Skip to main content

मेडता रोड से मेडता सिटी रेलबस यात्रा

इस यात्रा वृत्तान्त को शुरू से पढने के लिये यहां क्लिक करें
सवा दो बजे मेडता रोड पहुंचे। यहां बीकानेर से आने वाली लाइन मिल जाती है। मैं यहीं उतर गया। प्रशान्त को फोन किया तो पता चला कि वो नहीं आया है।
दस मिनट बाद ही मेडता सिटी जाने वाली रेलबस चलने वाली थी। पांच रुपये का टिकट लगता है और दूरी है पन्द्रह किलोमीटर। रेलबस इस दूरी को तय करने में बीस मिनट लगाती है। बस ठसाठस भरी थी। ड्राइवर ने आम बसों की तरह सवारियों से खूब कहा- अरे आगे हो जाओ, वहां बहुत जगह पडी है, देखो खिडकी पर लोग लटके हैं। ओये, तू सुनता क्यों नहीं? आगे बढ।
यह बस सिंगल एक्सल वाली बोगी की थी। डबल एक्सल की बोगियां होनी चाहिये थीं। सिंगल एक्सल बोगी वाली गाडियां एक तो हिलती बहुत हैं, फिर कभी कभी तेज झटका भी देती है, लगता है कि अब यह पटरी से उतर जायेगी। फिर भी इसकी स्पीड चालीस पचास के आसपास रही। रास्ते में दो मानवीय फाटक पडे, एक मेडता रोड से निकलते ही और दूसरा मेडता सिटी में। कई मानव रहित फाटक भी मिले। बस एक बार चली तो अपने गन्तव्य पर ही जाकर रुकी।
मेडता सिटी मीराबाई के कारण प्रसिद्ध है। यहां मीरा मन्दिर है और मीरा संग्रहालय भी। देखने का समय था मेरे पास लेकिन इच्छा नहीं थी। यही बस दस मिनट बाद वापस चल देती है, तुरन्त टिकट ले लिया। भीड कुछ कम थी। इस बार मैं खिडकी पर नहीं लटका बल्कि अन्दर घुसकर सबसे पीछे चला गया। बैठने के लिये एक सीट भी खाली थी। बीस मिनट की ही तो यात्रा होती है, किसी को आसानी से सीट मिल गई तो ठीक; नहीं तो सीट के लिये कोई झगडा नहीं, कोई भागमभाग नहीं। मैं भी खडा ही रहा। एक ने बैठने को कहा भी लेकिन मैंने मना कर दिया।
समय से पांच मिनट बाद बस चली। मैं चूंकि सबसे पीछे था, इसलिये पीछे भागती रेल की पटरी दिख रही थी। जाली लगी होने के कारण देखने में और फोटो खींचने में उतना मजा नहीं आ रहा था लेकिन कुल मिलाकर यात्रा आनन्ददायक ही रही।
इससे पहले मैंने मीटर गेज की रेलबस में यात्रा की है वृन्दावन से मथुरा तककालका से शिमला के बीच नैरो गेज की रेलबस चलती है लेकिन उसमें यात्रा करने के लिये प्रथम श्रेणी का आरक्षण कराना पडता है, जिसका टिकट 300 रुपये से भी ज्यादा है। तो इस प्रकार मैं शायद ही नैरो गेज की रेलबस में यात्रा कर पाऊं। ये पांच पांच रुपये वाली रेलबस ही ठीक हैं मुझ जैसों के लिये।
मेडता रोड आकर भोपाल-जोधपुर पैसेंजर से जोधपुर तक जाने की इच्छा थी लेकिन जोधपुर में मात्र घण्टे भर का ही मार्जिन मिल रहा था मण्डोर एक्सप्रेस के लिये इसलिये वापस दिल्ली का आरक्षण मेडता रोड से करा रखा था। सोचा था कि अगर भोपाल-जोधपुर पैसेंजर ठीक समय पर आ गई तो जोधपुर चला जाऊंगा, नहीं तो नहीं जाऊंगा। लेकिन यह गाडी आधा घण्टे विलम्ब से आयी। इसका अर्थ है कि आगे यह और भी लेट होने वाली है, नहीं तो राई का बाग पर तो पक्का आठ बजा देगी। इसके जोधपुर पहुंचने से पहले मण्डोर एक्सप्रेस चल पडेगी और मैं उसे नहीं पकड पाऊंगा। जोधपुर जाना रद्द।
पांच घण्टे से भी ज्यादा समय था अब मेरे पास जो यहीं स्टेशन पर ही काटना है। उच्च श्रेणी के प्रतीक्षालय में जाकर कुछ देर तो सोया, कुछ देर लैपटॉप पर आज की कथा लिखी और कुछ बाहर जाकर अण्डे खाये। इस दौरान जोधपुर-दिल्ली सराय सुपरफास्ट ट्रेन निकली। यह साप्ताहिक ट्रेन है और रतनगढ के रास्ते चलती है। पूरी ट्रेन खाली पडी थी। यहां तक कि थोक की संख्या में लगे साधारण डिब्बे भी स्लीपर बने हुए थे। मुझे नहीं लगता कि पूरे साल इस ट्रेन में कभी वेटिंग होती होगी।
ठीक समय पर मण्डोर एक्सप्रेस आई। और ठीक ही समय पर दिल्ली पहुंची।


