12 मार्च 2016
अगर मुझे चांदोद न जाना होता, तो मैं आराम से सात बजे के बाद उठता और 07:40 बजे डभोई जाने वाली ट्रेन पकडता। लेकिन चांदोद केवल एक ही ट्रेन जाती है और यह ट्रेन मियागाम से सुबह 06:20 बजे चल देती है। मुझे साढे पांच बजे उठना पडा। रनिंग रूम में बराबर वाले बेड पर इसी ट्रेन का एक ड्राइवर सो रहा था। दूसरा ड्राइवर और गार्ड दूसरे कमरे में थे। मियागाम के रनिंग रूम में केवल नैरोगेज के गार्ड-ड्राइवर ही विश्राम करते हैं। मेन लाइन के गार्ड-ड्राइवरों के लिये यहां का रनिंग रूम किसी काम का नहीं। या तो मेन लाइन की ट्रेनें यहां रुकती नहीं, और रुकती भी हैं तो एक-दो मिनट के लिये ही।
1855 में यानी भारत में पहली यात्री गाडी चलने के दो साल बाद बी.बी.एण्ड सी.आई. यानी बॉम्बे, बरोडा और सेण्ट्रल इण्डिया नामक रेलवे कम्पनी का गठन हुआ। इसने भरूच के दक्षिण में अंकलेश्वर से सूरत तक 1860 तक रेलवे लाइन बना दी। उधर 1861 में बरोडा स्टेशन बना और इधर 1862 में देश की और एशिया की भी पहली नैरोगेज लाइन मियागाम करजन से डभोई के बीच शुरू हो गई। यानी पहली ट्रेन चलने के 9 साल के अन्दर। इसका सारा श्रेय महाराजा बरोडा को जाता है। बरोडा रियासत एक काफी धनी रियासत थी। इसके कुछ प्रान्त सौराष्ट्र में भी थे जैसे अमरेली आदि। सौराष्ट्र में मीटर गेज का जाल बिछा दिया और बरोडा में नैरोगेज का।
1862 में मियागाम करजन और डभोई के जुडने के बाद अप्रैल 1879 में चांदोद ट्रेन पहुंची। फिर सितम्बर 1879 में बहादरपुर और 1 जुलाई 1880 को गोयागेट यानी आज का प्रतापनगर यानी बरोडा शहर में नैरोगेज पहुंच गई। गोयागेट से आगे विश्वामित्री तक विस्तार जनवरी 1881 में हुआ। उधर बहादरपुर से आगे बोडेली तक जनवरी 1890 में और बोडेली से छोटा उदेपुर तक दिसम्बर 1917 में नैरोगेज पहुंच गई। समय के साथ विश्वामित्री से डभोई और छोटा उदेपुर को नैरोगेज से ब्रॉडगेज में बदला जा चुका है और अब वर्तमान में छोटा उदेपुर को मध्य प्रदेश के धार से जोडने का काम चल रहा है। काफी काम हो चुका है और काफी काम बाकी है।
इतना ही नहीं, एक लाइन डभोई से और भी जाती थी जो अब बन्द है। यह थी समलाया वाली लाइन। इसे डभोई से जरोड तक नवम्बर 1913 में खोला गया, जरोड से समलाया तक दिसम्बर 1915 में और समलाया से टिम्बा रोड तक फरवरी 1919 में खोला गया। समलाया वडोदरा-गोधरा के बीच में है और टिम्बा रोड स्टेशन गोधरा-आनन्द के बीच में। फिलहाल डभोई से टिम्बा रोड की यह लाइन बिल्कुल बन्द है। सुना है कि डेडीकेटिड फ्राइट कॉरीडोर के लिये मियागाम से डभोई और समलाया तक ब्रॉड गेज बिछाई जायेगी। समलाया से टिम्बा रोड को दोबारा चालू करने या ब्रॉड गेज बनाने की कोई योजना नहीं है।
तो सुबह 06:20 बजे जैसे ही ट्रेन चली तो मैं 1862 में चला गया, जब यहां पहली ट्रेन चली होगी। बरोडा रियासत देश की सबसे धनी रियासतों में से एक थी और इसके पीछे इन छोटी ट्रेनों का भी बहुत बडा हाथ था। कपास की बहुत खेती होती है यहां। और कपास पूरी तरह एक व्यापारिक फसल है।
