कुछ दिन पहले मैं देहरादून के पास उदय झा जी के यहाँ बैठा था। उनका घर विकासनगर शहर से बाहर खेतों में है। चारों तरफ खेत हैं और बासमती की कटाई हो चुकी है। अब गेहूँ की बुवाई की जाएगी।
अब चूँकि मैं आजीविका के लिए पूरी तरह पर्यटन के क्षेत्र में उतर चुका हूँ, इसलिए बातों-बातों में उदय जी ने पूछा - “पर्यटन के क्षेत्र में बहुत ज्यादा कंपटीशन है। कैसे सर्वाइव करोगे?”
मैंने कहा - “कंपटीशन जरूर है, लेकिन यह क्षेत्र अनंत संभावनाओं वाला है। आप वहाँ खेत में दस खाटें बिछा दो और प्रचार कर दो। जल्दी ही वे ऑनलाइन बुक होने लगेंगी और ‘हाउसफुल’ हो जाएँगी और आपको पचास खाटें और खरीदनी पड़ जाएँगी।”
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पिछले महीने जब मैं अपनी नई किताब ‘अनदेखे पहाड़’ के विमोचन के लिए उत्तराखंड में कहीं जगह तलाश रहा था, तो मैंसेंजर पर स्तुति समन्वय जी का मैसेज आया - “ग्रामानंदा रुड़की और हरिद्वार के बीच है। खेतों के बीच सुंदर एवं छोटा-सा घर है; ट्यूबवेल है; छप्पर है। एक कोशिश है, शहर के बच्चों और परिवारों को गाँव दिखाने की। शिशिर आईआईटी रुड़की के ग्रेजुएट हैं और मेरे जीवन साथी हैं। यह उनका प्रयास है। आपकी बुक लांच का सुंदर-सा इवेंट ऑर्गेनाइज कर सकते हैं।”
मेरे कान खड़े हो गए। हालाँकि किताब का विमोचन हम पहाड़ों के बीच में करना चाहते थे, शायद ऋषिकेश। लेकिन ‘रुड़की और हरिद्वार के बीच में’ तो पूरी तरह मैदान है। वहाँ इन लोगों ने कुछ प्रयास किया है। इसकी जानकारी लेनी होगी।
मैंने गूगल मैप खंगाला - Gramananda... लोकेशन मिली रुड़की के उत्तर में 20 किलोमीटर और भगवानपुर के उत्तर-पूर्व में 13 किलोमीटर दूर। लोकेशन देखते ही मैं उत्साहित हो गया। क्योंकि यह मैदानी क्षेत्र है और यहाँ की संस्कृति हमारे मेरठ की संस्कृति जैसी ही है। वही बोलचाल, वही पहनावा, वही खेत, वही पैदावार और वैसे ही गाँव-घर। हमारे गाँवों में पर्यटन की भावना बिल्कुल भी नहीं है और ऐसा प्रयास करने वाले को तमाम चुनौतियों का सामना करना पड़ेगा।
यही सोचते-सोचते उस दिन इस लोकेशन को गूगल मैप पर सेव कर लिया। कल जब मैं भगवानपुर के पास मनीष वत्स जी के घर पर था और समय की भारी अधिकता थी, तो सोचा कि यहाँ का एक चक्कर लगा लिया जाए। स्तुति जी से बात की, तो उन्होंने बताया कि वहाँ अभी कोई नहीं मिलेगा, लेकिन शाम को वे लोग वहाँ पहुँच जाएँगे। मैं समय बिताने पतंजलि चला गया और रजनीश जी के साथ वहाँ का शुद्ध सात्विक भरपेट भोजन किया। आज मेरा भाग्य अच्छा था कि लौकी की सब्जी नहीं बनी थी। आलू-सोयाबीन की सब्जी थी, जिसे मैंने पेट के उन गुप्त कोनों में भी ठूँस लिया था, जहाँ अत्यधिक स्वादिष्ट भोजन कभी-कभार ही ठूँसा जाता है।
