लगभग बीस साल पहले की बात है। हम चारों जने- पिताजी, माताजी, धीरज और मैं- आधी रात के आसपास गंगा मेले में पहुंचे। उससे पहले मैंने कोई नदी नहीं देखी थी। गंगा किनारे ही हमारा डेरा लगा था। रात को चांद की चांदनी में गंगा का थोडा सा प्रतिबिम्ब दिखा, या शायद नहीं दिखा लेकिन मान लिया कि मैंने गंगा दर्शन कर लिया। हम दोनों भाईयों के बाल उतरने थे। परम्परा है जीवन में एक बार गंगाजी को बाल अर्पण करने की। बहुत से लोग तो अपने बच्चों के बाल तब तक नहीं कटाते जब तक कि गंगाजी को अर्पित न कराये जायें।
हम ताऊजी के डेरे में रुके थे। हैसियत नहीं थी अपना डेरा लगाने की। खैर, बाल उतरे, दोनों गंजे हो गये, सभी गंजे गंजे कहकर हमारा मजाक उडाते रहे। रेत में घर बनाये, तोडे, गंगा में खूब डुबकी लगाई लेकिन किनारे पर ही। नरेन्द्र भाई कन्धे पर बिठाकर बहुत अन्दर ले गये। शायद नतीजा मालूम था, इसलिये चिल्लाता रहा। खूब भीतर जाकर जब उन्होंने मुझे गंगाधार में छोड दिया तो पता चल गया कि यह नतीजा कितना डरावना है।
उसके बाद इस मेले में जाने का कभी अवसर नहीं मिला। आज लगभग बीस साल बाद यह अवसर मिला। गढमुक्तेश्वर को ज्यादातर गढ कहा जाता है। चौपले से मेले तक जाने के लिये टम्पू मिले। उसने बीस रुपये लिये। परसों पूर्णिमा है, तो अब मेला लगातार निखार पर आता जा रहा है। हफ्ते भर पहले ही लोगबाग यहां आकर जम जाते हैं, डेरे लगा लेते हैं, यहीं रहना खाना होता है। मुख्य स्नान कार्तिक पूर्णिमा को होता है, इसलिये जैसे जैसे पूर्णिमा नजदीक आती जाती है, मेले में भीड भी बढती जाती है।
जिस जगह टम्पू ने उतारा, सामने मेले का प्रवेश द्वार दिख रहा था, उसके बाद झूले वगैरा थे। दिन छिपने लगा था। मैं प्रवेश द्वार की तरफ बढा तो एक पुलिस वाले ने रोक लिया- बैग चैक कराओ। मेले में दारू पर प्रतिबन्ध है, कहीं बैग में दारू ही तो नहीं है। उसने जैसे ही चेन खोलकर बैग के अन्दर हाथ डाला तो मिर्जापुर के सिंघाडे सुई की तरह चुभ गये। हालांकि इतना होने के बावजूद भी मेले में जमकर दारू चलती है।
पिताजी को फोन करके बता दिया कि मैं प्रवेश द्वार के पास हूं। कुछ देर बाद वे नतेन्द्र भाईसाहब के साथ मोटरसाइकिल पर आ गये। कम से कम सात आठ किलोमीटर दूर जाकर मोटरसाइकिल रुकी। मेले में यहां भी भीड उतनी ही थी, जितनी कि प्रवेश द्वार के पास। कुछ देर नतेन्द्र के डेरे में बैठकर अपने डेरों की तरफ चल दिये। पैदल जाना था, ढाई तीन किलोमीटर और आगे। सारा रास्ता रेत से होकर है। चलने में बडी परेशानी हुई।
मेरे पास कैमरा था, इससे गोलू और लक्की में बडा उत्साह था। सुबह जब गंगा स्नान करने गये तो इसी उत्साह में मेरे कहने पर दोनों बच्चे बारी बारी से भैंसे पर चढ गये और फोटो खिंचवाने लगे। गोलू कुछ बडा है, इसलिये वह भैंसे को गंगा की धारा में ले गया। उसके सींग पकडकर सन्तुलन बना रखा था। जैसे ही भैंसे ने पानी पीने को गर्दन नीचे की, सींग पहुंच से बाहर हो गये, गोलू नीचे पानी में गिर पडा। ये फोटो जब ताऊजी को दिखाये गये तो बडे नाराज हुए। नाराज इस वजह से नहीं कि चोटफेट लग जाती, बल्कि इसलिये कि भैंसे पर चढना ठीक नहीं माना जाता। या फिर इसलिये कि उनकी मर्जी के बिना वे भैंसे पर चढे। बडी उम्र के लोग चाहते हैं कि छोटे उनकी ही मनमर्जी से सब काम करें, उन्हीं से पूछकर।
रिवाज है कि जब घर में किसी की मृत्यु हो जाती है तो उसकी याद में पहले ही गंगा स्नान पर दीये जलाकर गंगा में प्रवाहित किये जाते हैं। मुझे माताजी के लिये यह कार्य करना था। दीये आज यानी चतुर्दशी को दिन ढलते समय प्रवाहित किये जायेंगे। अभी ग्यारह ही बजे हैं। अब क्या किया जाये? तय हुआ कि वहीं आठ नौ किलोमीटर दूर गंगा के साथ साथ चला जाये जहां मेले का प्रवेश द्वार है और झूले हिंडोले लगे हैं। मेरी इच्छा केवल गोलू को ले जाने थी लेकिन बडों के आग्रह पर लक्की को भी साथ लेना पडा। लक्की पांच छह साल का है, इतनी भीड में मैं उसे ले जाकर कोई खतरा नहीं उठाना चाहता था।
