मित्र उमेश पांडेय अपनी चोपता तुंगनाथ की यात्रा हम सबके साथ साझा कर रहे हैं। कुछ मामूली करेक्शन के बाद मैंने उनकी संपूर्ण पोस्ट को ज्यों का त्यों प्रकाशित किया है। यह उनका पहला लेख है और अच्छा लिखा है। आप भी आनंद लीजिये।
मानव शुरू से ही घुमक्कड़ प्रजाति का प्राणी रहा है। आदि काल से ही मानव ने नए-नए स्थानों की खोज की है। इन्हीं खोजों के दौरान कई नगरों का निर्माण भी हुआ। उनमे से अधिकांश ने अपने रहने का ठिकाना बना लिया और कुछ आज भी खानाबदोशों की तरह घूम रहे हैं।
मेरी घूमने-फिरने में रुचि हमेशा से ही रही है। हमेशा प्रयास रहता है कि जैसे ही समय मिले किसी स्थान की यात्रा पर निकल जाया जाये। लेकिन कभी छुट्टी तो कभी पैसों की तंगी के कारण कम ही जा पाता हूँ। मई 2016 में चम्बा और टिहरी बांध की यात्रा की थी। उसके बारे में कभी बाद में लिखूँगा।
पिछले एक वर्ष से नीरज जी का ब्लॉग ‘मुसाफिर हूँ यारों’ फॉलो कर रहा हूँ। बहुत अच्छा लिखते हैं। ब्लॉग पर ही इनके यात्रा संस्मरण ‘लद्दाख की पैदल यात्राएँ’ जो कि एक किताब है, के बारे में पता चला और ऑर्डर कर दी। यात्रा के विचार से तो मन घूम ही रहा था, किताब पढ़ते ही घुमक्कड़ी का भूत जाग उठा। 18 सितंबर का दिन था, जब तुंगनाथ यात्रा योजना बना ली और यात्रा का दिन निर्धारित किया 29 सितंबर से 2 अक्टूबर 2016। इन चार दिनों में 2 साप्ताहिक अवकाश, 1 कैजुअल लीव और बाकी का एक दिन हाफ डे।
पूरी योजना बन चुकी थी पर मन में एक दुविधा थी कि क्या अकेले जाना उचित होगा? फिर मैंने अपने दोस्त देबाशीष से बात की। उनका पहला प्रश्न था ‘क्या वहाँ बर्फ मिलेगी?’ मैंने एक पल को सोचा। मुझे बर्फ मिलने का अनुमान कम ही था, पर मैंने कहा ‘हाँ, मिलेगी।’ फिर उन्होंने चोपता की कुछ फोटो गूगल पर देखी और हाँ कर दी। गूगल पर तो वैसे भी बर्फ वाली फोटो ही ज्यादा दिखती हैं। मैं स्वयं चाहता था कि वे इस यात्रा में साथी बने। दोनों ने यात्रा के बारे में अपने मैनेजर को बताया। उनका भी मन था यात्रा पर जाने का, पर एक साथ इतने लोगों को छुट्टियाँ मिलना संभव नहीं था। दरअसल मैं एक बी.पी.ओ. में कार्यरत हूँ। इस सेक्टर में काम करने वालों को पता ही होगा कि यहाँ छुट्टियाँ मिलना बहुत मुश्किल होता है।
अब इंतज़ार होने लगा 29 सितंबर का। हम दोनों ने अपनी-अपनी तैयारियाँ शुरू कर दी। रकसैक का प्रबंध भी किसी तरह से हो गया। देबाशीष की यह पहली पहाड़ी यात्रा थी तो उन्होंने कई विषयों पर मेरी सलाह ली।
