Skip to main content

रानीखेत के पास भी है बिनसर महादेव

इस यात्रा वृत्तान्त को शुरू से पढने के लिये यहां क्लिक करें
23 फरवरी 2011 को दोपहर बारह बजे के आसपास मैं और अतुल रानीखेत पहुंचे। चूंकि यह मौसम पीक सीजन नहीं है, इसलिये यहां कोई भीड-भाड नहीं थी। अपनी यात्रा में मैं जहां भी जाता हूं, उस राज्य और जिले का नक्शा अपने साथ रखता हूं। एक दुकान पर चाय-समोसे खाते हुए नक्शे में देखा कि रानीखेत के पास दो जगहें हैं- झूला देवी मन्दिर और बिनसर महादेव। चाय वाले से सलाह मिली कि जाना ही है तो पहले बिनसर महादेव जाओ।
अल्मोडा जिले में दो बिनसर हैं। एक बिनसर तो यह रानीखेत के पास है और दूसरा अल्मोडा से करीब 35 किलोमीटर उत्तर में बिनसर सेंचुरी के नाम से जाना जाता है। बिनसर सेंचुरी बहुत ही प्रसिद्ध जगह है। जबकि रानीखेत से बीस किलोमीटर दूर वाला बिनसर महादेव कम प्रसिद्ध है। लेकिन कसम से भाई, जगह बडी मस्त है।

रानीखेत से रामनगर जाने वाली रोड पर करीब 16-17 किलोमीटर के बाद सोनी गांव स्थित है। यह वही रामनगर है- जिम कार्बेट वाला। चाहे तो सीधा रामनगर से भी सोनी पहुंचा जा सकता है। सोनी से एक-डेढ किलोमीटर रामनगर की ओर चलने पर एक यू-टर्न के आकार में पुल है। पुल की जड में एक तिराहा है। बस, यही वो जगह है जहां हम रानीखेत-रामनगर रोड को छोड देते हैं। तीसरी सडक पकडते हैं और चलते जाते हैं। एक किलोमीटर के बाद सोनी इको पार्क आता है जिसका आजकल ताला बन्द था। यह पार्क एक बेहतरीन पिकनिक स्पॉट है। पार्क को एक साइड में छोडते हुए सीधे चलते जायें तो आधे किलोमीटर के बाद फिर एक तिराहा आता है। उल्टे हाथ की तरफ मुड जाओ और जरा सा चलने पर स्वर्गाश्रम बिनसर महादेव का मेन गेट नजर आ जाता है।
जब हम कौसानी से रानीखेत जा रहे थे तो रानीखेत से आठ-दस किलोमीटर पहले चीड का साफ-सुथरा जंगल शुरू हो जाता है। इस जीव ने जंगल तो बहुत देखे हैं लेकिन ऐसा जंगल कभी नहीं देखा था सिवाय फिल्मों के। जब रानीखेत चार किलोमीटर रह गया और अल्मोडा से आने वाली सडक भी इसमें मिल गई और चेक-पोस्ट से दो-दो रुपये प्रति ‘टूरिस्ट’ पर्ची भी कट गई तो मन में आया कि यहीं उतर जाओ। चार किलोमीटर पैदल जायेंगे। लेकिन जब देखा कि सामने सडक पर दूर-दूर तक अपने पूर्वजों का कब्जा है तो पैदल का इरादा त्याग दिया। यह कमी पूरी हुई बिनसर जाकर।
रानीखेत चारों ओर से चीड के घने जंगलों से घिरी हुई छावनी है। पिछले चार दिनों से हम भले ही अल्मोडा की खाक छानते फिर रहे हों, लेकिन आज हमारी यात्रा सफल हो गई थी बिनसर आकर। रानीखेत जाने वाले हर बन्दे से मैं कहूंगा कि एक चक्कर बिनसर महादेव का भी लगाकर आये।




झाड-झंगाड ना होने की वजह से कभी-कभी फोटू देखकर लगता है कि ये पेड किसी के खेत में खडे होंगे या कोई पार्क होगा जहां से झाडियां पैदा होते ही हटा दी जाती हैं। लेकिन असल बात ये है ऐसा नहीं है। रानीखेत के चारों ओर दूर-दूर तक ऐसा ही जंगल है।


