इस पूरी जानकारी का श्रेय जाता है तिलक सोनी जी को। तिलक जी उत्तरकाशी में रहते हैं और एक विशिष्ट कार्य कर रहे हैं। और वह कार्य है नेलांग घाटी को जनमानस के लिये सुगम बनाना। आप अगर कभी गंगोत्री गये होंगे तो आपने भैरोंघाटी का पुल अवश्य पार किया होगा और इस पुल पर खड़े होकर फोटो भी खींचे होंगे। यह पुल जाधगंगा नदी पर बना है। जाधगंगा नदी इस स्थान पर बहुत गहराई में बहती है और यहाँ केवल खड़े भर होना ही रोंगटे खड़े कर देता है। जाधगंगा नदी यहीं भागीरथी में मिल जाती है। और यहीं से नेलांग घाटी भी शुरू हो जाती है। जाधगंगा नेलांग घाटी की प्रमुख नदी है। असल में यह जाधगंगा घाटी ही है और इसमें एक प्रमुख स्थान है नेलांग। इसलिये इसका नाम नेलांग घाटी ज्यादा प्रचलित है।
तो जाधगंगा और इसकी ज्यादातर सहायक नदियाँ तिब्बत सीमा पर स्थित विभिन्न ग्लेशियरों से निकलती हैं। यहाँ से तिब्बत जाने का एक रास्ता भी हुआ करता था। ज़ाहिर है कि कैलाश मानसरोवर भी इधर से जाया जाता था। और वैसे भी तिब्बत उत्तरकाशी के ज्यादातर हिस्सों को अपना भाग बताता है। तो 1962 से पहले तिब्बत और उत्तरकाशी के बीच में खूब आवागमन होता था। 1962 में जो हुआ, वो आपको पता ही है। लड़ाई तो क्या हुई, यह आवागमन बंद हो गया। भैंरोघाटी से ऊपर के सभी गाँवों को खाली करा दिया गया और सेना उधर बैठ गयी। इन खाली हुए गाँवों में नेलांग और जादुंग प्रमुख थे। इनकी आबादी को हरसिल के पास बसाया गया और फिलहाल ये सभी लोग बगोरी में रहते हैं। साल में एकाध बार ही ये लोग नेलांग और जादुंग जाते हैं। पीढ़ियाँ भी बदल गयीं और उन्होंने बगोरी को अपना स्थायी ठिकाना मान लिया। इनमें भी अब ज्यादातर पढ़-लिखकर देहरादून और दिल्ली में बसने लगे हैं। अब वापस नेलांग कोई नहीं जाना चाहता।
और यहाँ से तिलक सोनी ने मोर्चा संभाला। अभी तक नेलांग घाटी में पर्यटकों व घुमक्कड़ों का जाना असंभव था। 1962 के बाद एक-दो पर्वतारोही दल अवश्य उधर गये थे, बाकी कोई नहीं। तिलक जी ने इसे ही अपना लक्ष्य बना लिया - नेलांग को आम यात्रियों के लिये खुलवाना है। उन्होंने नौकरशाही व सुरक्षाबलों के कितने चक्कर लगाये होंगे, कितनी सिरदर्दी सही होगी; आप स्वयं ही अंदाज़ा लगा लीजिये।
और दो-तीन साल पहले अचानक अख़बारों में एक ख़बर सुर्खियाँ बनने लगी - उत्तराखंड़ का लद्दाख, नेलांग घाटी। उत्तराखंड़ का तिब्बत, नेलांग घाटी। कुछ साहसी लोगों ने यह देखकर वहाँ जाने की कोशिश की, लेकिन किसी को नहीं पता था कि वहाँ जाने की परमीशन कहाँ से लें। कोई कहता नौकरशाही परमीशन देगी, कोई कहता फौज देगी। पहले साल शायद ही कोई गया होगा।
अगले साल से स्थानीय जीपें निजी बुकिंग पर नेलांग जाने लगीं। परमीशन जंगल विभाग देने लगा। लेकिन वहाँ कोई रात नहीं रुक सकता था। उसी दिन वापस लौटना पड़ता। तिलक सोनी धीरे-धीरे अपने हाथ-पैर चला ही रहे थे। शायद उन्होंने प्रशासन की कोई नब्ज़ पकड़ ली थी कि कैसे काम निकलवाना है। अब आप अपनी गाड़ी से भी नेलांग जा सकते हो, लेकिन बाइक से नहीं जा सकते और रात भी नहीं रुक सकते। सोनी इस कोशिश में हैं कि वहाँ आप अपनी बाइक से भी जा सको और रात भी रुक सको।
