10 जनवरी 2016
कल की बात है। जब पौने पांच बजे रीकांग पीओ से बस आई तो इसमें से तीन-चार यात्री उतरे। एक को छोडकर सभी स्थानीय थे। वो एक बाहर का था और उसकी कमर पर बडा बैग लटका था और गले में कैमरा। उस समय हम चाय पी रहे थे। बातचीत हुई, तो वह चण्डीगढ का निकला। जनवरी में स्पीति घूमने आया था। चौबीस घण्टे पहले उसी बस से चण्डीगढ से चला था, जिससे हम कुछ दिन पहले चण्डीगढ से रीकांग पीओ आये थे। वह बस सुबह सात बजे रीकांग पीओ पहुंचती है और ठीक इसी समय वहां से काजा की बस चल देती है। वह पीओ नहीं रुका और सीधे काजा वाली बस में बैठ गया। इस प्रकार चण्डीगढ से चलकर बस से चौबीस घण्टे में वह काजा आ गया। उसकी क्या हालत हो रही होगी, हम समझ रहे थे।
कल की बात है। जब पौने पांच बजे रीकांग पीओ से बस आई तो इसमें से तीन-चार यात्री उतरे। एक को छोडकर सभी स्थानीय थे। वो एक बाहर का था और उसकी कमर पर बडा बैग लटका था और गले में कैमरा। उस समय हम चाय पी रहे थे। बातचीत हुई, तो वह चण्डीगढ का निकला। जनवरी में स्पीति घूमने आया था। चौबीस घण्टे पहले उसी बस से चण्डीगढ से चला था, जिससे हम कुछ दिन पहले चण्डीगढ से रीकांग पीओ आये थे। वह बस सुबह सात बजे रीकांग पीओ पहुंचती है और ठीक इसी समय वहां से काजा की बस चल देती है। वह पीओ नहीं रुका और सीधे काजा वाली बस में बैठ गया। इस प्रकार चण्डीगढ से चलकर बस से चौबीस घण्टे में वह काजा आ गया। उसकी क्या हालत हो रही होगी, हम समझ रहे थे।
वैसे तो उसकी काजा में रुकने की बुकिंग थी, हालांकि भुगतान नहीं किया था लेकिन हमसे बात करके उसने हमारे साथ रुकना पसन्द किया। तीनों एक ही कमरे में रुक गये। मकान मालकिन ने 200 रुपये अतिरिक्त मांगे। रात खाना खाने के लिये मालकिन ने अपने कमरे में ही बुला लिया। अंगीठी के कारण यह काफी गर्म था और मन कर रहा था कि खाना खाकर यहीं पीछे को लुढक जायें। लेकिन मैं यहां जिस बात की तारीफ करना चाहता हूं, वो है उनका खाना। कमरे भले ही उतने अच्छे न हों लेकिन खाना उन्होंने वाकई शानदार बनाया था। दाल, आलू की मिक्स सब्जी, रोटी और चावल; किसी भी चीज में आप एक भी कमी नहीं निकाल सकते। मैं दोबारा अगर काजा आया, तो इनके यहां केवल खाने के लिये ही रुकूंगा।
स्पीति में कल थोडी सी बर्फ पडी थी, लेकिन आज तेज धूप निकलने के कारण ज्यादातर बर्फ पिघल गई। चण्डीगढ वाला वह लडका बर्फीला स्पीति देखने आया था इसलिये अब उसे निराशा हाथ लगी। वह इतना निराश हुआ कि उसने कल सुबह हमारे साथ ही वापस चल देने का इरादा बना लिया।
लेकिन असली घुमक्कड वही है जो रात कुछ इरादा बनाये और सुबह उससे मुकर जाये। हम छह बजे ही उठ गये, क्योंकि साढे सात बजे बस थी। उसे भी उठाया लेकिन उसने मना कर दिया कि वह आज नहीं जायेगा। कल वह लगातार चौबीस घण्टे की यात्रा करके यहां पहुंचा था। उसका आज वापस लौटने से मना करना लाजिमी था।
