तो मैं पौने दो बजे उमरपाडा में था। स्टेशन से बाहर आकर छोटे से तिराहे पर पहुंचा। दो मिनट बाद एक बाइक वाले को हाथ दिया और तीन किलोमीटर दूर केवडी पहुंच गया। गुजरात के इस सुदूरस्थ स्थान पर भी टू-लेन की शानदार सडक बनी थी। बाइक वाला लडका अपनी धुन में गुजराती में कुछ कहता रहा, मैं ह्म्म्म-ह्म्म्म करता गया। पता नहीं उसे कैसे पता चला कि मुझे केवडी उतरना है, उसने तिराहे पर उतार दिया। हां, शायद गुजराती में उसने मुझसे पूछा होगा, मैंने हम्म्म कहकर उसे उत्तर दे दिया। वो सीधा चला गया, मुझे बायीं तरफ वाली सडक पर जाना था।
जाते ही वाडी की जीप भरी खडी मिल गई। एक सवारी की कमी थी, वो मैंने पूरी कर दी। हिन्दी में बात हुई। उसने परदेसी का सम्मान करते हुए एक स्थानीय सवारी को पीछे भेजकर मुझे सबसे आगे बैठा दिया। यहां से वाडी 12 किलोमीटर दूर है। कुछ दूर तो सडक रेलवे लाइन के साथ-साथ है, फिर दूर होती चली जाती है। इसी सडक पर गुजरात रोडवेज की एक बस ने हमें ओवरटेक किया। मुझे लगा कि कहीं यह अंकलेश्वर की बस तो नहीं लेकिन बाद में पता चला कि यह उमरपाडा से सूरत जाने वाली बस थी। यह बस वाडी से बायें मुड गई, मुझे दाहिने जाना था।
वाडी उतरा तो सामने ही अंकलेश्वर-अंकलेश्वर चिल्लाते जीप वाले मिल गये। न इसके भरने में ज्यादा देर लगी और न फिर इसके चलने में। घण्टा भर लगा और सवा तीन बजे मैं अंकलेश्वर रेलवे स्टेशन के सामने गन्ना-रस पी रहा था। चार बजे राजपीपला की ट्रेन थी। विमलेश जी को अपने यहां पहुंचने के बारे में बता दिया। उन्होंने बडी राहत की सांस ली, अन्यथा वे भी बडे परेशान थे कि पता नहीं चार बजे से पहले पहुंच पाऊंगा या नहीं।

स्टेशन पर पहुंचे। सामने अंकलेश्वर-राजपीपला पैसेंजर खडी थी। इसमें केवल दो ही डिब्बे थे और यह मेरी देखी ट्रेनों में सबसे छोटी ट्रेन है। इन दो में भी एक एसएलआर था। यानी यात्रियों के बैठने के लिये डेढ डिब्बे। ट्रेन के चलने का समय हो चुका था और अभी भी ट्रेन खाली पडी थी।
यह लाइन कुछ समय पहले तक नैरोगेज थी। एक-दो साल पहले ही ब्रॉड गेज में बदला गया है। राजपीपला स्वयं एक बडा शहर है और जिला मुख्यालय भी है। इधर अंकलेश्वर से सटा हुआ दूसरा जिला मुख्यालय भरूच है। दूरी लगभग 65 किलोमीटर है। ऐसे में ट्रेन में डेढ डिब्बे होने के बावजूद भी सीटें न भरना बताता है कि यहां रेलवे को बहुत कुछ करना बाकी है। पहली जो कमी है, वो यह है कि इस ट्रेन की टाइमिंग बहुत खराब है। शाम चार बजे की बजाय अगर इसे छह बजे चलाया जाये तो यह भरकर चलेगी। दूसरी बात है कि 62 किलोमीटर की इस दूरी को तय करने में ट्रेन पौने तीन घण्टे लगाती है जो निश्चित तौर पर बहुत ज्यादा है। अधिकतम स्पीड 50 किलोमीटर प्रति घण्टा रहती है। तीसरी बात कि अहमदाबाद और सूरत से भी ट्रेनें चलें तो ज्यादा ठीक रहेगा।
