Skip to main content

जंजैहली भ्रमण: मित्रों के साथ

जनवरी में रैथल ग्रुप यात्रा से उत्साहित होकर तय किया कि मार्च में जंजैहली जाएँगे। रैथल यात्रा के दौरान हमें कई बहुत अच्छे मित्र मिले, तो लगने लगा कि साल में कभी-कभार ग्रुप यात्राएँ आयोजित कर लेनी चाहिए। मार्च के आखिर में कई छुट्‍टियाँ थीं और 1 अप्रैल का रविवार था, तो कार्यक्रम बना लिया।
लेकिन एक शर्त थी। वो यह कि सभी को स्वयं ही जंजैहली पहुँचना था। मैं और दीप्ति मोटरसाइकिल से जाने वाले थे। जंजैहली भले ही सामान्य यात्रियों में लोकप्रिय न हो, लेकिन वहाँ पहुँचना बिल्कुल भी मुश्किल नहीं है। सुंदरनगर और मंडी से नियमित बसें चलती हैं और दिल्ली तक से भी सीधी बस चलती है।
अब हमारी बारी थी जंजैहली में मित्रों के ठहरने की व्यवस्था करने की। अगर केवल हमें ही जाना होता, तब तो हम इस बारे में कुछ भी नहीं सोचते, लेकिन अब सोचना जरूरी था। क्या एक चक्कर कुछ दिन पहले लगाया जाए?

लेकिन एक तो ‘फाइनेंशियल ईयर’ का आखिरी समय और फिर बच्चों की परीक्षाएँ - दो-तीन मित्र ही चलने को तैयार हुए। और ये वे मित्र थे, जो थोड़ी-बहुत असुविधा सहन कर सकते थे। इसलिए कुछ दिन पहले जाकर व्यवस्था देखना रद्द कर दिया। इसकी बजाय हम एक दिन पहले जाएंगे और ‘बेस्ट लोकेशन’ पर कमरा ले लेंगे।
झटका तब लगा जब यात्रा शुरू होने से दो दिन पहले जम्मू के एक मित्र ने यात्रा में शामिल होने में असमर्थता जताई। वे परिवार सहित आने वाले थे और यह यात्रा केवल उन्हीं पर टिकी थी। चूँकि हमने कोई भी एडवांस बुकिंग नहीं की थी और हमारे पैसे भी खर्च नहीं हुए थे, तो हमें फाइनेंशियली कुछ भी नुकसान नहीं हुआ, लेकिन उत्साह कम हो गया। अगले दिन हम इस यात्रा पर चलने वाले बाकी मित्रों और संबंधियों को भी मना करने वाले थे। और ये वे मित्र थे, जिनसे किसी भी समय किसी भी काम के लिए हाँ या ना कहा जा सकता था। यात्रा पर जाने या न जाने से इनकी दिनचर्या पर कोई फर्क नहीं पड़ने वाला था।
हमें स्वयं को ‘टूर ऑपरेटर’ कहलाना पसंद नहीं है। हम टूर ऑपरेट नहीं करते, बल्कि कोशिश करते हैं कि आपको भविष्य में कभी भी किसी टूर ऑपरेटर की जरूरत ही न पड़े। आप पर्वतों में किसी शांत और भीड़ से दूर किसी स्थान पर घूमने जाना चाहते हैं, लेकिन तमाम आशंकाओं और पूर्वाग्रहों के कारण नहीं जा पाते और शिमला, मनाली घूमकर लौट आते हैं। जंजैहली जैसी जगहें कभी भी आपकी सूची में नहीं होतीं।
मैं दीप्ति को समझा रहा था - “देख, किसी भी यात्रा में तीन बेसिक चीजों का ध्यान रखा जाता है। नंबर एक, यातायात के साधन। नंबर दो, अच्छा होटल। नंबर तीन, अच्छा भोजन। लेकिन अगर हम इन तीन बातों पर ध्यान केंद्रित रखेंगे तो हमें कभी भी आनंद नहीं आएगा।”
“क्यों?”
“एक अहम सवाल होता है कि वहाँ करेंगे क्या। चौबीस घंटों में अगर आठ घंटे सोने के और चार घंटे खाने-पीने और नहाने-धोने के भी जोड़ लें, तो बाकी बचे बारह घंटों में क्या करेंगे? हम खाली बैठने की या शून्य में झाँकने की या कुछ भी न करने की भले ही कल्पनाएँ करते रहें, लेकिन ऐसा कभी होता नहीं है। हमें इन बारह घंटों में कुछ न कुछ करना ही है। अगर एक घंटे भी खाली बैठ गए, तो यात्रा खराब होनी तय है। इसलिए ध्यान रखना है कि हमारे मित्र खाली न बैठें। आज के समय में अगर कोई दावा करता है कि वो किसी भी स्थान पर घंटों खाली बैठ सकता है, तो यकीन मानों कि वो या तो फोटोग्राफी के कीड़े से ग्रसित है या फेसबुक के कीड़े से। यकीन न हो तो उनका मोबाइल और कैमरा छुपा दो। फिर उन्हें बिन पानी मछली की तरह तड़पते देखा जा सकता है।”
“ह्म्म्म।”
“इनके अलावा मौसम भी अहम होता है। गर्मियों में जैसलमेर जाना ठीक नहीं, भले ही वहाँ यातायात के अच्छे साधन हों, अच्छे होटल हों, अच्छा भोजन हो। हर जगह पर जाने की एक ‘कंफर्ट’ मौसम होता है। तो मार्च-अप्रैल में हिमाचल में 1500 मीटर से 2500 मीटर तक के स्थान सर्वोत्तम कहे जा सकते हैं। जंजैहली 2000 मीटर पर है, इसलिए इस कैटेगरी में फिट बैठता है।”