दोपहर बाद तीन बजे स्तुति जी रुड़की से चलीं और मैं पतंजलि से। कलियर से आगे हमारा रास्ता एक ही था, इसलिए वे मेरे आने की प्रतीक्षा करने लगीं। मैंने उन्हें प्रतीक्षा करने को मना कर दिया। वे आगे निकल गईं।
अब मैंने फिर से गूगल मैप देखा। Gramanandaa की लोकेशन सही है भी या नहीं, यह चेक करने को सैटेलाइट मोड चेक किया। पास में एक बरसाती नदी थी और चारों तरफ खेत थे। मैप में जिस स्थान पर Gramananda लिखा है, उस स्थान पर किसी भी तरह की कोई भी इमारत नजर नहीं आई। कुछ भी नहीं।
इसके दो मतलब होते हैं। पहला मतलब है कि गूगल मैप के सैटेलाइट ने जब इस क्षेत्र का आखिरी फोटो लिया था, उसके बाद इन्होंने यहाँ कुछ कंस्ट्रक्शन किया। हो सकता है कि सैटेलाइट ने आखिरी फोटो एक साल पहले लिया हो या दो साल पहले लिया हो। यदि ऐसा होता, तो मुझे चिंतित होने की कोई आवश्यकता नहीं थी।
लेकिन इसका दूसरा मतलब यह भी हो सकता है कि उन्होंने गलती से गलत लोकेशन डाल दी हो। जानकारी के अभाव में ऐसा भी अक्सर हो जाता है। यह मेरे लिए चिंता करने का कारण था। वहाँ पहुँचकर शायद नेटवर्क न मिले, फोन पर बात न हो, नेट न मिले।
“अच्छा ये बताइए... वहाँ जिओ चलेगा क्या?” मैंने फोन करके पूछा।
“जिओ और एयरटेल सब शानदार चलेंगे।”
“दूसरी बात... ग्रामानंदा की लोकेशन नदी पार करके है क्या?”
“हाँ जी।”
“उस रास्ते से दो खेत छोड़कर है क्या?”
“हाँ जी।”
बस, अब मैं कन्फर्म हो गया। इब्राहिमपुर मसाही गाँव तक पक्की सड़क बनी थी। उसके बाद खडंजा मिला और जल्दी ही कच्चा रास्ता आ गया। नदी पर कोई पुल नहीं है, लेकिन यह बरसाती नदी है, इसलिए बारिश को छोड़कर बाकी साल सूखी ही रहती है। सर्दियों में जरा-सा पानी होता है। यह नदी रुड़की के पास सोलानी में मिल जाती है और सोलानी नदी मुजफ्फरनगर जिले में शुक्रताल के पास गंगाजी की एक धारा में मिलकर गंगाजी बन जाती है।
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अब आते हैं असली कहानी पर। शिशिर जी ने रुड़की आईआईटी से ग्रेजुएशन करने के बाद यहाँ अपने गाँव में अपने खेतों में काम शुरू किया। उनका साथ दिया उनकी पत्नी स्तुति ने। दोनों एक जैसा सोचते थे, इसलिए सारे काम संभव होते चले गए। फिर घरवालों का भी भरपूर सहयोग मिला। इनके खेत के एक कोने में एक छोटी-सी इमारत बनी है, जिसमें एक हॉल है, एक किचन है, शौचालय है और ट्यूबवेल है। ट्यूबवेल का पानी तीन कुंडों में जाता है, जो क्रमशः कम गहरे होते जाते हैं। ये कुंड परंपरागत ट्यूबवेल के मुकाबले बहुत बड़े हैं और आपको स्वीमिंग पूल का एहसास कराते हैं। इनके अलावा बड़े-बड़े दो चबूतरे भी हैं। एक पर छप्पर है और दूसरे पर छप्पर नहीं है। छप्पर वाले में खाट बिछी है और बिना छप्पर वाले में टैंट लग जाते हैं और खेतों के बीच कैंपिंग का आनंद मिलता है। बगल में नदी है। नदी में रेत भरपूर है।
