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कोसम्बा से उमरपाडा नैरोगेज ट्रेन यात्रा



Kosamba railway station9 मार्च 2016
मुम्बई से आने वाली अहमदाबाद पैसेंजर आधा घण्टा लेट थी लेकिन इतनी लेट भी नहीं थी कि मुझे कोसम्बा पहुंचने में विलम्ब हो जाये। कोसम्बा से मेरी उमरपाडा वाली नैरोगेज की ट्रेन सुबह साढे नौ बजे थी और मैं साढे आठ बजे ही कोसम्बा पहुंच गया। टिकट लिया और भरूच से आने वाले नीरज जी का इंतजार करने लगा।
विमलेश चन्द्र जी के बारे में मैंने पिछली पोस्ट में भी बताया था। इस यात्रा में मुझे कोई दिक्कत न हो, इस बात का ख्याल सैकडों किलोमीटर दूर भावनगर में बैठे विमलेश जी ने खूब रखा। कार्यक्रम उन्हें मालूम ही था - इसलिये कब कहां मुझे होना है, इसे भी वे भली-भांति जानते थे। इसी का नतीजा था कि यहां सी.एण्ड.डब्लू. में वरिष्ठ खण्ड अभियन्ता नीरज जी मिले। नीरज जी को भरूच से आना था और वे वडोदरा-भिलाड एक्सप्रेस से आये। सुबह का समय था और कोसम्बा के एक तरफ भरूच है और एक तरफ सूरत - खूब भीड होना लाजिमी था। भिलाड एक्सप्रेस चली गई तो पीछे-पीछे ही भुज-बान्द्रा आ गई और सारी भीड को उठाकर ले गई। कोसम्बा में अब जो थोडे से ही यात्री बचे थे, वे प्लेटफार्म नम्बर तीन पर थे और मुझे उनके साथ यात्रा करनी थी।



सी.एण्ड.डब्लू. यानी कैरिज और वैगन - साधारण शब्दों में कहें तो डिब्बों और इंजन की देखभाल करने वाला विभाग। कोसम्बा से दिनभर में एक ही ट्रेन उमरपाडा जाती है, इसलिये नीरज जी को एक इसी ट्रेन की फिटनेस देने भरूच से यहां आना होता है।
सबसे पहले वे यार्ड में गये। मुझे भी ले गये। तीन डिब्बों की छोटी सी ट्रेन जिसमें सबसे पीछे वाला डिब्बा एसएलआर यानी गार्ड और मालडिब्बा था। इन नैरोगेज की ट्रेनों में बडी ट्रेनों की तरह एसएलआर भी होते हैं, हालांकि इनमें कभी भी कोई माल नहीं चढता। ट्रेन प्लेटफार्म पर आकर लग गई। गिने-चुने यात्री थे, सब सीटों पर फैलकर बैठ गये। इसके बाद भी कितनी ही सीटें खाली बच गईं।
नीरज जी ने नीरज का परिचय नीरज से कराया। जी हां, तीसरा नीरज भी यहां पर था। वो था ट्रेन का गार्ड। एक नम्बर का भला मानुस और मस्त पर्सनैलिटी। और उससे भी मस्त थे ट्रेन के ड्राइवर। मुझे इंजन में घुसने का भी मौका मिला। मैं स्वयं भी डीजल इंजन की एक अलग तरह की रेलगाडी चलाने में प्रशिक्षित हूं, इसलिये मेरी दिलचस्पी इस इंजन को भी देखने में थी। सिर झुकाकर इंजन के केबिन में घुसा तो मेरा पहला ही प्रश्न था- खडे होकर ट्रेन चलाते हो क्या? बैठते कहां हो? जैसा यह नैरोगेज का इंजन, वैसी ही इसकी नैरोगेज की सीटें। ज्यादातर तो ड्राइवर खडे ही रहते हैं। मैं अक्सर सबसे पीछे वाले डिब्बे में बैठना पसन्द करता हूं, तो कभी ड्राइवर के उठने-बैठने पर ध्यान नहीं दिया। सबसे पहले ध्यान दिया था ग्वालियर नैरोगेज पर। मैंने वहां गौर किया था कि ड्राइवर खडे ही रहते हैं या फिर पैनल के ऊपर बैठ जाते हैं। इन इंजनों में बैठने की जगह तो होती है, लेकिन यह बिल्कुल भी सुविधाजनक नहीं होती। रही-सही कसर नन्हीं-सी विण्ड स्क्रीन पूरा कर देती है। हालांकि ग्वालियर में और शिमला लाइन पर मैंने नये तरह के नैरोगेज के इंजन देखे हैं, जिनमें दोनों तरफ केबिन होते हैं। शायद उनमें बैठने की ठीक सुविधा हो। कभी नये वाला इंजन देखने को मिलेगा, तो सबसे पहले यही देखूंगा कि ड्राइवरों के बैठने की सुविधा कैसी है।
गार्ड साहब खूब सारे टिकट लिये हुए थे- गत्ते वाले टिकट। आगे कहीं भी रेलवे का कोई स्टाफ नहीं है, इसलिये टिकट बिक्री गार्ड को ही करनी होती है।

