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2009: मेरे अपने आंकड़े

पिछले साल इन दिनों में ही तय हो गया था कि मेरी बदली हरिद्वार से दिल्ली होने वाली है। इसलिए जनवरी का महीना काफी उथल-पुथल भरा रहा। जनवरी में ही इंटरव्यू और मेडिकल टेस्ट हुआ। फ़रवरी शुरू होते-होते सरकारी नौकरी भी लग गयी। नौकरी क्या लगी, बड़े बड़े पंख लग गए। मार्च में सेलरी मिली तो घूमने की बात भी सोची जाने लगी। कैमरा भी ले लिया। अप्रैल की नौ तारीख को बैजनाथ के लिए निकल पड़ा। बैजनाथ हिमाचल प्रदेश के कांगड़ा जिले में है। सफ़र में साथी था रामबाबू। बैजनाथ गए तो पैराग्लाइडिंग का स्वर्ग कहे जाने वाले बीड व बिलिंग भी हो आये। इसी यात्रा में चाय नगरी पालमपुर व चामुंडा देवी के भी दर्शन किये। इसके बाद मई का गर्म महीना आया। किसी और जगह को चुनता तो शायद कोई भी तैयार नहीं होता, लेकिन मित्र मण्डली को जब पता चला कि बन्दा शिमला जा रहा है तो तीन जने और भी चल पड़े। शिमला से वापस आया तो भीमताल चला गया। साथ ही रहस्यमयी नौकुचियाताल व नैनीताल का भी चक्कर लगा आया। इसके बाद कुछ दिन तक तो ठीक रहा, फिर जून आते आते खाज सी मारने लगी। तब चैन मिला गढ़वाल हिमालय की प्रसिद्द वादी व सैनिक छावनी लैंसडाउन ...

टेढ़ा मन्दिर

इस यात्रा वृत्तान्त को शुरू से पढने के लिये यहां क्लिक करें । आज आपको टेढ़ा मंदिर के बारे में जानकारी देते हैं। यह मंदिर हिमाचल प्रदेश के कांगड़ा जिले में ज्वालामुखी के पास स्थित है। ज्वालामुखी के ज्वाला देवी मंदिर की बगल से ही इसके लिए रास्ता जाता है। ज्वाला जी से इसकी दूरी करीब दो किलोमीटर है। पूरा रास्ता ऊबड़-खाबड़ पत्थरों से युक्त चढ़ाई भरा है। खतरनाक डरावने सुनसान जंगल से होकर यह रास्ता जाता है। ... यह मंदिर पिछले 104 सालों से टेढ़ा है। कहा जाता है कि वनवास काल के दौरान पांडवों ने इसका निर्माण कराया था। 1905 में कांगड़ा में एक भयानक भूकंप आया। इससे कांगड़ा का किला तो बिलकुल खंडहरों में तब्दील हो गया। भूकंप के ही प्रभाव से यह मंदिर भी एक तरफ को झुककर टेढ़ा हो गया। तभी से इसका नाम टेढ़ा मंदिर है। इसके अन्दर जाने पर डर लगता है कि कहीं यह गिर ना जाए।

ज्वालामुखी - एक चमत्कारी शक्तिपीठ

इस यात्रा वृत्तान्त को शुरू से पढने के लिये यहां क्लिक करें । ज्वालामुखी देवी हिमाचल प्रदेश के कांगड़ा जिले में कांगड़ा से करीब दो घण्टे की दूरी पर है। दूरी मापने का मानक घण्टे इसलिए दे रहा हूँ कि यहाँ जाम ज़ूम नहीं लगता है और पहाड़ी रास्ता है, मतलब गाड़ियां ना तो रूकती हैं और ना ही तेज चाल से दौड़ पाती हैं। ज्वालामुखी एक शक्तिपीठ है जहाँ देवी सती की जीभ गिरी थी। सभी शक्तिपीठों में यह शक्तिपीठ अनोखा इसलिए माना जाता है कि यहाँ ना तो किसी मूर्ति की पूजा होती है ना ही किसी पिंडी की, बल्कि यहाँ पूजा होती है धरती के अन्दर से निकलती ज्वाला की। ... धरती के गर्भ से यहाँ नौ स्थानों पर आग की ज्वाला निकलती रहती है। इन्ही पर मंदिर बना दिया गया है और इन्ही पर प्रसाद चढ़ता है। आज के आधुनिक युग में रहने वाले हम लोगों के लिए ऐसी ज्वालायें कोई आश्चर्य की बात नहीं है, क्योंकि पृथ्वी की अंदरूनी हलचल के कारण पूरी दुनिया में कहीं ज्वाला कहीं गरम पानी निकलता रहता है। कहीं-कहीं तो बाकायदा पावर हाऊस भी बनाए गए हैं, जिनसे बिजली उत्पादित की जाती है। लेकिन यहाँ पर यही तो चमत्कार है।

