अभी हाल ही में तरुण गोयल साहब ने बशलेव पास का ट्रैक किया। यह ट्रैक तीर्थन वैली में स्थित गुशैनी से शुरू होता है। कुछ दूर बठाहड़ गाँव तक सड़क बनी है और कुल्लू से सीधी बसें भी चलती हैं। बशलेव पास लगभग 3300 मीटर की ऊँचाई पर है और ग्रेट हिमालयन नेशनल पार्क के एकदम बाहर है। आपको यह जानकर हैरानी होगी कि इस नेशनल पार्क के अंदर जितना घना जंगल है, उससे भी ज्यादा घना जंगल नेशनल पार्क के बाहर है। काले भालू और तेंदुए तो इतने हैं कि दिन में भी देखे जा सकते हैं। मैं भी आजकल इसी ‘आउटर’ जंगल में स्थित एक गाँव घियागी में रहता हूँ। हालाँकि मुझे कोई भी जानवर अभी तक दिखाई नहीं दिया है। एक बार रात को टहलते समय नदी के पार भालू के चीखने की आवाज सुनी थी, तो उसी समय से रात में टहलना बंद कर दिया था। और अभी दो-तीन दिन पहले ग्रामीणों ने बताया कि शाम के समय जीभी और घियागी के बीच में एक तेंदुआ सड़क पर आ गया था, जिसे बस की सभी सवारियों ने देखा।
तो मैं बता रहा था कि गोयल साहब सपरिवार बशलेव पास का ट्रैक करके आए। और जिस दिन वे बशलेव पास पर थे, उस दिन मैं भी ट्रैक कर रहा था और उनसे 8 किलोमीटर ही दूर था। उन्होंने अपने ब्लॉग में एक फोटो लगाया और लिखा कि वे बशलेव से लांभरी/जलोड़ी का संभावित रास्ता देख रहे हैं। (शायद वे अगला ट्रैक बशलेव से लांभरी/जलोड़ी का करेंगे।) मैं ठीक इसी समय जलोड़ी से लांभरी का ट्रैक कर रहा था, जिसकी कहानी विस्तार से आप अभी पढ़ेंगे।
अशोक लीलेंड में काम करने वाले शिवेंद्र प्रताप चतुर्वेदी अपनी पत्नी और कुछ मित्रों के साथ तीर्थन वैली घूमने आए। उनका इरादा कोई बड़ी ट्रैकिंग करने का नहीं था, लेकिन ग्रेट हिमालयन नेशनल पार्क नजदीक ही है, उनका मन डोल गया - “नीरज भाई, जी.एच.एन.पी. में एकाध दिन की ट्रैकिंग हो जाएगी क्या?”
“हो जाएगी, बात करता हूँ।”
गौरतलब है कि जी.एच.एन.पी. यानी ग्रेट हिमालयन नेशनल पार्क में केवल ट्रैकिंग ही की जा सकती है। इसके अंदर सड़कें या मोटरेबल रास्ते नहीं हैं, इसलिए अन्य नेशनल पार्कों की तरह यहाँ सफारी नहीं होती। आपको ट्रैकिंग की अनुमति लेनी पड़ती है और गाइड़ भी लेना जरूरी होता है। नेशनल पार्क के अंदर यदि रात रुकना हो, तो टैंट, स्लीपिंग बैग और राशन आदि भी ले जाने पड़ेंगे। स्थानीय लोग यह काम आसानी से कर देते हैं, क्योंकि यह नेशनल पार्क एक विश्व विरासत स्थल भी है, इसलिए बहुत सारे विदेशी पर्यटक भी आते हैं।
अपने एक जानकार गाइड बिंटू को फोन किया, तो उसने बताया कि वह कल एक बड़ा ग्रुप नेशनल पार्क के अंदर ले जा रहा है और उसके पास एक भी अतिरिक्त यात्री को एडजस्ट करने की सुविधा नहीं है।