नैरोगेज से ब्रॉड गेज में बदल तो दिया लेकिन स्पीड नहीं बढ सकी। गुजरात में रेलवे का कम्पटीशन रोडवेज से है। यहां अच्छी सडकें हैं और बसों का किराया बाकी राज्यों के मुकाबले बहुत कम है। रेलवे अगर थोडी सी भी लापरवाही करेगा तो बसें बाजी मार ले जायेंगी। यहां ऐसा हो भी रहा है। स्पीड बढ जाये तो ट्रेन खाली नहीं चलेगी।


ठीक समय पर अंकलेश्वर से चल पडे। आगे के स्टेशन हैं- अंकलेश्वर उद्योगनगर, दठाल ईनाम, बोरीद्रा, गुमानदेव, गुमानदेव नया, झगडीया जंक्शन, अविधा, राजपारडी, उमल्ला, जूनाराजूवाडीया, अमलेथा, तरोपा और राजपीपला।


ट्रेन राजपारडी समय से सात मिनट पहले ही पहुंच गई। गार्ड ने दो-तीन टिकट बनाये। तब तक गेटमैन स्टेशन से पचास मीटर आगे फाटक को बन्द करने चला गया। 17:56 बजे उसने फाटक लगा दिया और ट्रेन को हरी झण्डी दिखा दी। ड्राइवर ने लम्बा हॉर्न बजाया और गार्ड के लिये झण्डी हिलाने लगा। लेकिन गार्ड ने घडी देखी- 17:57 बजे थे। इंजन और गार्ड के बीच में एक ही डिब्बा था। गार्ड ने ड्राइवर से कहा कि तीन मिनट पहले कैसे प्रस्थान करा दूं? फाटक कस्बे के बीच में है, तो दोनों तरफ दो मिनट में ही लम्बी लाइन लग गई थी। गार्ड ने गेटमैन को कहा कि फाटक खोल दो, अभी समय नहीं हुआ है चलने का। गेटमैन फाटक खोलता, उससे पहले ही गार्ड ने उसे रुकने को कह दिया। मैं प्लेटफार्म पर ही टहल रहा था। मुझसे बताने लगे- बताओ यार, तीन मिनट पहले कैसे चला दूं ट्रेन को? हालांकि ट्रेन अभी फाटक पार करके रुकेगी और गेटमैन के आने का इंतजार करेगी लेकिन स्टेशन से तय समय पर ही छूटनी चाहिये। अमूमन होता कुछ नहीं है, लेकिन जब होता है तो ढंग का ही होता है। आखिरकार जैसे ही 18:00 बजे, ट्रेन चल पडी। सौ मीटर चलकर फाटक पार करके फिर रुकी। गेटमैन ने फाटक खोले। वह ट्रेन में सवार हुआ और ट्रेन आगे राजपीपला की तरफ चली।

स्टेशन के पास ही एक चौक है- काला घोडा चौक। यहां काले घोडे पर सवार एक प्रतिमा लगी है। फिलहाल याद नहीं कि किसकी प्रतिमा है। बस अड्डा तो दूर है लेकिन भरूच की बस यही से होकर जाती है। बस कहां जायेगी, यह गुजराती में लिखा होता और मुझे गुजराती पढने में कोई दिक्कत नहीं आती। अहमदाबाद की एक बस आई जो डभोई होकर जायेगी। यह मेरे किसी भी काम की नहीं थी। कुछ लोकल बसें भी आईं। कुल मिलाकर साढे आठ बज गये। दुकानें बन्द होने लगीं। मेरे अलावा अंकलेश्वर और भरूच जाने वाले कई यात्री और भी थे। कुछ तो कह रहे थे कि बस आयेगी और कुछ मेरी तरह परेशान भी थे। उधर भावनगर में विमलेश जी भी लगातार पूछ रहे थे कि बस मिली या नहीं। उन्होंने एक स्टाफ को भरूच में मुझसे मिलने को कह रखा था। वह उधर प्रतीक्षा कर रहा था और इधर मैं राजपीपला में लेट पर लेट होता जा रहा था। आखिरकार सूरत जाने वाली एक बस आई। यह अंकलेश्वर से होकर जायेगी, तो मैं इसमें चढ लिया।
