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30 मार्च 2018
शिवालिक होमस्टे के मालिक का नाम तो नहीं पता और न ही यह पता कि पराँठे उसने बनाए या उसकी घरवाली ने; लेकिन आज सुबह-सुबह हम सभी अपनी जिंदगी के सर्वश्रेष्ठ आलू-पराँठे खा रहे थे। एक सुर में सभी ने एक-साथ नारा लगाया - “एक-एक पराँठा और।” फिर थोड़ी देर बाद किसी ने “एक-एक और” तो किसी ने “आधा-आधा और” के नारे लगाए। सामान्यतः हिमाचल वालों से न तो जोरदार तड़क-भड़क वाली सब्जी बनती है, न ही जोरदार पराँठे। लेकिन यहाँ सब्जी भी शानदार थी और पराँठे भी।
“भाई जी, आपने कोई ट्रेनिंग ली है क्या?”
“किस चीज की?”
“खाना बनाने की।”
“नहीं।”
तब तक टैक्सी ड्राइवर भी आ गया। वह हमें आज शिकारी देवी छोड़कर आ जाएगा और 1200 रुपये लेगा। दूरी 16 किलोमीटर है। वैसे तो हम चार जने दो मोटरसाइकिलों पर भी शिकारी देवी तक जा सकते थे, लेकिन चूँकि हमें कल वहाँ से पैदल दूसरे रास्ते से आना है, तो मोटरसाइकिल से जाने का इरादा त्याग दिया।
चारों ओर सेब की बहार थी। सेब के पौधों को जाली से ढक दिया था, ताकि इन्हें ओलों से कोई नुकसान न हो।
छोटे-छोटे दो-तीन गाँवों को पार करने के बाद जंगल शुरू हो जाता है और हम पहुँच जाते हैं भुलाह। यह स्थान 2600 मीटर की ऊँचाई पर है और बेहद खूबसूरत है। देवदार के पेड़ और उनके बीच में घास का मैदान। मैदान के एक किनारे पर बहती जलधारा। यह स्थान सुंदरता के रिकार्ड या तो सर्दियों में तोड़ता होगा या मानसून में। लेकिन इस समय भी कम सुंदर नहीं था। अगर आपको टॉफी-चॉकलेट के रैपर और सिगरेट के टोटे फेंकने की आदत नहीं है, तो आप यहाँ घंटों बिना कुछ करे-धरे समय बिता सकते हैं।
कभी जंजैहली आओ, तो भुलाह आना न भूलें। अब आप यह अवश्य पूछेंगे कि भुलाह में क्या है। सच बताऊँ तो भुलाह में कुछ भी नहीं है। तो हम भुलाह क्यों जाएँ? मत जाओ। कभी मत जाओ। लेकिन अगर यह सवाल आपके मन में नहीं आता, तो आपको भुलाह अवश्य ही जाना चाहिए।
2750 मीटर की ऊँचाई पर रायगढ़ है। यह केवल एक तिराहा-भर है और कुछ दुकानें भी हैं। यहाँ से एक रास्ता करसोग जाता है। कुछ साल पहले जब हम करसोग गए थे तो उधर से इसी रास्ते से अपनी मोटरसाइकिल से शिकारी देवी आने वाले थे, लेकिन उधर इतनी चढ़ाई है कि हमारी बाइक नहीं चढ़ पाई और गिर भी पड़े थे। तो करसोग की तरफ से शिकारी जाने का इरादा त्याग दिया था।
