एक दिन अचानक नजर में आया कि लोहारू- सीकर मीटर गेज लाइन बन्द हो गई है। उसे बडी लाइन में बदला जायेगा और कुछ महीनों बाद वो भारत के मुख्य रेल नेटवर्क से जुड जायेगी। हालांकि हर बन्द होती छोटी लाइन के बारे में जानकर दुख तो होता है लेकिन ऐसा तो होना ही है। कब तक और क्यों दुखी हों? मेरे एक मित्र हैं- अभिषेक कश्यप जिनके बारे में मैंने सबसे पहले जाना कि वे ‘रेल-फैन’ हैं। यानी रेलों के जबरदस्त फैन। लेकिन उनका शौक केवल छोटी लाइनों तक ही है, बडी लाइनों के फैन हैं या नहीं लेकिन गेज परिवर्तन के जबरदस्त विरोधी। जी भरकर कोसते हैं वे रेलवे के गेज परिवर्तकों को।
खैर, हमारा स्वभाव ही कुछ ऐसा है कि हम किसी भी तरह के परिवर्तन को स्वीकार करने में झिझकते हैं, जबकि हमें इसे स्वीकार करना चाहिये। बल्कि जिन्दगी में खुद भी परिवर्तित होते रहना चाहिये।
तो जी, राजस्थान में कुछ समय पहले तक मीटर गेज ही हुआ करती थी, अब सब खत्म होती जा रही हैं। गिनी चुनी मीटर गेज ही बची हुई हैं, इनमें से भी ज्यादातर पर मैंने यात्रा कर रखी है। लोहारू- सीकर लाइन के बन्द होते ही मुझे चिन्ता सताने लगी जयपुर- चुरू लाइन की। मैंने लोहारू- सीकर लाइन पर तो यात्रा कर रखी है लेकिन जयपुर- सीकर- चुरू अभी भी मुझसे अछूती है। कोशिशें होने लगीं बन्द होने से पहले शेखावाटी की इस आखिरी बची छोटी लाइन पर यात्रा करने की।
पिछले हफ्ते यानी 31 अक्टूबर को योजना फाइनल हो गई। हां, सुबह छह बजे ट्रेन जयपुर से चलकर दोपहर तक चुरू पहुंच जाती है। उसके बाद चुरू से एक पैसेंजर ट्रेन बीकानेर के लिये चलती है। मैंने इस बीकानेर वाली बडी लाइन पर भी यात्रा नहीं की है, इसलिये लगे हाथों इसे भी भुनाने का निर्णय कर लिया। शाम तक बीकानेर जाऊंगा। आधी रात के आसपास वहां से दिल्ली के लिये ट्रेन है, उससे वापसी का आरक्षण करा लिया।
तो जब 30 अक्टूबर को दिल्ली से चलने लगा तो करण का सन्देश आया कि साइकिल से कहीं चलना है। बिना सोचे समझे ऋषिकेश फाइनल हो गया। मीटर गेज यात्रा फिर से कैंसिल हो गई।
अगले हफ्ते फिर, यानी 6 नवम्बर को। नाइट ड्यूटी के कारण छह को पूरे दिन खाली, सात की साप्ताहिक छुट्टी- हमेशा की तरह दो दिन हाथ में। फिर से मीटर गेज की सम्भावना लेकिन कोई रिजर्वेशन नहीं। दिन भर में किसी भी ट्रेन में बैठकर शाम तक आराम से जयपुर जाया जा सकता है, रिजर्वेशन की कोई जरुरत भी नहीं लेकिन बीकानेर से दिल्ली वापस आने के लिये रात भर का रिजर्वेशन जरूरी है। उसी पिछले सप्ताह वाली ट्रेन से करा लिया।
तभी समय सारणी पर नजर पडी- डबल डेकर ट्रेन पर। चलो, आज इसका आनन्द लिया जाये। लेकिन एक पंगा हो गया। यह आम आदमी की ट्रेन नहीं है। इसमें सभी डिब्बे एसी हैं- एसी चेयर कार। मैं इस श्रेणी में यात्रा करना पसन्द नहीं करता। लेकिन भारत में डबल डेकर ट्रेनों का कॉन्सेप्ट नया है, इसके बारे में जानने की और यात्रा करने की चाहत से मुझे कुछ घण्टों के लिये आम से खास आदमी बनने पर बाध्य होना पडा। चेयर कार होने और वीकएण्ड ना होने के कारण 900 से ज्यादा सीटें खाली थीं, आरक्षण आसानी से हो गया।