तो हमारा ना चलना निश्चित हो चुका था। अगले दिन हम इस यात्रा पर चलने वाले बाकी मित्रों को मना करने वाले थे...
तभी...
गाजियाबाद में रहने वाले नीरज मिश्रा जी का फोन आया - “नीरज भाई, मैं सपरिवार इस यात्रा पर चलना चाहता हूँ। अभी सीटें बची हैं या फुल हो गईं?”
“सर, सब सीटें फुल हो गईं। अब हमने बुकिंग बंद कर दी है।”
“ओहो! देखो नीरज भाई, कैसे भी करके हमें इस यात्रा पर ले चलो। ऑफिस से बड़ी मिन्नतें करके छुट्‍टियाँ ली हैं।”
“सर, बिल्कुल भी गुंजाइश नहीं है। फिर भी देखता हूँ।”
कॉल होल्ड...
दीप्ति से बात की - “क्या करना है?”
“चलो।”
कॉल अनहोल्ड...
“ओके सर... चलो।”

27 मार्च 2018, दिन मंगलवार
दोपहर एक बजे बाइक स्टार्ट कर दी और मेरी व दीप्ति की यात्रा आरंभ हो गई। नरेंद्र व दीप्ति का भाई हर्षित कल दिल्ली से बाइक से चलेंगे। मिश्रा जी कल शाम को कश्मीरी गेट से मंडी के लिए हिमाचल रोडवेज की हिमसुत्ता बस पकड़ेंगे। अंबाला से अजय सिंह राठौड़ जी भी चलेंगे।
साढ़े पाँच बजे अंबाला पहुँचे और अजय जी के कार्यालय में एक घंटे तक आराम करते रहे और कोल्ड ड्रिंक के साथ समोसे खाते रहे। बड़ी धूप थी और गर्मी भी।
अंबाला से चले तो अंधेरा हो चुका था। आज हमें सुंदरनगर पहुँचना था - तरुण गोयल के यहाँ। सुंदरनगर अभी 200 किलोमीटर से ऊपर था और आधा रास्ता पहाड़ी भी है।
वैसे तो अंबाला से शंभू बॉर्डर, बनूड़ होते हुए खरड़ जाना था; लेकिन एक नया रास्ता देखने की चाहत में डेराबस्सी से एयरपोर्ट वाली सड़क पकड़ ली। यह सड़क चार-लेन है और ट्रैफिक भी ज्यादा नहीं रहता, लेकिन मोहाली शहर के अंदर से गुजरने के कारण इस पर लालबत्तियाँ बहुत ज्यादा हैं और बार-बार रुकना पड़ता है। खरड़ तक पहुँचते-पहुँचते हमने एक नया रास्ता जरूर देख लिया था, लेकिन प्रतिज्ञा कर ली कि भविष्य में कभी भी इस रास्ते नहीं आना।
मैं वैसे तो रात में बाइक चलाने से बचता हूँ, लेकिन अगर सड़क अच्छी हो तो इसका भी अलग ही आनंद होता है। कीरतपुर तक तो शानदार मैदानी सड़क है। उसके बाद पहाड़ शुरू हो जाते हैं। वैसे तो बिलासपुर व उससे भी आगे तक इसे फोरलेन बनाने का काम चल रहा है, लेकिन वह पता नहीं कहाँ-कहाँ से होकर जाएगी। इसलिए वर्तमान सड़क उसकी वजह से ज्यादा डिस्टर्ब नहीं है।
बिलासपुर बस अड्‍डे पर चाय पीने रुके। आधी रात के ग्यारह बजे थे और पूरा बिलासपुर सोया हुआ था, सिवाय बस अड्डे के। दिल्ली की भी बसें, मनाली की भी बसें और शिमला की भी। और यात्री भी खूब थे। इस बस अड्डे के साथ मेरी एक याद जुड़ी हुई है। जब मैं अपने दो और मित्रों के साथ कमरूनाग गया था, तो यहाँ एक बेंच पर सोकर रात काटी थी। आज दीप्ति को वो सारा वाकया बताया कि किस तरह हम स्वारघाट से नौणी तक ट्रक में आए थे और सचिन जांगड़ा का बैग बस में ही छूट गया था।
यह सड़क चौड़ी तो है, लेकिन उतनी अच्छी नहीं है। बार-बार झटके देती रहती है। पीछे बैठी सवारी को सोने भी नहीं देती। घाघस पुल पार करते ही बाएँ जाती शानदार सड़क दिखाई पड़ी तो हम इसी पर हो लिए। दो किलोमीटर चलने के बाद होश आया कि सड़क अचानक शानदार कैसे हो गई और ट्रैफिक शून्य कैसे हो गया।
और आपको बता दूँ कि अगर हम इसी पर चलते रहते तो घुमारवीं पहुँच जाते। अगर तब भी चलते रहते तो हमीरपुर पहुँच जाते और खुदा-न-खास्ता तब भी चलते ही रहते तो कांगड़ा जा पहुँचते। इसलिए वापस मुड़े और रात एक बजे सुंदरनगर बस अड्डे के सामने पहुँचकर तरुण गोयल को फोन खड़खड़ा दिया।

