डलहौजी का क्या यात्रा वृत्तान्त लिखूं? इतना प्रसिद्ध पर्यटक स्थान... मैं यहां पहली बार गया। आप सभी जा चुके होंगे। ऐसे स्थानों पर पहली बात कि मेरा जाने का ही मन नहीं करता और दूसरी बात कि वापस आकर यात्रा वृत्तान्त लिखने का भी मन नहीं करता। लेकिन कुछ तो लिखना पडेगा।
विवाह हुआ, हम दो हो गये। तो क्या हुआ? घुमक्कडी मेरा पहला प्रेम है, शौक है, इसे नहीं छोडा जा सकता। घरवाली को यह सब समझाने की आवश्यकता ही नहीं पडी। उसने पहले ही कह दिया था कि जहां तू, वहां मैं। वह मेरे लेख भी पढती है, इसका अर्थ है कि घूमने की इच्छा उसकी भी होती है। अब मुझे देखना था कि इसकी सीमा कहां तक है? किस तरह की यात्रा में यह बोर होगी। मुझे रेलयात्राएं भी करनी हैं, बस यात्राएं भी करनी हैं, ट्रेकिंग भी करनी है और ऊल-जलूल स्थानों पर भी जाना है। भूखा भी रहना है, कई कई दिन का एक ही दिन में भी खाना है, जगना भी है, खूब सोना भी है। साफ सुथरे कपडे पहनने हैं तो एक ही जोडी कपडों में दस दिन भी निकालने हैं। उसकी सीमा कहां तक है, यही मुझे देखना था। फिर कुछ उसे परिवर्तित होना है, कुछ मुझे।
मित्रों ने नाम दिया इसे हनीमून। लेकिन न ‘हनी’ जैसा कुछ था और न ‘मून’ जैसा। आगे आप पढेंगे तो आपको पता चल जायेगा कि नवविवाहित जोडे के लिये हनीमून ट्रिप नहीं थी बल्कि ट्रेनिंग ट्रिप थी। हनीमून जैसा लुक देने के लिये बस इतना किया कि दिल्ली से पठानकोट जाना और वापस आना थर्ड एसी में था। बस।
पठानकोट छावनी पर सुबह सवेरे ट्रेन ने उतार दिया। इसका नाम पहले चक्की बैंक हुआ करता था। पास में ही चक्की नदी बहती है जिसके नाम पर स्टेशन का यह नाम पडा। लेकिन जम्मू जाने वाली लगभग सभी ट्रेनें जब पठानकोट जंक्शन न जाकर चक्की बैंक से ही जाने लगीं तो इसका यह ‘गंवार’ सा नाम बदलना जरूरी हो गया और नया नाम पडा पठानकोट छावनी। घरवाली को सब बताता गया।
स्टेशन के बाहर ऑटो खडे थे, तीस रुपये लगे और खराब सडक पर उछलते कूदते कुछ ही देर में हम पठानकोट जंक्शन स्टेशन पर थे। यहां से पौने सात बजे बैजनाथ की ट्रेन पकडनी थी। नैरो गेज की यह लाइन मुझे बहुत पसन्द है। इसका कारण है धौलाधार की श्रंखला के साथ साथ ट्रेन का चलना। निगाहें ही नहीं हटतीं बर्फीले पहाडों से।
बैजनाथ का टिकट मांगा तो टिकट वाली मैडम ने कहा कि ट्रेन सिर्फ ज्वालामुखी रोड तक ही जायेगी। पिछले एक सप्ताह से लगातार बारिश हो रही थी और तीन दिनों से तो खूब बारिश हुई। इससे ज्वालामुखी रोड और उससे अगले स्टेशन कोपर लाहड के बीच में रेलवे लाइन क्षतिग्रस्त हो गई। मजेदार बात यह रही कि पठानकोट से ज्वालामुखी रोड तक और उधर जोगिन्दर नगर से कोपर लाहड तक सभी ट्रेनें अपने निर्धारित समय पर चलती रहीं। हमने ज्वालामुखी रोड का टिकट ले लिया। ट्रेन चूंकि आगे नहीं जा रही थी, इसलिये कांगडा, पालमपुर जाने वाले यात्री इसमें नहीं चढे। इस वजह से बिल्कुल भी भीड नहीं थी। श्रीमतिजी बडी खुश हुई इस ट्रेन में यात्रा करके।
