणिकर्णिका भी इससे अछूता नहीं था। हम चूंकि मोटरसाइकिल पर थे, तो सीधे घाट तक ही जा पहुंचे। रास्ते में कई अर्थियां मिलीं। इस घाट पर मुर्दों को जलाने का रिवाज है। चूंकि घाट पूरी तरह डूबा था, तो दाहकर्म घाट से ऊपर एक छत पर हो रहा था। आठ अर्थियां उस समय जल रही थीं और कई अपने इंतजार में थीं।
चूंकि शमशान का माहौल बडा भयंकर होता है। अतुल उस छत पर इसीलिये नहीं गया कि उसे डर लग रहा था, वो शमशान की तरफ देख भी नहीं पा रहा था। मैं चला गया लेकिन वहां कम जगह में जल रही इतनी सारी अर्थियों के कारण बडी गर्मी थी, फटाफट एक नजर डाली और वापस भाग आया।
इसके बाद पहुंचे दशाश्वमेध घाट। इसी के पास काशी विश्वनाथ ज्योतिर्लिंग भी स्थित है। यह घाट भी पूरी तरह डूबा था। गंगा स्नान का बिल्कुल भी मन नहीं था, इसलिये किसी ने स्नान नहीं किया।
काशी विश्वनाथ शिव के बारह ज्योतिर्लिंगों में से एक है। यहां जाने के लिये एक संकरी गली से होकर जाना पडता है। गली में इतनी भीड जैसे कि आज ही महाशिवरात्रि हो। सौ डेढ सौ मीटर आगे ही गये थे कि जाटराम ने घोषणा कर दी कि वो विश्वनाथ के दर्शन नहीं करेगा। इतना सुनते ही जैसे अतुल ने चैन की सांस ली। वो मुझसे भी पहले वापस मुड गया। चन्द्रेश जी हमारी आदतों से वाकिफ हैं इसलिये उन्हें मेरे इस फैसले पर कोई आपत्ति नहीं हुई। हमारे साथ जो चौथा बन्दा था, उसे काफी आश्चर्य हुआ कि दिल्ली से पहली बार बनारस आये हैं, विश्वनाथ के दरबार से बिना दर्शन के लौट रहे हैं, तो चन्द्रेश ने उसे समझाया कि इनकी जिन्दगी ऐसे ही चलती है। जहां मन करता है दर्शन कर लेते हैं, जहां मन करता है दरवाजे पर आकर लौट जाते हैं और जहां मन करता है नहीं जाते। मन के राजा इसी को कहते हैं।
इसके बाद कुछ खा-पीकर पहुंच जाते हैं बनारस के आखिरी घाट असी घाट पर। असी घाट यानी अस्सी घाट यानी अस्सीवां घाट। यह बनारस का आखिरी घाट माना जाता है हालांकि इससे आगे भी कुछ घाट और हैं। यहां निपट शान्ति पसरी थी, घाट की कुछ सीढियां बिल्कुल खाली थीं। मन हुआ कि यहां कुछ समय बितायेंगे। सामने बहती उफान भरी गंगा को असी घाट से देखकर आनन्द आ गया।
यहां से निकले तो जल्दी ही बिच्चू में जा घुसे। बिच्चू यानी बीएचयू यानी बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय। इसकी स्थापना पं मदन मोहन मालवीय ने की थी। बीएचयू की सडकों पर कुछ देर ऐसे ही घूमते हुए बाहर निकले तो थकान से बुरा हाल हो गया था। फिर भी चन्द्रेश और उनके दोस्त ने हमें बाइकों पर बैठाये ही रखा और पता नहीं क्या क्या दिखाते रहे।
वाराणसी में तीन जैन तीर्थंकरों के जन्म हुए- पार्श्वनाथ, सुपार्श्वनाथ और तीसरे का नाम भूल गया। चन्द्रेश ने तीनों के जन्म स्थान दिखाये। कमाल की बात ये थी कि तीनों जन्मस्थान बिल्कुल सन्नाटे में थे। ना कोई चहल पहल, ना कोई भीड। हालांकि हम भी इस शान्ति की इज्जत करते हुए बाहर से देखकर ही आगे बढ गये।
जब शाम को होटल पहुंचे तो थकान से जो बुरा हाल हो सकता था, हो गया था। सुबह से हम बाइकों पर पहले सारनाथ, फिर बनारस की गलियों में, घाटों पर, फिर बिच्चू में घूमते घूमते शाम हो गई। थकान का आलम यह था कि रात को मैंने और अतुल ने खाना भी नहीं खाया।
फिर भी यह एक अधूरी बनारस यात्रा थी। गंगा के उफान ने हमें वो आनन्द नहीं लेने दिया, जिसके कारण बनारस प्रसिद्ध है। अब कभी दोबारा फिर जाना पडेगा।
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Neeraj bhai banaras hindu vishwavidyalaya nahi balki KASHI HINDU VISHWAVIDYALAYA kahte hai.
ReplyDeleteनीरज बाबु,फोटुए तुम्हारा इन्तेजार करती है क्या,यार छिपकली भी उसी समय पर बैठी थी जब तुम्हे फोटो खीचना था ! बड़े किस्मत वाले हो भाई, धरती गगन पे होती है तेरी जय जय कार हो नीरज भैया !
ReplyDeleteसंस्कृति का इतिहास समेटे काशी..
ReplyDeleteनीरज बहुत बढ़िया चित्र है .कौनसा केमेरा इस्तमाल कर रहे ह ? मुझे मेरी कशी की यात्रा याद आ गयी . आपकी यात्रा में गंगा मैया में पानी बहुत है लेकिन मैं मार्च में गया था, तब पानी बहुत कम था.बी एह यू के चित्र भी बहुत अच्छे है. मजा आ गया कशी के दर्शन करके.
ReplyDeleteनीरज भाई जनवरी में मिजोरम की जगह सिक्किम जाना
ReplyDeleteबहुत अच्छे चित्र
ReplyDeleteसुन्दर चित्र और जानकारियाँ. मणिकर्णिका घाट पर नंबर लगाये हुए लाशों एवं एक किनारे लावारिश लाशों के ढेर को देख हमारा भी दिल खराब हो गया था.
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