मियागाम करजन से आगे के स्टेशन हैं- कंडारी, गणपतपुरा, कायावरोहण, पारीखा, बारीपुरा मंडाला, नडा और डभोई जंक्शन। डभोई में थोडी देर रुककर ट्रेन चांदोद की तरफ मुड गई। वडज और तेन तलाव के बाद चांदोद स्टेशन है। तेन तलाव स्टेशन फिलहाल बन्द है और इसकी इमारत खण्डहर हो चुकी है। ट्रेन यहां नहीं रुकी।
चांदोद रेलवे स्टेशन |
चांदोद में गेटमैन-पॉइंटमैन इंजन की शंटिंग कराता हुआ |
बरगद के पेडों की भरमार है इस लाइन पर। विमलेश जी के अनुसार बरोडा का नाम ही बरगद की अधिकता के कारण पडा। किसी स्टेशन पर बरगद के नीचे ट्रेन खडी होती तो कई डिब्बों पर छांव हो जाती।
टिकट गार्ड ही बांटता है। मुझे इसी ट्रेन से वापस डभोई जाना था और फिर वहां से ब्रॉड गेज की ट्रेन से छोटा उदेपुर। लेकिन यहां गार्ड के पास छोटा उदेपुर के टिकट नहीं थे, इसलिये मैंने डभोई का टिकट मांगा। पहले तो उन्होंने मुझे हैरत से देखा। मेरी और उनकी जान-पहचान विमलेश जी के माध्यम से मियागाम में ही हो गई थी। ‘आपको तो टिकट की आवश्यकता ही नहीं है’। मैंने कहा- ‘आवश्यकता है’। यह सुनकर खुश भी हो गए और गत्ते वाले टिकट पर पेन से दिनांक और गाडी नम्बर लिखते हुए बोले- ‘आपको मैं अपनी तरफ से टिकट दूंगा और प्रोपर तरीके से इस पर आज की तारीख और गाडी संख्या भी लिखूंगा।’ उन्होंने इसके दस रुपये नहीं लिये।
जब ट्रेन यहां से चल पडी तो उन्हें कुछ याद आया। बोले- ‘यार, चांदोद में जो महिला लास्ट में वडोदरा के तीन टिकट लेकर गई है, उसे तुम पहचान सकते हो क्या?’ मैंने कहा कि हां पहचान सकता हूं। बोले- ‘गलती से मैंने उन्हें बच्चों वाले टिकट दे दिये। वो बेचारी वडोदरा जाकर मुश्किल में पड जायेगी।’ आगे डभोई में उस महिला को वडोदरा जाने के लिये ट्रेन बदलनी थी। हम दोनों ने उसे खूब ढूंढा, लेकिन वह नहीं मिली। गार्ड ने कहा- ‘अगर वह मियागाम जाती और बच्चों वाले टिकट के साथ पकडी जाती, तो बात मेरे पास तक आती, मैं संभाल लेता। और मियागाम में चेकिंग अमूमन होती भी नहीं है। लेकिन वडोदरा में तो चेकिंग जरूर होती है। वह पकडी जायेगी और जुर्माना भी लग जायेगा। अब अगर वह मिल जाये तो अपने खर्चे से तीन पूर्ण टिकट मैं उसे दे दूंगा।’
बडा भला गार्ड था।
डभोई में वरिष्ठ खण्ड अभियन्ता भूपेन्द्र वर्मा जी मिले। स्टेशन की बगल में ही नैरोगेज हेरीटेज पार्क है। छोटा सा पार्क है लेकिन इधर की नैरोगेज के बारे में यहां खूब जानकारियां हैं। पुराने जमाने की समय-सारणियां भी लगी हैं। पन्द्रह मिनट में ही पार्क घूमकर बाहर आकर भूपेन्द्र जी के ऑफिस में जा बैठे। मैंने पूछा -‘जल्द ही यह मियागाम से डभोई की लाइन बन्द हो जायेगी। डी.डी.एफ.सी.एल. की बडी लाइन यहां बिछेगी। तो ऐसा भी महसूस होता होगा कि छोटी ट्रेन की मरम्मत क्यों करें और इसमें कोई महंगा नया पुर्जा क्यों लगायें?’ बोले -‘बहुत सारे लोग ऐसा सोचते हैं लेकिन मैं उनमें से नहीं हूं। आखिरी दिन तक मैं इसमें अपनी पूरी मेहनत करूंगा। हमारी ट्रेनें बाकी नैरोगेज ट्रेनों के मुकाबले बहुत मजबूत, खूबसूरत और साफ-सुथरी हैं। आराम से चालीस से ऊपर की रफ्तार पर दौडती हैं।’