तो हम बताने वाले थे गरतांग गली के बारे में। लेकिन नेलांग घाटी और तिलक सोनी का ज़िक्र किये बिना गरतांग गली के बारे में बताना असंभव है। चलिये, इसके बारे में हम तिलक भाई से ही पूछ लेते हैं:
“जब मैं पहली बार नेलांग से लौट रहा था और भैरोंघाटी पहुँचने ही वाला था तो जाधगंगा के उस पार विचित्र बनावटें दिखायी पड़ीं। मैंने उनके फोटो लिये, लेकिन ज्यादा कुछ समझ में नहीं आया। यहाँ पहाड़ एकदम सीधे खड़े हैं। और लकड़ी की ये आकृतियाँ मुझे बड़ी विचित्र लगीं। उत्तरकाशी लौटकर इनके बारे में पूछताछ की, लेकिन कोई नहीं बता पाया। हैरानी इस बात की है कि ये सीढ़ियों जैसी आकृतियाँ उस भैरोंघाटी पुल से केवल दो-ढाई किलोमीटर हटकर थीं, जिससे प्रतिवर्ष लाखों सैलानी गंगोत्री जाते हैं।”
“जब उत्तरकाशी में मुझे इसके बारे में कुछ भी पता नहीं चला तो अपना दिमाग लगाना शुरू किया। भैरोंघाटी पहुँचा और अत्यधिक कठिन रास्ते को पार करता हुआ मैं इन सीढ़ियों तक पहुँचा। यहाँ इस स्थान पर पहाड़ एकदम खड़ा था और इन सीढ़ियों के बिना इसे पार करना असंभव था। लेकिन अब तक लकड़ी की ये सीढ़ियाँ इतनी गल चुकी थीं कि इन पर चलना लगभग नामुमकिन था। फिर भी मैंने इन्हें पार किया। ये सौ मीटर से भी ज्यादा लंबाई में बनी हैं। ज्यादातर तो यह उस खड़े पहाड़ को काटकर उसके अंदर बनाया गया है, लेकिन एक जगह यह हवा में लटका है।”
“अब यह तो पक्का हो गया कि यह नेलांग जाने का पैदल रास्ता हुआ करता था। 1962 के बाद आवागमन बंद हो गया तो इसकी उपयोगिता भी बंद हो गयी। लेकिन यह अपने आप में विशिष्ट था और इसे ‘हैरीटेज’ में रखा जा सकता है। इसलिये इसके बारे में और ज्यादा खोजबीन की आवश्यकता थी। नेलांग के विस्थापितों के गाँव बगोरी गया तो वहाँ के बड़े बूढ़ों ने इसके बारे में सब बताया।”
“इसका नाम गरतांग गली है। इसके बनने से पहले नेलांग जाने का रास्ता बेहद दुर्गम था और अक्सर आदमी व खच्चर मारे जाते थे। तो पेशावर के पठानों को इस पहाड़ में रास्ता बनाने के लिये बुलाया गया। पेशावर के आसपास खैबर के पहाड़ भी बड़े दुर्गम हैं और उन्हें ऐसे पहाड़ों में रास्ता बनाने का अच्छा तज़ुर्बा था। उन्होंने छैनी और हथौड़े से पहाड़ तोड़ना शुरू किया और रास्ता बना दिया। उसके बाद सुरक्षा के लिये लकड़ी की बाड़ लगा दी, जिसे हमने देखा था।”
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यह कहानी थी गरतांग गली की। लेकिन मुझे ‘गली’ शब्द विचित्र लगा। गढ़वाल और तिब्बत दोनों ही जगहों पर ‘गली’ शब्द प्रचलन में नहीं है। इसका उत्तर तिलक जी के पास भी नहीं है। मेरी समझ में इसकी दो संभावनाएँ हैं। या तो यह ‘गरताङली (गरतांगली)’ जैसा कुछ है, जो तिब्बती भाषा का शब्द हो। या फिर पेशावर के पठान ही इसे ‘गली’ कह गये; क्योंकि कश्मीर समेत खैबर और अफगानिस्तान में पहाड़ी दर्रों के लिये ‘गली’ शब्द का खूब प्रचलन है।
