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गंगनानी में नहाना, ड्राइवर से अनबन और मार्कंडेय मंदिर

पता नहीं आपको पता है या नहीं, लेकिन पता होना चाहिए। दीप्ति ने इस साल कुछ यात्राएँ आयोजित करने की योजना बनाई है। इन्हीं के अंतर्गत वह जनवरी में रैथल और मार्च में जंजैहली की यात्रा करा चुकी है। और जून में योजना बनाई धराली, सात ताल, नेलांग और गंगोत्री की। उसकी ये यात्राएँ हमारी नियमित यात्राओं के उलट बेहद आसान होती हैं और हर आयुवर्ग के लिए सही हैं। लेकिन उसका फोकस एक पॉइंट पर है - हम अपने मित्रों को हमेशा अनसुनी, अनजानी जगहों पर ले जाया करेंगे और उन्हें घूमने का मतलब समझाया करेंगे।
कहने का अर्थ यह है कि अगर आप वाकई घूमना चाहते हैं, प्रकृति के सानिध्य में रहना पसंद करते हैं, शहरी पर्यटन स्थलों की भीड़ से दूर कहीं एकांत में जाना चाहते हैं, तो ये यात्राएँ आपके लिए हैं। मात्र एक बार इनमें से किसी भी यात्रा पर जाकर आपको पता चलेगा कि शिमला, मसूरी के अलावा भी घूमा जा सकता है। अनजान, अनसुने स्थानों पर भी उतनी ही आसानी से जाया जा सकता है, जितना आसान नैनीताल जाना है। और इन अनजाने स्थानों पर जाकर आप अगर आनंदित नहीं हुए, तो समझिए कि आप शिमला, मसूरी के लिए ही बने हैं; प्रकृति के बीच जाने के लिए नहीं बने। आप सौ वर्ग मीटर के पार्क में झूला झूलने के लिए ही बने हैं; सैकड़ों वर्ग किलोमीटर के जंगल में स्वच्छंद घूमने के लिए नहीं बने।
और आप होटलों में मेन्यू देखकर खाने का ऑर्डर देने के लिए ही बने हैं, कहीं जंगल में किसी घर में बचा-कुचा खाना खाने के लिए नहीं।
अब आप सोचेंगे कि बचा-कुचा खाना? भला कोई कहीं बचा-कुचा खाना कैसे खा सकता है? तो आप इस पोस्ट को पूरा पढ़े बिना मत हटना। हम इस पोस्ट के आखिर में फिर से यही बात दोहराएंगे।






भले ही इन यात्राओं को दीप्ति आयोजित करती हो, लेकिन इनमें मेरी भी सक्रिय भागीदारी होती है। मैं भी इन यात्राओं का हिस्सा होता हूँ। और फिर मैं भूल जाता हूँ कि हमने आपसे कितने पैसे लिए थे और क्या-क्या खिलाने का, क्या-क्या पिलाने का, क्या-क्या घुमाने का वादा किया था। सारे वादे समाप्त हो जाते हैं और आप सीखते हैं घुमक्कड़ी का चैप्टर नंबर एक।

पहला चैप्टर था - यात्रा हर्षिल से शुरू होगी और आप सभी को अपने-आप अपने खर्चे से हर्षिल पहुँच जाना है। चौथे दिन हम गंगोत्री में बाय-बाय कर देंगे और आपको अपने-आप अपने खर्चे से गंगोत्री से अपने घर लौटना है। कई मित्र जो इस यात्रा में साथ चलना चाहते थे, वे पहले चैप्टर से आगे नहीं बढ़ सके। उनकी हिम्मत ही नहीं पड़ी अपने-आप हर्षिल पहुँचने की। हर्षिल उत्तराखंड के उस नेशनल हाइवे पर स्थित है, जिस पर जून के महीने में सबसे ज्यादा आवाजाही होती है। गंगोत्री हाइवे पर।
लेकिन जो मित्र इस पहले चैप्टर को पास कर सके, उन्हें दूसरा चैप्टर भी पास करना पड़ा। दूसरा चैप्टर था - हर्षिल नहीं, धराली पहुँचो। चूँकि हर्षिल एक अच्छा नाम है - बर्फीले पहाड़, भागीरथी नदी, सेब के बाग और ‘राम तेरी गंगा मैली’ की शूटिंग। इसलिए कई मित्रों को जरूर अटपटा लगा होगा कि नीरज ने तो छोटी गंगा कहकर नाले में कुदा दिया। हर्षिल कहकर धराली पहुँचने को कह रहा है। हर्षिल घूमने के सपने, जन्नत के अनुभव लेने के सपने; सब धराशायी हो गए होंगे।
लेकिन कुछ कुछ मित्र इस दूसरे चैप्टर में भी पास हुए। और आज वे सभी दावा करते हैं कि अगर धराली की बजाय हर्षिल में रुके होते तो उतना आनंद नहीं आता।

