Skip to main content

ये लोग गलती से Indian बन गए और आज तक Indian हैं

Source
आजकल मैं एक किताब पढ़ रहा हूँ - Walking the Amazon... इसमें लेखक ने अमेजन नदी के उद्‍गम से संगम तक की पैदल यात्रा की है... उद्‍गम पेरू में है और संगम ब्राजील में... पूरे रास्ते में अत्यधिक घना जंगल पड़ता है, जिसे अमेजन रेनफॉरेस्ट कहते हैं... यह जंगल 5000 किलोमीटर लंबाई में फैला है... इसमें कई शहर तो ऐसे हैं, जहाँ हवाई पट्टी है, लेकिन वे सड़क से नहीं जुड़े हैं... और कम से कम 50 साल में जुड़ेंगे भी नहीं... इनके अलावा हजारों छोटे-बड़े गाँव भी हैं, जिनमें अनगिनत जनजातियाँ निवास करती हैं... ये जनजातियाँ आज भी आदिम जीवन जी रही हैं और पूरी तरह जंगल पर आश्रित हैं और लाखों लोग तो ऐसे हैं, जो कभी अपने गाँव से बाहर ही नहीं निकले...

लेखक ब्रिटिश मूल का है अर्थात गोरा है... लेखक इस यात्रा में अनगिनत गाँवों से होकर गुजरा... ज्यादातर गाँववालों का व्यवहार उसके प्रति आक्रामक था... 

लेकिन एक चीज ने मेरा ध्यान आकर्षित किया... वो यह कि लगभग सभी जनजातीय लोग गोरी चमड़ी वालों को मुँहनोचवा और सिरकाटवा कहते थे... बहुत सारे लोगों ने लेखक को भी मुँहनोचवा माना और हमले तक किए... बहुत सारे गाँववालों ने स्पष्ट घोषणा कर दी कि यदि यह आदमी उनके गाँव में चला आया, तो उसे मार देंगे... 

लेखक ने लिखा कि उनका यह व्यवहार केवल गोरी चमड़ी वालों के लिए ही था... इसने मुझे सोचने को मजबूर कर दिया कि ऐसा क्यों हुआ??... अमेजन के दुर्गम जंगलों में रहने वाले आदिवासी लोग क्यों इतने आक्रामक हुए??...

इसका जवाब दिया प्रवीण वाधवा की एक फेसबुक सिरीज ने, जिसका नाम था South America Omnibus... प्रवीण वाधवा जी ने भी पेरू की और अमेजन के जंगलों की खूब यात्राएँ कर रखी हैं... वाधवा जी बताते हैं:

जब कोलंबस भारत के लिए चला, तो अमेरिका पहुँच गया... उसे लगा कि यह भारत ही है और उसने उस जगह को नाम दिया India... और वहाँ के निवासियों को कहा Indian... उनकी चमड़ी पर लालिमा थी, तो उन्हें Red Indian भी कहा गया, लेकिन सामान्यतः Indian ही कहा जाता रहा... आज भी उन्हें Indian ही कहा जाता है... बाद में जब यह स्पष्ट हो गया कि यह India नहीं है, बल्कि कुछ और ही है, तब तक उनका Indian नाम प्रसिद्ध हो चुका था... फिर तय हुआ कि पूरी दुनिया के सभी स्थानीय वनवासियों को Indian ही कहा जाए... Indigenous शब्द भी इसी अवधारणा से बना है... खैर...

स्पेन ने दक्षिण अमेरिका पर कब्जा करना शुरू कर दिया... स्पेनिश सेनाएँ गईं और जंगलों से लकड़ी, मसाले व चांदी लूटकर स्पेन भेजने लगे... इन्होंने स्थानीय निवासियों पर भयंकर अत्याचार किए और लाखों लोगों को मारा भी... स्पेनिशों की कालोनियाँ बसीं, लोगों को ईसाई बनाया गया, भाषा-परिवर्तन और संस्कृति परिवर्तन भी हुए... स्थानीय निवासी अमेजन के जंगलों में भाग गए... 