यह सब होते-होते यात्रा का समय आ गया। हम अपने-अपने बैग ले कर रात 8 बजे ऑफिस से निकल पड़े। 50 रुपये में ऑटो बुक किया और एम.जी. रोड़ मेट्रो स्टेशन पहुँच गए। वहां से मेट्रो द्वारा कश्मीरी गेट पहुँचे। हमने एक ट्रेवल वेबसाइट से बस में ऑनलाइन सीट बुक की थी। बस ऑपरेटर ने बताया कि 100 रुपये अधिक देने पर हमे वातानुकूलित बस में स्थान मिल जायेगा। हमने उसे पैसे दे दिए और शायद यही गलती थी। उसने हमें एक बेहद घटिया बस में बैठा दिया। बस में ए.सी. के नाम पर सिर्फ सीट के ऊपर तो सुराख़ ही थे। बस अपने निर्धारित समय 10:30 से एक घंटा देरी से चली। हमारी कहानी कुछ-कुछ एक हिंदी फिल्म की कउआ बिरयानी वाली हो गयी थी। लेकिन इसकी रिकवरी भी हो गयी। चोपता से वापस आने के बाद मैंने उस ट्रेवल कंपनी के फेसबुक पेज पर शिकायत की। लगभग एक महीने बाद उन्होंने एक ई-मेल 1100 रुपये के वाउचर के साथ भेजी। वो वाउचर 31 मार्च 2017 तक मान्य है।
बस शीघ्र ही वैशाली पार करते हुए ग़ाज़ियाबाद - हरिद्वार मार्ग पर आ गयी। यह मार्ग ग़ाज़ियाबाद से आरम्भ होकर उत्तराखंड़ में माणा तक जाता है। थकान के कारण शीघ्र ही निद्रा रानी ने हमें अपने वश में कर लिया। रात में मुज़फ़्फ़रनगर में बस रुकी। ड्राइवर ने बताया कि बस लगभग आधा घंटा रुकेगी, पर हम अपनी नींद को नाराज़ नहीं करना चाहते थे।
दूसरा दिन :
सुबह पाँच बजकर पंद्रह मिनट पर बस हरिद्वार पहुँच गयी। टिकट तो हमारा ऋषिकेश तक था, पर हमें दूसरी बस में भेज दिया गया। यह बस अपेक्षाकृत बहुत अच्छी थी। इस बस के ड्राइवर साहब ने भी पहले ही बता दिया था कि राष्ट्रपति श्री प्रणब मुखर्जी जी केदारनाथ यात्रा से वापस आ रहे हैं। अगर वो ऋषिकेश में रुकते हैं तो हमें ऋषिकेश बस स्टैंड से पहले ही उतरना पड़ सकता है क्योंकि बस आगे नहीं जा पायेगी। लेकिन ऐसा हुआ नहीं और बस ने नटराज चौक पर उतार दिया। हरिद्वार - ऋषिकेश मार्ग से हर की पौड़ी के दर्शन हुए। वहाँ से आती हुई लाइट्स की रोशनी एक सुन्दर नज़ारा दिखा रही थी। मैंने रास्ते में ही देबाशीष को हर की पौड़ी के बारे में बताया और दिखा भी दिया। उन्होंने वापसी में हर की पौड़ी के दर्शन की इच्छा ज़ाहिर की।
देबाशीष ऋषिकेश देखना चाहते थे। मैं ऋषिकेश कई बार देख चुका हूँ इसलिए मेरी कोई विशेष इच्छा नहीं थी, पर देबाशीष तो पहली बार आये थे इसलिए मैंने उनकी इच्छा का सम्मान किया। हमने एक ऑटो वाले से बात की तो राम झूला तक के उसने 90 रुपये माँगे जो कि बहुत ज्यादा थे, पर सुबह का समय और समय का अभाव होने के कारण हम उसी ऑटो से राम झूला पहुँचे। पहुँचते ही सबसे पहले शत्रुघ्न घाट (शायद कुछ और नाम था), जहाँ से नाव चलती है, वहाँ पहुचे। सुबह के 06:30 बज रहे थे और घाट का वातावरण बिलकुल शांत और सुरम्य था। कोई भी नहीं था वहाँ। गंगा का पानी शांत गति से बह रहा था। इस अद्भुत दृश्य को हमने अपने कैमरे में कैद किया।
ऋषिकेश उत्तराखंड़ के पहाड़ी क्षेत्र का प्रवेश द्वार है। अधिकांश लोग राम झूला और लक्ष्मण झूला क्षेत्र को ऋषिकेश समझते है, पर ऐसा नहीं है। ऋषिकेश देहरादून जिले के अंतर्गत आता है और इसकी सीमा ऋषिकेश बस अड्डे के पीछे बहने वाली चंद्रभागा तक ही है। चंद्रभागा पार करते ही टिहरी गढ़वाल की सीमा आरम्भ हो जाती है। जबकि गंगा पार पौड़ी गढ़वाल है। परमार्थ निकेतन पौड़ी गढ़वाल में ही है। लक्ष्मण झूला मुनि की रेती क्षेत्र का भाग है। मुनि की रेती टिहरी गढ़वाल क्षेत्र में है।