मेडता रोड स्टेशन पर खडी रेलबस

मेडता सिटी स्टेशन

मेडता सिटी स्टेशन




1. हिसार से मेडता रोड पैसेंजर ट्रेन यात्रा
2. मेडता रोड से मेडता सिटी रेलबस यात्रा




Comments

  1. चेयरकार में तो बैठे थे, पर रेल बस पहली बार देखी। कभी इसका भी मजा लेना है।

    ReplyDelete
  2. कम सवारियों के लिये रेलबस सर्वोत्तम साधन है।

    ReplyDelete
  3. सुनी तो है देखी पहली बार ही है रेल बस

    ReplyDelete
  4. जहाँ एक और दिल्ली-मुंबई मार्ग पर साधारण श्रेणी के 3 डब्बे भी पूरे से नहीं आते, और स्वर्णमंदिर मेल जैसी गाड़ियों में 2 महीने पहले ही स्लीपर मिलना मुश्किल हो जाता है, वहीँ इन खाली रूट पर 5 डब्बे साधारण श्रेणी के और 15 से ऊपर डब्बे आरक्षित आते हैं.... रेलवे से सरकार को कमाना नहीं बस अपना हित साधना और जनता के पैसे का दुरूपयोग करना है...

    ReplyDelete

Post a Comment

Popular posts from this blog

लद्दाख बाइक यात्रा- 2 (दिल्ली से जम्मू)

यात्रा आरम्भ करने से पहले एक और बात कर लेते हैं। परभणी, महाराष्ट्र के रहने वाले निरंजन साहब पिछले दो सालों से साइकिल से लद्दाख जाने की तैयारियां कर रहे थे। लगातार मेरे सम्पर्क में रहते थे। उन्होंने खूब शारीरिक तैयारियां की। पश्चिमी घाट की पहाडियों पर फुर्र से कई-कई किलोमीटर साइकिल चढा देते थे। पिछले साल तो वे नहीं जा सके लेकिन इस बार निकल पडे। ट्रेन, बस और सूमो में यात्रा करते-करते श्रीनगर पहुंचे और अगले ही दिन कारगिल पहुंच गये। कहा कि कारगिल से साइकिल यात्रा शुरू करेंगे। खैर, निरंजन साहब आराम से तीन दिनों में लेह पहुंच गये। यह जून का पहला सप्ताह था। रोहतांग तभी खुला ही था, तंगलंग-ला और बाकी दर्रे तो खुले ही रहते हैं। बारालाचा-ला बन्द था। लिहाजा लेह-मनाली सडक भी बन्द थी। पन्द्रह जून के आसपास खुलने की सम्भावना थी। उनका मुम्बई वापसी का आरक्षण अम्बाला छावनी से 19 जून की शाम को था। इसका अर्थ था कि उनके पास 18 जून की शाम तक मनाली पहुंचने का समय था। मैंने मनाली से लेह साइकिल यात्रा चौदह दिनों में पूरी की थी। मुझे पहाडों पर साइकिल चलाने का अभ्यास नहीं था। फिर मनाली लगभग 2000 मीटर पर है, ले...