Kosamba Umarpada Narrow Gauge Railway Line

Kosamba Umarpada Narrow Gauge Railway Line

Kosamba Umarpada Narrow Gauge Railway Line

कोसम्बा से चलते ही बायीं तरफ एक बडा मोड है और ट्रेन दक्षिण दिशा से पूर्व दिशा में मुड जाती है। इसके साथ ही सडक भी रेलवे लाइन के साथ हो जाती है। मतलब रेलवे लाइन भी सडक के साथ-साथ हो जाती है। मतलब बहुत दूर तक दोनों साथ-साथ हैं। इसी दौरान एक फाटक पर खडे एक विदेशी पर निगाह गई। वह बडी तल्लीनता से ट्रेन के फोटो खींच रहा था। ट्रेन गुजर गई तो इसके बाद भी कई बार वह मिला। कई बार खेतों में और कई बार ऊंचे पुल के नीचे। बाद में गार्ड ने बताया कि वह कई दिनों से यहां है। साथ ही यह भी पता चला कि अक्सर रेलवे फोटोग्राफर इस लाइन पर आते रहते हैं और खूब शानदार फोटो खींचते हैं।
वैसे मेरी भी इच्छा है कि कभी सडक मार्ग से रेल का पीछा करूं और ऐसे ही स्थानों पर खडा होकर इनके फोटो खींचूं।
फेसबुक बडी कमाल की चीज है। आपको थोडा सा दिमाग लगाना होता है और बहुत कुछ आपके हाथ लग जाता है। ये विदेशी फोटोग्राफर थे हेनरिक हबर्ट। ये जाने-माने रेलवे फोटोग्राफर हैं खासकर दक्षिण एशिया में। इनके लेख आपको इंटरनेट पर खूब मिल जायेंगे।

Kosamba Umarpada Narrow Gauge Railway Line

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इस लाइन पर कोसम्बा के बाद सभी स्टेशन ये हैं- वेलाछा, लिम्बाडा, आसरमा, सिमोदरा, कोसाडी, मोटामिया मांगरोल, वांकल, झंखवाव, चीतलदा (अब बन्द), केवडी और उमरपाडा।
इस लाइन पर ट्रेन अधिकतम 15 किलोमीटर प्रति घण्टे की स्पीड से चलती है, इसलिये 62 किलोमीटर की इस दूरी को तय करने में चार घण्टे लग जाते हैं। झंखवाव के बाद बीहड इलाका शुरू हो जाता है जिसमें लहरदार टीलों की प्रमुखता है। फिलहाल तो यहां उतनी हरियाली नहीं थी, लेकिन मानसून में खूब हरियाली हो जाती होगी और यह इलाका बेहद खूबसूरत लगता होगा। गार्ड ने बताया कि ट्रेन चूंकि खाली ही चलती है, इसलिये अक्सर लोगबाग इसमें छुट्टियां मनाने आ जाते हैं। यार-दोस्त, घर-परिवार के लोग होते हैं, अपना खाना-पानी साथ लाते हैं। छुकछुक ट्रेन में मजे से खाते-पीते हैं और पिकनिक मनाते हैं।
इस ट्रेन से प्रतिदिन लगभग कितनी आमदनी हो जाती होगी- यह पूछने पर बताया कि 1200-1500 रुपये। कोसम्बा स्टेशन को छोडकर दोनों तरफ की यात्राओं के टिकट चूंकि गार्ड को ही देने होते हैं, इसलिये उसे आमदनी की जानकारी थी। प्रतिदिन की यह आमदनी ट्रेन के एक ड्राइवर के प्रतिदिन के वेतन से भी कम है। जबकि दो ड्राइवर, एक गार्ड के अलावा गेटमैन और खूब सारे मैंटेनेंस स्टाफ की भी अगर सैलरी जोड लें तो यह ऊंट के मुंह में जीरे से भी कम है।
रेलवे वाकई कई बार कितना बडा बलिदान कर देता है!