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रिक्शेवाले को शास्त्री नगर मेट्रो से दस रुपये देकर सराय रोहिल्ला पहुंचा। यहां दो स्टेशन बराबर बराबर में है- विवेकानन्द पुरी और दिल्ली सराय रोहिल्ला। पहले वाला रोहतक लाइन पर है, दूसरा जयपुर लाइन पर। असल में बात यह है कि पहले सराय रोहिल्ला स्टेशन पूरी तरह मीटर गेज था। इसके बराबर में विवेकानन्द पुरी ब्रॉड गेज। लाइनें बदल गईं लेकिन सराय रोहिल्ला का दर्जा नहीं बदला- दर्जा मतलब राजस्थान की तरफ जाने वाली ट्रेनों का शुरूआती स्टेशन। हां, बदलाव आया है- रिंग रेल के रास्ते यशवन्तपुर जाने वाली गरीब रथ, बाईपास लाइन के रास्ते कालका जाने वाली हिमालयन क्वीन और रोहतक के रास्ते श्रीगंगानगर जाने वाली इण्टरसिटी एक्सप्रेस यहीं से चलने लगीं। इनके अलावा देहरादून जाने वाली मसूरी एक्सप्रेस भी यहीं से चलती है। बाकी तो ज्यादातर वहीं ट्रेनें हैं जो परिवर्तन से पहले चलती थीं- चेतक एक्सप्रेस आदि।
डबल डेकर के परिचालन में पुल उतनी बडी दिक्कत नहीं थे जितनी कि बिजली की लाइनें। अगर दो मंजिला डिब्बा होगा तो उसकी ऊंचाई कुछ ना कुछ बढानी ही पडेगी। कुछ रूट विद्युतीकृत होते हैं, जिनकी वजह से डिब्बे की ऊंचाई बढाना सीमित हो जाता है। बिजली के तार रेल की पटरियों से पांच मीटर की ऊंचाई पर होते हैं, जबकि सामान्य डिब्बा लगभग चार मीटर। तारों में पच्चीस हजार वोल्ट की बिजली की सप्लाई होती है, जिसकी वजह से कोई बाहरी चीज इनके सम्पर्क में आने से कुछ पहले ही ‘भस्म’ हो सकती है। इस वजह से डिब्बों की ऊंचाई बढाना बेहद सीमित था।
इसका हल निकला कि दोनों बोगी के बीच की खाली जगह का इस्तेमाल किया जाये। अब इस बोगी शब्द को थोडा समझ लेना जरूरी है। सामान्यतः डिब्बे को बोगी कहा जाता है। कहा जाता है कि हमारा आरक्षण बोगी नम्बर एस छह में है। लेकिन यह बिल्कुल गलत है। डिब्बे को डिब्बा ही बने रहना चाहिये।
बोगी कहते हैं पहियों की असेम्बली को। एक डिब्बे में दो तरफ पहिये होते हैं। आगे चार पहिये और पीछे भी चार पहिये। इन्हीं चार पहियों के सारे तामझाम को बोगी कहते हैं। यानी एक डिब्बे में दो बोगी होती हैं। इनके बीच की सारी लम्बाई में खाली जगह होती है। डबल डेकर में इसी खाली जगह का इस्तेमाल करके फर्श की ऊंचाई कम कर दी। बोगियों के ऊपर फर्श उतना ही है, जितना कि सामान्यतः होता है। बोगियों के ऊपर डबल छत नहीं है। डिब्बे के बीच में यानी बोगियों के बीच खाली जगह के ऊपर डबल छत बनी है, साथ ही फर्श भी नीचा हो गया है। जहां ऊपर की मंजिल पर जाने के लिये कुछ सीढियां चढना होता है, वहीं नीचे वाली पर जाने के लिये भी कुछ सीढियां नीचे उतरना पडता है।
मेरी सीट नीचे वाले में है। खिडकी के पास वाली सीट है, लग रहा है कि डीटीसी की लो फ्लोर बस में बैठा हूं। बडा अच्छा लग रहा है, अजीब सा भी लग रहा है। आम आदमी नहीं हूं अब मैं।
खास आदमी बनने का एक नुकसान है कि हम आम होने का रस नहीं ले पाते, आम वाला आनन्द नहीं उठा पाते। खास की जिन्दगी में शायद आनन्द नहीं होता।
बैठा हूं बस, ट्रेन में चूंकि सुबह नौ सौ सीटें खाली थीं, अब भी खाली ही हैं। गिने चुने लोग हैं, चुपचाप अपनी अपनी सीटों पर जम गये हैं।
मैं सोच रहा हूं ठीक इसी समय पुरानी दिल्ली से चलने वाली जैसलमेर इंटरसिटी के बारे में। वहां जो अब रस बरस रहा होगा, मैं उससे वंचित हूं। हम आम आदमी थोडे जमीन से जुडे होते हैं, इसलिये गन्दे से दिखाई देते हैं। वहां भी हमारा डिब्बा गन्दा सा ही होगा। लोग अपनी अपनी सीटों पर सामान जमा रहे होंगे, बहुत से लोग अपना डिब्बा और सीट ढूंढने के लिये दौड लगा रहे होंगे। चाय वाले चाय पिला रहे होंगे, खाने वाले खाना खिला रहे होंगे- दस रुपये में सात पूरी और खूब सारी सब्जी।
