Skip to main content

डायरी के पन्ने- 31

नोट: डायरी के पन्ने यात्रा-वृत्तान्त नहीं हैं।
# फरवरी के मध्य में विवाह हुआ और मार्च के पहले सप्ताह में निशा के मम्मी-पापा शास्त्री पार्क आ गये। फिर होली पर मैं और निशा उनके घर गये। इसके बाद उसके पापा एक बार और आये और तय हुआ कि सामाजिक रीति-रिवाजों से पुनः विवाह किया जाये। हम तो कभी से इसके लिये राजी थे। चूंकि इस बार मामला विवाह का उतना नहीं था, औपचारिकता निभाने का ज्यादा था और औपचारिकताओं से मुझे परेशानी होती है लेकिन दोनों परिवारों के मेल-मिलाप के लिये यह करना भी पडेगा। इसलिये मैंने कुछ शर्तें रख दीं; मसलन विवाह दिल्ली में ही होगा, सोमवार या मंगल को होगा ताकि मुझे छुट्टी न लेनी पडे। और चलते-चलते ससुर जी के कान में फुसफुसा दिया- कुछ भी देना-दुवाना नहीं होगा। हमारे पास सबकुछ है, आप न कोई सामान दोगे और न ही नकद दोगे। वे मुस्कुरा दिये और बोले- औपचारिकता तो निभानी ही पडेगी। हां, औपचारिकता ठीक है लेकिन इससे ज्यादा नहीं।
ज्यादातर भारतीय अभिभावकों की तरह हमारे पिताजी को भी दो दो ‘पुत्र-रत्नों’ की खुशी इसलिये थी कि विवाह में खूब सामान मिलेगा और खूब धन मिलेगा। कोर्ट मैरिज करके पहले पुत्र-रत्न ने उनके इस सपने को तोड दिया था। अब जब सामाजिक तरीकों से पुनः विवाह होगा तो उन्हें भी कुछ उम्मीद बंधी। इसका जिक्र एक दिन उन्होंने मुझसे किया कि सामान तो हमारे पास सारा ही है। उनसे कह देते हैं कि सामान के बदले नकद दे दें। मैंने और निशा ने विरोध किया तो पिताजी नाराज होकर गांव चले गये। वहां उन्होंने अपने भाई-भतीजों से अपने तरीके से कहा, वे पिताजी के समर्थन में आ गये। कुछ दिन बाद जब मैं गांव गया तो उन्होंने मुझसे कहा कि क्यों नकद की मना कर रहा है? मैंने कहा- देखो, उनकी लडकी की तो शादी हो ही चुकी है। हम तो ये सोचे बैठे हैं कि वे कुछ देंगे। लेकिन मान लो, वे कुछ भी नहीं दे रहे। ऐसे में हम जाकर कहें कि सामान के बदले कैश दे देना, तो क्या अच्छा लगेगा? दूसरी बात कि मैं उनसे कुछ भी देने से सख्त मना कर चुका हूं। अब जाकर पुनः नहीं कह सकता कि कुछ दे देना। ताऊ-ताई मुझसे सहमत थे। फिर कहा कि तू मत कहना, निशा कह देगी। मैंने झट से कह दिया कि हां, ठीक है, निशा को समझा दो, वो कह देगी। मुझे निशा पर पूरा भरोसा है कि वो ऐसा अपने पापा से कभी नहीं कहने वाली। ताईयों ने निशा को भी पाठ पढाया लेकिन निशा ने झूठमूठ भी यह बात स्वीकार नहीं की।
हम तो अगले ही दिन दिल्ली लौट आये, कुछ दिन बाद पिताजी भी आ गये। नाराज तो वे थे ही। पूछने लगे कि बारात में किस-किस को ले चलना है। मैंने कहा कि हमने सारी औपचारिकताएं पूरी कर दी हैं। सभी रिश्तेदारों की दावत भी कर दी है। अब दोबारा उन्हें नहीं बुलायेंगे। बुलाना ही है तो अपने भाई-भतीजों को बुला लो और मामा को। इनके अलावा कोई नहीं। वे चाहते थे कि जितनी भीड इकट्ठी हो सके, उससे भी ज्यादा इकट्ठी करो। इस बात पर हम दोनों बाप-बेटों में खूब कहासुनी हुई। मामला यहां तक पहुंच गया कि उन्होंने अपने कपडे-लत्ते बांध लिये और प्रतिज्ञा कर ली कि अब के बाद मैं तेरे पास दिल्ली नहीं आऊंगा।
घर से निकलने लगे तो मैंने रोका। बोले- नहीं, अब एक सेकण्ड भी नहीं रुक सकता। कसम खाता हूं कि अब के बाद यहां पैर भी नहीं रखूंगा। मैंने कहा- एक बात कहनी है मुझे। पांच मिनट रुको, फिर चले जाना। वे कमरे में बैठे, धीरज भी वहीं था। मैंने धीरज को बाहर जाने को कहा, दरवाजा बन्द कर लिया। बिल्कुल सन्नाटा हो गया। उन्होंने पूछा- बोल क्या कहना था? मैंने कहा- मैं कुछ कहूं या न कहूं, आप पांच मिनट बाद अपने आप उठकर चले जाना।
पांच मिनट की जगह पन्द्रह मिनट हो गये। वे नीचे फर्श को देखते रहे, मैं उनकी तरफ देखता रहा। दो घण्टे बाद वे बिल्कुल सामान्य थे। कुछ दिन बाद वे फिर गांव गये। ताऊओं को बारात में चलने का निमन्त्रण दिया; फिर मोदीनगर गये, मामा को भी कह दिया।