Kosamba Umarpada Narrow Gauge Railway Line

Kosamba Umarpada Narrow Gauge Railway Line

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Kosamba Umarpada Narrow Gauge Railway Line

Kosamba Umarpada Narrow Gauge Railway Line
यात्री गार्ड से टिकट लेते हुए

और क्या लिखूं इस लाइन के बारे में? हां, इतिहास रह गया। इस काम को विमलेश जी ने इस प्रकार किया है- “कोसम्बा-उमरपाड़ा रेलखंड की 2 फुट 6 इंच चौड़ाई वाली नैरोगेज रेल लाइन 61.96 किमी लंबी है, जिसे गायकवाड बरौदा स्टेट रेलवे ने 01 मई 1912 से 01 जुलाई 1929 के बीच बनवाया था। यहाँ भारतीय रेल की सबसे कम कोच वाली अर्थात सबसे छोटी गाड़ी चलती है। जिसमे दो कोच या तीन कोच होते थे। यात्री बढने के कारण शायद कोच बढ़ गए हों।”
यह था इस लाइन का इतिहास। उमरपाडा पौने दो बजे पहुंच गया। उधर अंकलेश्वर से चार बजे यानी अब से सवा दो घण्टे बाद राजपीपला की ट्रेन है। दूरी है 70 किलोमीटर के आसपास। मैंने गार्ड से ही उमरपाडा से अंकलेश्वर पहुंचने के साधनों के बारे में पूछा। उन्होंने कहा- मुश्किल है लेकिन कोशिश करते हैं। उमरपाडा से पहले स्टेशन केवडी पर एक ऑटो वाले से पूछा तो बताया कि उमरपाडा से वापस केवडी आना पडेगा। यहां से वाडी की जीप मिलेगी और वहां से अंकलेश्वर की। सीधी कोई गाडी नहीं मिलेगी। हालांकि गार्ड और ड्राइवरों ने मुझसे इसी ट्रेन से वापस चलने को कहा और यह भी बताया कि कल ये तीनों ही अंकलेश्वर से राजपीपला वाली ट्रेन लेकर जायेंगे, उनके साथ ही चलूं। मेरा भी मन लग रहा था और उनका भी। लेकिन कोशिश करने में हर्ज क्या है? एयरटेल का नेट अच्छा चल रहा था, इसलिये केवडी से उमरपाडा के रास्ते में अंकलेश्वर तक का सारा मार्ग देख लिया और यह भी देख लिया कि वाडी कहां है।

Kosamba Umarpada Narrow Gauge Railway Line

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यह किसी घर की खिडकी नहीं है, बल्कि ट्रेन की खिडकी है।