यह है स्वर्गाश्रम बिनसर महादेव का मेन गेट

यह जगह आज एक गुरुकुल भी है। बच्चे यहां धोती बांधे प्राचीन भारतीय तरीके से ‘स्टडी’ करते दिख जायेंगे। इसके अलावा इस पूरे गुरुकुल का शिल्प नयनाभिराम है। जिस महापुरुष के भी पैर यहां पहली बार पडे होंगे वो कितना बडा घुमक्कड और समाजसेवी होगा, सोचा जा सकता है।




गुरुकुल कैसा लगा? गुरुकुल के अलावा यहां महादेव का भी मन्दिर है। इस मन्दिर में घण्टे और घण्टियां बजाना मना है क्योंकि इससे छात्रों की पढाई पर बुरा असर पडता है। बाकायदा लिखा भी है कि घण्टियां ना बजायें- सिवाय आरती को छोडकर। मैं इतना बडा भगत नहीं हूं कि बिनसर महादेव के दर्शन करना जरूरी समझता। यार, जूते निकालने पडते, हाथ भी धोने पडते और अंदर जाकर एकाध रुपया खर्च भी करना पड जाता। अतुल को भेज दिया। बन्दा इतना समझदार निकला कि दो मुट्ठी प्रसाद लाया। एक अपने लिये, एक मेरे लिये।
अब देखते हैं इस गुरुकुल के आसपास का माहौल कैसा है?


तू मेरे लिये प्रसाद लाया था ना? ले इनाम में पहला फोटू तेरा ही लगा रहा हूं।

यह सितारा मछली नहीं है। यह तो एक कांटेदार घास है जिसकी यहां बहुतायत है।


चलिये एक चक्कर सोनी इको पार्क का भी लगा लें। जब हम वापस आ रहे थे तब हमें इस पार्क में ‘कुछ’ दिखा। इस ‘कुछ’ के रहस्य को खोदने हम पार्क में घुस गये। चूंकि इसके मेन गेट पर ताला लगा था, तो कांटेदार तारयुक्त दीवार के ऊपर से कूदकर अन्दर जाना पडा। वैसे गेट से दसेक मीटर दूर ही दीवार टूटी भी थी जहां से हम आराम से बिना कूदे अन्दर जा सकते थे। लेकिन अतुल को ठेठ शहरी लिबास से बाहर निकालने के लिये हम दीवार कूदे। यहां अन्दर एक जलधारा भी है। झूले भी हैं। छोटा सा मैदान भी है जहां क्रिकेट की पिच बनी है। एक बडा सा पत्थर रखकर विकेट बनाया गया है। यह विकेट वही ‘कुछ’ था जो हमें दूर रास्ते से रहस्यमय दिख रहा था।



हां, अब शुरू होता है फोटो सेशन।


कौण घणा सुथरा लग रहा है? बेशक अतुल ही लग रहा होगा। परसों भी नहाया था, कल भी नहाया था और आज भी नहाकर चला था। जबकि इधर जाट को तो याद भी नहीं कि मुंह कब धोया था।

अरै तेरा सुसरा। नहावेगा नी तो नेस्ती तो चढेगी ही। नेस्ती का मतलब पता है आपको?


छोरी वालों को अगर फोटू भेज दूं तो इसे देखते ही रिश्ता पक्का हो ज्यागा। सोणा सुथरा छोरा।


अच्छा हां, ये बात तो मैं भूल ही गया। जाट और अतुल में ठनी कि कौन चीड के पेड पर ज्यादा ऊपर तक जाता है। जाट ठहरा ठेठ जिद्दी। जा चढा तुरन्त। ऊंचाई नापी गई एक मीटर।
और जब अतुल महाराज चढा तो मेरे होश उड गये। बन्दा चढता ही गया और टहनियों तक जा पहुंचा। इस प्रतियोगिता में जाट हार तो गया ही। अतुल को सलाह दी कि चीड की टहनियां बहुत मजबूत होती हैं। टहनी पकडकर लटक जा, एक फोटू खीचूंगा। गर्लफ्रेण्ड खुश हो जायेगी। बन्दा अतिआत्मविश्वास से भरा तो था ही। जाट का कहना तुरन्त मान लिया। नतीजा सामने है।