# धीरज का एक कॉल लेटर आया- एनएमडीसी बचेली से। 26 अप्रैल को परीक्षा थी। परीक्षा केन्द्र के पते में बचेली के साथ दन्तेवाडा और दक्षिण बस्तर भी लिखा था, पिताजी डर गये। कहने लगे कि 27 को तुझे बारात में जरूर चलना है, इसलिये परीक्षा देने मत जा। धीरज का मुंह उतर गया। मैंने पहले तो धीरज को थोडा डराया कि वो इलाका नक्सलियों का सुरक्षित गढ है। बचेली में एनएमडीसी की लौह अयस्क की खदानें हैं, रोज मालगाडियां भर-भर कर बाहर जाती हैं। नक्सली उन्हें उडाते रहते हैं। एनएमडीसी के अधिकारियों को बन्धक भी बनाते रहते हैं। डराने के बाद पूछा कि अब बता, जाना चाहता है या नहीं। बोला कि हां। मैंने तुरन्त सहमति दे दी और 24 अप्रैल का निजामुद्दीन से रायपुर का समता एक्सप्रेस में तत्काल आरक्षण भी कर दिया। वह 25 की सुबह रायपुर पहुंच जायेगा जहां से उसे सीधे बचेली की बस मिल जायेगी जो लगभग 12 घण्टे बाद शाम को उसे बचेली उतार देगी।
पिताजी नाराज हो गये। जब मैं ड्यूटी चला गया तो दोनों में खूब कहासुनी हुई। पिताजी उसे भेजना नहीं चाहते थे। वो जाना चाहता था। लेकिन चूंकि मेरा समर्थन उसे था, इसलिये तय समय पर वह घर से निकल गया और निजामुद्दीन जाकर ट्रेन पकड ली। बाद में पिताजी को समझाया, वे समझ गये। अगले दिन सुबह सात बजे मैंने समता एक्सप्रेस की स्थिति देखी तो पाया कि यह ठीक समय पर चली है और अभी अभी रायपुर पहुंची है। मैं धीरज को फोन करने ही वाला था कि दरवाजे की डोरबेल बजी। दरवाजा खोला तो धीरज था। क्या हुआ? तबियत खराब हो गई थी, जी बहुत घबरा रहा था, बीना से वापस आ गया। मुझे सन्देह हुआ कि यह झूठ बोल रहा है। कुछ बातें पूछीं, जवाब पाकर सब सन्देह जाता रहा।
इससे पहले एक काम और हुआ। 26 अप्रैल को उसकी परीक्षा दोपहर तक समाप्त हो जाती। वह 27 की सुबह सवेरे रायपुर पहुंच जाता। पिताजी ने उसका रायपुर से दिल्ली का हवाई टिकट बुक करने को कहा ताकि वह बारात में चल सके। मैंने बुक कर दिया लेकिन एक गडबड हो गई। टिकट 27 अप्रैल का बुक करना था, मैंने 27 मई का कर दिया। 4200 रुपये लगे। जैसे ही टिकट का एसएमएस आया, गलती पकड में आ गई। मैंने अपना माथा पकड लिया। इसे रद्द करने के सिवाय कोई और चारा नहीं था। रद्द करना पडा, 1500 रुपये रिफण्ड मिला, 2700 रुपये का बेडागर्क दस मिनट में हो गया। फिर 27 अप्रैल का टिकट देखा तो वो 7000 रुपये का था। अब बुक नहीं किया। संयोग की बात कि तभी धीरज आ गया।