वापस आते हैं अपनी यात्रा पर। राम झूला पार करके हमने गीता भवन, स्वर्ग आश्रम, परमार्थ निकेतन आदि के दर्शन किये। मेरे साथी को यह स्थान इतना पसंद आया कि अब वो अपने माता पिता को भी यहाँ लाना चाहते हैं। हम यहाँ से पैदल ही लक्ष्मण झूला जाना चाहते थे, पर समयाभाव के कारण बस अड्डे की ओर जाना पड़ा।
हमारी योजना थी कि जिस मार्ग से जायेंगे उस मार्ग से वापसी नहीं करेंगे। चोपता जाने के दो रास्ते हैं। पहला रास्ता देवप्रयाग, रुद्रप्रयाग, अगस्त्यमुनि, कुंड़ और ऊखीमठ हो कर जाता है। दूसरा रास्ता रुद्रप्रयाग से अलग होकर कर्णप्रयाग और गोपेश्वर होते हुए चोपता जाता है। बस अड्डे पहुँचते ही मुझे गोपेश्वर की बस दिखी। उसमे पीछे की दो सीट खाली थी, पर मुझे पीछे बैठना पसंद नहीं है। किराया भी उसका 335 रुपये था। मैंने मना कर दिया। पाँच मिनट बाद ही गोपेश्वर की एक और बस आयी। उसमे भी पीछे की ही सीट थी। किन्तु किराया था 300 रुपये। फिर सोचा कि समय व्यर्थ करना ठीक नहीं और इसका किराया भी कम है। हमने पीछे वाली सीटों पर कब्ज़ा कर लिया। शीघ्र ही बस चल पड़ी। हमारा स्वागत शिवालिक की पहाड़ियों ने किया। बस आगे बढ़ती जा रही थी। नीचे गहरी घाटी में गंगा बह रही थी। ऊपर पहाड़ो पर धुंध छायी हुई थी। हम दोनों ही इस दृश्य को देख कर आश्चर्य में डूबे हुए थे। शिवपुरी, ब्यासी होते हुए बस दो घंटे में देवप्रयाग पहुँच गयी। देवप्रयाग इस यात्रा का पहला पड़ाव था।
देवप्रयाग ऋषिकेश से लगभग 70 किलोमीटर दूर है। यहाँ दो प्रमुख नदियों का संगम है इसलिए इसे प्रयाग कहते हैं। एक तरफ गोमुख से भागीरथी आती है और दूसरी ओर बद्रीनाथ के आगे से अलकनंदा आती हैं। इसी संगम से भागीरथी गंगा का रूप धारण करती है।
यहाँ बस को 30 मिनट रुकना था। भूख भी लग चुकी थी। हमने एक ढाबे पर पराँठों का ऑर्डर दे दिया। सिर्फ 60 रुपये में आलू के दो पराँठे, छोले और दही मिल गये। गरमागर्म पराँठे, छोले और दही खा कर मज़ा आ गया। और खाने का मन था, पर पहाड़ी रास्तो पर कोई समस्या न हो जाये, इस डर से नहीं खाया। यहाँ दो विदेशी भी मिले जो कि बाइक से यात्रा पर निकले थे। उन्होंने थोड़ी बहुत हिंदी सीख रखी थी। ऑर्डर उन्होंने हिंदी में ही दिया। वे यूरोपीय थे और बाइक लेकर हिमालय यात्रा पर निकले थे। विश्वास नहीं होता कि कोई विदेशी इतनी दूर ऐसी यात्रा पर भी निकल सकता है, और वो भी ऐसे क्षेत्र में जहाँ इंग्लिश समझने वाले कम लोग थे।
थोड़ी ही देर में बस चल पड़ी। यात्रा का अगला पड़ाव था श्रीनगर। यहाँ बस को रुकना नहीं था, पर ट्रैफिक इतना ज्यादा था कि बस रुक-रुक कर ही चल रही थी।