28 मार्च 2018
तड़के-तड़क सुबह-सवेरे ग्यारह बजे गोयल साहब ने हमें उठाया - “जाटराम, आज भी सुंदरनगर ही रुकोगे ना?”
नींद में सोते-सोते ही उत्तर दे दिया - “हाँ।”

फिर भी बारह बजे तक सुंदरनगर से चल दिए। आज हमें जंजैहली में ‘बेस्ट लोकेशन’ पर कोई होटल ढूँढना था और कल हमारे सभी मित्र आ जाएँगे। सुंदरनगर से चैलचौक होते हुए जंजैहली की सड़क काफी संकरी है, लेकिन कम ट्रैफिक के कारण उतनी समस्या नहीं आती। और हिमाचल में अच्छी सड़कें तो हैं ही नहीं। फिर भी सत्तर किलोमीटर की यह दूरी तीन घंटे में तय हो गई।
जंजैहली में होटलों और होम-स्टे की कोई कमी नहीं। बिना अग्रिम बुकिंग के भी आप कभी भी जा सकते हैं। सर्दियों में यहाँ बर्फ भी खूब पड़ती है और मानसून में सेब की बहार होती है।
जंजैहली से एक-दो किलोमीटर पहले एक होम-स्टे में पूछताछ की - “सोलह सौ रुपये में दो लोगों के लिए कमरा और भोजन।” आपको यह बहुत सस्ता लगेगा, लेकिन मुझे थोड़ा महंगा लगा। इसकी लोकेशन भी उतनी आकर्षक नहीं थी। अगर हम शिकारी माता वाली सड़क पर चलें, तो वहाँ अच्छी लोकेशन पर होटल मिल जाएँगे। वहीं कोशिश करते हैं।
जंजैहली से एक किलोमीटर आगे कटारू में बहुत सारे होमस्टे हैं।
“आठ सौ का कमरा और खाना अलग।” एक होटलवाले ने बताया।
गोल्डन वैली होटल में 1000 का कमरा और खाना अलग। वैसे तो मैं कभी भी होटलों के नाम नहीं बताया करता, लेकिन इसका नाम इसलिए बता रहा हूँ क्योंकि इसकी लोकेशन ‘बेस्ट’ है। आप कभी जंजैहली जाओ और इतने पैसे खर्च कर सको, तो यहीं रुकना। और हाँ, इनका फोन नंबर और सटीक लोकेशन गूगल मैप पर मिल जाएँगे। मेरा मूड़ नहीं है बताने का।
लेकिन हम यहाँ नहीं रुकने वाले थे। हमारे पास समय बहुत था और हम अभी भी खूब पूछताछ कर सकते थे। आखिरकार कटारू गाँव में ही ‘शिवालिक होम-स्टे’ में हमने लंगर डाल दिया क्योंकि यहाँ पूछताछ करने दीप्ति गई थी और बिना मोलभाव किए 500 रुपये में कमरा पक्का कर आई थी। इनके यहाँ फर्स्ट फ्लोर और सेकंड फ्लोर पर कई कमरे हैं, नीचे परचून की दुकान है। कमरे बहुत अच्छे थे, गीजर भी थे, अंग्रेजी स्टाइल वाले टॉयलेट थे और साफ-सुथरे नरम गद्‍दे व रजाइयाँ भी। जब हमने बताया कि हमें दो दिनों के लिए तीन कमरे चाहिए तो उनकी खुशी देखने लायक थी और 500 रुपये में शानदार कमरा पाकर हमारी खुशी देखने लायक थी।
और जब हम खिड़की का पर्दा खोलकर बिस्तर पर लेटे हुए थे तो हमारे सामने शिकारी की धार से आती एक नदी थी और नदी के उस तरफ देवदार से लकदक पहाड़ी थी और पहाड़ी के ऊपर शुक्ल पक्ष की त्रयोदशी का चांद दिख रहा था।
