Skip to main content

कांगड़ा का किला

इस यात्रा वृत्तान्त को शुरू से पढने के लिये यहां क्लिक करें
किला - जहाँ कभी एक सभ्यता बसती थी। आज वीरान पड़ा हुआ है। भारत में ऐसे गिने-चुने किले ही हैं, जहाँ आज भी जीवन बसा हुआ है, नहीं तो समय बदलने पर वैभव के प्रतीक ज्यादातर किले खंडहर हो चुके हैं। लेकिन ये खंडहर भी कम नहीं हैं - इनमे इतिहास सोया है, वीरानी और सन्नाटा भी सब-कुछ बयां कर देता है।
...
भारत में किलों पर राजस्थान का राज है। महाराष्ट्र और दक्षिण में भी कई प्रसिद्द किले हैं। मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश में भी किले हैं। दिल्ली में लाल किला और पुराना किला है। लेकिन हिमालय क्षेत्र में बहुत कम किले हैं। क्योंकि हिमालय खुद एक प्राकृतिक किला है। इसमें शिवालिक जैसी मजबूत बाहरी दीवार है। पहाड़ इतने दुर्गम हैं कि किसी आक्रमणकारी की कभी हिम्मत नहीं हुई। फिर भी हिमालय क्षेत्र में कई किले हैं। इनमे से एक है - कोट कांगड़ा यानी कांगड़ा का किला।

...
कांगड़ा शहर से तीन-चार किलोमीटर दूर माझी और बाणगंगा नदियों के बीच में एक सीधी तंग पहाड़ी पर बना है यह किला। कहा जाता है कि इसे महाभारत काल में राजा सुशर्मा ने बनवाया था। यहाँ पहली बार आक्रमण मुस्लिम आक्रान्ता महमूद गजनवी ने 1009 में किया था। गजनवी विजयी हुआ और लाखों की सम्पदा यहाँ से लूट कर ले गया। बाद में 1337 में मुहम्मद बिन तुगलक ने, फिर शेरशाह सूरी के सेनापति ने भी इस पर आक्रमण किया।
...
अपने शासन काल में यह अकबर के राज्य का भी हिस्सा था। वह इसे नगरकोट कहता था। 1782 तक मुगलों का कब्ज़ा रहा। फिर राजा संसारचन्द्र ने रणजीतसिंह के पिता सरदार महासिंह की सहायता से अपने अधीन कर लिया। 1805 में गोरखाओं ने अमरसिंह थापा के नेतृत्व में आक्रमण किया। 1846 में यह अंग्रेजों की छावनी बना।
...
1905 में कांगड़ा घाटी में भयानक विनाशकारी भूकंप आया। उससे अस्सी प्रतिशत आबादी व इमारतें नष्ट हो गयीं। इससे इस किले को बहुत नुकसान पहुंचा। आज भी किला उस भूकंप की कहानी कहता है। जो दीवारें हजारों सालों से बाहरी आक्रमणों को निर्बाध सहती रहीं, इस भूकंप के आगे वे भी ना टिक सकीं। हालाँकि बाद में दरवाजों, दीवारों आदि की मरम्मत भी की गयी, लेकिन किला फिर भी वीरान खंडहर ही है।
...
यह किला आज भी काफी रहस्यमय है। इसमें कई सुरंगें हैं, जिनके गंतव्य का कुछ भी पता नहीं चल सका है। बुर्ज आदि की बनावट भी अन्य किलों की अपेक्षा अलग है। मुख्य द्वार रणजीतसिंह द्वार के नाम से जाना जाता है। मुख्य द्वार के पास ही भारतीय पुरातत्व विभाग का संग्रहालय है। प्रवेश के लिए पांच रूपये का टिकट भी लगता है।
...
यहाँ तक पहुंचना थोडा पेचीदा है। अगर पैदल चल सकते हैं तो कांगड़ा शहर में सुप्रसिद्ध नगरकोट वाली वृजेश्वरी देवी मंदिर के ठीक सामने से ऊपर को रास्ता जाता है। यहाँ से किला मात्र ढाई किलोमीटर दूर है। बाकी गाड़ियों के रास्ते का वहीं पता करना पड़ेगा।