रास्ता खराब है। दो घण्टे बाद साढे दस बजे मैं अंकलेश्वर था। यहां से अब भरूच जाना था। स्टेशन के सामने से जीपें चलती हैं। पौने घण्टे में जीप भरी, तब यहां से चल सका। जीप सुप्रसिद्ध गोल्डन ब्रिज से होकर गई। नर्मदा पर बना यह पुल काफी लम्बा है और लोहे का बना है। यह उतना चौडा तो नहीं है कि इस पर भारी यातायात चल सके, लेकिन इससे गुजरना अच्छा लगा। बहुत लम्बा है यह। नर्मदा पर बना है तो बहुत लम्बा ही होगा। और हां, यह नर्मदा पर बना आखिरी सडक पुल है। इसके बराबर में ही रेलवे का पुल भी है।
बारह बजे थे, जब मैं भरूच जंक्शन पहुंचा। मैंने यहां 200 या 250 में 24 घण्टे के लिये एक कमरा बुक कर रखा था। रेलवे के कमरे बहुत बडे-बडे होते हैं। य्यै बडे-बडे तो बाथरूम ही होते हैं। मैंने इसे कल सूरत में पडे-पडे ही बुक किया था और प्रिंट आउट नहीं निकाल सका था। क्लर्क ने प्रिंट आउट तो मांगा, लेकिन जब था ही नहीं तो कहां से लाता? आखिरकार उसने रजिस्टर में एण्ट्री की और चाबी मुझे सौंप दी।
बाहर खाने के लिये गया तो अण्डे की एक ठेली थी, बस। आमलेट को कह दिया। उसके पास पहले ही तीन-चार लडके आमलेट बनवा रहे थे। इसी दौरान एक आदमी और आया। अण्डे वाले ने थोडी देर रुकने को कह दिया। दो लडकों को जब आमलेट बनाकर दे दिया और उस आदमी को नहीं मिला तो वो बिगड गया। उनकी बातचीत तो गुजराती में हुई, इसलिये मुझे समझ नहीं आई लेकिन इतना स्पष्ट था कि वो आदमी अण्डे वाले को भला-बुरा कह रहा था। आखिरकार वो बिना आमलेट लिये ही चला गया। अण्डे वाले का भी काफी मूड खराब हुआ। लेकिन कमाल की बात ये थी कि उनकी यह गर्मागरम बहस बडे प्यार से हो रही थी। इतने प्यार से कि मैं बता नहीं सकता। मेरी इस बात को केवल गुजराती ही समझ सकते हैं, उत्तर भारत वाले तो समझ ही नहीं सकते।
10 मार्च 2016
सुबह चार साढे चार बजे ही विमलेश जी का फोन आ गया- उठ जा भाई। असल में छह बजे भरूच से दहेज जाने वाली एकमात्र यात्री गाडी चलती है। थोडी देर पहले ही मैं सोया था। बडा दुख हुआ उठने में। मैंने सोचा कि प्लेटफार्म एक से दहेज की गाडी जायेगी, इसलिये काफी सुस्ती से नहाना धोना किया। लेकिन जब पता चला कि दहेज वाली गाडी भरूच के मेन स्टेशन से करीब आधा किलोमीटर दूर से चलती है, तो होश उड गये। फटाफट यहां से निकला, टिकट लिया और उनके बताये रास्ते पर दौड लगा दी। ट्रेन खडी हुई थी।
यह लाइन पहले नैरोगेज थी। रास्ते में समनी जंक्शन पडता था। वहां से एक लाइन दहेज जाती थी और एक लाइन सीधे जम्बूसर होते हुए कावी। जम्बूसर से एक लाइन वडोदरा के पास प्रतापनगर तक जाती थी। फिलहाल समनी से कावी की लाइन बन्द है। जम्बूसर से प्रतापनगर तक नैरोगेज ट्रेन चलती है और भरूच से दहेज तक न केवल गेज परिवर्तन हो चुका है, बल्कि यह विद्युतीकृत भी है।
