भारत परिक्रमा यात्रा शुरू होने वाली है। बडा उत्साह है मुझे इस यात्रा पर जाने का। मुझे पता है कि लगातार ट्रेनों में बैठे रहने से दो तीन दिन बाद ही बोरियत शुरू हो जायेगी। लेकिन अलग-अलग जगहों पर जाना, वहां के नजारे देखना, विभिन्न भाषाओं वाले लोगों से मिलना, अलग-अलग खान-पान को चखना; यह सब मुझे इस बारह दिन की यात्रा में मिलेगा।
जब मैं लोगों को बताता हूं कि भारत परिक्रमा कर रहा हूं, तो वे भी बडे खुश हो जाते हैं लेकिन अगली बात सुनते ही उनकी खुशी दूर हो जाती है। अगली बात ये है कि मुझे इस यात्रा में ट्रेनों से नीचे नहीं उतरना है। नीचे उतरना भी है तो स्टेशन से बाहर नहीं निकलना है। एक ट्रेन से उतरते ही अगली ट्रेन की प्रतीक्षा शुरू कर देनी है। यह प्रतीक्षा जहां गुवाहाटी में बारह घण्टों की रहेगी, वहीं त्रिवेन्द्रम में आठ घण्टों की, मुम्बई में छह घण्टों की और अहमदाबाद में भी करीब छह घण्टों की ही रहेगी। बाकी जगहों पर और भी कम समय मिलेगा।
तो इसका जवाब है कि यह केवल एक ट्रेन यात्रा है, ना कि भारत यात्रा। ट्रेन से भारत की परिक्रमा जैसा कुछ योग बन रहा है, तो इसे भारत परिक्रमा नाम दे दिया, नहीं तो इसमें भारत परिक्रमा जैसा कुछ नहीं है। लोगबाग कहते हैं कि जब इतनी दूर जा ही रहा है तो वहां के दर्शनीय स्थल भी देखने चाहिये थे। मेरा जवाब है कि सबसे पहले इलाहाबाद, फिर मुगलसराय यानी वाराणसी, फिर पटना, न्यू जलपाईगुडी (दार्जीलिंग, सिक्किम), गुवाहाटी, अरुणाचल प्रदेश, मेघालय,... सैंकडों जगहें निकलकर आ जायेंगी। मैं किस-किस को निपटाऊंगा। नौकरीपेशा आदमी हूं, छुट्टियों की हमेशा समस्या चलती रहती है।
मुझे याद तो नहीं कि मैंने कब पहली बार ट्रेन देखी थी। हमारे गांव से दस किलोमीटर दूर से रेलवे लाइन गुजरती है। जब भी कभी मेरठ जाना होता तो कंकरखेडा में रेलवे लाइन पार करके ही जाना पडता था। अक्सर फाटक बन्द मिलता। और जब ट्रेन गुजरती तो मुझे लगता कि कितनी स्पीड से जा रही है। इसमें सवारियां कैसे चढती होंगी? स्टेशन भी होते हैं, इसका मुझे आइडिया नहीं था। मैं सोचता कि हर गांव में रेलवे लाइन के ऊपर ऊंची सी छत होती होगी, जैसे ही ट्रेन उसके नीचे से गुजरती होगी तो लोगबाग अपनी ऊंची छत पर चढकर ट्रेन पर छलांग लगा देते होंगे। छोटा था मैं तब, मुझे नहीं पता था कि ऐसा करने से हाड-गोड टूट जाते हैं। इतना ज्ञान तो बाद में मिला। और इस कूद से मुझे डर भी लगता था। सोचता था कि मैं नहीं कूदूंगा कभी ट्रेन पर। लेकिन ट्रेन को देखना हमेशा रोमांचित करता था।
एक बार पता चल गया कि जिस जगह पर मुझे ट्रेन दिखाई देती है, यानी रेलवे फाटक है, उस जगह का नाम कंकरखेडा है। मैं सोच में पड गया कि इसका नाम कंकरखेडा क्यों है। हमारे गांव में कई मोहल्ले हैं। एक मोहल्ला खेडा मोहल्ला भी है। सोचता था कि वहां भी कोई खेडा मोहल्ला होगा। लेकिन कंकर कैसे आ गई खेडे में?