बाद में बहुत सारे स्पेनिशों ने स्थानीय युवतियों से विवाह किए, बच्चे पैदा किए और स्थायी रूप से यहीं बस गए... आज के समय में पेरू आदि देशों में तीन तरह के लोग रहते हैं... स्पेनिश मूल के लोग, जो गोरे होते हैं... स्थानीय निवासी अर्थात Indian... और इनका सम्मिश्रण... 

चूँकि गोरे लोगों ने कई सौ वर्षों तक स्थानीय निवासियों पर भयंकर अत्याचार किए थे, इसलिए वे गोरों के दुश्मन बन गए... वे जंगलों में रहने वाले सीधे-सादे लोग हैं, इसलिए गोरों के प्रति बहुत सारी किंवदंतियाँ भी बन गईं, जिन्हें वे आज भी सच मानते आ रहे हैं... 

आज जहाँ जंगल में बड़े शहर हैं, वहाँ तो गोरों का उतना विरोध नहीं होता, लेकिन दूर जंगलों में गोरों को देखते ही मार डालने की प्रथा है... 

इसका एक और भी कारण है... शिक्षा और रोजगार के अवसरों की कमी के कारण स्थानीय लोग जंगलों में अफीम आदि उगाते हैं... चूँकि वहाँ सड़क आदि नहीं है, इसलिए जंगलों का बहुत बड़ा हिस्सा पुलिस और कानून व्यवस्था से दूर है... स्थानीय लोगों के अपने पैदल रास्ते हैं, जिनसे होकर वे ड्रग को शहर तक पहुँचा देते हैं... फिर शहरों में एजेंट सक्रिय होते हैं और नशे की यह सारी खेप मैक्सिको तक पहुँच जाती है और आखिर में अमेरिका... 

तो कुल मिलाकर जंगलों में ड्रग ट्रैफिकिंग नेटवर्क बहुत मजबूत है... पुलिस इन्हें रोकने और पकड़ने की कोशिशें करती है... तो ये किसी पर संदेह होते ही मार देते हैं... इनके पास गन और तलवार हमेशा रहती है... इनके अलावा ये जहर बुझे तीरों का भी प्रयोग करते हैं...

लगातार पेरू और अमेजन के दो किस्से पढ़ने के बाद अब मैं पेरू और अमेजन को समझने लगा हूँ... संभव है कि आगे और भी कोई ऐसी ही बात आपके साथ साझा करूँ...

Comments

  1. धन्यवाद नीरज जी ज्ञानवर्धन के लिए

    ReplyDelete
  2. धन्यवाद नीरज जी ज्ञानवर्धन के लिए

    ReplyDelete
  3. किताब रोचक लग रही है.. पढ़ने की कोशिश रहेगी....

    ReplyDelete
  4. बहुत खूब... हमेशा की तरह एक और जानकारी से भरपूर लेख। आभार, नीज भाई

    ReplyDelete
  5. बहुत बढ़िया नीरज जी। उम्दा लेखन प्रस्तुति के साथ विस्तृत जानकारी मिली।

    ReplyDelete
  6. किताब के बारे में बताने के लिए धन्यवाद. वाकई बेहद रोचक और प्रेरक किताब है.

    ReplyDelete
  7. धन्यवाद नीरज जी।
    शायद आप भी कभी आमेजन की यात्रा पर निकल पड़े

    ReplyDelete

Post a Comment

Popular posts from this blog

स्टेशन से बस अड्डा कितना दूर है?