सुबह तापमान शून्य से चौदह डिग्री नीचे था और यह आज रात का न्यूनतम तापमान भी था। सात बजे बस अड्डे पर पहुंचे तो देखा कि बस स्टार्ट खडी है। टिकट बस के अन्दर ही मिलेगा, क्योंकि यह बस इस मौसम में लगभग खाली ही चलती है। टिकट की कोई मारामारी नहीं मचती। हमने अपनी मनपसन्द सीट कब्जा ली- बस के बीच में दाहिनी तरफ खिडकी वाली सीट। क्योंकि लगभग पूरे रास्ते हमारे दाहिनी तरफ नदी रहने वाली है- पहले स्पीति और फिर सतलुज।
इस बस के कंडक्टर और ड्राइवर की बडी कठिन ड्यूटी होती है। अरे नहीं, पीओ से यहां तक आना तो कठिन है ही लेकिन उससे भी ज्यादा कठिन है पूरी रात बारी-बारी से जगना और बस के डीजल को जमने से बचाना। इसके लिये बस को स्टार्ट रखा जाता है। एक घण्टा स्टार्ट रखते हैं, फिर एक घण्टे के लिये बन्द कर देते हैं और फिर एक घण्टा स्टार्ट रखनी पडती है। अगर ऐसा न किया तो सारा डीजल जम जायेगा और सुबह बस स्टार्ट नहीं की जा सकेगी। अगर कभी डीजल जम भी जाता है तो उसके लिये सुबह डीजल टंकी के नीचे आग जलाकर उसे पिघलाया जाता है।
वाकई कितनी कठिन ड्यूटी है! पूरे दिन कठोर वातावरण में पीओ से काजा तक बस चलाई जाती है। फिर काजा पहुंचकर रातभर सो भी नहीं सकते। और अगले दिन यही बस लेकर पूरे दिन चलाकर फिर से वापस लौटा जाता है।
वापस जाने का एक दूसरा विकल्प भी था। आप तो जानते ही हैं कि स्पीति की लगभग पूरी आबादी बौद्ध है और ज्यादातर लोग सर्दियों में नीचे रिवालसर या धर्मशाला चले जाते हैं। तो यहां से नियमित रूप से रिवालसर और धर्मशाला के लिये प्राइवेट शेयरिंग वाहन चलते रहते हैं, खासकर सूमो और ट्रैवलर। काजा से रामपुर का किराया होता है 1000 रुपये। ट्रैवलर की सीटें सरकारी बस के मुकाबले ज्यादा आरामदायक होती हैं, इसलिये आराम को ध्यान में रखते हुए हमने इनमें भी जाने की योजना बना ली थी। रात होने तक रामपुर पहुंच जायेंगे और आगे हमारे ऊपर था कि आगे की बस पकडें या रात रामपुर में ही रुक जायें। एक बस वाले से बात भी की थी लेकिन आखिरकार बैठे हम सरकारी बस में ही। इसका किराया था 335 रुपये रीकांग पीओ तक।
काजा बस अड्डे पर खडी बस |
काजा बस अड्डा |
ठीक साढे सात बजे बस चल पडी। रास्ता स्पीति नदी के साथ साथ ही है और ज्यादातर ऊबड-खाबड है। तीन घण्टे में हुरलिंग पहुंचे। यहां नाश्ते के लिये रुके। मेरा केवल चाय पीने का मन था। पहाडी मार्गों में बस यात्राओं में पेट भरा होने पर पेट में बुलबुले जैसे बनने लगते हैं और उलट देने का भी मन करता है। लेकिन जब देखा कि यहां तो आलू के परांठे बन रहे हैं तो स्वयं को रोक नहीं सका। दोनों ने दो-दो परांठे निपटा डाले।