इसका जवाब मिला कि वहां से जो रेलवे लाइन गुजरती है, उस पर बहुत सारी कंकर पडी हुई हैं, इसलिये उस खेडे का नाम कंकरखेडा है।
गांव में ही आठवीं पास कर ली, नौवीं में दाखिला लिया गया उसी कंकरखेडा के सनातन धर्म इण्टर कॉलेज में। रेलवे फाटक से 200 मीटर पहले ही नटराज चौक पर हम बस से उतरकर स्कूल चले जाया करते थे। मुझे पता नहीं था कि यहां से मात्र कुछ कदम आगे ही फाटक है। एक दिन ऐसे ही मटरगश्ती करते करते फाटक पर पहुंच गया तो पता चला कि मैं फाटक के कितना नजदीक था। फिर तो फाटक से ही स्कूल का रास्ता ढूंढ लिया। फाटक पर ही बस से उतरता, स्कूल चला जाता और वापसी में भी फाटक पर आकर ही बस पकडता। अक्सर कोई ना कोई ट्रेन गुजरती हुई दिख ही जाती। तब जाकर पता चला कि ट्रेन उतनी स्पीड से नहीं चलती, जितना मैं सोचता था।
और एक दिन यह भी पता चल गया कि फाटक से करीब एक किलोमीटर दूर रेलवे स्टेशन भी है- मेरठ छावनी। फिर स्टेशन से भी स्कूल का रास्ता ढूंढ लिया गया। छुट्टी होने के बाद मैं स्टेशन पर चला जाया करता और ट्रेनों की आवाजाही को और भी गौर से देखता। रुकी हुई ट्रेन भी पहली बार देखी लेकिन कभी चढने की हिम्मत नहीं हुई। कहीं चल पडी तो?
पिताजी उन दिनों स्टेशन के पास ही शराब फैक्टरी में काम करते थे। उनका रास्ता फाटक से स्टेशन के बराबर से होकर जाता था। एक दिन उन्होंने मुझे स्टेशन पर देख लिया और मेरी घर जाकर बढिया कुटाई हुई। कूटने के बाद उन्होंने बताया कि कभी भी बिना टिकट लिये स्टेशन पर मत जाना। अगर पकडा गया तो बडा भारी जुर्माना लगेगा। वैसे सोचता हूं कि अगर बापू बिना कुटाई किये यह बात बता देता तो मैं आराम से मान लेता।
उसके बाद कभी भी स्टेशन पर नहीं गया। लेकिन आने जाने का रास्ता वही रखा- स्टेशन वाला। स्टेशन से फाटक तक मालगाडियों के लिये एक लम्बा प्लेटफार्म है। वहां अक्सर मिलिट्री के काम की मालगाडियां खडी रहतीं और फौजी उनमें माल चढाने उतारने का काम करते रहते। एक मालगाडी अक्सर कई-कई दिनों तक खडी रहती। कभी कभी बिना छत वाली मालगाडी आती जिसमें साइड में मात्र छोटी सी रेलिंग लगी होती है। मैं अक्सर उस पर ही चलता। एक बार ऐसी ही मालगाडी हल्की हल्की चल रही थी। मुझे पता तो था ही कि यह स्पीड नहीं पकडेगी और कुछ आगे जाकर रुक जायेगी, तो मैं उसपर चढ गया। वो थी मेरी पहली ट्रेन यात्रा, भले ही कुछ मीटर की रही हो और पांच की स्पीड से तय की हो।
एक दिन सुनने में आया कि मेरठ छावनी से अगला स्टेशन मेरठ का मुख्य स्टेशन है। सुनने में आया तो जल्दी ही असलियत भी सामने आ गई। पता चला कि उसके आगे छावनी स्टेशन तो कुछ भी नहीं है। बहुत बडा स्टेशन है वो और कई सारे प्लेटफार्म भी हैं और सभी गाडियां वहां रुकती हैं। छावनी पर दो ही प्लेटफार्म हैं। तो यह खबर मेरे लिये चौंकाने वाली थी। मैं सोचता था कि हर स्टेशन पर दो ही प्लेटफार्म होते हैं। मैं सपना देखने लगा कि कब मुझे मेरठ के मुख्य स्टेशन पर जाने का मौका मिलेगा।