चलिए, आपसे हमने नौ-नौ हजार रुपये ले लिए हैं और आप सरकारी बस में बैठकर, शेयर्ड जीप में बैठकर या अपनी मोटरसाइकिल चलाकर यात्रा शुरू करने धराली जा रहे हैं। हम भी पीछे-पीछे आ रहे हैं। जनवरी की रैथल यात्रा के साथी अक्षय आर्य जी के घर पर हरिद्वार में हैं। अक्षय जी से उस यात्रा के बाद बेहद घनिष्ठ संबंध हो गए हैं। इस यात्रा में जो मित्र जा रहे हैं, उनसे भी घनिष्ठ संबंध होने जा रहे हैं और आगामी यात्राओं के ‘कस्टमर्स’ से भी घनिष्ठ संबंध होंगे।
23 जून 2018 की सुबह हमने गले तक जरा-सा नाश्ता भर लिया। यह ‘जरा-सा’ हम नहीं कह रहे, अक्षय जी कह रहे हैं। बाकी सभी यात्री ऋषिकेश से सुबह चार बजे चलने वाली बस में बैठे होंगे और अब तक चंबा पहुँच चुके होंगे। सभी को धराली स्थित होटल का नाम और फोन नंबर मैसेज कर दिया क्योंकि वे सभी हमसे पहले पहुँच जाएंगे और उत्तरकाशी के बाद हमारे मोबाइल में नेटवर्क नहीं होंगे। सभी के लिए कमरे पहले से ही बुक हैं। उन्हें जाते ही उनकी पसंद का कमरा मिल जाएगा - टी.वी. और गीजर वाला।

हाँ, मुझे पता है कि आप जल्द से जल्द उस अलौकिक अनुभव को जानना चाह रहे हैं... मैं भी जल्द से जल्द वही अनुभव बताना चाह रहा हूँ... लेकिन थोड़ी देर उत्तरकाशी रुकना पड़ेगा। नेलांग के परमिट बनवाने हैं। इसके लिए हमने इस साइट से ऑनलाइन एप्लाई कर दिया था। सभी की आई.डी. अपलोड भी कर दी थी और मैं उसी का प्रिंट आउट लेकर एस.डी.एम. भटवाड़ी के कार्यालय में पहुँचता हूँ। आप भी साथ-साथ ही चलते रहिए, पीछे मत रहिए। देखिए, वो रहा एस.डी.एम. भटवाड़ी का कार्यालय। आप ज्यादा मत सोचिए... भले ही भटवाड़ी यहाँ से 25 किलोमीटर दूर हो, लेकिन एस.डी.एम. भटवाड़ी का कार्यालय यहीं उत्तरकाशी में है।
आइए, इस ऑफिस में घुसते हैं। यह तो खाली पड़ा है। ओहो, दो काउंटर भी हैं। इस पर लिखा है - नेलांग काउंटर और उस पर लिखा है - गौमुख काउंटर। यात्री कोई भी नहीं है। दोनों काउंटरों पर एक-एक क्लर्क बैठे हैं - एकदम खाली। नहीं, यह वाला खाली नहीं है। कम्प्यूटर पर यूट्यूब में ‘महाभारत’ देख रहा है। चलिए, इसी को डिस्टर्ब करते हैं।
“क्यों? सबकी आइडी क्यों दूँ? मैंने तो सभी की आईडी अपलोड कर दी है। महाभारत मिनिमाइज करके अपने सिस्टम में देखिए... हाँ, वो देखिए... वो रही सभी की आइडी... प्रिंट आउट चाहो, तो कंट्रोल पी दबाओ। यहीं पर प्रिंट आउट निकल आएगा।”
“यहाँ प्रिंट आउट नहीं निकाल सकते। मुझे कागजों का हिसाब देना होता है।”
“तो दस कागज मैं बाहर बाजार से ले आता हूँ।”
“नहीं, तब भी नहीं। मुझे स्याही का भी हिसाब देना होता है।”
“फिर तो यूट्यूब पर महाभारत देखने का भी हिसाब देना होता होगा? है ना?”
दोस्तों, अगर मेरा अकेले का काम होता, तो आज मैं भिड़ जाता इससे, फिर भले ही नेलांग न जाना होता। लेकिन हमारे बाकी मित्र धराली पहुँच चुके हैं और अगर इसने किसी तरह का रोड़ा अटका दिया, तो वे बड़े उदास होंगे। अच्छा यही है कि इससे बहस नहीं करनी, अपना काम निकालना है। तिलक सोनी भाई का रेस्टॉरेंट यहीं बगल में है, चलो वहीं से प्रिंट आउट ले आते हैं।