# विवाह की तैयारियां जोर-शोर से चल पडी। मेरा मन था कि पांच-दस लोग ही बारात में जायेंगे और औपचारिकता पूरी करके वापस आ जायेंगे। मैंने अपने ससुर के सामने भी यही कहा कि दस से ज्यादा बाराती नहीं होंगे। लेकिन एक दिन पिताजी ने बताया कि उन्होंने पच्चीस-तीस आदमियों के आने के बारे में लडकी वालों को बता रखा है। अब मुझे ऑफिस में भी कहना पडा और कुछ अति नजदीकी मित्रों को भी। ऑफिस वाले सब दारूबाज थे। मैं निमन्त्रण देता, वे दारू की कहते, मैं निमन्त्रण वापस ले लेता। दूसरी बात कि ऑफिस वालों के लिये कोई गाडी बुक नहीं की। मेट्रो से हौज खास जाओ, वहां से दस-दस रुपये में मुनीरका के लिये ऑटो व ग्रामीण सेवा व बसें चलती हैं। अगर गाडी बुक कर देता तो पच्चीस-तीस आदमी सिर्फ ऑफिस वाले ही हो जाते। अब गिने-चुने ही जायेंगे, वे भी अपने इंतजाम से।
मुझे धूम-धडाका और शोरगुल बिल्कुल पसन्द नहीं है। फिर वो शोरगुल अगर विवाह का हो तो और भी ज्यादा सिरदर्द होता है। बिल्कुल झूठा शोरगुल, बिल्कुल झूठी हमदर्दी... दारू पिला दो तो झूठी तारीफ मिलती है, न पिलाओ तो नहीं मिलती। हर तरफ औपचारिकता, औपचारिकता और सिर्फ औपचारिकता। मेरा सिर फटता है औपचारिकताओं से। मैंने घुडचढी के लिये मना कर दिया था। निशा हमारे यहां से दस दिन पहले चली गई थी। उससे कह दिया था कि इस तरह का इंतजाम करवाना कि बारात आये और सीधे विवाह मण्डप में जा घुसे। कहीं दूर ठहरने और फिर झूठे नाच-कूद के साथ घुडचढी नहीं होनी चाहिये। घरवालों को कह दिया कि मैं अच्छे कपडे पहनूंगा लेकिन अगर किसी कपडे को पहनने से मना कर दूं तो जोर-जबरदस्ती नहीं करोगे। औपचारिकता नहीं पसन्द मुझे। गन्दा लगूंगा, लगने दो; फोटो अच्छा नहीं आयेगा, कोई बात नहीं। मैं जैसा हूं वैसा ही रहूंगा; जिद नहीं करोगे।
सालियों की फरमाइश आने लगी। जूते चुराई के ग्यारह हजार लेंगे। मैंने कहा- भूल जाओ ग्यारह हजार, ग्यारह रुपये भी नहीं मिलेंगे। अच्छा किया पहले बता दिया, फटे पुराने जूते पहनकर आऊंगा। तुम जूते ही रख लेना। एक और फरमाइश आई कि कोई अच्छा सा फोटोग्राफर ले आना। मैंने कहा अच्छा फोटोग्राफर तो मैं भी हूं। कैमरा लेता आऊंगा। थोडी देर मेरे पास बैठ जाना, तुम्हें भी फोटोग्राफर बना दूंगा। शिकायत आई कि उनके पिताजी डीजे को मना कर रहे हैं। कहने लगी कि पापा को बोल दो, डीजे तो होना ही चाहिये। मैंने कहा कितने अच्छे ससुर हैं मेरे। धन्यवाद ससुर जी।
खैर, बारात मुनीरका पहुंची। हमने तो भीड-भडाका इकट्ठा किया ही नहीं था, उन्होंने भी ऐसा नहीं किया। कुछ नजदीकी सम्बन्धी और गिने चुने यार दोस्त ही थे। हां, पण्डित हमारी ही तरफ से था। पण्डित को समझा दिया था कि सिर्फ औपचारिकता है, फटाफट काम ऐसा समाप्त करना कि ग्यारह बजे तक विदाई हो जाये। पण्डित ने ऐसा ही किया। दावत उडाने के बाद जब ज्यादातर घराती दस मिनट के लिये इधर उधर हो गये कि थोडी देर बाद आकर फेरे देखेंगे तब तक तो सारा काम समाप्त हो गया था। सभी हैरान थे कि ऐसा कैसे हो गया।
निशा को मैंने मना किया था कि विदाई के समय रोने की औपचारिकता नहीं करनी है। उसने ऐसा ही किया। हां, मुझे विदा होते समय कार में बिना जूतों के बैठना पडा। जूते अगले दिन घर पहुंचे।