उधर दिल्ली से सभी मित्र चल दिए थे और ऐसे फोटो देखकर उनका भी उत्साह बढ़ गया था।
आपको अगर गर्मियों की छुट्‍टियों में पहाड़ों की तरफ जाना है, तो एक सलाह दे रहा हूँ। बहुत नेक सलाह है। वो यह कि 2500 मीटर से ऊपर की ही किसी जगह का चुनाव कीजिए और बर्फ में खेलने की इच्छा छोड़ दीजिए। 2500 मीटर से ऊपर कौन-कौन से स्थान हैं, यह सब बताने का भी मूड़ नहीं है।
अगर आपको जंजैहली में आलू के पराँठे खाने हैं, मतलब बेस्ट पराँठे खाने हैं तो आपको इस होम-स्टे में जाना ही चाहिए। बेस्ट पराँठे क्या होते हैं, वो आप हमसे पूछिए। नीचे फोटो दे रखा है, अगर आपके मुँह में पानी नहीं आया तो आप आलू के पराँठे खाने के योग्य नहीं।
यहाँ इंटरनेट बहुत अच्छा चल रहा था। भारत के ज्यादातर लोगों की तरह मुझे भी फेसबुक की लत है। खाली पड़े-पड़े केवल फेसबुक ही चलाई और जो मित्र इस यात्रा पर नहीं आ पाए, उन्हें यह जता दिया कि उन्होंने न आकर भारी भूल कर दी।

29 मार्च 2018
सुबह आठ बजे मिश्रा जी मंडी उतर चुके थे। नरेंद्र व हर्षित अंबाला से शिमला वाली सड़क पर बढ़े जा रहे थे। हर्षित नई उम्र का छोरा है और तकनीक से खेलने का गुण उसमें जन्मजात है। नरेंद्र को न जंजैहली की स्पेलिंग पता थी और न ही वह इस शब्द को बोल पाता था। वह लाख समझाने, डराने, धमकाने के बाद भी इसे ‘झंझौली’ ही कहता रहा। उसे केवल सड़क चाहिए और वह मोटरसाइकिल को दौड़ाने में माहिर है, भले ही वो सड़क जंजैहली न जाकर कन्याकुमारी जा रही हो। इसलिए मुझे पता था कि पीछे बैठा हर्षित गूगल मैप देखकर नरेंद्र को रास्ता बताएगा। लेकिन हर्षित को गूगल मैप आदि की थ्योरिटीकल जानकारी तो भरपूर है, प्रैक्टिकल जानकारी शून्य है। यही सोचकर हमने उन्हें बता दिया था कि अंबाला से शंभू बॉर्डर, बनूड़, खरड़, रूपनगर, कीरतपुर साहिब, बिलासपुर, सुंदरनगर, चैलचौक होते हुए आना है।
“कहाँ पहुँचे?”
“हम सही आ रहे हैं। बेफिक्र रहो, हम पहुँच जाएँगे।”
“अपनी लाइव लोकेशन भेजो।”
लाइव लोकेशन आई तो वे कालका की गलियों में मिले।
“अबे कहाँ जा रहे हो?” मैं चिल्ला उठा। मुझे डर था कि अगर गूगल मैप ने उन्हें शिमला से होकर आने का सुझाव दे दिया, तो वे आज की तारीख में जंजैहली नहीं पहुँचने वाले।
“तुमसे शंभू और खरड़ होकर आने को कहा था, तुम कालका क्यों पहुँचे?”
“हम सही आ रहे हैं। चिंता मत करो।”
“तुम सही नहीं आ रहे हो। कालका से नालागढ़ की सड़क पकड़ो और बिलासपुर पहुँचो।”
और उन्होंने हमारे सुबह बताए रास्ते और अब बताए रास्ते दोनों को मिक्स कर दिया और कालका से नालागढ़, रूपनगर, कीरतपुर, स्वारघाट होते हुए आए।