यहाँ भी अच्छा मैदान है और जमकर फोटोग्राफी की जा सकती है। सेल्फी के शौकीनों के लिए यह स्थान स्वर्ग है। एक बार यात्री गाड़ी से उतरे तो दोबारा चढ़ने में आधा घंटा लग गया।
यहाँ से 6 किलोमीटर आगे 3150 मीटर की ऊँचाई पर मोटर मार्ग समाप्त हो जाता है और सभी यात्री यहीं उतर जाते हैं। इससे आगे शिकारी देवी मंदिर तक पैदल जाना होगा, जो यहाँ से लगभग एक किलोमीटर दूर है। रायगढ़ से यहाँ तक पूरा रास्ता धार के साथ-साथ है और बहुत खराब है और चढ़ाई वाला भी है।
हिमाचल में यह धार बहुत लंबी है, लेकिन उतनी लोकप्रिय नहीं है। सुंदरनगर में तरुण गोयल के घर के पास से यह धार उठना शुरू होती है और बहुत जल्दी 3000 मीटर ऊँची हो जाती है। इसी पर कमरुनाग है, फिर शिकारी देवी है, जलोडी जोत है, सेरोलसर झील है और आगे बशलेव पास है। बशलेव पास तक यह थोड़े-बहुत उतार-चढ़ाव के बावजूद 3000 मीटर ऊँची ही रहती है। फिर इसकी ऊँचाई अचानक बढ़ती है और 5200 मीटर ऊँचा श्रीखंड महादेव भी इसी पर है। इस धार को कई सड़कें भी पार करती हैं। उन्हीं में से एक सड़क पर आज हम यात्रा कर रहे थे।
यहाँ कुछ बर्फ भी मिली। धार के दक्षिणी ढलान पर तो बर्फ नहीं थी, लेकिन उत्तरी ढलानों पर थोड़ी-सी बर्फ थी। लेकिन यह हमारे खेलने के लिए पर्याप्त थी। इससे यह भी पता चल गया कि कल जब हम पैदल बूढ़ा केदार के रास्ते नीचे उतरेंगे, तो काफी बर्फ मिलेगी, क्योंकि वह पूरा रास्ता इस धार के उत्तरी ढलान पर है। बर्फ के रास्ते पर मैं और दीप्ति तो चल सकते थे, लेकिन बाकियों का पता नहीं। हम खुद भी किसी को बर्फ में ट्रैकिंग नहीं कराने वाले थे। थोड़ी-बहुत देर खेलना अलग बात है और लंबी दूरी तय करना अलग बात। इसलिए टैक्सी वाले का फोन नंबर ले लिया कि अगर पैदल रास्ते में बर्फ ज्यादा हुई तो फिर से बुला लेंगे।
यहाँ कई दुकानें भी थीं। किन्नौर हिमालय और गढ़वाल हिमालय की बर्फीली चोटियाँ भी दिख रही थीं। इन्हें देखते हुए गुनगुनी धूप में चाय पीने का अनुभव हर किसी को नसीब नहीं होता।
एक किलोमीटर ऊपर जाना था, तेज चढ़ाई थी और पक्की सीढ़ियाँ बनी थीं। कुछ ही देर में पहुँच गए।
मंदिर अभी कुछ ही दिन पहले खुला था, तो अभी तक भी दुकानें पूरी तरह लगी नहीं थीं। दुकानदार अपनी-अपनी दुकानों को नए सिरे से लगा रहे थे - आगामी सीजन के मद्देनजर।
“यहाँ ठहरने की क्या सुविधा है, भाई जी?”
“मंदिर की सराय है।”
“कमरा कितने का है?”
