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यह ट्रेन नम्बर 54255 है जो वाराणसी से लखनऊ जाती है। वाराणसी से लखनऊ के लिये मुख्यतः तीन रूट हैं- इनमें सबसे छोटा सुल्तानपुर वाला है, उसके बाद प्रतापगढ वाला और उसके बाद फैजाबाद वाला। यह ट्रेन प्रतापगढ रूट से जायेगी। वैसे एक ट्रेन कृषक एक्सप्रेस बडा लम्बा चक्कर काटकर गोरखपुर के रास्ते भी लखनऊ जाती है।
पांच मिनट विलम्ब से पौने छह बजे गाडी चल पडी। बायें हाथ इलाहाबाद वाली लाइन अलग हो जाती है जबकि दाहिने हाथ सुल्तानपुर वाली डबल व विद्युतीकृत लाइन अलग होती है। स्टेशन से निकलते ही नई दिल्ली से आने वाली काशी विश्वनाथ एक्सप्रेस खडी मिली। शायद इस पैसेंजर के निकलने का इन्तजार कर रही होगी। काशी विश्वनाथ एक घण्टे विलम्ब से चल रही थी।
अगला स्टेशन आया- लोहता। यहां तक रेलवे लाइन दोहरी है, इसके बाद सिंगल। उम्मीद थी कि आगे विद्युतीकृत मार्ग समाप्त हो जायेगा, लेकिन यह जंघई तक जारी रहता है।
मैं पैसेंजर ट्रेन यात्राओं में सबसे पीछे वाले यात्री डिब्बे में बैठना पसन्द करता हूं लेकिन आज आगे बैठ गया। इसका कारण था कि जब ट्रेन वाराणसी खडी थी तो इसके पिछले डिब्बे के पास पैदल पार पुल था, जिससे उसमें सबसे ज्यादा सवारियां थीं। जैसे जैसे आगे बढता गया, सवारियां कम होती चली गईं। अक्सर देखा गया है कि जो डिब्बा यात्रारम्भ में ही भर गया हो, वह पूरी यात्रा के दौरान भरा ही रहता है। इसी प्रकार जो आरम्भ में खाली हो, वह पूरे दौरान खाली सा ही रहता है।
लोहता के बाद चौखण्डी, सेवापुरी, कपसेठी, परसीपुर, भदोही आते हैं। भदोही एक जिला भी है जिसका नाम संत रविदास नगर है। यहां तक गाडी 45 किलोमीटर की दूरी तय कर चुकी थी और पन्द्रह मिनट लेट भी हो चुकी थी।
भदोही से आगे मोंढ है और उसके बाद सुरियावां। गाडी मेरी उम्मीद से बहुत खाली थी। इसका एक कारण था कि आज कैलेण्डरी तौर पर मुहर्रम है। हालांकि कल ही सरकार ने घोषणा की थी कि कल यानी पन्द्रह तारीख को मुहर्रम मनाया जायेगा, इसलिये छुट्टी भी कल ही होगी लेकिन लगता है कि सभी ने आज की भी छुट्टी मना ली हो। या फिर यह गाडी हमेशा ऐसी ही चलती हो। कुछ भी हो, यह मेरे लिये अच्छा ही था।
सुरियावां के बाद आता है सराय कंसराय और फिर जंघई जंक्शन। जंघई में जौनपुर से आने वाली लाइन मिलती है और इसके बाद पुनः दो दिशाओं में लाइनें चली जाती हैं- एक इलाहाबाद और दूसरी प्रतापगढ। जौनपुर वाली लाइन के आउटर पर जौनपुर-इलाहाबाद पैसेंजर खडी थी। मुझे उम्मीद थी कि पहले हमारी गाडी को निकाला जायेगा लेकिन ऐसा नहीं हुआ। इलाहाबाद पैसेंजर को पहले जंघई स्टेशन पर लिया गया। उसके बाद हमारी लखनऊ पैसेंजर को। यहां तक ट्रेन चालीस मिलट लेट हो चुकी थी।
वाराणसी से इलाहाबाद के लिये यह जंघई वाला रूट भी एक मुख्य रूट है। जंघई तक मैंने इसे देख लिया, सिंगल लाइन है और विद्युतीकृत भी। शायद आगे इलाहाबाद तक भी विद्युतीकृत होगा।