इतनी ऊंचाई से गिरने के बाद अतुल का क्या हाल हुआ होगा और फिर उसने मेरा क्या हाल किया होगा, अन्दाजा लगा लो।

अच्छा हां, इस फोटू के खिंचने से पहले अतुल को पता नहीं था कि वो कर क्या रहा है। अगर सच्चाई पता चली तो अभी फोन करेगा और जी भरकर सुनायेगा। अतुल को प्यास लगी थी। सिवाय गुरुकुल के पानी आसपास था नहीं। हम गुरुकुल को पीछे छोड आये थे। जैसे ही महाराज ने एक जलधारा देखी तो तुरन्त कूद पडा। चुल्लू भर-भरकर खूब पानी पिया। असल में यह जलधारा कोई नदी नहीं, बल्कि सडक के साथ-साथ बहता नाला है। इसमें सडक के पास बसे गांवों का ‘पानी’ आता है। गांवों की गायें-बकरियां भी इसी का पानी आगे से पीकर पीछे से निकाल देती हैं। वो सारी गंदगी इस ‘नदी’ के पत्थरों पर स्पष्ट दिख रही थीं। और तो और, मुझे भी जब प्रेशर लगा तो मैं भी इसी ‘नदी’ के किनारे पर फारिग हुआ था। ऐसे कामों के लिये गांवों के हर बन्दे की जरुरत यह ‘नदी’ ही है। और इसके पानी को पीकर अतुल कह रहा होगा कि अब सुकून मिला है। फोटो में अतुल पानी पीकर नाले से बाहर निकल रहा है।
अगर आपको मेरे और अतुल के फोटो अच्छे नहीं लगे हैं तो आगे वाले फोटो शायद आपको पसन्द आयेंगे। इन फोटो को मैं भी इस यात्रा के सर्वश्रेष्ठ फोटो मानता हूं।






अगला भाग: अल्मोडा यात्रा की कुछ और यादें


कुमाऊं यात्रा
1. एक यात्रा अतुल के साथ
2. यात्रा कुमाऊं के एक गांव की
3. एक कुमाऊंनी गांव- भागाद्यूनी
4. कौसानी
5. एक बैजनाथ उत्तराखण्ड में भी है
6. रानीखेत के पास भी है बिनसर महादेव
7. अल्मोडा यात्रा की कुछ और यादें

Comments

  1. नीरज भाई बहुत आनंद दायक है यह सफ़र .....सभी फोटो गजब के हैं ..शुक्रिया

    ReplyDelete
  2. इतने खूबसूरत फोटू और जगह मैने जिन्दगी मै कभी नही देखी--कंजुस भाई !

    अतुल जिन्दगी भर 'वो' प्यास नही भूलेगा --?

    इस बार तो अतुल के साथ -साथ जाट -पुत्र तुम भी छा गए --लगता है अतुल की संगती काम कर गई ---
    मैने 'शादी डाट काम ' मै तुम्हारी तस्वीर लगा दी है --अब छोरियों के 'बापुओ ' से निपटना --

    ReplyDelete
  3. नीचे से तीसरा और चौथा फोटू काफी खूबसूरत है!

    ReplyDelete
  4. सभी फोटो गजब के हैं ..शुक्रिया..!!!!!!!

    ReplyDelete
  5. नीरज भाई बहुत खूबसूरत,सभी फोटो गजब के हैं..

    ReplyDelete
  6. हम को तो फोटू भी पसंद आये, अतुल क्योंकि हमारे जैसा बौड़म है सो वो भी पसंद आया, अपना जाट तो पहले से ही पसंद है और ब्लॉग भी पसंद आया...इब ना जाते यहाँ से क्या कर लेगा भाई तू?
    जोरदार वर्णन है...वैसे बंदा भी इन जगहों पर घूमा हुआ है...लेकिन भाई थारी तो बात ही निराली है...