ज्वालामुखी रोड उतरे। स्टेशन से बाहर मुख्य सडक पर आये। बहुत सारे यात्री कांगडा जाने वाले थे। जब हम एक बस में बैठ गये तब पता चला कि कोपर लाहड से ट्रेनें चल रही हैं। कण्डी मोड पर हम उतर गये। कुछ दूर पैदल चले और हम कोपर लाहड स्टेशन पर थे। पता चला कि बैजनाथ की तरफ से एक बजे ट्रेन आयेगी और वही फिर पौने तीन बजे वापस बैजनाथ जायेगी। अभी साढे ग्यारह बजे थे, हम इतनी देर प्रतीक्षा नहीं कर सकते थे। कण्डी मोड पहुंचे और कांगडा की बस पकड ली।
मैंने निशा से पूछा कि ट्रेन यात्रा तो हो गई, अब बता कि धर्मशाला चलें या डलहौजी। उसे नहीं पता था कि धर्मशाला कितनी दूर है और डलहौजी कितनी दूर। बोली कि कहीं भी चल। मैंने पता किया कि चम्बा के रास्ते में पडने वाली चुवाडी जोत खुली है या नहीं। चूंकि पिछले दिनों खूब बर्फबारी हुई थी, इसलिये जोत के बन्द होने की ही ज्यादा सम्भावना थी। शाहपुर जाने वाली एक बस के कंडक्टर से पूछा तो उसने बताया कि एक बजे चम्बा की बस जायेगी, वो बस चुवाडी जोत होते हुए ही जायेगी। उधर तरुण गोयल ने चुवाडी जोत के पास रहने वाले अपने एक मित्र का फोन नम्बर दे दिया। उनसे बात नहीं हो पाई। फिर भी इतना जरूर लग रहा था कि जोत के आसपास रुकने का कुछ न कुछ हो ही जायेगा क्योंकि जोत तक पहुंचने में शाम हो जानी है।
डेढ बजे तक वो बस नहीं आई। वह बस चम्बा से आती है और फिर चम्बा चली जाती है। हो गई होगी कहीं लेट। तभी डलहौजी जाने वाली एक प्राइवेट बस आई। हम इसमें बैठ लिये और डलहौजी का टिकट ले लिया। शाहपुर तक तो राष्ट्रीय राजमार्ग ही रहा, बहुत अच्छा बना है लेकिन जब समोट की तरफ मुडे तो खराब सडक। हिमाचल में हर जगह ऐसा ही है। मुख्य मार्ग तो ठीक हैं लेकिन दूसरी सडकें बहुत खराब हैं। थोडी देर बस समोट रुकी। जिस तरीके से ड्राइवर ने बस को वहां एक बडे से पेड के नीचे खडा किया, मैं समझ गया कि यहां कम से कम पन्द्रह मिनट रुकेंगे। प्यास लगी थी। मैंने निशा को खाली बोतल लेकर पानी लाने को कहा। उसने हैरानी जताई कि पता नहीं कहां मिलेगा पानी। मैंने कहा कि उस दुकान वाले से पूछना कि पानी लेना है। वह संकोची सूरत बनाकर गई। दुकान में घुसी। एक मिनट बाद ही दुकानदार हमारी खाली बोतल लेकर बाहर निकला और कहीं चला गया। पांच मिनट बाद लौटा। जाहिर है कि बोतल भरी थी। निशा को घुमक्कडी के बहुत से पाठ इसी तरह सीखने को मिलेंगे।
समोट से जब चले तो वही चम्बा वाली बस हमारी बस को ओवरटेक कर गई। हमारी बहुत इच्छा थी चुवाडी जोत देखने की लेकिन अब क्या किया जा सकता था? सम्भव हुआ तो कल डलहौजी से जोत तक जाने की कोशिश करेंगे।