चार पांच किलोमीटर के बाद नाव घाट मिला। गंगा के उस पार जाने के लिये नावें यहीं से मिलती हैं। उस पार भी उतना ही बडा जनसमूह दिख रहा था, वही झूले दिख रहे थे, जो इस तरफ लगे हैं। इस तरफ जहां मेरठ, गाजियाबाद, दिल्ली के लोग आते हैं, वहीं उस तरफ गंगा पार यानी अमरोहा, मुरादाबाद के लोग आते हैं। नाव में एक यात्री का टिकट चालीस रुपये का था। मेरे और गोलू के अस्सी रुपये लगे, लक्की फ्री में गया।
बताते हैं कि इस बार गंगा में पानी कम था। इस वजह से यहां बीच में एक टापू बन गया था। दो धाराओं में गंगा प्रवाहित हो रही थी। नाव ने इस टापू पर उतार दिया। एक किलोमीटर से भी चौडे इस टापू को पैदल पार करना पडा। उधर दूसरी धारा पार कराने के लिये पुनः नाव में चढे। टापू से तट पर जाने के कोई पैसे नहीं लगते।
इसी तरह घूमफिरकर इसी मार्ग से वापस लौट आये। चार बजे डेरे पर पहुंचे। सभी बुरी तरह थके हुए थे।
शाम दिन ढलते समय दीपदान किया। बडों के आग्रह के कारण इतनी सर्दी में ठण्डे पानी में एक डुबकी भी लगानी पडी।
मेरी इच्छा आज ही वापस दिल्ली लौटने की थी। इसका कारण था कि मुख्य स्नान यानी कार्तिक पूर्णिमा स्नान कल है। फिर आधी रात को जब भी पूर्णिमा आरम्भ होती है, तभी से स्नान भी आरम्भ हो जाता है और श्रद्धालु वापस लौटने लगते हैं। ज्यादातर दूर-दराज से भैंसा-बुग्गियों पर और ट्रैक्टर-ट्रॉलियों पर आते हैं। एक अन्तहीन पंक्ति बन जाती है। फिर सार्वजनिक वाहनों से आने जाने वालों की भी भीड होती है। मैं आज ही जाकर उस भीड से बचना चाहता था लेकिन बडों ने नहीं जाने दिया।
अगले दिन गढ में वही हुआ। शहीद एक्सप्रेस इसलिये छोड दी कि मैं टिकट नहीं ले पाया। चौपले पर गया तो दिल्ली की बसों का भयंकर टोटा पडा हुआ था। मुरादाबाद से रोडवेज की बसें भी आ रही थीं लेकिन वे पहले से ही इतनी भरी हुई थी कि रोकते नहीं थे। आखिरकार घण्टे भर बाद एक खाली प्राइवेट बस आई और दिल्ली दिल्ली कहने की देर थी, सेकण्डों में भर गई।
डेरे के अन्दर से |
गोलू और लक्की |
टापू पार करते हुए |
और अब घर वापसी |
1. इलाहाबाद से मुगलसराय पैसेंजर ट्रेन यात्रा
2. वाराणसी से मुरादाबाद पैसेंजर ट्रेन यात्रा
3. गढमुक्तेश्वर में कार्तिक मेला
waah
ReplyDeleteमेलों का आनन्दमयी दृश्य, बचपन के मेले अब भी याद आते हैं।
ReplyDeleteItane din se kahan gayab the aap
ReplyDeleteसजीव चित्रों के साथ आकर्षक विवरण भी....वाह
ReplyDeleteगढ तो मुझे भी एक बार आना पड़ा, चाचा जी की अस्थि विसर्जन करने के लिए।
ReplyDeleteMele k mahaul ka bada hi sundar vivran sath me photo bachpan ki yaad dila di bhai
ReplyDeleteनीरज भाई राम-राम, बचपन मे मै भी गया था ट्रक्टर-ट्राली मे बैठ कर,बहुत बढिया भाई
ReplyDeleteनीरज भाई नमस्ते। … मेरा नाम विनय है , जाट हुँ , लेकिन नाम के आगे नही लगाता , नाम के आगे कुमार लगाता हू। मुज़फ्फरनगर जिले के एक छोटे से गांव का रहने वाला हुँ , इस समय DELHI मे आपके निकट ही शाहदरा मे रहता हुँ और साहिबाबाद मे एक प्राइवेट कंपनी मे नोकरी करता हुँ । DELHI मे नया हुँ , लेकिन आपका ब्लॉग काफी दिनो से पड़ता हुँ । आपका पोस्ट का प्रस्तुतीकरण एवम फोटोग्राफी लाजबाब है। एक मेला हमारे गांव के पास भी लगता है शुक्रताल मे -आपकी पोस्ट पढ़कर मेले की याद ताजा हो गई। बहुत अच्छा ………
ReplyDeleteनीरज नाम के साथ पुराना नाता है और आपके ब्लॉग तक पहुचने का रास्ता भी इसने ही दिखाया (कैसे ?.. अभी नही बताउगा ) आपसे मिलने की बहुत इच्छा है कभी समय मिले तो बताना,आपसे मिलकर हम भी धन्य हो जायगे।
quite interesting
ReplyDeleteअचानक ही आपके ब्लॉग पर नज़र पड़ी। पढ़ कर बहुत अच्छा लगा। आपकी जिजीविषा और भाषा दोनों ही तारीफ के क़ाबिल हैं।
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