श्रीनगर पौड़ी गढ़वाल क्षेत्र का प्रमुख नगर है। यह ऋषिकेश से 110 किलोमीटर की दूरी पर है। यहाँ लगभग सभी सुविधाएँ मौजूद हैं। ब्रिटिश काल में गढ़वाल की राजधानी रहा है यह नगर। श्रीनगर की एक और विशेषता है यहाँ का धारी देवी मंदिर।
ट्रैफिक में फँसते हुए किसी तरह बस रुद्रप्रयाग की ओर बढ़ चली। थकान के कारण मुझे नींद आ गयी। दोपहर के 12:30 बजे नींद खुली तो खुद को रुद्रप्रयाग में पाया। यहाँ बस लगभग खाली ही हो चली थी। रुद्रप्रयाग ऋषिकेश से 141 किलोमीटर दूर है। यहाँ अलकनंदा और मन्दाकिनी का संगम है। मन्दाकिनी केदारनाथ की ओर से आती है। यहाँ से केदारनाथ और बद्रीनाथ के मार्ग अलग हो जाते हैं। केदारनाथ के लिए मन्दाकिनी घाटी से होकर जाया जाता है। हमें अलकनंदा के साथ-साथ जाना था।
रुद्रप्रयाग से बस ने गोपेश्वर की ओर प्रस्थान किया। अब हमें मिलाकर बस में केवल 6 सवारियाँ ही बची थीं। मुझे शंका हुई कि बस वाला हमे दूसरी गाड़ी में बैठा देगा, क्योंकि केवल 6 सवारियाँ लेकर जाना उसके लिए फायदे का सौदा नहीं था। गोचर होते हुए हम लोग कर्णप्रयाग पहुचे। गोचर में सेना का शिविर भी है।
ऋषिकेश से कर्णप्रयाग की दूरी 172 किलोमीटर है। यह समुद्रतल से 1451 मीटर की ऊँचाई पर स्थित है और चमोली जिले का एक प्रमुख शहर है। यहाँ अलकनंदा और पिंडर नदी का संगम है। पिंडर, पिंडारी ग्लेशियर से आती है। यहाँ मेरा अनुमान सही साबित हुआ और बस वाले ने हमें एक बोलेरो में बैठने को कहा और 50 रुपये प्रति सवारी वापस कर दिए। उसने कहा कि कर्णप्रयाग से गोपेश्वर के 50 रुपये ही लगेंगे। लेकिन कर्णप्रयाग से गोपेश्वर का किराया 70 रुपये प्रति सवारी था। खैर जाने दो।
देबाशीष इस सफर को अपने कैमरे में कैद कर रहा था। मेरे मोबाइल का कैमरा अच्छा नहीं था। इसलिए निश्चय किया कि अगली यात्रा से पहले एक कैमरा खरीदूँगा। कर्णप्रयाग से गोपेश्वर शहर सामने वाले पहाड़ पर दिख रहा था। लेकिन कुछ ऊँचाई पर था। इसलिए वहाँ पहुँचने में लगभग 30 मिनट लग गए। कर्णप्रयाग - गोपेश्वर मार्ग पर कुछ निर्माण कार्य चल रहा था। इसलिए इतना समय लग गया। यहाँ से काफी दूर पर बादलो में घिरा हुआ एक काफी ऊँचा पर्वत दिख रहा था। शायद वही तुंगनाथ हो।
30 मिनट बाद हम दोनों गोपेश्वर में थे। शाम के 4:30 बज रहे थे। सोचा था कि यहाँ से चोपता के लिए कोई गाड़ी मिल जाएगी, पर हमारा अनुमान गलत निकला। गोपेश्वर पहुँचने पर पता चला कि गोपेश्वर से चोपता के लिए एक ही बस है, जो कि दोपहर 12:30 बजे निकल चुकी थी। यही बस चोपता होते हुए गुप्तकाशी तक जाती है। फिर सोचा कि किसी शेयर्ड टैक्सी से चलते हैं। पर वो भी नहीं मिली। किसी ने सलाह दी कि किसी तरह मंडल तक पहुँच जाओ और वहाँ से सुबह चोपता निकल जाना। पर समस्या तो वही थी, क्योंकि वहाँ से भी तो चोपता जाने के लिए उसी 12:30 बजे वाली बस का इंतज़ार करना पड़ता। एक दिन और बेकार होता।