जंघई से पहले हमारी ट्रेन चली, इसके निकलने के बाद इलाहाबाद पैसेंजर। यहां से आगे निभापुर, बादशाहपुर, सुवन्सा, गौरा, दांदूपुर, पिरथीगंज के बाद प्रतापगढ जंक्शन है। वैसे तो पूरे यूपी में कम से कम एयरटेल का नेटवर्क अच्छा है लेकिन मेरे फोन में बडे शहरों के अलावा कहीं नेटवर्क नहीं आया। वाराणसी के बाद भदोही में जब नेटवर्क आया तो अजय साहब से बात हो गई। वे मुझे प्रतापगढ मिलेंगे। मैंने उन्हें बता दिया कि मै आगे से दूसरे डिब्बे में हूं।
प्रतापगढ में अजय सिंह मिल गये। वे अमेठी में काम करते हैं और रोज प्रतापगढ से अमेठी आना जाना करते हैं। आज वे मेरे साथ गौरीगंज तक यात्रा करेंगे। उनके कुछ मित्र भी थे जो कार से गौरीगंज गये। मित्रों ने अजय से भी कार से ही चलने को कहा लेकिन अजय ने मना कर दिया। मित्रों को कुछ दाल में काला लगा। जब उन्होंने अजय से पूछा कि किससे मिलना है तो भला वे मित्रों को क्या जवाब देते? नीरज? कौन नीरज? कम्प्यूटर मित्र? मतलब? फेसबुक मित्र? फेसबुक मित्र घनिष्ठ नहीं होते। इस घनिष्ठता की कहानी बाद में बताई जायेगी और इसमें कुछ समय भी लगेगा। मित्र सन्तुष्ट नहीं हुए। उन्हें लग रहा था कि कोई लडकी है जिससे अजय आज मिलने जा रहा है। गौरीगंज में उनके मित्र उस ‘लडकी’ से मिलेंगे। हालांकि कोई नहीं मिला।
अजय ने बताया कि प्रतापगढ का मूल नाम बेल्हा है। यह एक रजवाडा था जिसके राजाओं ने अपना शौर्य दिखाने के लिये इसका नाम प्रतापगढ कर दिया। मैंने भी पहले कई नक्शों में इसका नाम बेल्हा पढा है, गूगल मैप में इसे बेला लिखा गया है। प्रतापगढ नाम रखने की कहानी आज पता चली।
प्रतापगढ से जब गाडी चली तो यह पन्द्रह मिनट लेट थी। यात्रियों के लिये यह घोर आश्चर्य की बात थी कि गाडी ठीक समय पर क्यों चल रही है। नहीं तो इसका इतिहास एक घण्टे लेट रहने का रहा है। अजय ने बताया कि इस ट्रेन को कभी बुजुर्ग पायलेट चलाते हैं तो कभी नौजवान पायलेट। आज गाडी समय पर है और चल भी धुआंधार स्पीड से रही है तो लग रहा है कि आज नौजवान लडका है।
खैर, बातें होती रहीं और यात्रा भी। चिलबिला जंक्शन से एक लाइन सुल्तानपुर चली जाती है और दूसरी रायबरेली। उधर प्रतापगढ में एक लाइन इलाहाबाद से आ मिलती है। पूर्वी उत्तर प्रदेश में रेलवे लाइनों का जाल बिछा हुआ है।
जगेशरगंज, अन्तू, सहजीपुर हाल्ट, मिसरौली, अमेठी, तालाखजूरी और फिर गौरीगंज। मायावती सरकार ने सुल्तानपुर, रायबरेली और प्रतापगढ जिलों के कुछ हिस्सों को मिलाकर एक नया जिला बनाया था- छत्रपति साहूजी महाराज नगर। इसका मुख्यालय था गौरीगंज। अब अखिलेश सरकार ने इसका नाम बदलकर अमेठी जिला कर दिया, मुख्यालय गौरीगंज ही रहने दिया। सब राजनीति है।
गौरीगंज में अजय साहब को उतरना था। उन्होंने मेरे हवाले एक बडी सी पन्नी की जिसमें खाना था। उन्होंने जोर देकर कहा कि घर से बनवाकर लाया हूं, है तो थोडा सा ही लेकिन फेंकना मत। मैंने आश्वासन दिया कि निश्चिन्त रहो, मैं कभी भोजन फेंका नहीं करता।