डायरी के पन्ने-32

ध्यान दें: डायरी के पन्ने यात्रा-वृत्तान्त नहीं हैं। इस बार डायरी के पन्ने नहीं छपने वाले थे लेकिन महीने के अन्त में एक ऐसा घटनाक्रम घटा कि कुछ स्पष्टीकरण देने के लिये मुझे ये लिखने पड रहे हैं। पिछले साल जून में मैंने एक पोस्ट लिखी थी और फिर तीन महीने तक लिखना बन्द कर दिया। फिर अक्टूबर में लिखना शुरू किया। तब से लेकर मार्च तक पूरे छह महीने प्रति सप्ताह तीन पोस्ट के औसत से लिखता रहा। मेरी पोस्टें अमूमन लम्बी होती हैं, काफी ज्यादा पढने का मैटीरियल होता है और चित्र भी काफी होते हैं। एक पोस्ट को तैयार करने में औसतन चार घण्टे लगते हैं। सप्ताह में तीन पोस्ट... लगातार छह महीने तक। ढेर सारा ट्रैफिक, ढेर सारी वाहवाहियां। इस दौरान विवाह भी हुआ, वो भी दो बार। आप पढते हैं, आपको आनन्द आता है। लेकिन एक लेखक ही जानता है कि लम्बे समय तक नियमित ऐसा करने से क्या होता है। थकान होने लगती है। वाहवाहियां अच्छी नहीं लगतीं। रुक जाने को मन करता है, विश्राम करने को मन करता है। इस बारे में मैंने अपने फेसबुक पेज पर लिखा भी था कि विश्राम करने की इच्छा हो रही है। लगभग सभी मित्रों ने इस बात का समर्थन किया था।

लद्दाख बाइक यात्रा- 6 (श्रीनगर-सोनमर्ग-जोजीला-द्रास)

11 जून 2015 सुबह साढे सात बजे उठे। मेरा मोबाइल तो बन्द ही था और कोठारी साहब का पोस्ट-पेड नम्बर हमारे पास नहीं था। पता नहीं वे कहां होंगे? मैं होटल के रिसेप्शन पर गया। उसे अपनी सारी बात बताई। उससे मोबाइल मांगा ताकि अपना सिम उसमें डाल लूं। मुझे उम्मीद थी की कोठारी साहब लगातार फोन कर रहे होंगे। पन्द्रह मिनट भी सिम चालू रहेगा तो फोन आने की बहुत प्रबल सम्भावना थी। लेकिन उसने मना कर दिया। मैंने फिर उसका फोन ही मांगा ताकि नेट चला सकूं और कोठारी साहब को सन्देश भेज सकूं। काफी ना-नुकुर के बाद उसने दो मिनट के लिये अपना मोबाइल मुझे दे दिया। बस, यही एक गडबड हो गई। होटल वाले का व्यवहार उतना अच्छा नहीं था और मुझे उससे प्रार्थना करनी पड रही थी। यह मेरे स्वभाव के विपरीत था। अब जब उसने अपना मोबाइल मुझे दे दिया तो मैं चाहता था कि जल्द से जल्द अपना काम करके उसे मोबाइल लौटा दूं। इसी जल्दबाजी में मैंने फेसबुक खोला और कोठारी साहब को सन्देश भेजा- ‘सर, नौ साढे नौ बजे डलगेट पर मिलो। आज द्रास रुकेंगे।’ जैसे ही मैसेज गया, मैंने लॉग आउट करके मोबाइल वापस कर दिया। इसी जल्दबाजी में मैं यह देखना भूल गया कि कोठारी साहब...