यहाँ देबाशीष की सलाह काम आयी। उन्होंने कहा कि एक टैक्सी बुक करके आज ही चोपता पहुँच जाते हैं, जिससे कि अगले दिन सुबह तुंगनाथ के लिए निकल सकें। टैक्सी वाले से बात की तो उसने 1500 रुपये माँगे, लेकिन 1300 रुपये में मान गया। टैक्सी में हम दोनों के अलावा ड्राइवर और उसका दोस्त थे।
शीघ्र ही टैक्सी मंडल पार करके चोपता की ओर बढ़ चली। यह मार्ग घने जंगलो के बीच से गुज़रता है। रास्ता बहुत अच्छा बना हुआ है। धीरे-धीरे अँधेरा हो चला था। कुछ दूर जाने पर बायीं ओर बर्फ से ढके पहाड़ दिखने लगे। ड्राइवर ने बताया कि वही केदारनाथ है। तो यह थे केदारनाथ के प्रथम दर्शन। इस मार्ग पर जानवरों का भी डर था, क्योकि अँधेरा हो चुका था। 2 घंटे बाद हम चोपता पहुँच गए।
7 बज चुके थे। ठंड़ बहुत थी। चोपता एक छोटा-सा, पर प्रसिद्ध गाँव है। यह 2600 मीटर की ऊँचाई पर स्थित है और ऋषिकेश से दूरी 254 किलोमीटर है। ऋषिकेश से चोपता पहुचने में 13 घंटे लगे थे। एक होटल मालिक ने हमारा स्वागत किया। किराया उसने 500 रुपये बताया, पर 400 रुपये में मान गया। दो कमरे वाला होटल था। कमरा बहुत अच्छा था। देबाशीष तो नहाने चले गए, पर मैं नहीं नहाया। इतनी ठंड़ में कोई ठंड़े पानी से कैसे नहा सकता है?
यहाँ सौर ऊर्जा ही बिजली का साधन था। ढाबे पर खाना खाने पहुँचे तो कुछ लोग जो दिल्ली से आये थे, उन्होंने बताया कि मंदिर के कपाट 1 बजे बंद हो जाते हैं इसलिए सुबह जल्दी से जल्दी निकलना। यह सुनकर अपने टैक्सी वाले फैसले पर संतुष्टि हुई। अच्छा हुआ कि आज ही टैक्सी से पहुँच गए, अन्यथा एक दिन बेकार होता। सुबह 5 बजे का अलार्म लगा कर हम सो गए।
1. उमेश पांडेय की चोपता तुंगनाथ यात्रा - भाग एक
2. उमेश पांडेय की चोपता तुंगनाथ यात्रा - भाग दो
Dhanyawad Neeraj Ji, ise post karne ke liye.
ReplyDeleteआपका भी बहुत-बहुत धन्यवाद...
Deleteबहुत अच्छा लगा इनका यात्रा वृत्तांत ।अगले भाग के इतंजार मे हैं ।बहुत बहुत धन्यवाद उमेश पाण्डेय जी । हमलोगो से अपनी यात्रा अनुभव साझा करने के लिए ।
ReplyDeleteउमेश जी ने वाकई बहुत अच्छा लिखा है...
Deleteअच्छा वर्णन किया है, आखिर नीरज भाई की संगत का असर है।
ReplyDeleteधन्यवाद सर जी... लेकिन उमेश जी ने अच्छा लिखा है...
Deleteशानदार...
ReplyDeleteबहुत ही अच्छे प्रवाह के साथ संपूर्ण वर्णन...
अगले भाग की प्रतीक्षा रहेगी...👍
अच्छा वर्णन किया है, आखिर नीरज भाई की संगत का असर है।
ReplyDeleteAap sabhi ne apna samay is lekh ko diya iske liye bahut bahut shukriya.
ReplyDeleteUmesh Pandey
Aap sabhi ne apna samay ID lekh ko diya aur apne apne feedback diye, iske liye bahut bahut shukriya.
ReplyDeleteis* lekh
Deleteनीरज जी उमेश जी का लेखन आपकी शैली में लिखा है क्या बात है अगले भाग का इंतज़ार रहेगा ।
ReplyDeleteबहुत खूब !
ReplyDeleteउमदा लेखन शैली
जरा यहाँ भी नजर डालें
स्विट्जरलैंड कभी जा पाए या ना, लेकिन एक बार उत्तराखंड का ये स्विट्जरलैंड जरूर घूम लेना.