जंजैहली में सेब के फूलने का दौर चल रहा था। फूलों को ओलों से बचाने के लिए पूरे पेड़ को जाली से ढक दिया जाता है। पहाड़ पर धुर से धुर तक ऐसी जालियाँ लगी दिखती हैं। हिमाचल की अर्थव्यवस्था का मुख्य आधार सेब ही है, इसलिए लोग इसकी खूब देखभाल करते हैं और खूब खर्चा भी करते हैं।
शाम तक सभी मित्र आ गए और सुनसान होटल में चहल-पहल हो गई। खाने-पीने के दौर के बाद नदी किनारे घूमने चल दिए। इस नदी का जल-संग्रहण क्षेत्र बहुत छोटा है और यह ज्यादा दूर से भी नहीं आती, इसलिए इस समय इसमें कम पानी था।
कल शिकारी माता मंदिर जाएँगे और टैक्सी वाले से 1200 रुपये में बात पक्की कर ली।


तरुण गोयल लाल बिस्तर पर बैठकर लाल लैपटॉप में अपनी किताब लिख रहे हैं... 

और जाटराम ने उन्हें ‘पंडितों का पंडित’ किताब भेंट की।


कमरे की खिड़की से




सेब को ओलों से बचाने की तकनीक




नीरज मिश्रा जी के परिवार के साथ










1. जंजैहली भ्रमण: मित्रों के साथ
2. शिकारी देवी यात्रा
3. जंजैहली से छतरी, जलोड़ी जोत और सेरोलसर झील




Comments

  1. Wah bhai majah aa geya parh kar

    ReplyDelete
  2. बहुत बढिया संस्मरण।

    ReplyDelete
  3. वाह .... आप तो एकदम माहिर है घुमक्‍क्‍ड़ी में।

    ReplyDelete
  4. बढिया है.. ..साल में एक दो बार ग्रुप का आन्नद भी लेते रहना चाहिए. .वैसे भी आप अकेले ज्यादा यात्रा करते है। होटल की लोकेशन बहुत सुंदर दिख रही है।

    ReplyDelete
  5. राम राम जी, मन खुश हो गया आज आपकी पोस्ट पढ़कर......

    ReplyDelete
  6. जाने की इच्छा मेरी भी थी लेकिन छुट्टियों समस्या के कारण नहीं जा सका।समस्या अभी बरकरार है।अगले भाग की प्रतीक्षा में। मेरा पूर्वोत्तर आयी कि नहीं अभी।

    ReplyDelete
  7. sir ji bahut maza aaya.... par plz.. aap jaha jaha tharane ki achchi vayavstha ho... vo sari hotel ho ya homestya.... un ka name ho sake to pata ya contect likhate rahiye.. is se or logo ko bhi bahut fayada hoga.. or aap ka aabhar mante rahenge.... or un ka bhi waqt barabad nahi hoga or aap ka ukapar hoga sir.. plz. ab jaha jaha aap rukate ho vo jagah-name etc batate rahiye plz.