इसका असल कारण है दहेज को एक औद्योगिक क्षेत्र बनाना। वहां बन्दरगाह भी है। मालगाडियों का यहां से खूब आवागमन होता है।


मैं एक बात और सोच रहा हूं। यह ट्रेन सुबह छह बजे भरूच से चलती है। पूरे दिन दहेज में खडी रहती है और रात आठ बजे वापस भरूच लौटती है। इसके गार्ड और ड्राइवर वहां पूरे दिन क्या करते होंगे? मतलब डेढ-दो घण्टे का जाना और डेढ-दो घण्टे का वापस आना; कुल मिलाकर तीन-चार घण्टे का ही काम है उनका। रेलवे इतना भला मानुस तो नहीं है कि उनसे चार घण्टे काम लेगा और बारह-चौदह घण्टे की सैलरी देगा। हालांकि मैंने किसी से पूछा तो नहीं लेकिन मन नहीं मान रहा कि वे पूरे दिन रनिंग रूम में पडे रहते होंगे। या फिर ऐसा भी हो सकता है कि ये लोग दहेज में यात्री गाडी छोडकर उधर से मालगाडी लेकर आ जाते हों।




दहेज उतर गया। अब बारी थी सडक मार्ग से जम्बूसर जाने की। पांच घण्टे बाद जम्बूसर से प्रतापनगर की छोटी ट्रेन चलेगी। शायद तब तक तो पहुंच ही जाऊं।
अगला भाग: जम्बूसर-प्रतापनगर नैरोगेज यात्रा और रेल संग्रहालय
1. बिलीमोरा से वघई नैरोगेज रेलयात्रा
2. कोसम्बा से उमरपाडा नैरोगेज ट्रेन यात्रा
3. अंकलेश्वर-राजपीपला और भरूच-दहेज ट्रेन यात्रा
4. जम्बूसर-प्रतापनगर नैरोगेज यात्रा और रेल संग्रहालय
5. मियागाम करजन से मोटी कोरल और मालसर
6. मियागाम करजन - डभोई - चांदोद - छोटा उदेपुर - वडोदरा
7. मुम्बई लोकल ट्रेन यात्रा
8. वडोदरा-कठाणा और भादरण-नडियाद रेल यात्रा
9. खम्भात-आणंद-गोधरा पैसेंजर ट्रेन यात्रा
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (10-05-2016) को "किसान देश का वास्तविक मालिक है" (चर्चा अंक-2338) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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मातृदिवस की हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बेहतरीन लिखा है आपने नीरज भाई ।
ReplyDeleteदेश के अंदरूनी हिस्सों में असली भारत बसता है और हम सिर्फ दिल्ली या मुम्बई को ही भारत समझने की भूल कर बैठते हैं ।
कभी-2 आपकी पोस्ट पढ़कर आँखों से आंसू छलक आते हैं ।
कभी किस्मत में हुआ तो मेरी भी इच्छा है आपके साथ घूमने की ।
बढ़िया और जानकारी वाला पोस्ट। जहां तक गार्ड-ड्राईवर की ड्यूटि की बात है,मालगाड़ी और यात्री गाड़ी के गार्ड-ड्राईवर अलग-अलग होते है,उन्हे अत्यन्त आवश्यक स्थिति को छोड़ कर मालगाड़ी से यात्री गाड़ी या यात्री गाड़ी से मालगाड़ी मे एक दूसरे की ड्यूटि मे नहीं लगाया जा सकता है। भले हो वह कई घंटे स्पेयर बैठे रहें ।
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