वास्तव में उन्होंने ठीक ही कहा था। आप वडोदरा डिवीजन की अन्य नैरोगेज लाइनों पर यात्रा करना और डभोई में यात्रा करना, अन्तर साफ पता चल जाता है। ट्रेनें भी अच्छी हैं और ट्रैक भी। तभी तो चालीस की स्पीड पर ट्रेनें चलती हैं। बाकी कई जगह स्पीड रिस्ट्रिक्शन लगा होता है।
उन दिनों जम्बूसर से सीधे टिम्बा रोड तक ट्रेनें चला करती थीं। |
छोटा उदेपुर की ट्रेन आ गई। मैंने भूपेन्द्र जी से विदा ली और इस लाइन पर यात्रा आरम्भ कर दी। यह ट्रेन वडोदरा से आई थी। वडोदरा से छोटा उदेपुर की लाइन पहले नैरोगेज थी, अब ब्रॉडगेज है। ट्रेन अपनी पूरी रफ्तार से दौड रही थी। लेकिन बोडेली के बाद रफ्तार पर ब्रेक लग गये। बोडेली से छोटा उदेपुर तक यह अधिकतम पचास की स्पीड से ही चलती है। जाहिर है कि ट्रैक उतना उन्नत नहीं है। नैरोगेज से ब्रॉडगेज में भी बदला, पैसा भी लगाया और रफ्तार मिली केवल पचास की। यह अच्छा नहीं लगा। थोडा और पैसा लगाकर इस ट्रैक को सौ से ऊपर चलने के लिये बनाया जा सकता था। आगे इसे धार और इन्दौर तक बढाया जा रहा है, ट्रेनों की संख्या बढेगी तो ट्रैक को अपग्रेड भी करना पडेगा। इससे अच्छा था कि अभी साथ के साथ अपग्रेड करते चलते।
छुछापुरा जंक्शन से एक लाइन तंखाला जाती थी जो अब बन्द है और झाड-झंगाडों में गुम हो गई है। |
सवा एक बजे छोटा उदेपुर पहुंच गये। गुजरात का धुर सीमावर्ती इलाका है यह। थोडी ही दूर मध्य प्रदेश का वो बदनाम इलाका है, जहां भील रहते हैं। सीमा के उस पार मध्य प्रदेश में अलीराजपुर है, कुक्षी है, धार है- सब बदनाम इलाके हैं। लेकिन इधर गुजरात में ऐसा कुछ नहीं है। जमीन ऊंची-नीची जरूर है, आदिवासी बहुल इलाका भी है लेकिन ठीक है। मैं लंच करने स्टेशन से बाहर निकला। स्टेशन पर कुछ भी नहीं मिला। बाहर थोडा चलने पर एक ढाबा मिला। गुजराती भोजन मिला। गर्मी थी, भोजन के साथ छास पीकर आनन्द आ गया।
जिस ट्रेन से मैं आया था, उस ट्रेन को एक तरफ खडा कर दिया गया था। थोडी देर में वडोदरा से एक डीएमयू आई। यही डीएमयू अब वापस वडोदरा जायेगी और मुझे भी ले जायेगी। मैंने डभोई से छोटा उदेपुर तक का खण्ड देख लिया था, लेकिन डभोई से वडोदरा का खण्ड अभी भी बाकी था। इसलिये डभोई तक तो आराम से सीट पर बैठा रहा, उसके बाद उठकर खिडकी पर जा खडा हुआ। छोटा उदेपुर से बोडेली तक ही पचास की स्पीड की बाध्यता थी, उसके बाद तो ट्रेन पूरी रफ्तार से चली। इस रफ्तार का ही नतीजा है कि चार-पांच जोडी ब्रॉडगेज की ट्रेनें इधर चलती हैं और सभी की सभी फुल भरकर चलती हैं। एक वो राजपीपला वाली दो डिब्बों की ट्रेन थी, जो बिल्कुल खाली चल रही थी। गुजरात में रेलवे का कम्पटीशन रोडवेज से है। सडकें अच्छी हैं और बसों का किराया भी ज्यादा नहीं, इसलिये जहां भी मौका मिलता है, बसें बाजी मार ले जाती हैं। आज का जमाना रफ्तार का है, लोग पैसा खर्च कर देंगे लेकिन गन्तव्य पर जो भी जल्दी पहुंचायेगा, उसी से जायेंगे। राजपीपला में बसें तेज चलती हैं, तो ट्रेन खाली रह जाती है। इधर ट्रेन तेज चलती है तो भरकर चलती है।