दिल्ली छावनी और गुडगांव... इसके बाद सीधे जयपुर के गांधीनगर स्टेशन पर। यानी दिल्ली एनसीआर से नॉन स्टॉप जयपुर जाने का इंतजाम है यह ट्रेन। रास्ते में रेवाडी, अलवर, बांदीकुई, दौसा... कहीं नहीं रुकना। उधर ‘हमारी’ ट्रेन सबको लेकर चलती है।
रेवाडी स्टेशन को धीरे धीरे पार कर रही है। सब लोग बिना पलक झपकाये इसी ट्रेन को देख रहे हैं कि यह क्या बवाल है? ऊपर भी और नीचे भी- नया नया सा लुक भी...।
सब लोग खुद में ही डूबे हैं। कोई मोबाइल की गुल्ली कान में घुसाकर गाने सुन रहा है, कोई गेम खेल रहा है, ज्यादातर के पास लैपटॉप है, पिक्चर देख रहे हैं। हर तरफ सन्नाटा है, बस गाडी की घर्र घर्र ही हावी है। हालांकि मेरे पास भी गुल्ली है, मोबाइल है, लैपटॉप है लेकिन मन नहीं लग रहा। मन तो ‘वही’ लगता है अपनी ट्रेन में दूसरों को देखने में। वहां भी कोई कुछ कर रहा होता है, कोई कुछ कर रहा होता है लेकिन वहां आनन्द आता हैं।
सूसू का दबाव बन गया है। काफी देर से रोक रखा है। क्यों रोक रखा है? बस ऐसे ही। ... अरे वाह, खास लोगों के लिये टॉयलेट भी खास है- ग्रीन टॉयलेट। इसमें माल- मसाला नीचे पटरियों पर नहीं गिरता। और यहां तो नहाने का भी इंतजाम है, शॉवर है। ... नहीं यार, यह शॉवर नहीं है, गन्दगी साफ करने की मशीन है।...
कुल मिलाकर एक शानदार चीज है डबल डेकर ट्रेन। इसके नॉन एसी डिब्बे भी बनने चाहिये और हर ट्रेन के जनरल डिब्बे की जगह इन्हें ही लगाया जाना चाहिये। अब समय है रेलवे को अपना स्टैण्डर्ड बढाने का। हालांकि रेलवे राजधानी, शताब्दी, दूरन्तो और अब डबल डेकर के जरिये कुछ बडा बनने की कोशिश कर रहा है। मैं इस कोशिश का स्वागत करता हूं।
दिल्ली- जयपुर के अलावा भारत में हावडा-धनबाद और मुम्बई- अहमदाबाद रूटों पर भी डबल डेकर ट्रेनें चल रही हैं।
1. दिल्ली जयपुर डबल डेकर ट्रेन यात्रा
2. जयपुर चूरू मीटर गेज ट्रेन यात्रा
बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
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आतिशबाजी का नहीं, ये पावन त्यौहार।।
लक्ष्मी और गणेश के, साथ शारदा होय।
उनका दुनिया में कभी, बाल न बाँका होय।
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(¯*•๑۩۞۩:♥♥ :|| दीपावली की हार्दिक शुभकामनायें || ♥♥ :۩۞۩๑•*¯)
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Diwali Mubark. Photos are good thanks
ReplyDeleteहमारे यहाँ भी चलने वाली है, बंगलोर से चेन्नई के बीच..
ReplyDeleteबेहतरीन प्रस्तुति। वाकई खास हो गए हैं अब आप।
ReplyDeleteMast hai bhai :)
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ReplyDeleteहिंदी बोलनी नहीं आती क्या?
Deleteबहुत पहले भी बॉम्बे से गुजरात के किसी शहर के लिए इसी तरह की डबल डेकर रेल चला करती थी. पता नहीं इस प्रकार के प्रयोग को कितनी सफलता मिलेगी पर अच्छा लगता है यह अलग तरह का रेल-डिब्बा देख कर.
ReplyDeleteMumbai to Surat flaying rani express non ac double decker me saath
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