आखिरकार सास-ससुर का आशीर्वाद मिल ही गया।


इतना सब होते होते मैं अगली यात्रा के बारे में सोच रहा था। हमारे यहां एक नया क्लब बना है- मेट्रो एडवेंचर क्लब। नाम से ही इसके काम का पता चल रहा है। बिल्कुल नया बना है। इसकी पहली यात्रा थी पुरानी दिल्ली में हेरीटेज वॉक जो लालकिला, जामा मस्जिद, चांदनी चौक आदि स्थानों पर हुई थी। दूसरी यात्रा है इसकी गंगोत्री-यमुनोत्री यात्रा। इस यात्रा का आधा खर्च मेट्रो अदा करेगी, शेष आधा यात्री को अदा करना पडेगा। कुल अन्दाजा दस हजार का लगाया है यानी प्रत्येक यात्री को अपनी जेब से पांच हजार खर्च करने हैं। जो कार्यक्रम बनाया है उसके अनुसार ग्रुप को 4 मई की सुबह आठ बजे कनॉट प्लेस के पास से प्रस्थान करना है और साढे बारह बजे हरिद्वार पहुंचना है, वहां से डेढ बजे चलकर शाम साढे चार बजे टिहरी डैम पहुंचना है।
मैं इस इलाके को अच्छी तरह जानता हूं और यह भी जानता हूं कि दिल्ली से सुबह आठ बजे चलकर किसी भी हालत में साढे चार घण्टे में बस से हरिद्वार नहीं पहुंच सकते। कम से कम छह घण्टे लगेंगे। ग्रुप में लगभग बीस सदस्य होंगे, किसी भी हालत में एक घण्टे में लंच नहीं हो सकता और हरिद्वार से तीन घण्टे में टिहरी नहीं पहुंचा जा सकता। कम से कम रात आठ बजे टिहरी पहुंचेंगे। इस समय क्या बांध देखा जा सकेगा?
अगले दिन का कार्यक्रम है- सुबह छह बजे नई टिहरी से प्रस्थान और रास्ते में कहीं नाश्ता; दोपहर एक बजे तक गंगोत्री पहुंचना, लंच और मन्दिर भ्रमण करना; शाम चार बजे गंगोत्री से प्रस्थान और पौने छह बजे तक हरसिल पहुंचना। हरसिल में ग्रुप रात्रि विश्राम करेगा। मुझे इसमें भी कमी नजर आई। पहली बात कि एक ग्रुप का सुबह छह बजे प्रस्थान के लिये तैयार होना आसान नहीं है। फिर भी अगर छह बजे नई टिहरी से चल भी दिये तो एक बजे तक किसी भी हालत में गंगोत्री नहीं पहुंचा जा सकता जबकि रास्ते में नाश्ता भी करना है। खैर, गंगोत्री देखते हुए रात होने तक हरसिल पहुंचा जा सकता है।
अगले दिन ग्रुप सुबह आठ बजे हरसिल से प्रस्थान करेगा और उत्तरकाशी देखते हुए शाम छह बजे तक बडकोट पहुंचेगा। यह पूरी तरह सम्भव है। इससे अगले दिन बडकोट से यमुनोत्री जायेंगे और रात को जानकी चट्टी में रुकेंगे। यह भी आसानी से हो जायेगा। फिर ग्रुप ऋषिकेश रुकेगा और अगले दिन दोपहर तक दिल्ली। आखिर के तीन दिन तो आसान हैं लेकिन शुरू के दो दिन बडे मुश्किल कटेंगे। मैंने क्लब के फेसबुक पेज पर यह सब बताने की कोशिश की लेकिन जो क्लब का सदस्य नहीं है, उसकी बात थोडे ही सुनी जायेगी? मैं चाहता था कि ग्रुप यमुनोत्री की बजाय गौमुख चला जाये।
बहरहाल, जब तक आप इन पंक्तियों को पढेंगे, तब तक हम दोनों बाइक से हिमाचल के लिये प्रस्थान कर जायेंगे।