और वो मौका मिला अप्रैल 2005 में जब मुझे वास्तव में ट्रेन यात्रा करनी थी। वो थी मेरी पहली ट्रेन यात्रा- मेरठ सिटी से कानपुर तक संगम एक्सप्रेस से। पिताजी साथ थे। पूरी रात की यात्रा थी। ट्रेन जब प्लेटफार्म पर लग रही थी तो कुली को बीस रुपये देकर जनरल डिब्बे में ऊपर वाली सीट कब्जाई गई थी। इस यात्रा की पूरी कथा पहले ही छापी जा चुकी है- यहां क्लिक करें।
कानपुर में जल्दी काम निपट गया और दोपहर तक हम खाली हो गये। मेरठ की एकमात्र ट्रेन संगम एक्सप्रेस रात नौ बजे के आसपास थी। पिताजी ने तब तक प्रतीक्षा करनी बेकार समझी और गाजियाबाद का टिकट ले लिया। टिकट लेते ही नॉर्थ ईस्ट एक्सप्रेस आई और हम उसमें चढ लिये। नसीब अच्छा था कि मिलिट्री वाले डिब्बे में जगह मिल गई और एक फौजी ने हमें बैठने को सीट भी दे दी। खिडकी के पास वाली सीट थी और दिन का टाइम था तो यात्रा में मजा आ गया। अब जब भी कानपुर जाना होता है तो वो दृश्य याद आ जाता है, वे छोटे बडे स्टेशन याद आ जाते हैं- पनकी, भाऊपुर, रूरा, अम्बियापुर, झींझक, कंचौसी, फफूंद, भरथना, इकदिल, इटावा, टूण्डला। टूण्डला के बाद अन्धेरा हो गया था, बस अन्धेरे में एक ही स्टेशन याद है- अलीगढ। रात ग्यारह बजे गाजियाबाद पहुंचे। मेरठ की आखिरी ट्रेन निकल चुकी थी।
सुबह पांच बजे के आसपास मेरठ की ट्रेन थी। यह एक पैसेंजर ट्रेन थी जो हर स्टेशन पर रुकेगी। उसकी प्रतीक्षा करते करते हम गाजियाबाद के टिकटघर में ही सो गये। दो बजे के आसपास सफाई वालों ने उठाया। उनका काम निपतते ही हम फिर सो गये। टिकटघर के बराबर में ही चाय की दो-तीन दुकानें हैं, वहीं ‘बिस्तर’ पर पडे-पडे चाय पी। अभी भी ऐसा लग रहा है कि कल-परसों की बात हैं ये सब। गाजियाबाद जाता हूं तो टिकट खरीदते समय सब बरबस याद आ जाता है।
पैसेंजर गाजियाबाद से चली तो नया गाजियाबाद पर रुकी। ‘नया’ नाम के साथ भी कोई स्टेशन हो सकता है, यह पहली बार पता चला। उसके बाद गुलधर स्टेशन आया। यह भी मेरे लिये अनजाना नाम था। लेकिन उसके बाद दुहाई, मुरादनगर, मोदीनगर, मोहिउद्दीनपुर, परतापुर; सब जाने पहचाने नाम थे। मेरठ छावनी पर हम उतरकर घर चले गये।
यह कानपुर यात्रा काफी कुछ सिखा गई। रात में ट्रेन यात्रा, दिन में यात्रा, रात में स्टेशन पर समय काटना, सीट के लिये मारामारी और सहयात्रियों से मेलजोल,... बहुत कुछ सिखा गई यह यात्रा। हां, सभी जगह लाइन में लगकर टिकट मैंने ही खरीदे थे।
स्टेशनों के नाम का एक पूरा इतिहास है, कैसे नाम पड़ा, कैसे विकृत हुआ, बड़ी रोचक कथा है।
ReplyDeleteभारत यात्रा के लिए शुभकामनाएँ!
ReplyDeleteनीरज भाई अब तो पक्के लेखक भी बन गए हो. भारतीय रेलवे का एक पूरा इतिहास हैं. रेल के ऊपर तो मोटे मोटे ग्रंथ लिखे जा सकते है. आम आदमी की सवारी है ये. सस्ते में आपको पुरे भारत की सैर करा सकती हैं. जय हो भारतीय रेल. वन्देमातरम...