आज बात करते हैं कि विभिन्न शहरों में रेलवे स्टेशन और मुख्य बस अड्डे आपस में कितना कितना दूर हैं? आने जाने के साधन कौन कौन से हैं? वगैरा वगैरा। शुरू करते हैं भारत की राजधानी से ही। दिल्ली:- दिल्ली में तीन मुख्य बस अड्डे हैं यानी ISBT- महाराणा प्रताप (कश्मीरी गेट), आनंद विहार और सराय काले खां। कश्मीरी गेट पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन के पास है। आनंद विहार में रेलवे स्टेशन भी है लेकिन यहाँ पर एक्सप्रेस ट्रेनें नहीं रुकतीं। हालाँकि अब तो आनंद विहार रेलवे स्टेशन को टर्मिनल बनाया जा चुका है। मेट्रो भी पहुँच चुकी है। सराय काले खां बस अड्डे के बराबर में ही है हज़रत निजामुद्दीन रेलवे स्टेशन। गाजियाबाद: - रेलवे स्टेशन से बस अड्डा तीन चार किलोमीटर दूर है। ऑटो वाले पांच रूपये लेते हैं।

रुद्रनाथ यात्रा- पंचगंगा से अनुसुईया

27 सितम्बर 2015    सवा ग्यारह बजे पंचगंगा से चल दिये। यहीं से मण्डल का रास्ता अलग हो जाता है। पहले नेवला पास (30.494732°, 79.325688°) तक की थोडी सी चढाई है। यह पास बिल्कुल सामने दिखाई दे रहा था। हमें आधा घण्टा लगा यहां तक पहुंचने में। पंचगंगा 3660 मीटर की ऊंचाई पर है और नेवला पास 3780 मीटर पर। कल हमने पितरधार पार किया था। इसी धार के कुछ आगे नेवला पास है। यानी पितरधार और नेवला पास एक ही रिज पर स्थित हैं। यह एक पतली सी रिज है। पंचगंगा की तरफ ढाल कम है जबकि दूसरी तरफ भयानक ढाल है। रोंगटे खडे हो जाते हैं। बादल आने लगे थे इसलिये अनुसुईया की तरफ कुछ भी नहीं दिखाई दे रहा था। धीरे-धीरे सभी बंगाली भी यहीं आ गये।    बडा ही तेज ढलान है, कई बार तो डर भी लगता है। हालांकि पगडण्डी अच्छी बनी है लेकिन आसपास अगर नजर दौडाएं तो पाताललोक नजर आता है। फिर अगर बादल आ जायें तो ऐसा लगता है जैसे हम शून्य में टंगे हुए हैं। वास्तव में बडा ही रोमांचक अनुभव था।

लद्दाख साइकिल यात्रा का आगाज़

दृश्य एक: ‘‘हेलो, यू आर फ्रॉम?” “दिल्ली।” “व्हेयर आर यू गोइंग?” “लद्दाख।” “ओ माई गॉड़! बाइ साइकिल?” “मैं बहुत अच्छी हिंदी बोल सकता हूँ। अगर आप भी हिंदी में बोल सकते हैं तो मुझसे हिन्दी में बात कीजिये। अगर आप हिंदी नहीं बोल सकते तो क्षमा कीजिये, मैं आपकी भाषा नहीं समझ सकता।” यह रोहतांग घूमने जा रहे कुछ आश्चर्यचकित पर्यटकों से बातचीत का अंश है। दृश्य दो: “भाई, रुकना जरा। हमें बड़े जोर की प्यास लगी है। यहाँ बर्फ़ तो बहुत है, लेकिन पानी नहीं है। अपनी परेशानी तो देखी जाये लेकिन बच्चों की परेशानी नहीं देखी जाती। तुम्हारे पास अगर पानी हो तो प्लीज़ दे दो। बस, एक-एक घूँट ही पीयेंगे।” “हाँ, मेरे पास एक बोतल पानी है। आप पूरी बोतल खाली कर दो। एक घूँट का कोई चक्कर नहीं है। आगे मुझे नीचे ही उतरना है, बहुत पानी मिलेगा रास्ते में। दस मिनट बाद ही दोबारा भर लूँगा।” यह रोहतांग पर बर्फ़ में मस्ती कर रहे एक बड़े-से परिवार से बातचीत के अंश हैं।