पिछले दिनों किसी ने एक फेसबुक ग्रुप में एक फोटो डाला, जो किसी किताब के एक पन्ने का फोटो था। उन्होंने इस किताब की जानकारी चाही थी। उस पन्ने पर सबसे ऊपर लिखा था - लद्दाख-यात्रा की डायरी। फिर साइबर एक्सपर्ट प्रकाश यादव जी ने पता नहीं कहाँ से ढूँढ़कर इस किताब को डाउनलोड करने का लिंक उपलब्ध करा दिया। मैंने भी यह किताब डाउनलोड कर ली। आप भी इसे डाउनलोड कर सकते हैं। लिंक इस लेख के आखिर में दिया गया है।
किताब 1955 में सत्साहित्य प्रकाशन से प्रकाशित हुई थी। इसका मतलब यह हुआ कि यात्रा 1955 से पहले की गई थी। आजकल तो लद्दाख में यात्राओं का एक बँधा-बँधाया रूटीन होता है - लेह से खारदुंग-ला, नुब्रा वैली और पेंगोंग, शो-मोरीरी देखते हुए वापस। चार दिनों में यह रूटीन पूरा हो जाता है और आजकल की लद्दाख यात्रा कम्पलीट हो जाती है। इन यात्राओं को पढ़ने में रोमांच भी नहीं आता और न ही कोई नयापन लगता है। लेकिन 1955 से पहले की यात्राएँ हमेशा ही रोमांचक होती थीं। उस समय तक चीन ने भी अक्साई-चिन और तिब्बत पर कब्जा नहीं किया था और लद्दाख का लगभग समूचा क्षेत्र व्यापारियों, शिकारियों और पर्यटकों के लिए खुला था।
पुस्तक के लेखक लेफ्टिनेंट कर्नल सज्जन सिंह अपने जमाने में ओरछा राज्य के दीवान थे। साथ ही साथ शिकारी भी थे। बातों-बातों में एक बार एक अंग्रेज महिला ने इनसे कहा - “और सब शिकार तो आप हिंदुस्तानियों के बस के हैं, लेकिन लद्दाख में शिकार और उनमें भी ओविस अमोन (एक जंगली भेड़) को मारने का बूता आपका नहीं है।”
बस, यही बात दीवान साहब को चुभ गई और तय कर लिया कि चाहे कुछ भी हो, लद्दाख में शिकार जरूर खेलना है। यहीं से किताब शुरू होती है, जो आखिर तक आपको बाँधे रखती है। और हाँ, यह बात 1936 की थी। इसके बाद लेखक ने लद्दाख में शिकार की परमिशन के लिए एप्लाई कर दिया, जो उन्हें 1939 में मिली। तो इस प्रकार यह यात्रा उन्होंने 1939 में की थी। उस समय पाकिस्तान जैसा कुछ नहीं था और समूचे भारत के साथ-साथ समूचा जम्मू-कश्मीर राज्य भी अंग्रेजों के नियंत्रण में था। भारतीयों के गिलगित आदि क्षेत्रों में जाने पर पाबंदी जरूर थी, लेकिन कश्मीर से लद्दाख जाने पर कोई विशेष पाबंदी नहीं थी। लगभग इसी समय राहुल सांकृत्यायन भी लद्दाख यात्रा पर थे। राहुल जी गिलगित जाना चाहते थे, लेकिन एक तो वे भारतीय थे और दूसरे कुछ ही समय पहले रूस में रहकर आए थे, इसलिए उन्हें गिलगित जाने की अनुमति नहीं मिली थी। गिलगित ब्रिटिश भारत का हिस्सा था, लेकिन रूस से लगभग लगा हुआ था, इसलिए यह सीमावर्ती क्षेत्र था और रूस व अंग्रेज पक्के दुश्मन थे। 20 साल पहले पहला विश्वयुद्ध समाप्त हुआ था और 1939 की गर्मियों में दूसरे विश्वयुद्ध के बादल मंडराने लगे थे, इसलिए माहौल तनावपूर्ण भी था।
खैर, हमारे दीवान साहब भी सियालकोट से जम्मू पहुँचे और सड़क मार्ग से कश्मीर गए। उस समय तक पीर पंजाल पहाड़ों में वर्तमान 3 किलोमीटर लंबी जवाहर टनल नहीं थी। मुझे लगता था कि उस समय पीर पंजाल को किसी दर्रे के माध्यम से पार करते होंगे, लेकिन दीवान साहब ने यह लिखकर चौंका दिया कि 200 मीटर की सुरंग से उन्होंने पीर पंजाल को पार किया।