Kosamba Umarpada Narrow Gauge Railway Line

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मन तो कर रहा है कि जल्द से जल्द अंकलेश्वर पहुंच जाऊं और आपको राजपीपला तक की सैर कराऊं। लेकिन इस नैरोगेज की ट्रेन को छोडने का मन नहीं कर रहा। यह मेरी सबसे शानदार ट्रेन यात्राओं में से एक रही। इस रास्ते में खाने को कुछ नहीं मिलता और पीने को पानी भी नहीं। वो तो अच्छा हुआ कि गार्ड ने मेरे लिये झंखवाव से खाना मंगा लिया था। उन्होंने किसी को पहले ही फोन करके बता दिया था। अक्सर इन्हें यहां से खाना मंगा लेना पड जाता है। ट्रेन झंखवाव पहुंची और मेरे सामने दाल-चावल-रोटी और सबसे प्रिय छाछ आ गये। भूखा पेट, सामने भोजन और खाली पडी ट्रेन। इसकी कल्पना वही कर सकता है जिसने लोकल ट्रेनों में पैर फैलाकर आराम से बैठकर खाना खाया हो। ड्राइवर के पास से छोटा प्लास्टिक का कप मिल गया। लेकिन एक बात ने बडा परेशान किया। ट्रेन भले ही 15 की स्पीड से चल रही हो लेकिन हिल खूब रही थी। कप में छाछ बडा सम्भलकर डालनी पडती। ऊपर से मीठी गुजराती दाल...।
लेकिन फिर भी यादगार यात्रा रही। अभी भी बहुत कुछ लिखने का मन कर रहा है। कोसम्बा में जब एसएसई नीरज जी ने मेरा परिचय गार्ड और ड्राइवरों से कराया और कहा कि मैं उनके साथ उमरपाडा तक जाऊंगा, तो एक ड्राइवर ने पूछा- फुट प्लेटिंग करोगे? मैंने कहा- नहीं, जो मजा पीछे डिब्बे में बैठने में है, वो इंजन में बैठने में नहीं है? गार्ड और ड्राइवर तीनों ही मस्तमौला थे। जहां भी ट्रेन रुकती और मैं नीचे उतरकर टहलने लगता तो हमेशा मुस्कुराहट बिखरी मिलती। उधर गार्ड टिकट बांट रहा होता और इधर ड्राइवर मुझसे अपने अनुभव साझा कर रहे होते-
“यह ट्रेन पुराने जमाने की तर्ज पर चल रही है। पहले लोगों के पास समय होता था, लेकिन पैसे नहीं होते थे। इसलिये वे इस ट्रेन में खूब यात्रा करते थे। लेकिन अब उल्टा जमाना है। अब लोगों के पास समय नहीं है। बस जहां डेढ घण्टे लगाती है, वही यह ट्रेन चार घण्टे। इसलिये कौन इसमें यात्रा करेगा? कुछ पैसे बस में फालतू देकर वे अपने दो घण्टे बचा लेते हैं। अब तो रेलवे को या तो इन लाइनों को ब्रॉड गेज बना देना चाहिये या फिर बन्द कर देना चाहिये।” वैसे वडोदरा डिवीजन में नैरोगेज की कई लाइनें बन्द हो चुकी हैं।
हालांकि मन तो मेरा भी था इंजन में बैठने का और गार्ड के साथ बैठने का। लेकिन चूंकि मुझे अपने संस्मरण भी लिखने होते हैं और झूठे संस्मरण लिखे नहीं जाते, इसलिये इन दोनों इच्छाओं का दमन करना पडा। एक बार आपकी गार्ड और ड्राइवर से जान-पहचान हो जाये, फ़िर तो आप उनके दोस्त हो जाते हैं और इंजन भी आपके लिये खुला होता है और गार्ड का डिब्बा भी। इसके बावजूद भी मैंने इनमें यात्रा नहीं की। यात्री डिब्बे ही खूब खाली रहते हैं, आपको इधर-उधर जाने की जरुरत ही नहीं रहती। फिर भी इन आठ दिनों में मैंने एक बार गार्ड के डिब्बे में खडे होकर हरी झण्डी हिलाते हुए एक फोटो खिंचवाया और एक दिन इंजन में बैठकर भोजन भी उडाया। कई बार तो स्टेशनों पर जब गार्ड-ड्राइवर चाय पीते थे, तो मुझे भी इसमें शामिल करते थे। मैं किसी बरगद के नीचे बैठा होता, स्टेशन की आवाजाही देखता रहता और एक कर्मचारी मेरे पास आता- लो सर, चाय लो। जरूर गार्ड-ड्राइवर ही उसे उंगली करते होंगे कि उसे भी देकर आओ।
खैर, अभी तो यात्रा शुरू हुई है। देखते जाइये आगे क्या क्या होता है।
तो जी समय पर उमरपाडा पहुंच गये। तीनों से विदा ली और स्टेशन से बाहर पहुंच गया। ट्रेन का इंजन तुरन्त ही अलग करके दूसरी दिशा में लगा दिया और पन्द्रह मिनट बाद ट्रेन यहां से वापस कोसम्बा के लिये चल देगी।





अगला भाग: अंकलेश्वर-राजपीपला और भरूच-दहेज ट्रेन यात्रा

1. बिलीमोरा से वघई नैरोगेज रेलयात्रा
2. कोसम्बा से उमरपाडा नैरोगेज ट्रेन यात्रा
3. अंकलेश्वर-राजपीपला और भरूच-दहेज ट्रेन यात्रा
4. जम्बूसर-प्रतापनगर नैरोगेज यात्रा और रेल संग्रहालय
5. मियागाम करजन से मोटी कोरल और मालसर
6. मियागाम करजन - डभोई - चांदोद - छोटा उदेपुर - वडोदरा
7. मुम्बई लोकल ट्रेन यात्रा
8. वडोदरा-कठाणा और भादरण-नडियाद रेल यात्रा
9. खम्भात-आणंद-गोधरा पैसेंजर ट्रेन यात्रा




