Skip to main content

पुस्तक चर्चा: दूर दुर्गम दुरुस्त (उमेश पंत)



पुस्तक: दूर दुर्गम दुरुस्त
लेखक: उमेश पंत
प्रकाशक: राजकमल
ISBN: 978-93-89577-28-0
पृष्‍ठ: 224
मूल्य: 250 रुपये

उमेश पंत जी की पहली किताब ‘इनरलाइन पास’ ने सफलता के झंडे गाड़े। इनकी वह किताब उत्तराखंड में आदि कैलाश ट्रैक पर आधारित है और प्रत्येक ट्रैक की तरह रोमांच से भरपूर है।
अब जैसे ही इनकी दूसरी यात्रा किताब ‘दूर दुर्गम दुरुस्त’ आई, तो यह तो पक्का था कि यह भी रोमांच से भरपूर ही होगी। किताब पूर्वोत्तर की यात्राओं पर आधारित है। उमेश भाई ने इसके लिए दो बार पूर्वोत्तर की यात्राएँ कीं... फरवरी 2018 में और दिसंबर 2018 में। फरवरी में ये ट्रेन से गुवाहाटी पहुँचे और कुछ समय गुवाहाटी में रुककर मेघालय की ओर निकल गए। मेघालय में ये चेरापूंजी के पास डबल डेकर लिविंग रूट ब्रिज गए और डावकी भी गए। यहाँ मेरी एक शिकायत है कि इनके पास समय की कोई कमी नहीं थी, इसलिए इन्हें चेरापूंजी और डावकी में कम से कम एक-एक दिन रुकना चाहिए था। लेकिन खैर, कोई बात नहीं। सबकी अपनी-अपनी प्राथमिकताएँ और योजनाएँ होती हैं।
मेघालय से वापस असम आए और सीधे पहुँचे तेजपुर। तेजपुर में इन्हें एक दिन अतिरिक्त रुकना पड़ा, क्योंकि उस दिन अरुणाचल के लिए इनरलाइन पास नहीं बन सका। अगर मैं होता, तो समय बिताने काजीरंगा जा पहुँचता या नामेरी नेशनल पार्क भी दूर नहीं था। लेकिन उमेश भाई ने तेजपुर शहर में ही समय बिताना ठीक समझा और कभी पैदल, तो कभी मित्र के साथ तेजपुर घूमे।
फिर इन्होंने अरुणाचल में प्रवेश किया और बोमडीला रुके। अगले दिन तवांग और अप्रत्याशित रूप से तीसरे दिन गुवाहाटी लौट आए। और चौथे दिन जब ये गुवाहाटी से माजुली गए, तो मैं हैरान रह गया। हैरान इसलिए क्योंकि तीसरे दिन तवांग से गुवाहाटी लौटते समय ये तेजपुर से होकर गुजरे थे और चौथे दिन गुवाहाटी से माजुली जाते समय भी तेजपुर के काफी नजदीक से ही होकर जाना होता है। अगर पहले से प्लानिंग होती, तो तेजपुर में उतरकर गाड़ी बदलकर गुवाहाटी जाए बिना ही सीधे माजुली जा सकते थे और बेवजह की 400 किलोमीटर की बस यात्रा व उसके खर्चे से भी बच सकते थे।
एक दिन माजुली में रुककर ये फिर गुवाहाटी आ गए। इन्होंने काजीरंगा नहीं देखा। काजीरंगा नेशनल पार्क एक विश्व विरासत स्थल भी है और इसे न देख पाने की टीस जितनी उमेश भाई को थी, उससे ज्यादा मुझे महसूस हो रही है।
गुवाहाटी से अगरतला जाने के लिए इन्होंने बस का टिकट भी बुक कर लिया था, लेकिन तभी इरादा बदल गया और अगरतला न जाकर दिल्ली वापस लौट आए।
उमेश भाई ने 21 दिन की यह यात्रा अकेले की। चूँकि अच्छा यात्री अक्सर योजना बनाकर नहीं निकलता, इसलिए कई बार कुछ जगहें छूट जाती हैं और कई बार यात्राओं में बेवजह ज्यादा समय लग जाता है। हम भी अक्सर इस समस्या से जूझते रहते हैं। लेकिन चलने से पहले पूरे क्षेत्र का मोटा-मोटी नक्शा बना लेने से इस समस्या से बचा जा सकता है। मुझे पूरा विश्वास है कि अगर उमेश भाई को काजीरंगा का पता होता, तो वे काजीरंगा जरूर देखते। उन्होंने गुवाहाटी में कई दिन लगाए हैं और दो-तीन दिन तो वास्तव में बुरी तरह बर्बाद भी हुए हैं।
संयोग से ठीक उसी दौरान हम भी पूर्वोत्तर में अपनी मोटरसाइकिल से घूम रहे थे, लेकिन उमेश भाई ने मिलना नहीं हो पाया।