(एक पार्क में लगा शिलापट)
.
(किले के अन्दर जाती सीढियां)
.
(मुख्य प्रवेश द्वार के पास तंग सीढियां)
.
(किले का मुख्य 'भवन'। सामने दाहिने मन्दिर है, बाएं मस्जिद है, दाहिने बराबर में एक मैदान है।)
.
(समय बड़ा बलवान है। कभी यहाँ राजे-महाराजे रहते थे, देश-काल को बदलने की योजनायें बनती थी...)
.
(... और आज?)
.
(कभी इनमे राज्य के अधिकारी और मंत्री रहते होंगे, और आज? छत भी नहीं बची।)
.
(वीरानी और...)
.
(... खंडहर)
.
(लेकिन आस-पास का दृश्य मनमोहक है। माझी और बाणगंगा का संगम)
.
(किले के झरोखों से बाहर का नजारा)
.
(किले के ऊपर से बाहर का नजारा)
.
(वापस मुख्य द्वार की ओर)
.
(सामने खड़ी पहाड़ी पर बना है किला)
.
(यह रास्ता बेहद रपटीला है। क्योंकि इस पर कोई आता-जाता नहीं है। मैं कुछ दूर तक तो इस पर गया था लेकिन रास्ते की वीरानी और सन्नाटेपन की वजह से ज्यादा दूर नहीं जा पाया।)
.
(यह उसी रास्ते पर कुछ दूर एक पीर है। बड़ा ही रहस्यमय लगता है यह। इसके आस-पास कोई नहीं था। अकेला निर्जन में खड़ा हुआ)
.
(संग्रहालय में सलीके से रखी किले से मिली मूर्तियाँ)



धर्मशाला कांगडा यात्रा श्रंखला
1. धर्मशाला यात्रा
2. मैक्लोडगंज- देश में विदेश का एहसास
3. दुर्गम और रोमांचक- त्रियुण्ड
4. कांगडा का किला
5. ज्वालामुखी- एक चमत्कारी शक्तिपीठ
6. टेढा मन्दिर

Comments

  1. मस्त किला है... कभी जोधपुर का किला देखो..

    ReplyDelete
  2. घर बैठे भारत भ्रमण करने का एक आसान तरीका है आपका ब्लौग.

    ReplyDelete
  3. कांगडा के किले की ऐतिहासिक जानकारी और चित्रों के लिये हार्दिक धन्यवाद

    प्रणाम स्वीकार करें

    ReplyDelete
  4. वाह...!
    यह किला देखकर तो नजीबाबाद के सुल्ताना डाकू
    (नजीबुद्दौला) के किले की याद आ गई!

    ReplyDelete
  5. nice pics. no magazine has written so extensively on this area so far.

    ReplyDelete
  6. बहुत बढिया प्रविष्टी, धन्यवाद!

    ReplyDelete
  7. कांगडा के किले की ऐतिहासिक जानकारी के लिये हार्दिक धन्यवाद!

    ReplyDelete

Post a Comment

Popular posts from this blog

आज ब्लॉग दस साल का हो गया

साल 2003... उम्र 15 वर्ष... जून की एक शाम... मैं अखबार में अपना रोल नंबर ढूँढ़ रहा था... आज रिजल्ट स्पेशल अखबार में दसवीं का रिजल्ट आया था... उसी एक अखबार में अपना रिजल्ट देखने वालों की भारी भीड़ थी और मैं भी उस भीड़ का हिस्सा था... मैं पढ़ने में अच्छा था और फेल होने का कोई कारण नहीं था... लेकिन पिछले दो-तीन दिनों से लगने लगा था कि अगर फेल हो ही गया तो?... तो दोबारा परीक्षा में बैठने का मौका नहीं मिलेगा... घर की आर्थिक हालत ऐसी नहीं थी कि मुझे दसवीं करने का एक और मौका दिया जाता... निश्चित रूप से कहीं मजदूरी में लगा दिया जाता और फिर वही हमेशा के लिए मेरी नियति बन जाने वाली थी... जैसे ही अखबार मेरे हाथ में आया, तो पिताजी पीछे खड़े थे... मेरा रोल नंबर मुझसे अच्छी तरह उन्हें पता था और उनकी नजरें बारीक-बारीक अक्षरों में लिखे पूरे जिले के लाखों रोल नंबरों में से उस एक रोल नंबर को मुझसे पहले देख लेने में सक्षम थीं... और उस समय मैं भगवान से मना रहा था... हे भगवान! भले ही थर्ड डिवीजन दे देना, लेकिन पास कर देना... फेल होने की दशा में मुझे किस दिशा में भागना था और घर से कितने समय के लिए गायब रहना था, ...