“गाड़ी कहाँ से करोगे?”
“धराली से करेंगे।”
“और ड्राइवर का परमिट?”
“लोकल ड्राइवर का परमिट नहीं लगता।”
“किसने कहा ऐसा? सबका परमिट लगता है। ड्राइवर की आई.डी. लाओ।”
“अब कहाँ से लाएं ड्राइवर की आई.डी.? धराली से जो ड्राइवर करेंगे, उसकी फीस वहीं चेकपोस्ट पर जमा कर देंगे। यही तो प्रोसीजर है।”
“प्रोसीजर का तुम्हें ज्यादा पता है या मुझे।”
“अच्छा, तो एक काम करते हैं। हमारे साथियों में एक ने अपनी आई.डी. में ड्राइविंग लाइसेंस ही दिया है। वही गाड़ी चलाएगा।”
“लेकिन यह तो लड़की है।”
“तो? लड़की ड्राइवर नहीं होती क्या? तुम्हें ड्राइवर की आई.डी. चाहिए थी ना? ये लो।”
“हाँ, ठीक है, ठीक है।”
खटर-पटर... खटर-पटर...
“ये लो परमिट। इस पर एस.डी.एम. साहब के साइन कराकर यह कॉपी मुझे देते जाना।”
“लेकिन इसमें तो ड्राइवर के बारे में आपने कुछ भी नहीं लिखा?”
“धराली से जो ड्राइवर करोगे, उसकी फीस भैरोंघाटी गेट पर जमा करनी होगी। उसके बारे में यहाँ लिखने की आवश्यकता नहीं है।”
“तो इतनी देर से मेरा माथा क्यों खराब कर रहा था?”

लेकिन नो डाउट कि एक घंटा तो जरूर लगा, लेकिन आज ही परमिट हाथ में आने में तिलक भाई का बहुत बड़ा योगदान रहा, अन्यथा उस क्लर्क ने तो मानों कसम खा ली थी कि आज परमिट नहीं बनाना। सारी बातें लिखी नहीं जा सकतीं।

24 जून 2018
हाँ, मुझे पता है कि आप उस अलौकिक अनुभव को जानने के लिए बेताब हैं। लेकिन प्लीज वहाँ थोड़ी देर बाद चलेंगे। पहले हम यात्रा पर आए इन सभी मित्रों को गंगनानी घुमा लाएं। लेकिन उससे भी पहले परिचय। ये संजय जी हैं, इनकी पत्नी हैं और दो बच्चे हैं। ये चारों रैथल यात्रा में भी साथ थे और इन्हें ऐसे ही स्थानों पर जाना पसंद है। इन्हें फेसबुक के लिए पॉपुलर हिल स्टेशन के चौराहे पर लगी मूर्ति के सामने खड़े होकर, फव्वारे के सामने मुँह बनाकर सेल्फी लेना पसंद नहीं है। अगर इन्हें यह सब पसंद होता, तो आज ये हमारे साथ नहीं होते, बल्कि शिमला या मनाली में होते। अब आइए, दूसरे कमरे में झाँकते हैं। देखिए, ये दो कच्छाधारी पड़े हुए हैं। अरे पजामा, पैंट कुछ तो पहन लो। ये हैं उमेश गुप्ता, गोला गोकरन नाथ से आए हैं, यू.पी. से। और ये जो मोटे वाले हैं, ये हैं अजय वर्मा, सीतापुर से। अब चलिए, तीसरे कमरे में झाँकते हैं। ये अमित राणा हैं, मेरठ से। ये बाइक से आए हैं। व्हाट्सएप पर अपना नाम रुद्र हनुमान रखा हुआ है, तो सब इन्हें हनुमानजी भी कह देते हैं। और इनका शरीर भी ठीक हनुमान जी जैसा ही है, पूँछ नहीं है।
“अच्छा, आप सभी यह बताइए कि क्या आपने कभी प्राकृतिक गर्म पानी के सोते में स्नान किया है?”
“नहीं किया।” सभी ने कहा।
“तो आज हम गंगनानी चलेंगे। आप यहाँ बस से आए हैं और वापस भी बस से ही जाएंगे, तो गंगनानी उतरकर बस बदलना ठीक नहीं। इसलिए हम सबसे पहले गंगनानी चलेंगे। अगर आपने पहले कभी स्नान किया होता, तो मैं वहाँ चलने को नहीं कहता। लेकिन ऐसे कुंडों में नहाने का अनुभव जीवन में कम से कम एक बार तो लेना ही चाहिए।”