गौरीगंज में अजय के मित्र नहीं मिले। वे प्रतापगढ से कार से चले थे, ट्रेन आज अच्छी स्पीड से आई। जाहिर है कि वे अभी तक यहां नहीं पहुंचे होंगे।
जब गौरीगंज में मैं और अजय एक दूसरे के विदाई फोटो खींच रहे थे तो एक 40-45 साल के व्यक्ति प्रकट हुए। बोले- नीरज जी, नमस्कार। प्रथमदृष्ट्या मैंने सोचा कि अजय के मित्र हैं जो शायद ट्रेन से पहले आ गये हैं और यहां मिलने की बात तय हुई थी। शीघ्र ही उन्होंने कहा- मैं धीरेन्द्र तिवारी हूं। आपका बडा फैन हूं जी। आप लिखते हैं कि आप पिछले डिब्बे में बैठना पसन्द करते हैं तो पीछे से ढूंढता हुआ आ रहा हूं। मैं आपके साथ रायबरेली तक यात्रा करूंगा। उनके साथ एक बच्चा भी था जो शायद उनका पोता हो।
गौरीगंज से ट्रेन चली तो आधा घण्टा लेट थी। अजय यहीं रह गये, धीरेन्द्र साथ हो लिये। गौरीगंज के बाद बनी, कासिमपुर हाल्ट, जायस, फुरसतगंज, रूपामऊ और रायबरेली स्टेशन आते हैं। धीरेन्द्र साहब ने बताया कि कवि मलिक मुहम्मद जायसी जायस के रहने वाले थे। जायसी की प्रसिद्ध रचना है पद्मावत जो चित्तौड की रानी पद्मावती पर आधारित है। जायस में मलिक मुहम्मद जायसी का स्मारक भी है।
रायबरेली में धीरेन्द्र साहब उतर गये। वे भी घर से खाना बनवाकर लाये थे जिसे लेने से मुझे मना करना पडा। अजय द्वारा दिया खाना अभी ज्यों का त्यों रखा था। भोजन को फेंकने से मुझे एलर्जी है। हालांकि कुछ अमरूद, इमरती और सिंघाडे ले लिये। अब वे लखनऊ से वाराणसी जाने वाली पैसेंजर से गौरीगंज लौट जायेंगे।
ट्रेन ने अभी तक खुश कर रखा था। रायबरेली से पन्द्रह मिनट की देरी से चली। लेकिन इसके बाद लेट होना शुरू हो गई- गंगागंज 15 मिनट, हरचन्दपुर 20 मिनट, कुन्दनगंज 25 मिनट, बछरावां 30 मिनट, श्रीराजनगर 45 मिनट, निगोहां 60 मिनट, कनकहा 65 मिनट, मोहनलालगंज 70 मिनट, उतरेटिया 50 मिनट और लखनऊ 50 मिनट की देरी से पहुंची। इसका इतिहास दो ढाई घण्टे देरी से चलने का रहा है, आज लगभग पौन घण्टे की देरी से आई फिर भी समय पर ही कही जायेगी। अब यह गाडी फैजाबाद पैसेंजर बनकर फैजाबाद जायेगी।
अजय साहब ने कहा था कि आपके पास लखनऊ में काफी समय रहेगा, मायावती द्वारा बनवाये गये अम्बेडकर पार्क चले जाना। उसके सामने ही मुलायम द्वारा बनवाया गया लोहिया पार्क है, वहां भी चले जाना। दोनों दर्शनीय हैं। लेकिन मुझे इनमें से कहीं नहीं जाना था। सोच रखा था कि स्टेशन पर ही विश्राम करूंगा। 300 किलोमीटर की पैसेंजर ट्रेन यात्रा करके आया हूं, इतना ही नहीं उनकी ऊंचाई लिखना और फोटो खींचना भी; काफी थकान भरा काम है।
अब मुझे मुरादाबाद जाने के लिये सहारनपुर पैसेंजर पकडनी है। जिसमें आरक्षण कल वाराणसी में कराया था। पैसेंजर में एक डिब्बा शयनयान होता है। इसका यहां से चलने का समय रात 09.10 बजे है।