    नीरज

    ReplyDelete
  7. लम्बे लम्बे वृक्ष, सुन्दर चित्र।

    ReplyDelete
  8. बढ़िया यात्रा संस्मरण!
    मोहक दृश्य!

    ReplyDelete
  9. आज के चित्र देख कर तो लगा जेसे युरोप मे ही किसी हिस्से के यह फ़ोटू हॊ, ओर वो कांटे दार पोधा हमारे यहां बहुत होता हे, बेचारे अतूल को कोय डरा रहे हो... वो साफ़ सुधरा पानी ही था, जो इन पडाडियो से रिस रिस कर आता हे, ओर बिलकुल साफ़ सुधरा होता हे, यह इस लिये कह रहा हुं क्योकि ऎसा हमारे यहा भी होता हे... अब फ़ोटू की तारिफ़ करुं या विवरण की समझ मे नही आता, चलो एक की तारीफ़ करता हुं, जो जाट को अच्छी लगे वो ही समझ लो... राम राम.

    ReplyDelete
  10. आनन्द आ गया फोटो और वृतांत देखकर...बहुत सही.

    ReplyDelete
  11. बिल्कुल हमारे ही काम का है जी यह ब्लॉग
    दो साल पहले रानीखेत गये थे और बिना बिनसर देखे आ गये। सोनी ईको पार्क का ताला देखकर लौट गये थे।

    सचमुच शानदार तस्वीरें हैं पेडों की
    नेस्ती का मतलब भी पता है
    छोरी वालों नै कोये सी भी फोटू भेज दे, मगर छोरी नै तेरे तै फालतू तेरा ब्लॉग पसन्द आवैगा और इस कारण वा हाँ करैगी


    और अतुल चिंता मत करिये पानी साफ था, (कदे इब उलटी करन लाग ज्या)

    जै राम जी की

    ReplyDelete
  12. Kaun hoga jise post aur tasveerein pasand n aayein ! Jaankari ke sath manoranjan se bhi bharpur post behtareen tasveeron ke sath.

    ReplyDelete
  13. जाट हार गया, ऐसा कैसे हुआ ? लिस्ट देख कर तबियत खुश हुई । मेरी मौसी का छोरा कह रहा था कि हिन्दी में कैसे लिखते हो । तुम्हारे सोफ़टवेयर के बारे में बताया तो बडा खुश हुआ । अपने लेख के साथ तुम्हारा लेख भी पढवाया ।

    ReplyDelete
  14. यार नीरज...कमाल के फोटो हैं भाई...
    और वैसे आप भी कम नहीं हो...कांटेदार तारों को कूद के चले गए अंदर :) :)

    बहुत सही

    ReplyDelete
  15. Interesting narration . Lovely pics.

    ReplyDelete
  16. http://www.facebook.com/video/video.php?v=488106453977&comments
    आनंद लीजिये

    ReplyDelete
  17. लम्बे वृक्ष, सुन्दर चित्र
    शानदार तस्वीरें हैं
    ब्लॉग पसंद आया