हरिद्वार भले ही राजनैतिक रूप से उत्तराखंड के गढ़वाल क्षेत्र में आता हो, लेकिन यह लगभग पूरा जिला मैदानी है। यहाँ की संस्कृति भी मैदानी ही है, जो यूपी के सहारनपुर, मुजफ्फरनगर और मेरठ जिलों जैसी ही है। खान-पान, रीति-रिवाज सब मैदानी हैं। अपने खेतों में परंपरागत खेती के अलावा कोई अन्य खेती करना ठीक नहीं माना जाता। परंपरागत में गन्ना, धान, गेहूँ और हरा चारा आते हैं। और कैंपिंग जैसा कोई कॉन्सेप्ट है ही नहीं। ऊपर से अत्यधिक पढ़ा-लिखा लड़का और उसकी पत्नी शहर में नौकरी न करके यदि खेतों में कुछ काम करते हैं, तो आसपास के गाँवों में भी खुसर-पुसर होने लगती है। बहू का अपने ससुर आदि के सामने घूंघट करना आवश्यक समझा जाता है। और जब स्तुति जी सहज होकर नंगे सिर रहती हैं, सबसे बातें करती हैं, तो गाँव की बूढ़ी औरतों में हड़कंप मचता होगा। वे बूढ़ी औरतें अपनी बहुओं को स्तुति से बचकर रहने की सख्त हिदायत देती होंगी।
और अक्सर स्तुति को यहाँ अकेले भी रहना होता है - गाँव से दूर खेतों में एकदम अकेले। और उस समय अगर इनके यहाँ कोई यात्री ठहरने आ गया (जैसे मैं पहुँच गया)... तब की सिचुएशन की कल्पना वही कर सकता है, जो इस क्षेत्र का निवासी हो।
“भाई, हमारा मन ना लगता गाम में। सब एक-दूसरे की चुगली करै हैंगे। म्हारा तो जी यहाँ खेत में ही लगै है। जब जी करै, टूवेल में न्हा लो... जब जी करै, रोट्टी खा लो... जब जी करै, चाय पी लो, छाए पी लो... अर जब जी करै, खाट पै पड़कै सो जाओ।” शिशिर के चाचा ने कहा।
इसका मतलब है कि इनका पूरा परिवार इनके साथ है। बस, परिवार साथ है, यही सबसे बड़ी सपोर्ट है। अब गाँव में चाहे जो बातें होती हों, होती रहें।
अब आप यह भी पूछेंगे कि यहाँ ठहरने का खर्चा कितना है। मुझे भी नहीं पता। चलिए, इन्हीं से पूछ लेते हैं:
“यह हमारा घर है। यह ठीक है कि हमने कुछ व्यवस्थाएँ की हैं और कुछ लोगों के ठहरने की व्यवस्था कर रखी है, लेकिन हमने बेसिकली यह सब अपने लिए और अपने सुकून के लिए किया है। अगर लोगों के आने से हमारा सुकून समाप्त होता है, तो हमारा उद्देश्य ही समाप्त हो जाएगा। हम नहीं चाहते कि गैर-जरूरी लोग यहाँ आएँ और हमें उनकी इच्छाओं की पूर्ति करनी पड़े या उनकी रखवाली के लिए चौकीदार रखना पड़े।
कभी-कभी मन में आता है कि महीने में दो दिन डिसाइड करके 40-50 लोगों को इनवाइट करें और पूरा कार्यक्रम बनाया जाए। जैसे सुबह इतने बजे से इतने बजे तक योग-ध्यान, इतने बजे ब्रेकफास्ट, इतने बजे से इतने बजे तक गाँव के रास्तों पर दो-चार किलोमीटर तक पैदल भ्रमण, फिर लंच, खेलकूद, गिल्ली-डंडा, कंचे, रिवर बीच, खेत में काम... अनगिनत एक्टिविटी यहाँ हो सकती हैं।