# नेपाल में भूकम्प आया। नाइट ड्यूटी की थी, उस समय मैं सो रहा था। बडी गहरी नींद आ रही थी। छठीं मंजिल पर हमारा ठिकाना है। जाहिर है कि बिस्तर हिलने लगा। आंख कुछ खुली भी लेकिन नींद घनी होने के कारण पता नहीं चल रहा था कि क्या हो रहा है। अचानक धीरज आया- भाई, उठ। भूकम्प आ रहा है। सेकण्डों में हम सब नीचे खुले में थे वो भी सीढियों से उतरकर। नीचे मेला सा लगा हुआ था।
खैर, अब ज्यादा बताने की तो जरुरत ही नहीं है कि फिर क्या हुआ, कहां भूकम्प आया, कितनी तीव्रता का था, कितनी जानें गईं। कुछ दिन बाद एक मित्र ने सन्देश भेजा- नीरज, चलो नेपाल चलते हैं। इंसानियत और इंसान की मदद करने। घूमने तो बहुत जाते हैं, इस बार इंसान के लिये चलते हैं। मैंने पूछा कि वहां जाकर करेंगे क्या? केदारनाथ आपदा के समय भी मुझे वहां जाने को कहा गया था, तब भी मैंने पूछा था कि वहां जाकर करूंगा क्या? सिर्फ मरते हुए लोगों, लाशों और मलबे के फोटो खींचकर लौट आऊंगा। ऐसे में आपदा प्रबन्धन वालों को ही जाना चाहिये। अन्य लोग वहां जाकर आपदा प्रबन्धन का काम भी बाधित करते हैं और पीडितों की राहत सामग्री का भी इस्तेमाल करते हैं।

डायरी के पन्ने- 30 .......... डायरी के पन्ने- 32




Comments

  1. आपकी लेखनी के तो हम हमेशा से कायल रहे हैं फिर चाहे वो आपकी डायरी पढ़ने की बात हो या यात्रा वृत्तान्त | विवाह की बहुत बहुत बधाई और शुभकामनायें |

    ReplyDelete
  2. Replies
    1. Sali ko jutte churane ke rs. Dene chahiae .