इसी परांठे वाली दुकान पर एक लडका भी था और ग्राहकों को परांठे देने और बर्तन उठाने का काम कर रहा था। शक्ल से देश के उस हिस्से का लग रहा था जहां का लगना चाहिये। बिहार का नाम लेते हुए डर लगता है, बिहारी मित्र नाराज हो जाते हैं। मैंने उससे पूछा- ओये, कहां का है भाई तू? वो बोला- क्यों? मुझे उम्मीद थी कि वो एकदम बता देगा लेकिन यह प्रति-उत्तर सुनकर मुझे थोडा सा गुस्सा भी आया और हैरानी सी भी हुई। आधे-पौने घण्टे तक जब तक बस खडी रही, तब तक मैंने कम से कम दस बार उससे यही पूछा लेकिन उसने नहीं बताया। मैं उसके बारे में अधिक से अधिक जानना चाह रहा था। सर्दियों में जबकि स्थानीय लोग भी नीचे चले जाते हैं, वह नीचे का होने के बावजूद यहां डटा था।
बस जब चलने को हुई तो सुमित ने मुझसे पूछा- गया कहां है? मैंने कहा- बिहार में। बोला- वो लडका गया का रहने वाला है। बीआरओ में काम करने यहां आ गया और अब इस होटल में काम करने लगा।
हुरलिंग में आलू के परांठे बनते हुए |
साफ-सुथरी स्पीति नदी में बर्फ भी तैर रही है। |
सुमडो के बाद रास्ता स्पीति के दाहिनी तरफ हो जाता है अर्थात मेरी तरफ अब सीधा खडा पहाड था। पिछली एक पोस्ट में मैंने बताया था कि खाब से सुमडो तक खासकर चांगो और सुमडो के बीच का रास्ता बडा ही खतरनाक है। सडक चौडी की जा रही है और डायनामाइट लगाकर पहाड को तोडा जा रहा है। सिर के ऊपर सैंकडों फीट तक खडा पहाड है और ऊपर देखना रोमांच भी पैदा करता है और डर भी। यह डर तब बहुत ज्यादा बढ गया जब बस की छत पर बजरी गिरने की आवाजें आईं। बजरी अर्थात छोटे पत्थर। इनके साथ बडे पत्थर भी गिर सकते हैं। आभास होते ही ड्राइवर ने इस ऊबड-खाबड रास्ते पर 25 की स्पीड से चलती बस को अचानक 60 तक दौडा दिया। खतरे से बाहर निकलकर फिर से 25 पर आ गये।
सुमडो और चांगो के बीच ऐसा रास्ता है। |
चांगो में फिर से स्पीति के बायी तरफ आ गये और नदी हमारे दाहिनी तरफ हो गई। नाको की चढाई आरम्भ हो गई। अब मैं मुलिंग नाले की भयावहता को स्पष्ट देख सकता था। जितना ऊपर चढते जा रहे थे, नीचे नदी किनारे बनी पुरानी सडक और भी स्पष्ट दिखने लगी। बन्द हो जाने के कारण उस पर पत्थर और बजरी आ गये थे और अब वह सडक किसी लायक नहीं बची थी। रही-सही कसर मुलिंग नाले ने पूरी कर दी। नाले के क्षेत्र में नीचे वाली सडक थी ही नहीं। नाले के उस तरफ तो सडक के अवशेष थे, फिर एकदम से ‘पातालेश्वर’ मुलिंग नाला था। कभी बाइक से आना होगा, तो उस स्थान तक जरूर जाऊंगा, जहां सडक अचानक समाप्त हो जाती है और बहुत गहरे में नाला बहता है। बडा ही रोमांचक अनुभव होगा वह।