“आप ठहर जाओ, गद्दे, कंबल दे देंगे। पैसे बाद में होते रहेंगे।”
हालाँकि बहुत मामूली पैसे लगे।
यह मंदिर समुद्र तल से 3300 मीटर की ऊँचाई पर स्थित है। बिना छत का यह मंदिर है। यहाँ से धौलाधार हिमालय से लेकर कुल्लू हिमालय, किन्नौर हिमालय और गढ़वाल हिमालय का 360 डिग्री नजारा दिखता है। शायद पीर पंजाल के पहाड़ भी दिखते हों।
कई सालों से मेरी यहाँ आने की इच्छा थी, लेकिन यह इच्छा आज पूरी हुई। एक बार जब कमरुनाग गया था, तब भी ऊपर ही ऊपर शिकारी देवी आने की योजना थी, लेकिन खराब मौसम के कारण नहीं आ पाया था।
कंबल ले लिए, गद्दे ले लिए और मैट्रेस भी। कमरा एकदम खाली था और गंदा था। झाड़ू लगाई और हम सातों के बिस्तर यहीं लग गए। चाहते तो दो कमरे भी ले सकते थे, लेकिन अत्यधिक ठंड के कारण एक ही कमरा लिया, ताकि गर्माहट बनी रहे।
यहाँ से सूर्यास्त और सूर्योदय दोनों का ही शानदार नजारा दिखता है। सूर्यास्त तो हमने देख लिया, पता नहीं सूर्योदय देखेंगे या नहीं।
पश्चिमी हिमालय में अमूमन 3200 मीटर के ऊपर वृक्ष-रेखा समाप्त हो जाती है और घास के मैदान आरंभ हो जाते हैं। यहाँ भी जंगल समाप्त होते और घास के मैदान आरंभ होते देखे जा सकते हैं। शिकारी मंदिर वृक्ष-रेखा से ऊपर है। कुछ दूर वन विभाग का रेस्ट हाउस है, जो शिकारी मंदिर से देखने पर अच्छा लगता है। घूमते-घामते हम रेस्ट हाउस तक पहुँच गए। किसी ने फोटो लिए, किसी ने सेल्फियाँ लीं और किसी ने नींद ली। नींद किसने ली, यह बताने की आवश्यकता नहीं।
रात सोते समय मन में उथल-पुथल मची थी - “नीरज मिश्रा जी क्या सोच रहे होंगे! वे अच्छे-खासे पैसे खर्च करके हमारे साथ आए हैं और यहाँ उन्हें नीचे जमीन पर भीड़-भाड़ में सोना पड़ रहा है।”
कंबल पिछले कई महीनों से भंडारघर में दबे पड़े थे, इसलिए उनमें गंध हो गई थी। धूल भी थी। हालाँकि हमने उन्हें धूप में डाल दिया था और झाड़ा भी था, लेकिन फिर भी धूल और रोएँ कमरे में उड़ रहे थे। यह जानकर होश उड़ गए कि मिश्रा जी के दस साल के लड़के वैभव को साँस की समस्या है और मीठा खाने, धूल में जाने और अत्यधिक ठंड में उसका गला बंद हो जाता है और उसे अस्पताल ले जाना पड़ता है। हम यहाँ मीठा खाने पर रोक लगा सकते थे, लेकिन धूल और ठंड पर रोक नहीं लगा सकते थे।
ये कंबल पता नहीं किस मैटीरियल के बने थे; बहुत भारी थे, चुभ भी रहे थे और तीन-तीन जोड़ने के बाद भी गर्माहट नहीं आ रही थी। बाहर तापमान शून्य के आसपास था और तेज हवा चल रही थी। पूरी रात इन कंबलों के भरोसे नहीं काटी जा सकती। मैं बाहर निकला और ढाबे वाले से रजाइयाँ माँग लाया। इन्हें कंबलों के नीचे लगाया और तुरंत गर्माहट आने लगी।
लेकिन वैभव की बुरी हालत थी। डर था कि अगर उसकी साँसें बंद होने लगेंगी, तो हम कुछ नहीं कर सकते थे। मिश्रा जी ने उसे भारी-भरकम जैकेट पहना दी थीं, ऊपर से दस-दस किलो के कंबल। उसे ठंड और धूल से तो कोई परेशानी नहीं हुई, लेकिन वह बेचारा कपड़ों के बोझ के नीचे दबा रहा। लगभग पूरी रात वह रोता रहा और उसके माता-पिता समेत हम भी ढंग से सो नहीं पाए।