आज उस 200 मीटर की सुरंग का कोई नाम नहीं लेता, क्योंकि 3 किलोमीटर लंबी जवाहर सुरंग बन चुकी है। इसके बगल में 10-11 किलोमीटर लंबी रेल सुरंग भी बन चुकी है और 8 किलोमीटर लंबी दूसरी सड़क सुरंग की भी प्लानिंग चल रही है।
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तो वे लद्दाख पहुँचे। चांग-ला पार करके पेंगोंग किनारे पहुँचे। मारसिमिक-ला पार करके चांग चेनमो की घाटी में जाकर शिकार खेला। आज चांग चेनमो की घाटी आम नागरिकों की पहुँच से बाहर है। चांग चेनमो से आगे कोंगका-ला है और उसके बाद अक्साई-चिन शुरू हो जाता है। आज अक्साई-चिन चीनी नियंत्रण में है, लेकिन पहले ऐसा नहीं था। 19वीं शताब्दी में नेत्रसिंह रावत की यात्राओं और अब हमारे दीवान साहब की यात्राओं से यह पता चलता है कि समूचे अक्साई-चिन में कोई भी बसावट नहीं थी, लेकिन व्यापार और शिकार के लिए लोग आते-जाते थे। नेत्रसिंह रावत तो इस क्षेत्र में सुदूर स्थित अक्साई-चिन लेक तक भी पहुँच गए थे।
खैर, वापस दीवान साहब पर आते हैं। चांग चेनमो में शिकार खेलकर वे वापस पेंगोंग आए। फिर चुशुल पहुँचे और इस क्षेत्र में शिकार खेला। चुशुल से सिंधु घाटी में आए और शो-कार होते हुए तंगलंग-ला के बगल वाला दर्रा पार करके ग्या और मारू क्षेत्र में शिकार किया। फिर वे लेह पहुँचे और लामायुरू, कारगिल होते हुए कश्मीर गए और वहाँ से रावलपिंडी गए और फिर ट्रेन पकड़कर वापस ओरछा।
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हालाँकि उन्होंने बहुत सारे जानवरों को गोली मारकर घायल करके छोड़ दिया और उनका पीछा करके उन्हें मारने की जहमत नहीं उठाई। आज चूँकि शिकार पर पूर्ण प्रतिबंध है, इसलिए यह बात आज के जमाने में हमें बहुत चुभती है। अगर इस बात को छोड़ दिया जाए, तो उनकी यह यात्रा हमें रोमांच के चरम पर पहुँचा देती है। समुद्र तल से 4500-5000 मीटर ऊपर वे शिकार का पीछा करते थे, फिर जब तक दम लेकर साँस सामान्य करते थे, तब तक शिकार भाग जाता था। इस ऊँचाई पर उनका पूरा दल "हाई एल्टीट्यूड सिकनेस" से परेशान रहा और कई बार आपस में भी लड़े। भोजन की समस्या, नींद न आना, सिरदर्द होना, चिड़चिड़ा होना, गुस्सा होगा और कई बार शिकार करने का मन न होना - इन सब बातों का वर्णन दीवान साहब ने बड़े ही सहज ढंग से किया।
जब दीवान साहब पेंगोंग किनारे मन गाँव में थे, तो इन्हें पता चला कि कुछ ही दिन पहले राहुल जी भी यहाँ बौद्ध लामा बनकर आए थे। यह बात इन्होंने किताब में लिखी है। इसका मतलब यह हुआ कि तब 46 वर्षीय राहुल जी की प्रसिद्धि अच्छी-खासी हो चुकी थी। अक्सर लेखकों को प्रसिद्धि मरने के बाद मिलती है।
तो यह किताब आज शायद ही कहीं उपलब्ध हो, लेकिन यदि आप इसे पढ़ना चाहते हैं, तो नीचे लिंक पर क्लिक करके फ्री में डाउनलोड करके पढ़ सकते हैं...
Thanks for sharing. Nice information
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