    ReplyDelete
  8. अतिसुन्दर नीरज भाई

    ReplyDelete

Post a Comment

Popular posts from this blog

46 रेलवे स्टेशन हैं दिल्ली में

एक बार मैं गोरखपुर से लखनऊ जा रहा था। ट्रेन थी वैशाली एक्सप्रेस, जनरल डिब्बा। जाहिर है कि ज्यादातर यात्री बिहारी ही थे। उतनी भीड नहीं थी, जितनी अक्सर होती है। मैं ऊपर वाली बर्थ पर बैठ गया। नीचे कुछ यात्री बैठे थे जो दिल्ली जा रहे थे। ये लोग मजदूर थे और दिल्ली एयरपोर्ट के आसपास काम करते थे। इनके साथ कुछ ऐसे भी थे, जो दिल्ली जाकर मजदूर कम्पनी में नये नये भर्ती होने वाले थे। तभी एक ने पूछा कि दिल्ली में कितने रेलवे स्टेशन हैं। दूसरे ने कहा कि एक। तीसरा बोला कि नहीं, तीन हैं, नई दिल्ली, पुरानी दिल्ली और निजामुद्दीन। तभी चौथे की आवाज आई कि सराय रोहिल्ला भी तो है। यह बात करीब चार साढे चार साल पुरानी है, उस समय आनन्द विहार की पहचान नहीं थी। आनन्द विहार टर्मिनल तो बाद में बना। उनकी गिनती किसी तरह पांच तक पहुंच गई। इस गिनती को मैं आगे बढा सकता था लेकिन आदतन चुप रहा।

जिम कार्बेट की हिंदी किताबें

इन पुस्तकों का परिचय यह है कि इन्हें जिम कार्बेट ने लिखा है। और जिम कार्बेट का परिचय देने की अक्ल मुझमें नहीं। उनकी तारीफ करने में मैं असमर्थ हूँ क्योंकि मुझे लगता है कि उनकी तारीफ करने में कहीं कोई भूल-चूक न हो जाए। जो भी शब्द उनके लिये प्रयुक्त करूंगा, वे अपर्याप्त होंगे। बस, यह समझ लीजिए कि लिखते समय वे आपके सामने अपना कलेजा निकालकर रख देते हैं। आप उनका लेखन नहीं, सीधे हृदय पढ़ते हैं। लेखन में तो भूल-चूक हो जाती है, हृदय में कोई भूल-चूक नहीं हो सकती। आप उनकी किताबें पढ़िए। कोई भी किताब। वे बचपन से ही जंगलों में रहे हैं। आदमी से ज्यादा जानवरों को जानते थे। उनकी भाषा-बोली समझते थे। कोई जानवर या पक्षी बोल रहा है तो क्या कह रहा है, चल रहा है तो क्या कह रहा है; वे सब समझते थे। वे नरभक्षी तेंदुए से आतंकित जंगल में खुले में एक पेड़ के नीचे सो जाते थे, क्योंकि उन्हें पता था कि इस पेड़ पर लंगूर हैं और जब तक लंगूर चुप रहेंगे, इसका अर्थ होगा कि तेंदुआ आसपास कहीं नहीं है। कभी वे जंगल में भैंसों के एक खुले बाड़े में भैंसों के बीच में ही सो जाते, कि अगर नरभक्षी आएगा तो भैंसे अपने-आप जगा देंगी।

ट्रेन में बाइक कैसे बुक करें?

अक्सर हमें ट्रेनों में बाइक की बुकिंग करने की आवश्यकता पड़ती है। इस बार मुझे भी पड़ी तो कुछ जानकारियाँ इंटरनेट के माध्यम से जुटायीं। पता चला कि टंकी एकदम खाली होनी चाहिये और बाइक पैक होनी चाहिये - अंग्रेजी में ‘गनी बैग’ कहते हैं और हिंदी में टाट। तो तमाम तरह की परेशानियों के बाद आज आख़िरकार मैं भी अपनी बाइक ट्रेन में बुक करने में सफल रहा। अपना अनुभव और जानकारी आपको भी शेयर कर रहा हूँ। हमारे सामने मुख्य परेशानी यही होती है कि हमें चीजों की जानकारी नहीं होती। ट्रेनों में दो तरह से बाइक बुक की जा सकती है: लगेज के तौर पर और पार्सल के तौर पर। पहले बात करते हैं लगेज के तौर पर बाइक बुक करने का क्या प्रोसीजर है। इसमें आपके पास ट्रेन का आरक्षित टिकट होना चाहिये। यदि आपने रेलवे काउंटर से टिकट लिया है, तब तो वेटिंग टिकट भी चल जायेगा। और अगर आपके पास ऑनलाइन टिकट है, तब या तो कन्फर्म टिकट होना चाहिये या आर.ए.सी.। यानी जब आप स्वयं यात्रा कर रहे हों, और बाइक भी उसी ट्रेन में ले जाना चाहते हों, तो आरक्षित टिकट तो होना ही चाहिये। इसके अलावा बाइक की आर.सी. व आपका कोई पहचान-पत्र भी ज़रूरी है। मतलब