प्रतापनगर में फिर से निखिलेश जी मिल गये- विमलेश जी के लडके। मैं मना करता रहा और उन्होंने मुझे सेब पकडा दिये, केले पकडा दिये और बिस्कुट नमकीन पकडा दिये। उनके दिये हुए परसों के बिस्कुट अभी भी बचे थे, अब फिर से बैग में जगह नहीं बची।
वडोदरा - छोटा उदेपुर लाइन के सभी स्टेशन ये हैं- वडोदरा जंक्शन, प्रतापनगर, केलनपुर, कुंढेला, भिलुपुर, थुवावी, डभोई जंक्शन, वढवाणा, अमलपुर, संखेडा बहादरपुर, छुछापुरा जंक्शन, जोजवा, बोडेली, जबुगाम, सुस्काल, पावी, तेजगढ, पुनियावांट और छोटा उदेपुर।
कमाल की बात ये है कि वडोदरा और प्रतापनगर के बीच में विश्वामित्री स्टेशन है, ट्रेन विश्वामित्री से ही प्रतापनगर की ओर मुडती है लेकिन इस लाइन पर विश्वामित्री में कोई प्लेटफार्म नहीं है और न ही यात्रियों के उतरने-चढने की सुविधा। इसलिये विश्वामित्री से होकर गुजरने के बावजूद भी यहां कोई ठहराव नहीं है।
कमाल की बात ये है कि वडोदरा और प्रतापनगर के बीच में विश्वामित्री स्टेशन है, ट्रेन विश्वामित्री से ही प्रतापनगर की ओर मुडती है लेकिन इस लाइन पर विश्वामित्री में कोई प्लेटफार्म नहीं है और न ही यात्रियों के उतरने-चढने की सुविधा। इसलिये विश्वामित्री से होकर गुजरने के बावजूद भी यहां कोई ठहराव नहीं है।
आज शनिवार था। कल रविवार है। मुम्बई यहां से ज्यादा दूर नहीं। मुझे मुम्बई लोकल की लाइनों पर भी यात्रा करनी थी। इसके लिये रविवार सर्वोत्तम है। स्टेशन बोर्ड के फोटो लेने हैं। अगर मैं सीधा मुम्बई सेंट्रल जाऊंगा या विरार से शुरूआत करूंगा तो बान्द्रा टर्मिनस स्टेशन छूट जायेगा या फिर इसके लिये मुझे दिन में एक घण्टा आने-जाने में लगाना पडेगा। तो सर्वोत्तम यही था कि मैं बान्द्रा टर्मिनस वाली कोई ट्रेन पकडूं और सुबह-सुबह पहला फोटो इसी स्टेशन का ले लूं। फिर मेन लाइन का ही काम रह जायेगा। देहरादून-बान्द्रा एक्सप्रेस में आरक्षण था। समय पर ट्रेन आ गई। वैसे तो इस ट्रेन की गिनती बेहद उबाऊ ट्रेनों में होती है लेकिन अगर आपको वडोदरा से बान्द्रा जाना है तो यह ट्रेन बुरी नहीं है।
वडोदरा स्टेशन पर आने वाली गाडियों का लाइव स्टेटस |
1. बिलीमोरा से वघई नैरोगेज रेलयात्रा
2. कोसम्बा से उमरपाडा नैरोगेज ट्रेन यात्रा
3. अंकलेश्वर-राजपीपला और भरूच-दहेज ट्रेन यात्रा
4. जम्बूसर-प्रतापनगर नैरोगेज यात्रा और रेल संग्रहालय
5. मियागाम करजन से मोटी कोरल और मालसर
6. मियागाम करजन - डभोई - चांदोद - छोटा उदेपुर - वडोदरा
7. मुम्बई लोकल ट्रेन यात्रा
8. वडोदरा-कठाणा और भादरण-नडियाद रेल यात्रा
9. खम्भात-आणंद-गोधरा पैसेंजर ट्रेन यात्रा
नीरज भाई ..हर बार रेल यात्रा पढ़कर आनंद आ जाता है .. लेकिन एक बात साफ़ है हम लोगों ने जितनी नयी लाइन बिछाई नहीं ..उतनी पुरानी लाइन बंद कर दी है .क्या ख़याल है आपका ..