Comments

  1. वाह! पुराने जमाने में ले गए हमें! मज़ा आया! तो आप समय यात्री और वैज्ञानिक भी हैं!! :)

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  2. निरंजन जी ने ठीक कहा. नीरज जाट की यायावरी अलग है. एक प्रवाह है इनका लेखन जिसके साथ पाठक तैरता है. जी करता है, मैं भी उठ कर इन्हीं के साथ चल पडूं. पर मेरे अपने फंडे हैं. अक्सर में अकेला जाने का आदि नहीं. ३०-३२ साल पुराने एक मित्र हैं, अक्सर उन्हीं के साथ निकलता हो. नैरो गेज़ लाईन, १५ किलोमीटर प्रति घंटे की गति............ऐसे में सारा जहां ही यायावर की नजरों में समाया रहता है. पिछले डिब्बे में, सबसे पिछली सीट पर बैठने का भी एक रहस्य है. कर्व्स पर बहुत कुछ पकड़ा जाता है. लेकिन अगर चित्र लेते है ट्रेन चल पडती है तो दौड़ भी लगानी पड़ती है.

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    1. सही कहा रणबीर जी... आपका बहुत बहुत धन्यवाद...

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  3. enjoyed your well drafted travelogue with relative sharp photos,also narrative about Haneric herbert a railway photographer. travel in narrow gauge must be a wonderful experience.. Kudos

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  4. नीरज भाई हमेशा की तरह एक और यादगार यात्रा।

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  5. नीरज भाई,
    वृत्तांत के प्रारम्भ में आप 2016 की जगह 2015 लिख गए हैं।
    कृपया सुधार कर लें।

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    1. इसे ठीक कर दिया है मोहित जी... आपका बहुत बहुत धन्यवाद...

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  6. एक वाक्य मे बोलें तो यह गज़ब का पोस्ट और फोटो है। पोस्ट के माध्यम से यादें ताजी हो गईं । शायद अगले पोस्ट मे यह भी आए जब आप परेशान होकर यह पूरी यात्रा कैंसिल करने जा रहे थे और मेरे समझाने के बाद यात्रा जारी रखे रहे ।

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    1. सही कहा सर जी... कुछ बातें छूट भी जाती हैं बताने से... किसी दिन मौका देखकर यह भी बता दूंगा।

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  7. आज की पोस्ट एक अलग ही मज़ा दे गईं, कई जगह सब कुछ थम सा जाता है, और आप केवल द्रष्टा मात्र रह जाते हो,आपके साथ हम भी द्रष्टा ही बन गए।
    लेखन में कुछ नयापन लगा।
    विमलेश सर की मदद् सरहानीय है।
    वेसे वो विदेशी फोटोग्राफर को फेसबुक पर कैसे ख़ोज लिया, शायद इमेज सर्च कर के ???

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    1. इमेज सर्च करके नहीं... फेसबुक पर ‘नैरो गेज’ करके एक बहुत बडा ग्रुप है जिसमें देशी-विदेशी रेल-फैन शामिल हैं। उसमें इस फोटो को डाल दिया और थोडी ही देर में उत्तर मिल गया।

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  8. फोटो बहुत अच्छे आये हैं, इंजिन में बैठकर खाने का अनुभव गजब है।

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    1. धन्यवाद विवेक जी...

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    2. इंजन मे दरवाजे पर खड़े होकर फोटो खिचाते तो वह तो वह अपने आप मे एक अनोखा और यादगार फोटो होता ।

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  9. गत्ते वाली टिकट देखकर वो वक्त याद आ गया जब टिकट बांटने वाला बाबू खटाखट खटाखट मशीन में टिकट डालता और बाहर निकाल लेता ! उस पर छपी तारिख को हम कई बार देखते , मेरा ध्यान उस पर पहले से प्रिंट किलोमीटर पर जाता था ! मजा आ गया भाई

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  10. बहुत दिन बाद गत्ते वाली टिकट देखि, रेल के बारे में जायदा जानकारी नहीं है बस जो भी है वोह आपके माध्यम से ही है.
    फोटोज अच्छी लगी.

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  11. वृतांत पढ़कर खो से गये भाई... यायावरी का जीवंत अहसास करा दिया आपने। वाकई आगे ओर देखने पढने की उत्सुकता बढ़ गई। इंतज़ार रहेगा अगली कड़ी का...

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