शाम छह बजे ध्यान आया कि लखनऊ में एक मित्र भी रहती है। मैंने उसे फोन कर दिया, अम्बेडकर पार्क आने को कहा लेकिन उसने घरवालों की वजह से आने से मना कर दिया। मैंने उससे कहा कि लडकियों में बहाने बनाने का एक गुण होता है, तुममें यह गुण नहीं है, टैलेण्ट नहीं है लेकिन वह फिर भी नहीं मानी। उधर अगर मुझसे कोई मिलने को कहती, तो भले ही मैं पाताल लोक में होता, बाहर आ ही जाता।
सो गया तो पौने नौ बजे आंख खुली। पूछताछ पर जाकर देखा तो पाया कि अपनी ट्रेन प्लेटफार्म नम्बर दो पर आयेगी। मैं गया तो देखा कि श्रमजीवी खडी है। साढे नौ बजे यह चली गई तो सोचा कि अब आयेगी सहारनपुर पैसेंजर। लेकिन नहीं आई। श्रमजीवी गई तो पद्मावत आ गई। यह भी चली गई तो लखनऊ-चण्डीगढ आ गई। चण्डीगढ एक्सप्रेस साढे दस बजे चलेगी। हमारी पैसेंजर कहां चली गई? अगर मैं आधे घण्टे और सोता रहता तो ट्रेन को यहां न पाकर सोच लेता कि छूट गई और शायद बस पकड लेता। पूछताछ पर गया तो वहां कोई नहीं था, सूचना पट्ट पर अभी भी लिखा था कि सहारनपुर पैसेंजर प्लेटफार्म दो पर आयेगी। मोबाइल में ट्रेन इंक्वायरी पर देखा तो वहां भी इस ट्रेन के चलने की बाबत कोई जानकारी नहीं मिली जबकि लखनऊ से सभी ट्रेनों की जानकारी थी। जालिमों, कम से कम एक उद्घोषणा ही कर दो कि गाडी इतनी लेट आयेगी, तसल्ली हो जायेगी।
प्लेटफार्म पर ही एक लडका और मिला, उसे इसी पैसेंजर से सहारनपुर जाना था। बातचीत हुई तो पता चला कि उसकी आरक्षित बर्थ मेरे बगल वाली है। कहने लगा कि सुबह तक गाडी सहारनपुर पहुंच जायेगी। मैंने कहा कि नहीं, शाम तक पहुंचेगी। इतना सुनते ही उसके होश फाख्ता हो गये। शाम तक? फिर उस घडी को कोसने लगा जब उसने बिना आगा-पीछा देखे इस ट्रेन में आरक्षण कराया था- इसी ट्रेन में खाली बर्थ देखी तो इसी में आरक्षण करा दिया। समय नहीं देखा, देख लेता तो इससे कभी नहीं कराता।
साढे ग्यारह बजे उद्घोषणा हुई कि फैजाबाद से आने वाली फलाना फलाना सवारी गाडी प्लेटफार्म नम्बर दो पर आ रही है। बस, इतना ही मेरे खुश होने के लिये काफी था। तुरन्त मोबाइल में ट्रेन इंक्वायरी पर देखा तो पाया कि यह फैजाबाद से आने वाली गाडी ढाई घण्टे की देरी से चल रही है। यानी यही गाडी अब सहारनपुर पैसेंजर बनकर चलेगी। प्लेटफार्म पर आई तो सबसे पहले एकमात्र शयनयान डिब्बे में अपनी बर्थ पर जाकर सो गया। साढे बारह बजे लगभग सवा तीन घण्टे की देरी से यह अपने गन्तव्य की ओर रवाना हुई। मेरा पडोसी नहीं आया। शायद बस से चला गया हो।
सुबह साढे सात बजे आंख खुली, गाडी शाहजहांपुर से आगे तिलहर खडी थी। ढाई घण्टे विलम्ब से चल रही थी। कल जहां मैं अवध प्रदेश में यात्रा कर रहा था, अब रुहेलखण्ड में हूं। डिब्बे में कोई टीटीई नहीं आया। यह था तो खाली ही, लेकिन इसमें ज्यादातर सवारियां साधारण टिकट वाली थीं।