गंगनानी में...
महिलाएँ महिला-कुंड में चली गईं और पुरुष सभी पल-भर में कच्छाधारी बन गए। केवल दो को छोड़कर।
“नहीं, मैं नहीं नहा पाऊँगा। बहुत गर्म पानी है।” संजय जी ने कहा। उनका पुत्तर अपनी पैंट पकड़कर उतारने को तैयार खड़ा है - पापा कहेंगे तो उतारूंगा।
“नहीं, पानी गर्म जरूर है, लेकिन नुकसान कुछ नहीं है। एक बार असह्य जरूर लगेगा, लेकिन फिर सब सह्य होने लगेगा। वो देखिए, कितने लोग नहा रहे हैं। इसमें उतरने की टेक्नीक होती है। पहले पैर डुबोइए। फिर धीरे-धीरे, धीरे-धीरे उतरिए। आधा घंटा लगाइए पूरा उतरने में। कष्ट नहीं होगा।”
“नहीं, वाकई बहुत गर्म पानी है। नहीं नहाएंगे हम।”
“और पापा, मैं?” बेटेलाल ने पूछ ही लिया।

चलिए, संजय जी को फोर्स नहीं करते। हम नहा लेते हैं। धीरे-धीरे उतरना। पहले पैर डुबोना, बाहर निकल जाएंगे अपने-आप। फिर डुबोना, फिर जबरदस्ती डुबाए रखना। सब सामान्य हो जाएगा, तो आगे बढ़ना।
दस मिनट बाद...
सभी के पैर पानी में हैं और पानी अब उतना गर्म नहीं लग रहा। लेकिन अभी भी डुबकी मारने की हिम्मत नहीं हो रही है।
तभी अचानक...
“ओये, रुको, रुको।” कई लोग चिल्लाकर किसी को रोकते हैं। एक कच्छाधारी दौड़कर आ रहा था और कुंड में छलांग लगाने ही वाला था। अगर लोगों के चिल्लाने में एक मिलीसेकंड की भी देरी हो जाती, तो यह कूद जाता और फिर...
अरे, यह तो अपने संजय जी हैं। क्या हो गया है आपको? सीधे छलांग ही मारने चले थे? पकौड़े की तरह तले जाने की फीलिंग आती। धीरे-धीरे उतरो इसमें। आओ, इधर बैठो और पैर डालो इसमें।
उई माँ... यह तो वाकई बहुत गर्म है। मुझे लगा था कि इतने लोग पानी में एंजोय कर रहे हैं, तो उतना गर्म नहीं होगा। इसमें तो पैर डालकर भी नहीं बैठा जा सकता। मैं नी... मैं नहीं कर सकता।
अच्छा ठीक है, आप छलांग ही मार लो।

आधे घंटे बाद सब के सब कुंड के अंदर डुबकियाँ मार रहे थे और बाहर खड़े कच्छाधारियों को मोबाइल, कैमरे पकड़ाकर फोटो, वीडियो बनवा रहे थे।
...
अब ज्यादा देर नहीं लगेगी उस अलौकिक अनुभव को लेने में। लेकिन इन सबको मुखबा और बगोरी घुमा लाऊँ।