      Delete
  3. आखिरकार सास-ससुर का आशीर्वाद मिल ही गया।...
    .......................................................................................................
    शुभकामनायें |

    ReplyDelete
  4. डायरी के पन्ने तो एकदम बारिश की ठंडी फुहार जैसे आते हैं :) बढ़िया लेख

    ReplyDelete
  5. बिना दान -दहेज की शादी कर अपने प्यार को सफली भूत किया | अच्छा किया | हमने तो चालीस साल पहले बिना दहेज विवाह किया था | हमारी दो पुत्रियों ने अंतरजातीय बिना दहेज का विवाह किया | पुत्र का भी अंतरजातीय बिना दहेज पाणिग्रहण हुआ | सभी राजी खुसी व प्रसन्न है | निशा व नीरज की जोड़ी कयामत तक बनी रहे | स्वस्थ एवम प्रसन्न रहो |

    ReplyDelete
  6. हेलो नीरजजी
    सबसे पहले तो आप नव दम्पती को विवाह की ढेर सारी शुभकामनाएं।
    पहले कोर्ट मैरिज और फिर सामाजिक रीति से से विवाह , वो भी सबको अपने तर्क से इस बात के लिए सहमत कर लेना कि दहेज़ का कोई लेनदेन नहीं होगा ,वाकई काबिले तारीफ़ है।
    विवाह के बाद भी आपके घुमक्क्ड़ी शौख में कोई परिवर्तन नहीं आया है , यह हम जैसे ब्लॉग पाठक के लिए एक शुखद समाचार है।
    आप के लिखने का अन्दाज बहुटी अच्छा है जिसके कारण मैंने अबतक आपका लगभग सारा ब्लॉग पढ़ा है और लगता है जैसे बगैर गए ही उन जगहों का भ्रमण कर लिया हो.

    ReplyDelete
    Replies
    1. bhai aap logo ke liye ek misal ho jo dahej pe hi jite hai

      Delete
  7. विवाह का समाचार तो ' विवाह स्पेशल ' डायरी में पढ़ ही लिया था . अपने विचार भी लिखे .आज पढ़कर आपके लिए मेरे विचार और भी दृढ हुए हैं . मैंने भी तीनों बेटों के विवाह बिना दहेज किये हैं . परिजन दहेज चाहते थे किन्तु लड़कों ने साफ मना कर दिया . आज नए बच्चों के विचार सचमुच बदलाव ला रहे है यह बात बड़ी आशाजनक है . एक बार फिर आप दोनों को असीम शुभकामनाएं .

    ReplyDelete
  8. 6 April 2015 ke baad koi post nahi aayi kya baat hai ......

    ReplyDelete
  9. Sorry mistake 6 May 2015 ke baad koi post nahi hai...Please ad post..:)

    ReplyDelete

Post a Comment

Popular posts from this blog

46 रेलवे स्टेशन हैं दिल्ली में

एक बार मैं गोरखपुर से लखनऊ जा रहा था। ट्रेन थी वैशाली एक्सप्रेस, जनरल डिब्बा। जाहिर है कि ज्यादातर यात्री बिहारी ही थे। उतनी भीड नहीं थी, जितनी अक्सर होती है। मैं ऊपर वाली बर्थ पर बैठ गया। नीचे कुछ यात्री बैठे थे जो दिल्ली जा रहे थे। ये लोग मजदूर थे और दिल्ली एयरपोर्ट के आसपास काम करते थे। इनके साथ कुछ ऐसे भी थे, जो दिल्ली जाकर मजदूर कम्पनी में नये नये भर्ती होने वाले थे। तभी एक ने पूछा कि दिल्ली में कितने रेलवे स्टेशन हैं। दूसरे ने कहा कि एक। तीसरा बोला कि नहीं, तीन हैं, नई दिल्ली, पुरानी दिल्ली और निजामुद्दीन। तभी चौथे की आवाज आई कि सराय रोहिल्ला भी तो है। यह बात करीब चार साढे चार साल पुरानी है, उस समय आनन्द विहार की पहचान नहीं थी। आनन्द विहार टर्मिनल तो बाद में बना। उनकी गिनती किसी तरह पांच तक पहुंच गई। इस गिनती को मैं आगे बढा सकता था लेकिन आदतन चुप रहा।