    ReplyDelete
  18. भाई मजा आ गया
    शुक्रिया

    ReplyDelete
  19. Pad lagao jivan bachao, save mother nature

    ReplyDelete

Post a Comment

Popular posts from this blog

जिम कार्बेट की हिंदी किताबें

इन पुस्तकों का परिचय यह है कि इन्हें जिम कार्बेट ने लिखा है। और जिम कार्बेट का परिचय देने की अक्ल मुझमें नहीं। उनकी तारीफ करने में मैं असमर्थ हूँ क्योंकि मुझे लगता है कि उनकी तारीफ करने में कहीं कोई भूल-चूक न हो जाए। जो भी शब्द उनके लिये प्रयुक्त करूंगा, वे अपर्याप्त होंगे। बस, यह समझ लीजिए कि लिखते समय वे आपके सामने अपना कलेजा निकालकर रख देते हैं। आप उनका लेखन नहीं, सीधे हृदय पढ़ते हैं। लेखन में तो भूल-चूक हो जाती है, हृदय में कोई भूल-चूक नहीं हो सकती। आप उनकी किताबें पढ़िए। कोई भी किताब। वे बचपन से ही जंगलों में रहे हैं। आदमी से ज्यादा जानवरों को जानते थे। उनकी भाषा-बोली समझते थे। कोई जानवर या पक्षी बोल रहा है तो क्या कह रहा है, चल रहा है तो क्या कह रहा है; वे सब समझते थे। वे नरभक्षी तेंदुए से आतंकित जंगल में खुले में एक पेड़ के नीचे सो जाते थे, क्योंकि उन्हें पता था कि इस पेड़ पर लंगूर हैं और जब तक लंगूर चुप रहेंगे, इसका अर्थ होगा कि तेंदुआ आसपास कहीं नहीं है। कभी वे जंगल में भैंसों के एक खुले बाड़े में भैंसों के बीच में ही सो जाते, कि अगर नरभक्षी आएगा तो भैंसे अपने-आप जगा देंगी।

दिल्ली से गैरसैंण और गर्जिया देवी मन्दिर

   सितम्बर का महीना घुमक्कडी के लिहाज से सर्वोत्तम महीना होता है। आप हिमालय की ऊंचाईयों पर ट्रैकिंग करो या कहीं और जाओ; आपको सबकुछ ठीक ही मिलेगा। न मानसून का डर और न बर्फबारी का डर। कई दिनों पहले ही इसकी योजना बन गई कि बाइक से पांगी, लाहौल, स्पीति का चक्कर लगाकर आयेंगे। फिर ट्रैकिंग का मन किया तो मणिमहेश परिक्रमा और वहां से सुखडाली पास और फिर जालसू पास पार करके बैजनाथ आकर दिल्ली की बस पकड लेंगे। आखिरकार ट्रेकिंग का ही फाइनल हो गया और बैजनाथ से दिल्ली की हिमाचल परिवहन की वोल्वो बस में सीट भी आरक्षित कर दी।    लेकिन उस यात्रा में एक समस्या ये आ गई कि परिक्रमा के दौरान हमें टेंट की जरुरत पडेगी क्योंकि मणिमहेश का यात्रा सीजन समाप्त हो चुका था। हम टेंट नहीं ले जाना चाहते थे। फिर कार्यक्रम बदलने लगा और बदलते-बदलते यहां तक पहुंच गया कि बाइक से चलते हैं और मणिमहेश की सीधे मार्ग से यात्रा करके पांगी और फिर रोहतांग से वापस आ जायेंगे। कभी विचार उठता कि मणिमहेश को अगले साल के लिये छोड देते हैं और इस बार पहले बाइक से पांगी चलते हैं, फिर लाहौल में नीलकण्ठ महादेव की ट्रैकिंग करेंग...

भंगायणी माता मन्दिर, हरिपुरधार

इस यात्रा-वृत्तान्त को आरम्भ से पढने के लिये यहां क्लिक करें । 10 मई 2014 हरिपुरधार के बारे में सबसे पहले दैनिक जागरण के यात्रा पृष्ठ पर पढा था। तभी से यहां जाने की प्रबल इच्छा थी। आज जब मैं तराहां में था और मुझे नोहराधार व कहीं भी जाने के लिये हरिपुरधार होकर ही जाना पडेगा तो वो इच्छा फिर जाग उठी। सोच लिया कि कुछ समय के लिये यहां जरूर उतरूंगा। तराहां से हरिपुरधार की दूरी 21 किलोमीटर है। यहां देखने के लिये मुख्य एक ही स्थान है- भंगायणी माता का मन्दिर जो हरिपुरधार से दो किलोमीटर पहले है। बस ने ठीक मन्दिर के सामने उतार दिया। कुछ और यात्री भी यहां उतरे। कंडक्टर ने मुझे एक रुपया दिया कि ये लो, मेरी तरफ से मन्दिर में चढा देना। इससे पता चलता है कि माता का यहां कितना प्रभाव है।