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तो अब तिलक जी की लिस्ट में नेलांग के साथ-साथ गरतांग गली भी जुड़ गया। गरतांग गली जाना कोई मुश्किल नहीं था। वे अगर इसे स्वयं ही प्रचारित कर देते तो गंगोत्री जाने वाले साहसी यात्री गरतांग गली तक भी जाने का प्रयत्न अवश्य करते। और आप जानते ही हैं कि साहस और मूर्खता में बाल बराबर ही अंतर है। गल चुकी लकड़ी अनाड़ियों का वजन नहीं सह सकती और टूट जाती और लोग नीचे नदी में गिरने लगते।
तिलक भाई ने प्रशासन से इसकी मरम्मत के लिये प्रार्थना की। प्रशासन ने इस पर ध्यान दिया। और इसकी मरम्मत के लिये धनराशि जारी कर दी।
हालाँकि गरतांग गली आधिकारिक रूप से अभी भी यात्रियों के लिये नहीं खुली है, लेकिन आज प्रायोगिक रूप से यहाँ यात्रियों का एक दल जाने वाला था। जैसे ही मुझे इसकी जानकारी मिली, मैं भी जा पहुँचा और दल में शामिल हो गया। उत्तरकाशी में भगवान विश्वनाथ जी के मंदिर में माथा टेकने के बाद, नारियल फोड़ने के बाद ज्यों ही जिलाधिकारी समेत जिले के अन्य अधिकारियों ने हरी झंडी दिखायी, तो हम चल दिये गरतांग गली की ओर।
गरतांग गली और भैरोंघाटी गंगोत्री नेशनल पार्क के अंतर्गत आते हैं, तो दल की अगवानी और कुछ औपचारिकताओं के लिये भैरोंघाटी पुल पर वन विभाग के अधिकारी भी उपस्थित थे। सबके नाम एक रजिस्टर में लिखने के बाद दस-दस के समूह में जाने की अनुमति दे दी। लगभग ढाई किलोमीटर पैदल चलने के बाद पहली बार गरतांग गली के दर्शन हुए। यह ढाई किलोमीटर का रास्ता जंगल विभाग ने बहुत शानदार बना दिया है। आज से पहले चूँकि यहाँ से आवागमन बंद था, तो पुराना रास्ता भू-स्खलन आदि के कारण लगभग समाप्त हो गया था।
वहाँ पहुँचे तो मुझे एक धक्का-सा लगा। बढई काम कर रहे थे और लकड़ी की उस पुरानी गल चुकी संरचना को तोड़कर नये सिरे से बना रहे थे। लगभग पाँच मीटर तक बना भी दिया था। हालाँकि सुरक्षा के लिये इसकी मरम्मत ज़रूरी है, लेकिन मुझे धक्का इसलिये लगा कि पुरानी संरचना बहुत आकर्षक है और ‘हैरीटेज’ में शामिल करने योग्य है। बाद में उत्तरकाशी जिलाधिकारी से इस बारे में बात हुई तो उन्होंने बताया कि पूरी संरचना नहीं बदली जायेगी, बल्कि सिर्फ़ बीस मीटर तक ही मरम्मत की जायेगी, ताकि इसका पुरानापन बचा रहे।
अब गरतांग गली से कभी भी आवागमन नहीं हो सकेगा, क्योंकि जाधगंगा के उस पार नेलांग जाने के लिये एक सड़क बन चुकी है। अब आवश्यकता है कि गरतांग गली को ‘हैरीटेज’ के रूप में प्रचारित करने की। लेकिन प्रचार होगा तो दुस्साहसी लोग इस पर चलने की कोशिश करेंगे और गल चुकी लकड़ी के टूट जाने पर नीचे भी गिरेंगे। और एक भी आदमी के गिरने के बाद इस पूरे रास्ते को फिर से बंद कर दिया जायेगा। इसलिये आवश्यकता है कि ढाई किलोमीटर के पैदल रास्ते के बाद इतनी मजबूत रोक बनायी जाये कि यात्री गरतांग गली को देख तो सकें, लेकिन उस पर चल न सकें।