मुखबा घूमने के बाद...
“अरे सुनो भाई, बिना दर्शन किए ही जा रहे हो?”
ये बाबा मुखबा स्थित गंगा मंदिर के पुजारी हैं। कुछ दिन पहले जब मैं, दीप्ति और सुमित यहाँ आए थे तो ये हमें यहाँ नहीं दिखाई दिए थे और मंदिर में ताला लगा था।
“गंगा मैया की पूजा यहीं पर होती है सर्दियों में। हमीं लोग पूजा करते हैं। आजकल गंगा मैया गंगोत्री में हैं, लेकिन यहाँ भी सुबह-शाम पूजा-आरती सब होती है। लो, दर्शन करो और प्रसाद लो।”
“बाबाजी, हमें तो लगा कि गंगा मैया गंगोत्री में हैं, तो यहाँ पूजा नहीं होती होगी।”
“नहीं जी, ऐसी बात नहीं है। वहाँ वो मार्कंडेय मंदिर है। पहले वहाँ पूजा करता हूँ, फिर वहीं से गंगाजल लाकर यहाँ पूजा करता हूँ।”
“कहाँ है मार्कंडेय मंदिर?”
“वो रहा।”
अरे, कहाँ गए आप लोग। आप भी देखिए मार्कंडेय मंदिर। एकदम सुनसान में भागीरथी किनारे। जोरदार लोकेशन है। वहाँ जाने की योजना और समय तो नहीं है, लेकिन कल कोशिश करेंगे।

“भाई जी, भूख लगी है। हर्षिल में अच्छी-सी जगह पर रुक जाना। लंच करके बगोरी घूमने जाएंगे।”
आओ भई, सभी लोग उतरते हैं और जो मन करे, खाते हैं।
“अभी कुछ भी नहीं है भाई जी, चाऊमीन बन सकती है।” रेस्टॉरेंट वाले ने बताया।
“बाकी दुकानों पर?”
“इस समय तो मिलना मुश्किल ही है। तीन बज चुके हैं।”
“ड्राइवर भाई, एक काम करते हैं। तीन किलोमीटर पर ही धराली है। वहीं चलते हैं और लंच करके फिर यहीं आ जाएंगे बगोरी और हर्षिल देखने।”
“नहीं, मैं फिर नहीं आऊंगा।”
“अबे, मजाक मत कर।”
“मजाक क्यों करूंगा। गंगनानी, मुखबा घूमने का बात हुई थी, वो मैंने घुमा दिया।”
“अरे नहीं भाई, शाम सात बजे तक घुमाने की बात हुई थी।”
“नहीं, ऐसी कोई बात नहीं हुई।”
“चलो रे, बैठो सब गाड़ी में। धराली चलते हैं।”

धराली में...
“ओये अर्जुन भाई, ड्राइवर से बात कर। आधा घुमाने के बाद मना कर रहा है।”
“क्यों बे, मना क्यों कर रहा है? सात बजे तक घुमाने की बात की थी मैंने।”
“नहीं, जितनी बात हुई थी, उतना घुमा दिया। अब नहीं घुमाऊंगा।”
“अबे, ज्यादा दिमाग खराब मत कर। नींद आ रही हो, तो सो जा। मैं घुमा लाऊंगा। गंगनानी, हर्षिल, मुखबा, बगोरी घुमाने की बात हुई थी और शाम सात बजे तक की भी।”
“मैं कुछ नहीं जानता। ये लोग बार-बार गाड़ी रुकवा देते हैं और एक-एक जगह पर बहुत-बहुत टाइम लगा रहे हैं।”
“ये लोग घूमने आए हैं, तो गाड़ी क्यों नहीं रुकवाएंगे?”
“मैं नी... मेरी तरफ से फाइनल डिसीजन है।”
“आधे पैसे मिलेंगे।”
“आधे क्यों मिलेंगे? पूरे पैसे लूंगा मैं।”
“पूरे पैसे चाहिए तो पूरा टूर करा इनका।”
“नहीं कराऊंगा।”
“तो आज के बाद मत बोलना कि कस्टमर दे दो, कस्टमर दे दो। अब तेरे को बिना मोलभाव वाले कस्टमर दे रहे हैं, तो ऐसा बर्ताव कर रहा है। आज के बाद मत आना अपना मुँह लेकर इधर।”

और वो “पूरे पैसे लूंगा” कहता-कहता ऐसा गायब हुआ कि अगले तीन दिनों तक एक भी पैसा लेने नहीं आया।