जिम कार्बेट की हिंदी किताबें

इन पुस्तकों का परिचय यह है कि इन्हें जिम कार्बेट ने लिखा है। और जिम कार्बेट का परिचय देने की अक्ल मुझमें नहीं। उनकी तारीफ करने में मैं असमर्थ हूँ क्योंकि मुझे लगता है कि उनकी तारीफ करने में कहीं कोई भूल-चूक न हो जाए। जो भी शब्द उनके लिये प्रयुक्त करूंगा, वे अपर्याप्त होंगे। बस, यह समझ लीजिए कि लिखते समय वे आपके सामने अपना कलेजा निकालकर रख देते हैं। आप उनका लेखन नहीं, सीधे हृदय पढ़ते हैं। लेखन में तो भूल-चूक हो जाती है, हृदय में कोई भूल-चूक नहीं हो सकती। आप उनकी किताबें पढ़िए। कोई भी किताब। वे बचपन से ही जंगलों में रहे हैं। आदमी से ज्यादा जानवरों को जानते थे। उनकी भाषा-बोली समझते थे। कोई जानवर या पक्षी बोल रहा है तो क्या कह रहा है, चल रहा है तो क्या कह रहा है; वे सब समझते थे। वे नरभक्षी तेंदुए से आतंकित जंगल में खुले में एक पेड़ के नीचे सो जाते थे, क्योंकि उन्हें पता था कि इस पेड़ पर लंगूर हैं और जब तक लंगूर चुप रहेंगे, इसका अर्थ होगा कि तेंदुआ आसपास कहीं नहीं है। कभी वे जंगल में भैंसों के एक खुले बाड़े में भैंसों के बीच में ही सो जाते, कि अगर नरभक्षी आएगा तो भैंसे अपने-आप जगा देंगी।

ट्रेन में बाइक कैसे बुक करें?

अक्सर हमें ट्रेनों में बाइक की बुकिंग करने की आवश्यकता पड़ती है। इस बार मुझे भी पड़ी तो कुछ जानकारियाँ इंटरनेट के माध्यम से जुटायीं। पता चला कि टंकी एकदम खाली होनी चाहिये और बाइक पैक होनी चाहिये - अंग्रेजी में ‘गनी बैग’ कहते हैं और हिंदी में टाट। तो तमाम तरह की परेशानियों के बाद आज आख़िरकार मैं भी अपनी बाइक ट्रेन में बुक करने में सफल रहा। अपना अनुभव और जानकारी आपको भी शेयर कर रहा हूँ। हमारे सामने मुख्य परेशानी यही होती है कि हमें चीजों की जानकारी नहीं होती। ट्रेनों में दो तरह से बाइक बुक की जा सकती है: लगेज के तौर पर और पार्सल के तौर पर। पहले बात करते हैं लगेज के तौर पर बाइक बुक करने का क्या प्रोसीजर है। इसमें आपके पास ट्रेन का आरक्षित टिकट होना चाहिये। यदि आपने रेलवे काउंटर से टिकट लिया है, तब तो वेटिंग टिकट भी चल जायेगा। और अगर आपके पास ऑनलाइन टिकट है, तब या तो कन्फर्म टिकट होना चाहिये या आर.ए.सी.। यानी जब आप स्वयं यात्रा कर रहे हों, और बाइक भी उसी ट्रेन में ले जाना चाहते हों, तो आरक्षित टिकट तो होना ही चाहिये। इसके अलावा बाइक की आर.सी. व आपका कोई पहचान-पत्र भी ज़रूरी है। मतलब...