जिम कार्बेट की हिंदी किताबें

इन पुस्तकों का परिचय यह है कि इन्हें जिम कार्बेट ने लिखा है। और जिम कार्बेट का परिचय देने की अक्ल मुझमें नहीं। उनकी तारीफ करने में मैं असमर्थ हूँ क्योंकि मुझे लगता है कि उनकी तारीफ करने में कहीं कोई भूल-चूक न हो जाए। जो भी शब्द उनके लिये प्रयुक्त करूंगा, वे अपर्याप्त होंगे। बस, यह समझ लीजिए कि लिखते समय वे आपके सामने अपना कलेजा निकालकर रख देते हैं। आप उनका लेखन नहीं, सीधे हृदय पढ़ते हैं। लेखन में तो भूल-चूक हो जाती है, हृदय में कोई भूल-चूक नहीं हो सकती। आप उनकी किताबें पढ़िए। कोई भी किताब। वे बचपन से ही जंगलों में रहे हैं। आदमी से ज्यादा जानवरों को जानते थे। उनकी भाषा-बोली समझते थे। कोई जानवर या पक्षी बोल रहा है तो क्या कह रहा है, चल रहा है तो क्या कह रहा है; वे सब समझते थे। वे नरभक्षी तेंदुए से आतंकित जंगल में खुले में एक पेड़ के नीचे सो जाते थे, क्योंकि उन्हें पता था कि इस पेड़ पर लंगूर हैं और जब तक लंगूर चुप रहेंगे, इसका अर्थ होगा कि तेंदुआ आसपास कहीं नहीं है। कभी वे जंगल में भैंसों के एक खुले बाड़े में भैंसों के बीच में ही सो जाते, कि अगर नरभक्षी आएगा तो भैंसे अपने-आप जगा देंगी।

लद्दाख साइकिल यात्रा- चौथा दिन- मढी से गोंदला

इस यात्रा वृत्तान्त को शुरू से पढने के लिये यहां क्लिक करें । 7 जून 2013, स्थान मढी पांच बजे आंख खुली। सोच रखा था कि आज जितनी जल्दी हो सके, निकल जाना है। बाद में रोहतांग जाने वाली गाडियों का जबरदस्त रेला हमें चलने में समस्या पैदा करेगा। फिर भी निकलते निकलते साढे छह बज गये। सचिन को साइकिल का अच्छा अभ्यास है, वो आगे निकल गया। कुछ आगे चलकर खराब सडक मिली। इस पर कीचड ही कीचड था। जहां तक हो सका, साइकिल पर बैठकर ही चला। बाद में नीचे भी उतरना पडा और पैदल चला। पीछे से गाडियों का काफिला आगे निकलता ही जा रहा था, वे ठहरे जल्दबाज जैसे कि रोहतांग भाग जायेगा, कीचड के छींटे मुझ पर और साइकिल पर भी बहुत पडे। मढी समुद्र तल से 3300 मीटर की ऊंचाई पर है और रोहतांग 3900 मीटर पर, दोनों की दूरी है सोलह किलोमीटर। शुरू में सडक लूप बनाकर ऊपर चढती है। जिस तरह आगे सरचू के पास गाटा लूप हैं, उसी तरह इनका भी कुछ नाम होना चाहिये था जैसे कि मढी लूप। साढे आठ बजे चाय की गाडी मिली। यहां संकरी सडक की वजह से जाम भी लगा था। पन्द्रह मिनट बाद यहां से चल पडा।