ReplyDeleteनहीं सर जी, ऐसा नहीं है। बहुत सारी पुरानी लाइनें बन्द जरूर हुई हैं। नई लाइनें भी ज्यादा नहीं बनी लेकिन गेज परिवर्तन बडे स्तर पर हुआ है। अब गिनी-चुनी छोटी लाइनें बची हैं, उनका भी गेज परिवर्तन हो जायेगा, फिर नई लाइनों के लिये रास्ता खुल जायेगा। जहां राइडरशिप नगण्य थी, केवल वे ही लाइनें बन्द हुई हैं।
Deleteकाफी मजेदार और जानकारी से भरी हुई पोस्ट। समुचित फोटो के साथ थोड़ा बहुत इतिहास भी इसे रोचक बना दिया है।
ReplyDeleteधन्यवाद सर जी, आपके सहयोग के बिना यह यात्रा बहुत मुश्किलों से भरी होती।
Deleteश्री संजय जी के कमेन्ट को आगे बढ़ाते हुये बताया जा सकता है की वर्ष 1950-51 में जहां कुल रेल मार्ग की लंबाई 53,956 रूट किमी थी वही अब यह 31 मार्च 2015 को 66,030 रूट किमी थी, मतलब इतने दिनों में नई रेल लाइन बहुत कम बनी हैं। वैसे विगत दशक से गेज परिवर्तन भी ज्यादा तो नहीं किन्तु लगभग या औसत 800 किमी प्रतिवर्ष हुये है और नयी लाइने लगभग या औसत रूप से 700 किमी प्रति वर्ष के रूप में बनी हैं। जबकि रेलवे स्टेशनो में 1950-51 में 5976 स्टेशन थे जो अब बढ़ कर 7131 हो गए हैं । विध्युटिकरण मे जरूर काफी वृद्धि हुई है ।
ReplyDeleteपूरे वडोदरा एरिया मे बरगद के पेंड ही पेंड हैं । वडोदरा
ReplyDeleteनाम का इतिहास इस प्रकार है ------ The city used to be called Chandanavati after its ruler Raja Chandan of the Dor tribe of Rajputs, who wrested it from the Jains. The capital was also known as Virakshetra or Viravati (Land of Warriors). Later on it was known as Vadpatraka or Vadodará, which according to tradition is a corrupt form of the Sanskrit word vatodar meaning in the heart of the Banyan tree. It is now almost impossible to ascertain when the various changes in the name were made; but early English travellers and merchants mention the town as Brodera,[9] and it is from this that the name Baroda is derived. In 1974, the official name of the city was changed to Vadodara.
In 1907, a small village and township[10] in Michigan, United States, were named after Baroda.
नीरज भाई
ReplyDeleteअब बस आ जाओ wordpress पर और एक साईट बना लो
आना तो है ही एक दिन तो अभी क्यों नहीं
आपकी भविष्य की यात्राओं के लिए शुभकामनाये
1855 में यानी भारत में पहली यात्री गाडी चलने के...........
ReplyDeleteनीरज,
मेरी जानकारी के हिसाब से पहली बंबई से थाने तक चली थी 1853 में ...
शायद तुम सही हो ... क्यों की तुमने " भारत में पहली यात्री गाडी " एसा प्रयोग किया है... विस्तार से बताओ ...
1855 में यानी भारत में पहली यात्री गाडी चलने के दो साल बाद बी.बी.एण्ड सी.आई. यानी बॉम्बे, बरोडा और सेण्ट्रल इण्डिया नामक रेलवे कम्पनी का गठन हुआ। इसमे 1855 बी.बी.एण्ड सी.आई. यानी बॉम्बे, बरोडा और सेण्ट्रल इण्डिया के लिए उपयोग किया गया है अर्थात भारत में पहली यात्री गाडी 1853 में चलने के दो साल बाद । वाक्य सही है थोड़ा आगे पीछे जरूर है ।
ReplyDeleteरेलवे और उसके नेटवर्क से सम्बन्धित विस्तृत रूप से पढ़ने को मन करे तो नीरज भाई के ब्लॉग पर आ जाओ ! महाराजा बड़ोदा के साथ साथ उस वक्त ग्वालियर के महाराजा के पास भी बहुत दौलत थी लेकिन अपनी रियासत को विकसित करने का जो जुनून बड़ोदा में रहा वो और नहीं मिलता !!
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