अगर आपकी मुलिंग नाले के आसपास के क्षेत्र में दिलचस्पी है, तो अब ध्यान से फोटो देखिये। हम चांगो से नाको की चढाई पर हैं। नीचे स्पीति नदी है और स्पीति के उस पार एक सडक दिख रही है। वह नई बन रही सडक है जो मुलिंग नाले और नाको को पूरी तरफ बाईपास कर देगी और दूरी 25-30 किमी तक कम हो जायेगी। |
इस फोटो में स्पीति नदी है और एक सडक भी है। यह वही पुरानी सडक है जिस पर मुलिंग नाला जमकर तांडव मचाया करता था। मुलिंग नाले की वजह से काजा जाने वाला रास्ता नाको होकर बनाया गया जो 25-30 किमी ज्यादा लम्बा है। अब उस पुरानी सडक पर कोई आवाजाही नहीं होती और ऊपर से पत्थर गिरते रहने के कारण वह अब गम्य भी नहीं रही। |
यह देखिये मुलिंग नाले का ‘कोर जोन’। सामने से पुरानी सडक आ रही है लेकिन मुलिंग नाले ने इसे पूरी तरह खत्म कर दिया है। |
ऊपर वाले फोटो को थोडा दूसरे कोण से देखते हैं। बायी तरफ से एक सडक आ रही है। वह पुरानी सडक है। नाले की भयावहता साफ दिख रही है। सर्दियों में बहुत कम पानी है लेकिन गर्मियों और मानसून में भयंकर पानी होता है। हालांकि अभी भी मुलिंग नाले को पार करना पडता है लेकिन कई सौ मीटर ऊपर से जहां यह अपेक्षाकृत शान्त रहता है। |
यह है वो स्थान जहां वर्तमान में मुलिंग नाला पार किया जाता है। यहां चट्टानी पहाड है जबकि पुरानी सडक मिट्टी वाले इलाके से गुजरती थी। हालांकि नाला अभी भी वही है लेकिन चट्टानी पहाड होने के कारण रास्ते में टूट-फूट नहीं होती। जबकि नीचे मिट्टी ज्यादा होने के कारण रास्ता बन ही नहीं पाता था और कीचड से इसे पार करना पडता था। कई बार तो ट्रक भी बह जाया करते थे इस नाले में। |
सतलुज-स्पीति संगम। बायी तरफ से सतलुज आ रही है, हम अभी भी स्पीति किनारे हैं। |
खाब पुल। यह पुल सतलुज नदी पर बना है। उधर सामने से स्पीति आ रही है और यहीं पर दोनों नदियां मिल जाती हैं। |
नाको के बाद उतराई शुरू हो गई और जल्दी ही हम स्पीति छोडकर सतलुज के साथ-साथ चलने लगे। कुछ जगते और कुछ सोते हुए आगे बढते रहे। धीरे धीरे मोबाइल का नेटवर्क भी आ गया और आखिरकार नेट भी। सुमित की इच्छा थी कि हम आज छितकुल रुकें। कुछ दिन पहले हमने पीओ बस अड्डे की समय-सारणी का फोटो खींचा था। उससे पता चला कि शाम चार बजे वहां से रक्षम की बस चलती है। रक्षम सांगला और छितकुल के बीच में है। इस बस से हम सांगला तक तो जा ही सकते हैं।
ठीक चार बजे हम उस स्थान पर उतर गये जहां से बस मुडकर थोडा ऊपर बसे रीकांग पीओ के लिये मुड जाती है। रक्षम की बस कुछ देर बाद यहां से ही होकर गुजरेगी। सवा चार के करीब बस आई। आगे का रास्ता चौडा तो था लेकिन था बेहद खराब। किन्नौर की सडकें बहुत खराब हैं। पन्द्रह किलोमीटर दूर करछम तक जाने में एक घण्टा लग गया और अस्थि-पंजर भी हिल उठे। करछम में सतलुज-बस्पा मिलन स्थान पर एक बांध है। यहां बिजली बनाई जाती है। बांध के ऊपर से होकर सतलुज पार की और बस्पा घाटी में मुड लिये।