और प्रतिज्ञा कर ली कि कभी भी शिकारी देवी या इसी तरह की किसी भी जगह पर कभी भी ग्रुप नहीं ले जाना। अगर ले जाना है तो अच्छे टैंट और स्लीपिंग बैगों का प्रबंध करके ही जाना है।
हे भगवान! बस किसी तरह सुबह हो और सभी सही सलामत उठें। अब वापस पैदल कतई नहीं जाना। गाड़ी से ही जाएँगे।
लेकिन ऐसा नहीं है कि हम सभी मनहूसों की तरह मुँह लटकाकर ही बैठे रहे। बड़ी देर तक अंताक्षरी का दौर चला और मिश्रा जी ने माहौल जीवंत बनाए रखा।
“ये लो गर्म पानी की बोतलें। इन्हें सभी लोग अपनी-अपनी रजाइयों में ही रखेंगे। इससे ये गर्म रहेंगी और सुबह तक आपको गर्म पानी मिलता रहेगा। दूसरी बात, अगर सूसू आए, तो दरवाजा खोलकर कमरे के बाहर ही मूत लेना। टॉयलेट दूर हैं, ऐसी ठंड में दूर जाना ठीक नहीं। तेंदुआ भी मिल सकता है।”
और आखिरी पाँच शब्दों का कमाल था कि किसी को भी सूसू नहीं आई।
31 मार्च 2018
सुबह पता नहीं कौन जांबाज था, सूर्योदय के फोटो ले आया। शायद हर्षित था। यह उसकी पहली यात्रा थी। भविष्य में जब वह हमारे जैसा यात्री बन जाएगा, तो शर्त लगा सकता हूँ कि वह कभी भी सूर्योदय के फोटो नहीं लिया करेगा।
शिकारी देवी मंदिर पर महिलाओं का एक समूह मिला, जिनमें से एक की दीप्ति से दोस्ती हो गई। वे कुल्लू की रहने वाली थीं और जंजैहली सरकारी अस्पताल में नर्स थीं। अपने यहाँ कुल्लू आने का भी निमंत्रण दिया। दोनों की अभी तक भी व्हाट्सएप पर बातचीत होती रहती है।
“उनसे बातचीत करती रहना। कुल्लू में अब हमें कमरों के लिए भटकना नहीं पड़ेगा।” मैंने दीप्ति को समझाया।
मंदिर के पीछे ढलान पर काफी बर्फ थी। मैं उधर जा बैठा। बड़ा अच्छा लगा। बर्फ का यह ढलान, उसके बाद जंगल, फिर मंडी-जंजैहली सड़क, उसके परे ब्यास घाटी और फिर धौलाधार के बर्फीले पहाड़। मंदिर के पीछे की इस सारी बर्फ का पानी आखिरकार ब्यास में ही मिलेगा। जबकि मंदिर के सामने का सारा पानी सतलुज में मिलता है। मंदिर एक धार पर है और यह धार ब्यास व सतलुज के जलक्षेत्रों को अलग करती है।
फिर वो पानी आपस में मिलेगा कब?
पंजाब में हरिके में।
अचानक मोबाइल में नन्हा-सा नेटवर्क आया, जिसने याद दिला दिया कि गाड़ी भी बुलानी है।
“भाई जी, आ जाओ गाड़ी लेकर।”
“बारह बजे तक आऊँगा।”
“आ जाना आराम से।”
“आज भी 1200 रुपये ही लगेंगे।”
“ले लेना।”
अगर आप जंजैहली से टैक्सी बुक करते हैं तो 1200 रुपये में आने-जाने के लिए बुकिंग हो जाती है। चार-पाँच घंटे गाड़ी शिकारी की पार्किंग में खड़ी रहती है। अब हमने दो बार गाड़ी बुक कराई तो दोनों बार 1200-1200 रुपये ही लगे। इससे हमें कोई फर्क नहीं पड़ा। सारे पैसे मिश्राजी के ही थे और उन्हीं के काम आ रहे थे। हमारा कुछ नहीं था।
“लेकिन नीरज भाई, हम कोशिश तो कर सकते थे पैदल जाने की।” मिश्राजी ने कहा।
“गाड़ी आ रही है। जिसका मन पैदल चलने का कर रहा हो, वो पैदल चले, मैं साथ चलूँगा।”
हालाँकि कोई भी पैदल जाने को राजी नहीं हुआ। सब के सब गाड़ी में जा लदे। मैं भी।