साढे सात बजे डलहौजी पहुंचे। अन्धेरा हो ही चुका था। डलहौजी से पांच किलोमीटर पहले जब मैं बस में सोया पडा था, निशा ने उठाया और चहकती हुई बोली कि बाहर देख। देखा तो सडक किनारे जगह जगह बर्फ थी। मुझे इतनी उम्मीद तो थी कि डैणकुण्ड और चुवाडी जोत जैसी ऊंची जगहों पर खूब बर्फ मिलेगी लेकिन यहां 1700-1800 मीटर पर भी बर्फ मिलेगी, यह सोचा तक नहीं था। मैंने निशा से कहा- खुश मत हो, हनीमून ट्रिप का सत्यानाश हो गया। डैणकुण्ड तो छोड, हम खजियार तक भी नहीं जा सकेंगे। निशा ने पूछा- क्यों? मैंने कहा- इसका उत्तर तुझे कल अपने आप मिल जायेगा।
बस अड्डे पर उतरे, खूब बर्फ थी। आज चूंकि मौसम साफ था। बर्फ परसों पडी थी जो अब तक पिघली नहीं थी। रास्तों पर बर्फ की कीचड थी। आप अगर मुझे नियमित पढते हैं तो यह भी जानते होंगे कि मुझे बर्फ अच्छी नहीं लगती। यहीं एक होटल वाला मिल गया। पास में ही उनका होटल था। एक कमरे का किराया था चार सौ रुपये। हमने कमरा देखा। पसन्द आ गया और बिना मोलभाव किये ले लिया। खाने के लिये पूछा तो बोला कि आप ऑर्डर कर देना, खाना आपके कमरे में ही पहुंच जायेगा। मैंने खाना कमरे में पहुंचाने का चार्ज पूछा तो बोला कि ऑफ सीजन है। अगर आप सीजन में आये होते तो डेढ सौ रुपये होता है, अब कोई चार्ज नहीं। आप कुछ भी मंगाइये, कमरे में टेलीफोन लगा है, कितनी भी बार मंगाइये; कोई चार्ज नहीं। हमने वही अपने आलू के परांठे मंगाये। बडी भयंकर ठण्ड थी डलहौजी में।
अगले दिन आराम से सोकर उठे। अब तक तो सब ठीक था। सब काम मेरी इच्छा से हो रहे थे और श्रीमतिजी बोर भी नहीं हो रही थीं लेकिन अब सुबह सुबह ही एक ऐसी घटना घट गई कि एकबारगी तो विवाह करने का पछतावा होने लगा। बाथरूम में गीजर लगा था। मैडम ने नहाने को कहा... खूब कहा... और नहाना पडा। लेकिन एक बात मेरे पक्ष में भी हुई। निशा को नहाने के बाद धुले कपडे पहनने की आदत है। वही कपडे नहाने के बाद नहीं पहनती। दिल्ली थे तो वह मेरे कपडों का ध्यान रखती थी कि मैं कहीं नहाने के बाद वही कपडे न पहन लूं। इधर मैं बाथरूम में घुसता और उधर धुले कपडे बाहर रखे मिलते। जबकि मेरा नियम था कि सर्दियों में वही कपडे एक सप्ताह तक पहनने हैं और गर्मियों में चार दिन तक। हम इस यात्रा के लिये दो ही जोडी कपडे लेकर चले थे। निशा को नहीं पता था कि पहाडों पर इतनी ठण्ड होती है। वह कपडे धोने वाली साबुन भी लेकर आई थी। योजना थी कि सुबह नहायेंगे और कपडे धो देंगे या रात को धोयेंगे ताकि सुबह धुले धुलाये कपडे मिले। लेकिन यहां तो भीषण ठण्ड थी। कपडे नहीं धुले और हमने तीन दिन तक एक ही कपडे पहने रखे। निशा ने बताया कि पहली बार उसका यह नियम टूटा है। मेरे लिये यह खुशी की बात थी क्योंकि भविष्य में हमें बहुत लम्बी लम्बी यात्राएं करनी हैं। दस दस दिन तक एक ही कपडों में गुजारा भी करना है।