इनकी दूसरी यात्रा थी नागालैंड और मणिपुर की... दिसंबर 2018 में। मैं इन दोनों राज्यों में नहीं गया हूँ और इन्होंने यात्रा भी एकदम सधे हुए शेड्यूल में की। इसलिए दूसरा भाग पढ़ने का अलग ही आनंद रहा।

उमेश भाई की असली ताकत उनकी लेखन-शैली है। भले ही पहली यात्रा में इनका कुछ समय खराब हुआ हो, अकेलापन हावी रहा हो, लेकिन लिखने का अंदाज ऐसा है कि पाठक भी कभी उस अकेलेपन को महसूस करता है, तो कभी उत्साह से लबरेज हो जाता है।

किताब में कुछ त्रुटियाँ भी हैं, जिन्हें अगले संस्करण में ठीक किया जाना चाहिए...
1. पेज 24... कामाख्या स्टेशन को ‘महालक्ष्मी’ लिखा है। मुंबई छत्रपति शिवाजी स्टेशन से जस्ट पहले लोकल स्टेशन है महालक्ष्मी और इधर गुवाहाटी स्टेशन से जस्ट पहले स्टेशन है कामाख्या। दोनों ही नाम देवी के नाम पर हैं, इसलिए उमेश भाई को कन्फ्यूजन हो गया और कामाख्या को महालक्ष्मी लिख दिया।
2. पेज 102, पैरा 3... तिब्बत को डिब्बत लिख दिया है।
3. पेज 149... दूसरी यात्रा असम, नागालैंड और मणिपुर की थी, जबकि लिखा है कि यात्रा असम, मेघालय, अरुणाचल प्रदेश की है।
4. यह गलती तो नहीं है, लेकिन थोड़ा अटपटा लग रहा है। हो सकता है कि राजकमल प्रकाशन ऐसा करता हो या उन्होंने कोई नया प्रयोग किया हो। किताब में बायीं तरफ पेज नंबर नहीं लिखे हैं।

ये तो किताब की गलतियाँ थीं... लेकिन असली बात तो उमेश भाई के लेखन में है। लिखते हैं... पूर्वोत्तर दूर है, दुर्गम भी है, लेकिन दुरुस्त है। अपने पूर्वाग्रह अपने घर पर छोड़कर जाओ, तभी असली पूर्वोत्तर देखने को मिलेगा। लेकिन अपने पूर्वाग्रह लेकर जाओगे, तो परेशान हो जाओगे। उमेश भाई को यात्रा पर जाने से पहले और यात्रा के दौरान बहुत सारे लोगों ने डराया भी, लेकिन ये नहीं माने। इसी का नतीजा रहा कि पूरी यात्रा में इन्हें शानदार अनुभव हुए और शानदार लोग मिले। आप स्वयं जैसे होते हो, वैसे ही आपको लोग मिलते हैं।

लॉकडाउन के कारण किताब अमेजन पर अभी उपलब्ध नहीं है, लेकिन आप इसे सेव कर लीजिए। जैसे ही देश में लॉकडाउन हटेगा, किताब अमेजन पर उपलब्ध हो जाएगी।

Comments

  1. नीरज सर, मुम्बई छत्रपति शिवाजी टर्मिनस वाली लाइन पर महालक्ष्मी स्टेशन नहीं है। यह स्टेशन चर्चगेट से बोरीवली जाते समय पश्चिम रेल्वे लाइन पर मौजूद है।

    ReplyDelete

Post a Comment

Popular posts from this blog

स्टेशन से बस अड्डा कितना दूर है?