अब मुझे आप यह बताइए कि अलौकिक अनुभव कैसे सुनाऊं? हमारा मूड खराब हो गया, हम यहाँ गुस्से में लाल-पीले हुए बैठे हैं और वो हमें ऐसे छोड़कर चला गया। खैर, यह अच्छा हुआ कि वो धराली ही छोड़कर गया। अन्यथा उसे बिना पैसे लिए ही जाना था, तो वो हमें गंगनानी भी छोड़कर जा सकता था।
हर्षिल में सूर्यास्त देखना अलौकिक अनुभव होता। है ना?
और काहे का हर्षिल! बाजार में खाने को कुछ नहीं है। धराली के आगे तो यह कुछ भी नहीं। वो अंग्रेज आया था कोई... क्या नाम था उसका... विल्सन... सेब-सूब बोना शुरू किया उसने... यहीं ब्याह कर लिया... यहीं घर बना लिया... तो हर्षिल फेमस हो गया। जबकि यह धराली के आगे कहीं टिकता ही नहीं।
“क्यों संजय जी?”
“क्या हुआ?”
“हर्षिल अच्छा है कि धराली?”
“धराली।” दस मुँहों से आवाज आई।

आओ दोस्तों, थोड़ा अर्जुन को डंडा करते हैं। यह जो अर्जुन है ना, इसका नाम अर्जुन नेगी है। मूँछें शानदार हैं इसकी, राजस्थानी मूँछों जैसी। धराली में आप किसी से भी पूछ लीजिए - मुच्छड़ से मिलना है, तो आपको अर्जुन के सामने खड़ा कर दिया जाएगा। वो सामने इसका अपना होटल है - आँचल होटल। लेकिन वह छोटा है और कम यात्री इसके यहाँ आते हैं, तो इसने अपने स्वयं के होटल के खान-पान का ठेका किसी और को दे रखा है। और खुद इस होटल के खान-पान का ठेका ले रखा है - अपने कम्पटीटर होटल का ठेका। हम ज्यादा अच्छा होने के कारण इस कम्पटीटर होटल में ठहरे हैं। जाहिर है कि जो भी हम दस लोग दो दिनों तक सुबह-शाम खाएंगे, वो सारा पैसा अर्जुन को मिलेगा। तो चलो, इसी बात पर अर्जुन को डंडा करते हैं।
“मुच्छड़ भाई, सुन।”
“क्या हुआ?”
“देख, हमारा मूड़ बहुत खराब हो गया है।”
“भाई जी, मैं सॉरी बोलता हूँ उसकी तरफ से। मुझे नहीं पता था कि वो ऐसा बर्ताव करेगा।”
“आज शाम को उसे बुला और मैं उसे आधे पैसे ही दूंगा - 1500 रुपये। एक पैसा भी फालतू नहीं दूंगा।”
“लेकिन अगर वो...”
“अगर वो जिद पर अड़ गया और हमारे 3000 रुपये चले गए तो हम सामने आँचल होटल में खाना खाएंगे।”
“अजी कैसी बात करते हो आप भी?”
“हाँ, मैंने सोच लिया है। वो बंदा पराँठे बहुत अच्छे बनाता है।”
“मैं शर्त लगा रहा हूँ भाई जी... जैसा खाणा हमारे यहाँ बनता है ना, पूरे धराली में कहीं नहीं बण सकता।”
“हम बेकार खाणा खाएंगे... लेकिन सामने आँचल होटल में खाएंगे। और तुझे दिखा-दिखाकर खाएंगे।”
“तो आणे दो शाम को ड्राइवर को। मैं भी देखता हूँ वो 1500 से ऊपर कैसे लेता है!”

क्या कहा आपने? अलौकिक अनुभव...
ओहो... मैं तंग आ गया आपकी इस डिमांड से। चलो, मार्कंडेय मंदिर चलते हैं और अलौकिक अनुभव को भूल ही जाओ।
“नेगी, मार्कंडेय मंदिर का रास्ता बता।”