बरेली में वही लडका मिला, जिसकी बर्थ मेरे बगल वाली थी। कहने लगा कि रेलवे ने मूर्ख बना दिया। ये लोग टिकट तो जारी कर रहे हैं शयनयान का और गाडी में शयनयान का डिब्बा है ही नहीं। मैंने कहा कि इसमें शयनयान है और मैं अपनी बर्थ पर सोते हुए आया हूं। हंसते हुए कहने लगा कि सुबह सुबह मजाक। उसे मेरी बात का यकीन नहीं हुई। यकीन भी तब हुआ जब उसे मैं जबरदस्ती शयनयान डिब्बे में ले गया। उसने लखनऊ में किसी यात्री से पूछा कि इसमें स्लीपर डिब्बा कहां है। उसने कह दिया कि यह पैसेंजर गाडी है, इसमें कोई स्लीपर नहीं होता। बस, पट्ठे ने यकीन कर लिया। पूरी रात जनरल डिब्बे में काट दी।
उसे चूंकि सहारनपुर जाना था और यह गाडी शाम अन्धेरा होने तक ही सहारनपुर पहुंचेगी। वह बार बार परेशान हुआ जा रहा था कि मेरा वहां जरूरी काम है, अब काम नहीं हो पायेगा। मैंने सलाह दी कि इस पैसेंजर को छोड दे और कोई एक्सप्रेस गाडी पकड ले। बरेली से बहुत सी एक्सप्रेस गाडियां सहारनपुर जाती हैं। दोपहर दो बजे तक पहुंच जायेगा। कहने लगा कि नहीं यार, अभी तो अपने स्लीपर डिब्बे में आया हूं। अब फिर से एक्सप्रेस गाडी के जनरल डिब्बे में नहीं बैठता चाहता। नहीं चाहता तो भुगत। क्यों कोस रहा है इस गाडी को?
बरेली से चली तो हर स्टेशन पर बहुत बहुत देर तक रुकने लगी। हालत यह हो गई कि जहां बरेली में यह तीन घण्टे लेट थी वही 40 किलोमीटर दूर मिलक साढे पांच घण्टे देरी से पहुंची। वो लडका हर यात्री से अपनी दुखभरी गाथा सुना रहा था- मुझे सहारनपुर में बहुत जरूरी काम है, इस ट्रेन की वजह से सब चौपट हो जायेगा। यात्री उसे वही सलाह लेने लगे जो मैंने दी थी कि इस गाडी को छोड दे। मिलक में बराबर में सिग्नल न मिलने की वजह से जब उपासना एक्सप्रेस रुकी तो सबने उस पर ऐसा दबाव बनाया कि उसे अपना बोरिया बिस्तर बांधकर उपासना में चढना पडा। सभी उसे लक्सर उतरने की सलाह दे रहे थे। उधर मैं जानता था कि यह ट्रेन मुरादाबाद से चलकर सीधे हरिद्वार रुकती है, लक्सर नहीं रुकती। लेकिन कोई मेरी एक सलाह नहीं मानता तो मैं उसे दूसरी सलाह नहीं दिया करता।
मिलक के बाद अच्छे सिग्नल मिले और चार घण्टे की देरी से ढाई बजे ट्रेन मुरादाबाद पहुंच गई। अब मुझे गढमुक्तेश्वर जाना था। सवा तीन बजे यहां से पैसेंजर चलने वाली थी जो साढे पांच बजे गढमुक्तेश्वर पहुंचेगी। लेकिन मैं थक गया था और बस से जाने को वरीयता दी।
धुंध में खडी जौनपुर-इलाहाबाद पैसेंजर जंघई के आउटर पर |
धीरेन्द्र तिवारी |
अजय सिंह |
मलिक मुहम्मद जायसी यहीं के रहने वाले थे। |
कुन्दनगंज |
उतरेटिया में बायें जाती सुल्तानपुर वाली डबल विद्युतीकृत लाइन |
लखनऊ से एक लाइन फैजाबाद जाती है जो बाराबंकी तक विद्युतीकृत है। |
बिलपुर स्टेशन |
नगरिया सादात |
रामपुर स्टेशन के पास एक खण्डहर |
अगला भाग: गढमुक्तेश्वर में कार्तिक मेला
1. इलाहाबाद से मुगलसराय पैसेंजर ट्रेन यात्रा
2. वाराणसी से मुरादाबाद पैसेंजर ट्रेन यात्रा
3. गढमुक्तेश्वर में कार्तिक मेला
बहुत हैंडसम दिखाई दे रहे हो, उस कन्या ने तो बडा ही धोखा दिया आपको नीरज जी
ReplyDeleteराम- राम जी.बढिया पोस्ट
ReplyDeleteजनसंख्या के केन्द्र के भेदती रेल लाइन है यह।
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