कांगड़ा का किला

इस यात्रा वृत्तान्त को शुरू से पढने के लिये यहां क्लिक करें । किला - जहाँ कभी एक सभ्यता बसती थी। आज वीरान पड़ा हुआ है। भारत में ऐसे गिने-चुने किले ही हैं, जहाँ आज भी जीवन बसा हुआ है, नहीं तो समय बदलने पर वैभव के प्रतीक ज्यादातर किले खंडहर हो चुके हैं। लेकिन ये खंडहर भी कम नहीं हैं - इनमे इतिहास सोया है, वीरानी और सन्नाटा भी सब-कुछ बयां कर देता है। ... भारत में किलों पर राजस्थान का राज है। महाराष्ट्र और दक्षिण में भी कई प्रसिद्द किले हैं। मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश में भी किले हैं। दिल्ली में लाल किला और पुराना किला है। लेकिन हिमालय क्षेत्र में बहुत कम किले हैं। क्योंकि हिमालय खुद एक प्राकृतिक किला है। इसमें शिवालिक जैसी मजबूत बाहरी दीवार है। पहाड़ इतने दुर्गम हैं कि किसी आक्रमणकारी की कभी हिम्मत नहीं हुई। फिर भी हिमालय क्षेत्र में कई किले हैं। इनमे से एक है - कोट कांगड़ा यानी कांगड़ा का किला।

दुर्गम और रोमांचक - त्रियुण्ड

इस यात्रा वृत्तान्त को शुरू से पढने के लिये यहां क्लिक करें । आज ऐसी जगह पर चलते हैं जहाँ जाने का साहस कम ही लोग जुटा पाते हैं। क्योंकि इसके लिए दमखम व प्रकृति से लड़ने की ताकत की जरूरत होती है। यह जगह मैक्लोडगंज से मात्र नौ किलोमीटर दूर है लेकिन यहाँ जाने का इरादा करने वाले आधे लोग तो बीच रास्ते से ही वापस लौट आते हैं। परन्तु चार-पांच घण्टे की तन-मन को तोड़ देने वाली चढ़ाई के बाद कुदरत का जो रूप सामने आता है, उसे हम शब्दों में नहीं लिख सकते। ... अपनी इस दो दिवसीय यात्रा के लिए हमने योजना बनाई थी कि पहले दिन तो मैक्लोडगंज में ही घूमेंगे, दूसरे दिन कहीं आस-पास निकल जायेंगे। पहले दिन की योजना तो बारिश में धुल गयी। जब अगले दिन सोकर उठे तो देखा कि मौसम बिलकुल साफ़ था। हालाँकि जगह-जगह रुई वाले सफ़ेद बादल भी घूम रहे थे। सफ़ेद बादलों में पानी नहीं होता इसलिए आज पूरे दिन बारिश ना होने की उम्मीद थी।

मैक्लोडगंज - देश में विदेश का एहसास

इस यात्रा वृत्तान्त को शुरू से पढने के लिये यहां क्लिक करें । 14 नवम्बर 2009, सुबह आठ बजे। जब पूरा देश बाल दिवस मनाने की तैयारी कर रहा था तब हम दो 'बच्चे' मैक्लोडगंज में थे और बारिश थमने का इन्तजार कर रहे थे। यहाँ कल से ही बारिश हो रही थी और पारा धडाम हो गया था। मौसम के मिजाज को देखते हुए लग नहीं रहा था कि आज यह खुल जाएगा। रह-रहकर अँधेरा छा जाता और गडगडाहट के साथ बारिश जारी रही। बस से उतरते ही एक निर्माणाधीन भवन में शरण ले ली और बारिश के कम होने का इन्तजार करने लगे। ... दिल्ली से चलते समय हमने योजना बनाई थी कि चौदह नवम्बर को पूरा मैक्लोडगंज घूमेंगे लेकिन आज यह योजना पूरी होती नहीं दिख रही थी। हम केवल एक उम्मीद से ही यहाँ रुके रहे कि हमारे पास कल का दिन है। हो सकता है कि कल मौसम साफ़ हो जाए। अगर कल तक भी मौसम साफ़ नहीं हुआ तो सुबह-सुबह ही वापसी की बस पकड़ लेंगे।

धर्मशाला यात्रा

13 नवम्बर 2009, शाम साढ़े छः बजे मैं और ललित कश्मीरी गेट बस अड्डे पर पहुंचे। पता चला कि हिमाचल परिवहन की धर्मशाला जाने वाली बस सवा सात बजे यहाँ से चलेगी। बराबर में ही हरियाणा रोडवेज की कांगड़ा - बैजनाथ जाने वाली शानदार 'हरियाणा उदय' खड़ी थी। इसके लुक को देखते ही मैंने इसमें जाने से मना कर दिया। लगा कि पता नहीं कितना किराया होगा! लेकिन भला हो ललित का कि उसने कांगड़ा तक का किराया पता कर लिया - तीन सौ पांच रूपये। इतना ही साधारण बस में लगता है। तुरन्त टिकट लिया और जा बैठे। कांगड़ा से धर्मशाला तक के लिए तो असंख्य लोकल बसें भी चलती हैं। ... कुरुक्षेत्र पहुंचकर बस आधे घंटे के लिए रुकी। वैसे तो कुरुक्षेत्र का बस अड्डा मेन हाइवे से काफी हटकर अन्दर शहर में है लेकिन यहाँ भी 'बस अड्डा, हरियाणा परिवहन निगम, कुरुक्षेत्र' लिखा था। यहाँ पर हमने खाना पीना किया। इसके बाद तो मुझे नींद आ गयी। हाँ, चण्डीगढ़ व ऊना में आँख जरूर खुल गयी थी। ऊना के बाद किस रास्ते से चले, मुझे नहीं पता। शायद अम्ब व देहरा होते हुए गए होंगे।