हम स्वयं ज्यादातर समय बाहर ही रहते हैं। सप्ताह में दो या तीन दिन के लिए ही यहाँ आ पाते हैं। तो बाकी समय भी यहाँ कोई ताला नहीं लगता। कभी नहीं। इसलिए कोई अगर आना चाहता है, तो पहले हमसे बात कर ले; हो सकता है कि किचन आदि में किसी सामान की आवश्यकता हो... फिर आराम से आकर रहे; बनाए; खाए और साफ-सफाई करके चला जाए। और हाँ, आते-जाते लोगों से राम-राम करता रहे।
हमने अभी कोई टैरिफ डिसाइड नहीं किया है, लेकिन हम इसे काफी ऊँचा रखेंगे। लेकिन अगर कोई इसे आम टूर न मानकर वाकई ग्रामीण जीवन देखना चाहता है और जीना चाहता है, तो तब हमें भी बहुत अच्छा लगेगा और तब पैसे महत्वपूर्ण नहीं होंगे।
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अब जरा कल्पना कीजिए... आप अपने परिवार के साथ छुट्टियाँ मनाने यहाँ आए हैं। यदि आपने सोच लिया कि वातानुकूलित कमरे मिलेंगे, मार्बल का फर्श और चकाचौंध वाला माहौल होगा, तो आपको निराशा होगी। इन्होंने अपने यहाँ कोई बाउंड्री नहीं बनाई है। आपको चारों तरफ क्षितिज दिखेगा। कोई दीवार आड़े नहीं आएगी। यदि आपका मन खेत में कुछ काम करने का है, तो आपको फावड़ा और कुदाल पकड़ा दिए जाएँगे। ट्रैक्टर भी आपके हवाले कर दिया जाएगा। आप एक दिन के लिए किसान बन सकते हैं। अपनी खेती कर सकते हैं और कुछ महीने बाद पुनः जाकर उसे काट भी सकते हैं। आज यहाँ सरसों बोई जा रही है। एक-डेढ़ महीने बाद ही वो सरसों भर-भरकर फूल उठेगी। तब यहाँ का नजारा मनमोहक होगा।
चलिए, अब लेख समाप्त करता हूँ। गाँव में चाची के यहाँ से चने और पालक का साग बनकर आने वाला है। साथ में कटोरा भरकर नौनी घी भी आएगा। मट्ठा भी आएगा।
वाह
ReplyDeleteपड़ के ही आनंद आ गया।
तो वहाँ रहने का कितना मज़ा आएगा।
“कभी कभी कितनी मोहक
सी लगती है ज़िंदगी
तो कभी हैरान परेशान
करती है ज़िंदगी। “
परिवार के साथ आये, विचार और मन दोनों शुद्ध होते हैं।
Deleteअच्छी जानकारी है,क्या खाने पीने का इंतजाम खुद करना पड़ेगा, जैसे पकाना, और सामान कहां से आयेगा अगर शुद्ध देसी गांव वाला खाना हो तो।
ReplyDeleteकाफी सामान रहता है किचन में,थोड़ी सब्जियां वगेरह लाना होता है। गाँव का खाना भी मिल जाएगा। अक्सर मैं ही बनाती हूँ।
Deleteआने का विचार बने तो 9358462419 स्तुति को संपर्क कर लें।
Bahut acha laga padh ke,,,
ReplyDeleteअच्छा लेख। जानकर अच्छा लगता है कि शिशिर जी जैसे लोग भी हैं इधर। उम्मीद है उनका यह प्रयास सफल रहेगा और दूसरे लोग भी उनसे प्रेरणा लेंगे।
ReplyDeleteगांव
ReplyDeleteaakhri line mast
ReplyDeleteशानदार 🙏👍👍👍
ReplyDeleteनहाना तो जरुरी होता ही है चाहे 0 डिग्री हो 😀😀😀
स्तुति जी का बहुत सराहनीय प्रयास है...आधुनिक जीवन के कोलाहल से दूर सुकून के दो पल बिताने का ठौर मिल जाए...बंधन मुक्त और सरल माहौल में। हमारी शुभकामना...आगे बढ़ते रहिए!!
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