खैर, पंचपुला की तरफ चल दिये। डलहौजी से यह दो ढाई किलोमीटर दूर है। पैदल ही चले। पंचपुला एक पिकनिक स्थल है। आप यहां परिवार के साथ पूरे दिन मस्ती कर सकते हैं। फिर अगर बर्फ भी पडी हो तो मस्ती और भी बढ जाती है। वही हमने किया और शाम तक वापस लौट आये। एक स्थान से उत्तर में बहुत दूर पीर पंजाल की श्रंखला दिख रही थी। हम रुक गये और निशा को समझाना शुरू किया- देख, वे पीर पंजाल के पर्वत हैं। वे उधर कश्मीर से भी परे से शुरू होते हैं और उधर मनाली से भी बहुत आगे तक जाते हैं। रोहतांग भी पीर पंजाल में ही है। भारत की सबसे लम्बी रेल सुरंग पीर पंजाल में है। वो सामने नीचे रावी नदी है, चम्बा उस तरफ है। ऊपर पीर पंजाल में उधर बायें साच पास है। साच पास के उस तरफ पांगी है जो चम्बा का ही हिस्सा है। पांगी साल के ज्यादातर समय अपने ही जिला मुख्यालय से कटा रहता है। बडी खराब और खतरनाक सडक है साच पास पर। पांगी से उधर दाहिने लाहौल है। पीर पंजाल में चम्बा से सीधे लाहौल जाने के लिये कोई सडक नहीं है लेकिन दर्रे बहुत हैं। उन दर्रों पर हमेशा बर्फ रहती है। यह रावी नदी उधर दाहिने से आती है। उधर भरमौर है और मणिमहेश है। यहीं खडे खडे चम्बा का भूगोल समझा दिया।
पता चला कि खजियार वाली सडक बर्फ के कारण बन्द है। इधर से खजियार नहीं जा सकते। अगर थोडी बहुत सम्भावना है तो पहले चम्बा जाना होगा और वहां से खजियार। उसमें भी कुछ पैदल चलना पड सकता है। कालाटॉप जाना चाहते थे लेकिन बर्फ आडे आ गई। दस किलोमीटर बर्फ में जाना और इतना ही वापस आना मैंने पसन्द नहीं किया। कालाटॉप रह गया और हां, डैणकुण्ड भी। डैणकुण्ड यहां सबसे ज्यादा ऊंचाई पर है लगभग 2700 मीटर पर। कई फीट बर्फ होगी वहां। जाहिर है कि मैं नहीं जाता। गया भी नहीं।
अगले दिन फिर आराम से उठे और चम्बा की ओर चल पडे। दो घण्टे की इस यात्रा में बुरी तरह थक गये। योजना थी कि चुवाडी जोत जाने वाली किसी बस में बैठ लेंगे और खजियार मोड पर उतर जायेंगे। लेकिन कोई बस नहीं मिली। ज्यादातर ने यही कहा कि जोत बन्द है, चुवाडी जाने वाली बसें भी बनीखेत-बकलोह होकर जा रही हैं। चम्बा जिला मुख्यालय है, बडा शहर है इसलिये मुझे पसन्द नहीं आया। हालांकि यहां भी काफी कुछ दर्शनीय है। भरमौर की बसें भी खडी थीं लेकिन वह सडक भी बन्द थी। बसें कुछ ही दूर तक जा रही थीं। अगर भरमौर खुला होता तो मैं वहां जरूर चला जाता। भरमौर जैसी जगहें ही मुझे पसन्द है।
दिल्ली की एक बस खडी थी, पठानकोट का टिकट ले लिया। कल अमृतसर जायेंगे।
मार्च में मुझे घूमना पसन्द नहीं है। पहले भी मैं इस बात को कहता आया हूं। गैर-हिमालयी क्षेत्रों में खूब गर्मी पडने लगती है और हिमालय में खूब बर्फ होती है। बर्फ का मुझे लालच नहीं है। रास्ते बन्द होते हैं। ज्यादा विकल्प नहीं दिखते मुझे।
अगला भाग: अमृतसर- स्वर्ण मन्दिर और जलियाँवाला बाग
1. डलहौजी के नजारे
2. अमृतसर- स्वर्ण मन्दिर और जलियाँवाला बाग
ऊपर से पाँचवी फोटो बहुत जबरदस्त है...
ReplyDeleteधन्यवाद जी...
Deletejodi ki gummkari mubarak ho
ReplyDeleteधन्यवाद गुप्ता जी...
Deleteकमाल कर देते हो भाई।
ReplyDeleteधन्यवाद सर जी...
Deleteबहुत खूबसूरत यात्राविवरण भी और फोटो भी .
ReplyDeleteधन्यवाद गिरिजा जी...
Deleteसही पाठ पढा रहे हो हमारी भाभी जी को.....