ReplyDeleteवैसे मैं भी यही सोचता हूँ कि कई बार बिना सुताई के भी बात समझी जा सकती है, परंतु उसके पीछे शायद यह लॉजिक होता होगा कि लंबे समय तक याद रहे, जैसे आपको याद है।
ReplyDeleteभारत यात्रा की शुभकामनाएँ ।
आप की यात्रा मंगलमय हो
ReplyDeleteलोगबाग कहते हैं कि जब इतनी दूर जा ही रहा है तो वहां के दर्शनीय स्थल भी देखने चाहिये थे। मेरा जवाब है कि सबसे पहले इलाहाबाद, फिर मुगलसराय यानी वाराणसी, फिर पटना, न्यू जलपाईगुडी (दार्जीलिंग, सिक्किम), गुवाहाटी, अरुणाचल प्रदेश, मेघालय,... सैंकडों जगहें निकलकर आ जायेंगी। मैं किस-किस को निपटाऊंगा। नौकरीपेशा आदमी हूं, छुट्टियों की हमेशा समस्या चलती रहती है।
ReplyDeleteनीरज भाई लगता है कि लोगबाग भी आपके लेख ध्यान से नहीं पढते है, क्योंकि आप इलाहाबाद,मुगलसराय यानी वाराणसी, पटना, न्यू जलपाईगुडी (दार्जीलिंग, सिक्किम), गुवाहाटी, अरुणाचल प्रदेश, मेघालय, जैसी सैंकडों जगहें से आपकी गाडी या तो जायेगी ही नहीं, अगर कुछ स्टेशन या जगह से गयी तो रुकेगी नहीं अत: वहाँ के बारे में कैसे बताया जा सकता है? हाँ ये अलग बात है कि आप चार-पाँच स्टेशन पर कई घन्टे पडे रहोगे तो उन स्टेशन के फ़ोटो तो दिखा ही देना।
शुभ यात्रा-- जी भर, मन भर के सोना। कोई तंग नहीं करेगा। असम के हालात से सावधान रहना।
अगर बापू बिना कुटाई किये यह बात बता देता तो मैं आराम से मान लेता
ReplyDeleteआज की दोनों फोटो और पोस्ट बहुत पसन्द आयी
अगर बापू बिना कुटाई किये यह बात बता देता तो मैं आराम से मान लेता.....LOL :)
ReplyDeleteनीरज बहुत अच्छा लिखा... मेरी बचपन की यादें ताज़ा हो गईं. मुझे भी बचपन से ही रेलों से प्यार था खास कर छोटी ट्रेनो से. शायद पहली छोटी ट्रेन यात्रा जब मै 8 साल का था तो दिल्ली सदर बाजार से लोहारू की थी... इस ट्रेन में 2 ही डब्बे थे.
फिर मैथ के मास्टर से डर कर जब स्कूल गोल करता तो शाहदरा छोटी लाइन के स्टेशन पर घंटो बैठ छोटे-2 डिब्बे व इंजन देखता.
1977 में पठानकोट से कांगड़ा छोटी लाइन में सफर किया तो मन की मुराद पूरी हुई.
और मुझे स्टीम इंजन वाली ट्रेन ही मजेदार लगती है.... दिल्ली में जब कभी ट्रेन देखने का दिल करता है तो रेल म्यूजियम में जाकर भाप के इंजन देखता हूं... इंगलैड में भी पहली बार 800 रुं की टिकट लेकर भाप की गाड़ी में घूमा जो वहां के मयूजियम में है और कुछ किलोमीटर का चक्कर लगाती है 10 पाऊंड में
बचपन की यादें अच्छी लगीं. शुभ यात्रा .
ReplyDeletebhagwan,lage raho neeraj bhai.thanks.
ReplyDeletewow. Military dibba. Mere papa army me hai so aana jana laga rehta hai military dibbe me. Me railfans hone k saath saath military dibba fan bhi hu. .
ReplyDeleteneeraj ji aap ka yatra viritant but hi aacha lag ta hi kabhi chunar se chopan -katani line per yatra ka plan baneye yaha bhi kaphi achyee prakyik najare hai
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