“अगली बार रोहांडा से कमरुनाग चढ़ेंगे और फिर ऊपर ही ऊपर पैदल शिकारी देवी आएँगे और पैदल नीचे उतरेंगे - या तो बूढ़ा केदार के रास्ते जंजैहली, या शंकर देहरा के रास्ते करसोग।” मैंने और दीप्ति ने तय किया।
गाड़ी वाले ने बताया - “भाई जी, मई जून में शिकारी देवी पर इतने लोग आते हैं कि गाड़ियों का कई-कई किलोमीटर लंबा जाम लग जाता है।”
आएँगे ही - मई-जून में लोग आएँगे ही। पहाड़ों में ऐसी कोई भी जगह नहीं होती, जहाँ मई-जून में भीड़ न होती हो। मुझसे अक्सर मित्र लोग पूछते हैं - ऐसी जगह बताओ जहाँ मई-जून में भीड़ न हो। तो मैं कोई जवाब नहीं दे पाता। जिन स्थानों का आपको नहीं पता और जो प्रसिद्ध नहीं भी हैं, वहाँ भी भीड़ हो जाती है।
यानी हमें मई-जून में यात्राएँ आयोजित नहीं करनी चाहिएँ। स्वयं हमारा भी मन नहीं लगता ऐसे में।
एक बजे तक सभी लोग वापस होटल पहुँच गए और इस तरह बिस्तरों पर जा पड़े जैसे कब से खेत खोद रहे हों।
कुछ देर बाद मिश्राजी आए - “नीरज भाई, अभी आधा दिन बाकी है। अब क्या करना है? कहाँ जाना है?”
“सर, वैसे तो कार्यक्रम शिकारी से पैदल ही आने का था। उसमें पूरा दिन लग जाता और 11-12 किलोमीटर पैदल चलने के बाद हम कहीं और जाने के बारे में सोचते भी नहीं, लेकिन अब हमारे सामने आधा दिन बाकी है, तो कहीं न कहीं तो जाना ही पड़ेगा, खाली तो बैठ नहीं सकते।”
“हाँ, मुझे पता है, लेकिन कहीं जाने का हो जाए तो अच्छा है।”
“ऐसा करते हैं... सेब के किसी बगीचे में घूमकर आते हैं।”
मुझे छोड़कर सभी सेब के बगीचे में चले गए। यहाँ चारों ओर सेब ही सेब हैं, इसलिए किसी खास जगह पर जाने की आवश्यकता नहीं। कहीं भी जा घुसो।
शाम को सभी लोग लौटे तो पता चला:-
“हम इस मुख्य सड़क से हटकर कच्चे रास्ते पर गए। कुछ ही दूर जाने पर एक बूढ़ा आदमी मिला। खुद आकर मिले और अपने बगीचे में घुमाया। घर ले गए और चाय भी पिलाई। अगली बार कभी आना हो तो घर आने का न्यौता भी दिया। चलते समय अपनी टोपी भी भेंट की।”
और इस टोपी को लगाकर मैंने सड़क किनारे बैठकर इस तरह फोटो खिंचवाया, जैसे बूढ़े बाबा ने मुझे ही यह टोपी दी हो। मनाली आदि स्थानों पर ऐसी टोपियाँ कई-कई सौ रुपये की बिकती हैं, लेकिन सिराज के एक गाँव में कोई ग्रामीण आपको यह निःस्वार्थ भाव से दे, तो निश्चित ही यह सम्मान की बात है।
गाड़ी से उतरते ही शिकारी जाने वाली पक्की सीढ़ियाँ मिलती हैं... |
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1. जंजैहली भ्रमण: मित्रों के साथ
2. शिकारी देवी यात्रा
3. जंजैहली से छतरी, जलोड़ी जोत और सेरोलसर झील
फिर से एक शानदार यात्रा वृतांत....वरना हिमाचल में हम लोग कूल्लू मनाली और शिमला के अलावा जानते ही क्या हैं
ReplyDeleteभाई म तो आपके साथ साथ ही घूम लेता हूं ,बस असेही घुमाते रहो
ReplyDeleteसच में नीरज भाई ...यात्रा वृतांत पढ़ के तो लगता है आपके साथ हम भी घूम रहे हैं. बहुत सजीव और ऐसा लगता है काश हम भी होते...
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