ReplyDeleteबढिया यात्रा वर्णन..
धन्यवाद सचिन भाई...
Delete10 दिन मे ड्रेस बदलने की आदत बदल कर दिन मे 10 ड्रेस बदलने वाली हो जाए ।
ReplyDeleteनहीं सर जी, ऐसा तो नहीं होगा...
Deleteसहपत्नी , पहली पहाड़ो की यात्रा की शुभकामनाएं |
ReplyDeleteये तो है ही की बिना सीजन के किसी जगह जाने पर साधन कम उपलब्ध तो होते है ही साथ - साथ बहुत से स्थल भ्रमण करने से छूट जाते है |
लेख और चित्र हमेशा की तरह अच्छे लगे...
नहीं गुप्ता जी, अक्सर ऐसा नहीं होता। बिना सीजन के जाना बहुत सस्ता पडता है। भीडभाड नहीं होती, आनन्द भी आता है।
DeleteLagta hai ki ye JAAT apni gharwali ko bhi GHUMMAKADI ka path padha ke hi manega
ReplyDeleteहां जी, बिल्कुल मानेगा।
Deleteठंडी जगहों के फोटो बहुत चटक और सौम्य लगते है , ऐसा क्यों ?
ReplyDeleteपता नहीं पाण्डेय जी...
Deleteमेरा मतलब है रंग चटक होते है
ReplyDeleteअच्छी लगी।
ReplyDeleteधन्यवाद
Deleteयात्रा की शुभकामनाएं |
ReplyDeleteधन्यवाद सर जी...
Deleteनीरज जी, नमस्कार। शादी के बाद, पहली यात्रा मुबारक हो।
ReplyDeleteधन्यवाद रोशन जी...
Deletegood description, excellent photos
ReplyDeleteधन्यवाद शर्मा जी...
DeleteBhabhi g ke sath pahli yatra ki subhkamnaye.. Hamesa ki tarah ek sandar post.
ReplyDeleteधन्यवाद गुप्ता जी...
Deletediary ke panne ki ummeed kar rahe the
ReplyDeleteहां, मैं समझ गया। इस बार उम्मीद पर पानी फिरेगा...
Deleteये तो आपने उस शहर के बारे में पोस्ट किया जहाँ जाना जाने कब से चाहता हूँ. बहुत अच्छा लगा विवरण ! और तस्वीरें तो कमाल हैं ही!
ReplyDeleteअभी जी, अभी चले जाओ... वो रहा डलहौजी...
Deleteनीरज जी शादी के बाद हनीमून की बहुत बहुत बधाई... अब तो आप भाभी जी को भी अपने जैसा ही घुमक्कड़ बना दोंगे....उम्मीद है की आने वाली यात्राई दिलचस्प होंगी... राम राम...
ReplyDeleteहां जी, पक्का दिलचस्प होंगीं।
Deleteले ब्याह करते ही चश्मा भी ले लिया। खैर ब्याह पाच्छै चश्मा जरुर लेणा चाहिए। हा हा हा हा हा।
ReplyDeleteहा हा हा
DeleteExcellent Photos Niraj ji......
ReplyDeletechalo ji hanemoon mubarak ho, ab aap ke phuto bhi lene wali sathi mil gai, great, and intresting post, thanks
ReplyDeleteNeeraj and Nisha ki jori Salamat rahe ye duwa hai mere rab se,,
बहुत सुन्दर विवरण और भाभी जी भी ! दोनों घूमंतू जीवो को शादी बाद पहली यात्रा की बधाई ! वैसे एक बात है अब नीरज जी के ज्यादा फोटो आया करेंगे क्यों की अब १० सेकंड का टाईम भर के फोटो नहीं खींचने पड़ा करेंगे !
ReplyDeleteअरे पठानकोट से सीधे डलहोजी चले जाना था न । हम तो दोनों वक्त गए तब बर्फ नसीब नहीं हुई।और जो बेंचों पर तूने फोटु खिंचवाई है वहां हमने भी खिंचवाई थी। क्या मस्त मौसम है। खजियार तो इस समय बर्फ से अटा होगा ।
ReplyDeleteKis month me gaye the aap sir,,plzz reply
ReplyDeleteBAKLOH IS ALSO A NICE PLACE, WE HAVE STAYED THERE GOR 2 YEARS.
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