बस्पा घाटी की यह सडक मेरे पूर्वानुमानों से कहीं अधिक खतरनाक थी, बहुत खतरनाक। डर भी लगा। कंडक्टर ने बताया कि बस केवल सांगला तक ही जायेगी, रक्षम नहीं जायेगी। छितकुल 3000 मीटर से ऊपर स्थित है। पिछले दिनों हुई बर्फबारी से वहां का रास्ता बन्द हो गया था। या फिर खुला था, किसी को इसकी जानकारी नहीं थी। हमने भी सांगला ही रुकने में भलाई समझी।
सांगला जाने का रास्ता |
सांगला |
लेकिन रुकते कहां? सभी होटल बन्द थे। मैं दोनों बैग लेकर एक तरफ खडा हो गया और कमरा ढूंढने की जिम्मेदारी सुमित ने संभाली। पहले सुमित एक तरफ गया, पन्द्रह मिनट बाद लौटा तो निराशा के भाव थे। फिर दूसरी तरफ गया, लौटा तो और भी निराश था। बोला कि सभी होटल बन्द हैं। फलां गेस्ट हाउस के बारे में लोगों ने बताया था कि केवल वो ही खुला हो सकता है लेकिन वो भी बन्द है। यानी इतने प्रसिद्ध पर्यटक स्थल सांगला में कोई भी होटल नहीं खुला। उधर नीचे जाने वाली आखिरी बस भी जा चुकी थी। इस समय मैं वाकई परेशान हो गया था। अन्धेरा हो चुका था। भोजन के लिये एक ही ढाबा खुला था और वो आधे घण्टे बाद ही भोजन दे सकता था। अब मुझे भोजन की चिन्ता नहीं थी बल्कि यहां से निकलने की चिन्ता थी। यहां से कुछ भी साधन मिल जाये, फिर रामपुर पहुंचे या रीकांग पीओ; कोई समस्या नहीं।
इन्हीं परेशानियों के बीच तब बडी राहत मिली जब सुमित उसी गेस्ट हाउस में मुझे ले गया। वो मजाक कर रहा था और मेरा घबराया हुआ चेहरा देखकर उसे खुशी हो रही थी। कल किब्बर में मैंने उसे जो बर्फ में चलाकर उसकी दुर्गति की, उसका उसने बदला ले लिया था।
500 रुपये का कमरा था। दूसरे कमरे में हरियाणा के कुछ दारूबाज टूरिस्ट ठहरे हुए थे जो बर्फ देखने यहां तक आये थे। वे असल में शिमला घूमने आये थे। वहां बर्फ नहीं मिली तो किसी ने उन्हें नारकण्डा भेज दिया। वहां बर्फ तो थी लेकिन उन्हें और ज्यादा चाहिये थी तो उन्हें सांगला भेज दिया गया। अब वे अपने को ठगा हुआ महसूस कर रहे थे और काफी तनावग्रस्त थे।
ऐसा ही होता है जब वास्तविकता से बिल्कुल अनजान लोग हिमाचल को बर्फ से ढका प्रदेश समझ बैठते हैं।
500 रुपये का कमरा सांगला में। |
अगले दिन
योजना थी कि किसी भी तरह छितकुल जाने की कोशिश करेंगे। ग्यारह बजे छितकुल की बस आयेगी लेकिन कोई भी भरोसे से नहीं कह सकता कि वह बस छितकुल तक जायेगी भी या नहीं। फिर आज ही उधर से वापस भी लौटना है। वो बस तो अगर छितकुल जायेगी भी, तब भी उसी समय मुडकर वापस लौट जायेगी। तब हम कैसे छितकुल से वापस आयेंगे? यह बडा प्रश्न था। कल दोपहर तक हर हाल में दिल्ली पहुंचना है। इसलिये छितकुल जाना रद्द कर दिया और सांगला से साढे दस बजे मण्डी जाने वाली बस में बैठ गये और रामपुर का टिकट ले लिया।