आज बात करते हैं कि विभिन्न शहरों में रेलवे स्टेशन और मुख्य बस अड्डे आपस में कितना कितना दूर हैं? आने जाने के साधन कौन कौन से हैं? वगैरा वगैरा। शुरू करते हैं भारत की राजधानी से ही। दिल्ली:- दिल्ली में तीन मुख्य बस अड्डे हैं यानी ISBT- महाराणा प्रताप (कश्मीरी गेट), आनंद विहार और सराय काले खां। कश्मीरी गेट पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन के पास है। आनंद विहार में रेलवे स्टेशन भी है लेकिन यहाँ पर एक्सप्रेस ट्रेनें नहीं रुकतीं। हालाँकि अब तो आनंद विहार रेलवे स्टेशन को टर्मिनल बनाया जा चुका है। मेट्रो भी पहुँच चुकी है। सराय काले खां बस अड्डे के बराबर में ही है हज़रत निजामुद्दीन रेलवे स्टेशन। गाजियाबाद: - रेलवे स्टेशन से बस अड्डा तीन चार किलोमीटर दूर है। ऑटो वाले पांच रूपये लेते हैं।

जिम कार्बेट की हिंदी किताबें

इन पुस्तकों का परिचय यह है कि इन्हें जिम कार्बेट ने लिखा है। और जिम कार्बेट का परिचय देने की अक्ल मुझमें नहीं। उनकी तारीफ करने में मैं असमर्थ हूँ क्योंकि मुझे लगता है कि उनकी तारीफ करने में कहीं कोई भूल-चूक न हो जाए। जो भी शब्द उनके लिये प्रयुक्त करूंगा, वे अपर्याप्त होंगे। बस, यह समझ लीजिए कि लिखते समय वे आपके सामने अपना कलेजा निकालकर रख देते हैं। आप उनका लेखन नहीं, सीधे हृदय पढ़ते हैं। लेखन में तो भूल-चूक हो जाती है, हृदय में कोई भूल-चूक नहीं हो सकती। आप उनकी किताबें पढ़िए। कोई भी किताब। वे बचपन से ही जंगलों में रहे हैं। आदमी से ज्यादा जानवरों को जानते थे। उनकी भाषा-बोली समझते थे। कोई जानवर या पक्षी बोल रहा है तो क्या कह रहा है, चल रहा है तो क्या कह रहा है; वे सब समझते थे। वे नरभक्षी तेंदुए से आतंकित जंगल में खुले में एक पेड़ के नीचे सो जाते थे, क्योंकि उन्हें पता था कि इस पेड़ पर लंगूर हैं और जब तक लंगूर चुप रहेंगे, इसका अर्थ होगा कि तेंदुआ आसपास कहीं नहीं है। कभी वे जंगल में भैंसों के एक खुले बाड़े में भैंसों के बीच में ही सो जाते, कि अगर नरभक्षी आएगा तो भैंसे अपने-आप जगा देंगी।

कोसम्बा से उमरपाडा नैरोगेज ट्रेन यात्रा

9 मार्च 2016 मुम्बई से आने वाली अहमदाबाद पैसेंजर आधा घण्टा लेट थी लेकिन इतनी लेट भी नहीं थी कि मुझे कोसम्बा पहुंचने में विलम्ब हो जाये। कोसम्बा से मेरी उमरपाडा वाली नैरोगेज की ट्रेन सुबह साढे नौ बजे थी और मैं साढे आठ बजे ही कोसम्बा पहुंच गया। टिकट लिया और भरूच से आने वाले नीरज जी का इंतजार करने लगा। विमलेश चन्द्र जी के बारे में मैंने पिछली पोस्ट में भी बताया था। इस यात्रा में मुझे कोई दिक्कत न हो, इस बात का ख्याल सैकडों किलोमीटर दूर भावनगर में बैठे विमलेश जी ने खूब रखा। कार्यक्रम उन्हें मालूम ही था - इसलिये कब कहां मुझे होना है, इसे भी वे भली-भांति जानते थे। इसी का नतीजा था कि यहां सी.एण्ड.डब्लू. में वरिष्ठ खण्ड अभियन्ता नीरज जी मिले। नीरज जी को भरूच से आना था और वे वडोदरा-भिलाड एक्सप्रेस से आये। सुबह का समय था और कोसम्बा के एक तरफ भरूच है और एक तरफ सूरत - खूब भीड होना लाजिमी था। भिलाड एक्सप्रेस चली गई तो पीछे-पीछे ही भुज-बान्द्रा आ गई और सारी भीड को उठाकर ले गई। कोसम्बा में अब जो थोडे से ही यात्री बचे थे, वे प्लेटफार्म नम्बर तीन पर थे और मुझे उनके साथ यात्रा करनी थी।