ये लो, हम पहुँच गए हैं मार्कंडेय मंदिर। यह आवाज कैसी आ रही है? ओहो, बूढ़ी अम्मा अपने घर की बालकनी में बैठकर गंगाजी के भजन गा रही हैं। इस गाँव में इनके अलावा कोई भी नहीं दिख रहा। अम्मा नमस्कार! अम्मा कह रही हैं कि फिलहाल मंदिर में दर्शन कर लो। चलो, दर्शन करते हैं।
“अरे बाबाजी, आप? थोड़ी देर पहले तो आप ऊपर मुखबा में थे?”
“हाँ, मैंने बताया तो था कि मुझे ही मार्कंडेय मंदिर में भी पूजा करनी होती है। पूजा हो गई है, अब मैं गंगाजल लेकर मुखबा जा रहा हूँ। अब वहाँ पूजा करूंगा।”
और आप सभी इधर-उधर क्यों हो जाते हैं? बाबा ने मंदिर खोल दिया है और आप धूप लीजिए और प्रसाद भी लीजिए। हमारे इन मंदिरों में पैसे का मोल नहीं होता। चढ़ाने हों, चढ़ाओ; नहीं तो रहने दो।
“नीरज, मैं कभी भी मंदिरों में नहीं जाता हूँ, लेकिन यह जगह मुझे बड़ी पसंद आई। यह तो वाकई अलौकिक जगह है। आओ, गंगाजी के किनारे बैठते हैं थोड़ी देर।” संजय जी ने कहा।
देखो दोस्तों, मंदिर एकदम भागीरथी के किनारे है। कुछ सीढ़ियाँ बनी हैं। सीढ़ियों पर रेत है। एक-दो दिन पहले पानी चढ़ा होगा। ठंडे वातावरण में रेत गर्म लग रही है। नंगे पैर आनंद आ रहा है। उस लकड़ी को देखिए। गंगाजी में बड़ी देर से गोल-गोल घूम रही है। अब इस पर एक चिड़िया आकर बैठ गई। यह भी गोल-गोल घूमने लगी। मजे से नाव की सवारी कर रही है। लो, उड़ गई।
आओ, अब मंदिर के पीछे चलते हैं। उधर पश्चिम है। सूर्यास्त हो रहा है। आसमान लाल है। गंगाजी के जल में प्रतिबिंब पड़ रहा है। लाल प्रतिबिंब। अम्मा अभी भी भजन गा रही हैं। चलो, थोड़ी देर उनके पास बैठते हैं।
“मेरे इतने बेटे थे, सबके घर बस गए। उत्तरकाशी और देहरादून रहते हैं। मुझे भी वहीं बुलाते हैं। लेकिन गंगाजी जाने नहीं देतीं। मैं कैसे चली जाऊँ गंगाजी को छोड़कर! मन ही नहीं करता। एक बेटा गंगोत्री पुजारी है। कभी-कभार उसके पास चली जाती हूँ।
आप लोग मेरे घर में आए हो। मेरे पास तो कुछ देने को है ही नहीं। ... एक मिनट रुको। मैं सबके लिए चुन्नी और प्रसाद लाती हूँ। ... ये लो, और होता, तो मैं सब दे देती। ...

शाम के समय यहाँ मार्कंडेय मंदिर पर होना आज का अलौकिक अनुभव था, जिसे मैं लिखने में असफल रहा हूँ...

क्या कहा? जंगल में बचे-कुचे खाने का क्या हुआ?... बताता हूँ, बताता हूँ...



यात्रा यहीं से शुरू होती है...

अक्षय आर्य जी को किताब देते हुए और पैसे लेते हुए...

तिलक सोनी के यहाँ...

और अब धराली में...

गोला गोकरन नाथ के उमेश गुप्ता...




यह रही हमारी पूरी टीम... सुक्खी टॉप पर...

मेरठ के अमित राणा...

मुखबा से श्रीकंठ पर्वत दिखता है


धराली से मुखबा जाने का पैदल रास्ता... पुल पार करके एक पगडंडी ऊपर मुखबा चली जाती है और एक दाहिने मार्कंडेय मंदिर जाती है...

धराली में भागीरथी पर बना पैदल झूला पुल...





मार्कंडेय मंदिर से दिखता धराली

मार्कंडेय मंदिर के पास बसावट


मार्कंडेय मंदिर एकदम गंगाजी के किनारे स्थित है... अलौकिक शांति का अनुभव होता है यहाँ...



मार्कंडेय मंदिर





मार्कंडेय मंदिर पर शाम को आना चाहिए...








अगला भाग: धराली सातताल ट्रैक, गुफा और झौपड़ी में बचा-कुचा भोजन


1. गंगनानी में नहाना, ड्राइवर से अनबन और मार्कंडेय मंदिर
2. धराली सातताल ट्रैक, गुफा और झौपड़ी में बचा-कुचा भोजन
3. नेलांग यात्रा और गंगोत्री भ्रमण




Comments

  1. सुबह 4 बजे से ही पब्लिश होने का इंतजार कर रहा था। शानदार... जबरदस्त... जिंदाबाद..