उत्तरकाशी से रवाना होने वाला दल |
भैरोंघाटी पुल से दिखती नीचे बहती जाधगंगा |
भैरोंघाटी पुल से गरतांग गली को जाते दल के सदस्य |
देहरादून निवासी कबीर साहनी |
गरतांग गली के प्रथम दर्शन |
1962 के बाद से यह रास्ता प्रचलन में नहीं है, इसलिये गल चुकी लकड़ी पर चलना खतरनाक है। |
पुराने जमाने का एक बोर्ड |
नदी के उस तरफ बनी सड़क और उससे होकर गुजरता एक ट्रक |
भैरोंघाटी पुल |
भैरोंघाटी में बी.आर.ओ. के यहाँ लंच करते हुए |
नेलांग वाली सड़क से गरतांग गली ज्यादा आकर्षक दिखती है। |
अगला भाग: नेलांग घाटी
बेहद रोचक और आकर्षक
ReplyDeleteतिलक सोनी जी के प्रयास को साधुवाद !! एक नया और बेहतरीन स्थान दुनिया के सामने लाने के लिए
ReplyDeleteBahut hi shaandar post. Aisi jagahon ka ton bas suna hi thha, sach mein hota hai yeh pehli baar dekha.
ReplyDeletethanks for sharing and keep traveling.
Take care.
प्रिय श्री मान नीरज जी
ReplyDeleteइस पोस्ट को पढ़कर ऐसा लगा जैसे ये जगह धरती पर आप ही लेकर आये हैं
अदभूत वर्णन
नीरज जी अभी कुछ दिनों पूर्व मैंने न्यूज़ में देखा था कि पहाड़ों में अभी तक ना तो बारिश हुई है और ना ही बर्फ पड़ी है
औसत की तुलना में 10 प्रतिशत भी नहीं
जबकि सर्दी का मौसम महीने भर बाद चला जाएगा
अगर ऐसा रहा तो नदियों में पानी कहाँ से आयेगा
शायद ऐसा प्रदूषण के कारण हुआ होगा
पता नहीं हमारी पृथ्वी का क्या होगा
जनसंख्या लगातार बढ़ रही है और प्रदूषण दिन दुगुनी रात चौगुनी स्पीड से बढ़ रहा है और स्वार्थी लोग वोट बैंक बढाने के बारे में चिंतित है देश ,पर्यावरण की चिंता किसी को नहीं है
भगवान् जाने क्या होगा क्या हमें ऐसे ही हमारी धरोहर को मिटते देखना चाहिए ?
क्या अब हमें एक आंदोंलन चला कर जनसंख्या नियंत्रण हेतु कड़ा कानून नहीं बनवाना चाहिए जिससे पर्यावरण की क्षति पूरी तरह रोकी जा सके और हम हमारी आने वाली पीढ़ियों को इससे सुन्दर प्रदूषण रहित घूमने योग्य अधिक पृथ्वी देकर जा सकें ?
तिलक सोनी जी के प्रयास को साधुवाद
अब हमें भी ऐसा एक भागीरथी प्रयास करना है और इस पर्यावरण को बचाना है प्रचार या साधुवाद प्राप्त करने के लिए नहीं अपितु हमारी संस्कृति धरोहर की रक्षा हेतु ताकि ये प्रकृति केवल तस्वीरों में ही ना रह जाये .
जय श्री राम
जय भारत
Aap ne bilkul Sahi kaha hai
Deleteअद्भुत जानकारी, अपने भागीरथ प्रयास में लगे रहिए। तिलक सोनी जी को भी उनके इस अभूतपूर्व कार्य हेतु बधाई दीजिए।
ReplyDeleteBahut bahut shukriya aur aabhar Neeraj babu. Bahut hi shaandar lekh hai ye..
ReplyDeleteअद्भुत जानकारी...नीरज भाई
ReplyDeleteOk
ReplyDeleteवाकईं अद्भुत़ नजारा
ReplyDeleteVery very informative Neeraj bhai....
ReplyDeleteअदभुत जानकारी
ReplyDeleteFatjar Studios