सांगला |
ज्यूरी से कुछ पहले खाने-पीने के लिये रुक गये। मन नहीं था लेकिन छोले-भटूरे के आगे घुटने टेकने पडे।
रामपुर पहुंच गये। अब तो यात्रा में ज्यादा कुछ नहीं बचा है। जाते ही शिमला की बस मिल गई। शिमला पहुंचते-पहुंचते अन्धेरा हो गया था। रास्ते में नारकण्डा के आसपास सडक किनारे थोडी सी बर्फ भी दिखी थी। इसी बस में बैठे बैठे एक और काम कर दिया। चण्डीगढ से दिल्ली का हावडा मेल में टिकट बुक कर लिया। कालका से वेटिंग चल रही थी जबकि चण्डीगढ से उपलब्ध थीं। चण्डीगढ से इस ट्रेन में कई डिब्बे जोडे जाते हैं इसलिये यहां से आसानी से दिल्ली तक की बर्थ मिल जाती हैं। अगर सात-साढे सात बजे शिमला पहुंचकर बुक करता तो तब तक चार्टिंग का समय भी नजदीक आ जाता और बुकिंग नहीं होती। हालांकि इस ट्रेन में दिल्ली तक हमेशा बर्थ मिल ही जाया करती हैं।
हरियाणा परिवहन की बस मिली शिमला से चण्डीगढ के लिये। आठ बजे चली और ग्यारह बजे से पहले उसने चण्डीगढ रेलवे स्टेशन के पास उतार दिया। भयंकर दौडाते हैं ये हरियाणा रोडवेज वाले बसों को।
हावडा मेल साढे बारह बजे चण्डीगढ आती है। इसमें जो डिब्बे यहां से जोडे जाते हैं, वे प्लेटफार्म नम्बर तीन पर खडे थे। हम सीधे वहीं पहुंचे और अपनी बर्थ पर जाकर सो गये। पता नहीं कब ट्रेन आई, कब ये डिब्बे उसमें जुडे और कब हम दिल्ली की ओर चल दिये? सुबह आंख खुली तो ट्रेन सब्जी मण्डी स्टेशन पर खडी थी। हम यहीं उतर गये। यहां से मेट्रो पकडकर बीस मिनट में शास्त्री पार्क।
जनवरी की कडाके की सर्दी में स्पीति की यह यात्रा भी यादगार बन गई। हालांकि यहां लद्दाख वाली फीलिंग तो नहीं आई लेकिन जो भी अनुभव हुआ, वो कम नहीं था।
थोडी सी चर्चा खर्च की भी कर देता हूं। इस यात्रा में प्रति व्यक्ति दिल्ली से दिल्ली तक कुल खर्च हुआ 6500 रुपये। दिल्ली से चण्डीगढ ट्रेन से गये, 120 रुपये लगे। चण्डीगढ से रीकांग पीओ का डीलक्स बस का किराया 650 रुपये था। फिर रीकांग पीओ में 300 रुपये का कमरा ले लिया। रीकांग पीओ से काजा का बस का किराया 335 रुपये था। काजा और किब्बर में 500-500 रुपये के कमरे मिले। खाने का खर्च अलग। रीकांग पीओ से लोसर टैक्सी से 2500 रुपये लगे जिसे हमने आधा-आधा बांट लिया। इसी तरह काजा से किब्बर के 1000 रुपये लगे। वापसी में काजा से पीओ का बस का किराया 335 रुपये, पीओ से सांगला बस से 55 रुपये, सांगला में 500 रुपये का कमरा, सांगला से रामपुर बस में 150 रुपये, रामपुर से शिमला 200 रुपये, शिमला से चण्डीगढ 165 रुपये और चण्डीगढ से दिल्ली तक ट्रेन में 200 रुपये लगे। खाना हमने साधारण ही खाया जिसमें रोटी-सब्जी और चावल मुख्य थे। चाय खूब पी। खाने का मोटा-मोटा