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  2. Neeraj, one simple suggestion to you, going forward if someone wants to go with you on any kind of trip or expedition. Please make them sign a notarized waiver form stating that they are going by their own will and they or any of their family member will not hold you responsible for any incident.

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  3. वाह...रे साक्षी ।
    कस्ट्मर ले जाते है, तो थोड़े बन ठन के जाते हो.. अच्छे लगे हो..😊👍👌

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  4. शानदार वर्णन,,,,

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  5. बेहद रोचक वर्णन शैली । ऐसा लगा जैसे हमारा हाथ पकड़े आप आगे आगे और हम आपके पीछे पीछे पूरी यात्रा कर रहे हैं ।

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  6. शानदार, मजा आ गया पड़ने में भी

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इन पुस्तकों का परिचय यह है कि इन्हें जिम कार्बेट ने लिखा है। और जिम कार्बेट का परिचय देने की अक्ल मुझमें नहीं। उनकी तारीफ करने में मैं असमर्थ हूँ क्योंकि मुझे लगता है कि उनकी तारीफ करने में कहीं कोई भूल-चूक न हो जाए। जो भी शब्द उनके लिये प्रयुक्त करूंगा, वे अपर्याप्त होंगे। बस, यह समझ लीजिए कि लिखते समय वे आपके सामने अपना कलेजा निकालकर रख देते हैं। आप उनका लेखन नहीं, सीधे हृदय पढ़ते हैं। लेखन में तो भूल-चूक हो जाती है, हृदय में कोई भूल-चूक नहीं हो सकती। आप उनकी किताबें पढ़िए। कोई भी किताब। वे बचपन से ही जंगलों में रहे हैं। आदमी से ज्यादा जानवरों को जानते थे। उनकी भाषा-बोली समझते थे। कोई जानवर या पक्षी बोल रहा है तो क्या कह रहा है, चल रहा है तो क्या कह रहा है; वे सब समझते थे। वे नरभक्षी तेंदुए से आतंकित जंगल में खुले में एक पेड़ के नीचे सो जाते थे, क्योंकि उन्हें पता था कि इस पेड़ पर लंगूर हैं और जब तक लंगूर चुप रहेंगे, इसका अर्थ होगा कि तेंदुआ आसपास कहीं नहीं है। कभी वे जंगल में भैंसों के एक खुले बाड़े में भैंसों के बीच में ही सो जाते, कि अगर नरभक्षी आएगा तो भैंसे अपने-आप जगा देंगी।

ट्रेन में बाइक कैसे बुक करें?

अक्सर हमें ट्रेनों में बाइक की बुकिंग करने की आवश्यकता पड़ती है। इस बार मुझे भी पड़ी तो कुछ जानकारियाँ इंटरनेट के माध्यम से जुटायीं। पता चला कि टंकी एकदम खाली होनी चाहिये और बाइक पैक होनी चाहिये - अंग्रेजी में ‘गनी बैग’ कहते हैं और हिंदी में टाट। तो तमाम तरह की परेशानियों के बाद आज आख़िरकार मैं भी अपनी बाइक ट्रेन में बुक करने में सफल रहा। अपना अनुभव और जानकारी आपको भी शेयर कर रहा हूँ। हमारे सामने मुख्य परेशानी यही होती है कि हमें चीजों की जानकारी नहीं होती। ट्रेनों में दो तरह से बाइक बुक की जा सकती है: लगेज के तौर पर और पार्सल के तौर पर। पहले बात करते हैं लगेज के तौर पर बाइक बुक करने का क्या प्रोसीजर है। इसमें आपके पास ट्रेन का आरक्षित टिकट होना चाहिये। यदि आपने रेलवे काउंटर से टिकट लिया है, तब तो वेटिंग टिकट भी चल जायेगा। और अगर आपके पास ऑनलाइन टिकट है, तब या तो कन्फर्म टिकट होना चाहिये या आर.ए.सी.। यानी जब आप स्वयं यात्रा कर रहे हों, और बाइक भी उसी ट्रेन में ले जाना चाहते हों, तो आरक्षित टिकट तो होना ही चाहिये। इसके अलावा बाइक की आर.सी. व आपका कोई पहचान-पत्र भी ज़रूरी है। मतलब...