खर्च भी बता देता हूं। रीकांग पीओ में 160 रुपये में हम दोनों ने लंच कर लिया, 100 रुपये में डिनर, 60 रुपये में ब्रेकफास्ट, हुर्लिंग में 80 रुपये में एक प्लेट राजमा-चावल, काजा में 160 में दोनों ने डिनर किया और 80 में ब्रेकफास्ट और 140 में डिनर हो गया। इसी तरह किब्बर में हम दोनों के पूरे 24 घण्टे तक के सभी खाने पीने के कुल 300 रुपये लगे। वापस लौटते में हुर्लिंग में 70 रुपये में दोनों ने आलू के दो-दो परांठे चाय के साथ लपेटे। सांगला में दोनों का 170 का डिनर हुआ। अगले दिन 80 रुपये में दोनों ने छोले-भटूरे खाये। यानी खाना भी कोई ज्यादा महंगा नहीं रहा।
खर्च का अन्दाजा हो गया होगा। अगली सर्दियों में आप भी स्पीति जाना। किन्नौर की तरफ से पूरे साल रास्ता खुला रहता है और नियमित रूप से बस भी जाती है।
आपके लिये विशेष फोटो: सांगला में पुलिस सहायता कक्ष |
यात्रा समाप्त: कुछ मीठा हो जाये... |
1. जनवरी में स्पीति- दिल्ली से रीकांग पीओ
2. जनवरी में स्पीति - रीकांग पीओ से काजा
3. जनवरी में स्पीति - बर्फीला लोसर
4. जनवरी मे स्पीति: की गोम्पा
5. जनवरी में स्पीति: किब्बर भ्रमण
6. जनवरी में स्पीति: किब्बर में हिम-तेंदुए की खोज
7. जनवरी में स्पीति: काजा से दिल्ली वापस
काजा में अंतिम रात बहुत सर्द थी।
ReplyDeleteवहाँ मिले भोजन की जितनी तारीफ़ की जाय वो कम है।
वो अनजान घुमक्कड़ एक प्रतिभाशाली फोटोग्राफर था।
काजा से सुबह रिकोंग की बस में सफ़र हिंदी भजनों और आरतियो ने भक्तिमय बना दिया,घोर प्राकृतिक वातावरण में मेरी प्रिय,जय जगदीश हरे आरती को बस में बज रहे टेप के साथ गुनगुनाना आनंददायक रहा।
रास्ते भर, में भावुकता से घाटी को निहारता रहा,अब इन्हें अलविदा कहना था,ये सफ़र दिल्ली वापसी के लिए था।
सांगला पहुँचे वहाँ वाकई वीरान था,सभी होटलों में ताले लगे थे,लेकिन बास्पा गेस्ट हॉउस में ठीकाना मिल ही गया,यहाँ मिला कमरा शानदार था।
सांगला से दिल्ली वापसी में आप का प्रबंधन बढ़िया रहा,हम 1 दिन पहले ही दिल्ली पहुँच गये।
मेरी इंदौर वापसी की टिकिट 1 दिन बाद की थी,नई टिकीट बुक करने की ज़िम्मेवारी आपकी थी,उसे आपने पूरा भी किया।
इंदौर वापसी की यात्रा से पहले आपके द्वारा बनाई गई विलक्षण खिचड़ी का स्वाद इतना लज़ीज़ था कि खाते ही रह गए...
इस चक्कर में नई दिल्ली स्टेशन देर से पंहुचा और भागते दौड़ते ट्रेन में लटकना पड़ा।
इन सब के बाद आप से विदाई भी लेनी थी,पिछले 9 दिनों से हम साथ थे,तो बस आदत सी गई थी,एक दूसरे क़ी...
ना चाहते हुवे भी भावुकता हो रही थी..
ऐसे मे,में चुप हो जाता हु,और यही हुवा,आपके घर से शास्त्री पार्क मेट्रो स्टेशन की 5 मिनीट की पैदल यात्रा में चुपचाप चलता रहा...
और
कह दिया...
अलविदा...
फिर मिलेंगे।
नीरज व सुमित दोनो की यह यात्रा बहुत अच्छी रही, हम लोगो को भी आपके ब्लॉग के माध्यम से बहुत कुछ देखने व पढने को मिला।
ReplyDeleteThis comment has been removed by the author.
ReplyDeleteयह है वो स्थान जहां वर्तमान में मुलिंग नाला पार किया जाता है। यहां चट्टानी पहाड है जबकि पुरानी सडक मिट्टी वाले इलाके से गुजरती थी। हालांकि नाला अभी भी वही है लेकिन चट्टानी पहाड होने के कारण रास्ते में टूट-फूट नहीं होती। जबकि नीचे मिट्टी ज्यादा होने के कारण रास्ता बन ही नहीं पाता था और कीचड से इसे पार करना पडता था। कई बार तो ट्रक भी बह जाया करते थे इस नाले में। ये कैप्शन वाला फोटो बहुत ही अलग और बहुत शानदार है नीरज भाई ! प्रकृति , किसी चित्रकार से बढ़िया तस्वीर बना देती है ! आपने सांगला के जो फोटो दिए हैं उनमें कस्बे में सड़क पर कहीं भी बर्फ नहीं दिख रही है , फिर भी क्यों लोग पहले से ही रिवालसर भाग जाते है !!
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (05-04-2016) को "जय बोल, कुण्डा खोल" (चर्चा अंक-2303) पर भी होगी।
ReplyDelete--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
रोमांचक फोटो एक से बढ़कर एक लाजवाब, उतना ही दमदार लेखन।
ReplyDeleteवाह नीरजजी! बहुत बढिया! कितना जीवन्त निवेदन! और आपने फोटू भी बेहद सुन्दर दिए, थोड़ा हंसाया भी! :)
ReplyDeleteबहुत खूबसूरत। सब कुछ साफ़-साफ़, कोई झोल नहीं। बढ़िया।
ReplyDeleteनीरज जी और सुमित जी आप दोनों की यात्रा बहुत रोमांचक और अच्छी रही |
ReplyDeleteआलू के परांठे ही जो पहाड़ो पर आसानी उपलब्ध हो जाते है... |
सब कुल मिलाकर बढ़िया
pyare neeraj jat aapne to hamme kaza aur kibber ka darshan karwa diye, bahut khushi mili.
ReplyDelete"लेकिन असली घुमक्कड वही है जो रात कुछ इरादा बनाये और सुबह उससे मुकर जाये "
ReplyDeleteअब आहिस्ता आहिस्ता सीखेंगे भाई.... और एक हम हैं पिलान पलटते ही मायूस हो जाते हैं, खिजने लगते हैं... कमरा वाकई ५००/- में शानदार है.. और डाक्टर साहब का बदला लेना बनता था .. कमरा ढूँढ़ते हुए झटका देने वाला ;) शानदार चित्र..
कई बार शक होता है जितना तुम लोग यहाँ के रास्तों के बारे में बारीकी से आसानी से वाकिफ हो यहाँ के लोकल भी हैं या नहीं :)
शानदार फोटू...
और खिचड़ी तो खानी पड़ेगी किसी दिन कई जगह चर्चा सुन चुके खिचड़ी की
Last 2 posts, maine kai baar padi. dil khush ho gaya, par jab series khatam hoti toh thodi nirasha bhi hoti hai :-)
ReplyDeleteAapka and doctor sahab ka bahut bahut shukriya. Main humesha kehta hoon aapke saath koi trip karni kabhi, ab aisa lag raha hai, kabhi aapke and doctor sahab ke saath koi trip karni hai :-)
Hopefully, we will meet someday :-)
thanks once again, good luck for next trip.
सुन्दर और जीवंत वृत्तांत।
ReplyDeleteअद्भुत और अद्वितीय भारत।
raste bade khatrnak hey.......one way hey na ...neeraj bhai ....???
ReplyDeleteIntresting
ReplyDeleteसर बिहार का नाम लेने में डर क्यो लगता है????
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