आखिरकार योजना यह बनी - “यदि दो दिनों का ट्रैक करना है, तो नेशनल पार्क में रोला कैंपसाइट तक ही पहुँचेंगे, जो 2100 मीटर की हाइट पर है। लेकिन अगर हम नेशनल पार्क के बाहर के जंगलों में ट्रैकिंग करते हैं, तो 3500 मीटर की ऊँचाई तक पहुँच सकते हैं।”
और लांभरी हिल का ट्रैक पक्का हो गया। यह ट्रैक वैसे तो घियागी से 10 किलोमीटर आगे सजवाड़ गाँव से शुरू होता है, लेकिन हमने तय किया कि जलोड़ी जोत से सेरोलसर झील होते हुए ऊपर ही ऊपर लांभरी हिल तक जाएँगे। इससे हमें पहले के मुकाबले पैदल तो ज्यादा चलना पड़ेगा, लेकिन पूरा रास्ता जोत ही जोत जाता है, इसलिए शानदार नजारे भी देखेने को मिलेंगे।
तभी हमारे होटल मालिक ने कहा - “उस रास्ते मत जाओ। एक जगह पर बहुत तेज उतराई है और उस पर उतरना आसान नहीं होगा।”
मैंने तुरंत गूगल मैप खोला और पूरे ट्रैक का बारीकी से निरीक्षण करने लगा। जलोड़ी जोत से सेरोलसर झील तक का रास्ता तो मेरा देखा हुआ है, उस पर परेशानी की कोई बात है नहीं। अब मुझे इससे आगे का रास्ता देखना है। सेरोलसर लगभग 3200 मीटर की ऊँचाई पर है। अगर इसी रिज पर इससे आगे बढ़ें, तो हम कुछ ही देर में 3450 मीटर तक पहुँच जाएँगे। इसमें 3200 से 3300 मीटर तक काफी तेज चढ़ाई है, लेकिन 3300 से 3400 मीटर तक उतनी तेज चढ़ाई नहीं है।
लेकिन जब हम 3450 मीटर से आगे लांभरी की ओर बढ़ेंगे तो हमारे सामने एक काफी गहरी ‘सैडल’ होगी। मतलब हमें अचानक नीचे उतरना पड़ेगा। सैडल की ऊँचाई 3250 मीटर है, यानी हमें 3450 से 3250 मीटर तक नीचे उतरना पड़ेगा, वह भी खड़े ढलान पर। गूगल मैप के टैरेन मोड में यह तेज ढलान स्पष्ट दिखाई देता है। शायद इसी ढलान को होटल मालिक खतरनाक बता रहे हों।
जाना चाहिए??... या नहीं जाना चाहिए??... अपने साथ 6 लोगों को ले जाना चाहिए??... या नहीं ले जाना चाहिए?...
सैटेलाइट में देखा, तो इस हिस्से में जंगल नजर आया और बर्फ भी। सैटेलाइट के चित्र हमेशा ही पुराने होते हैं। वहाँ आजकल बर्फ नहीं है, लेकिन अगर उस हिस्से में बर्फ टिक सकती है और पेड़ भी उग सकते हैं, तो शायद जाया भी जा सकता है।
“क्या लोकल लोग जाते हैं उधर?” मैंने किसी दूसरे से पूछा।
“हाँ जी, जाते हैं। हमारे देवता रहते हैं उधर।”
“रास्ता बना है?”
“हाँ जी, रास्ता बना है।”
शिवेंद्र और बाकी सभी लोग तो चैहणी कोठी चले गए और मैं इस ट्रैक की तैयारी करने लगा। मेरी खुद की इच्छा इस रास्ते से जाने की थी, इसलिए मैं जाना चाहता था। लेकिन अगर वह ढलान खतरनाक हुआ, तो हम वापस आ जाएँगे। मैं स्वयं तो किसी भी रास्ते पर चल सकता हूँ, लेकिन बाकी 6 लोगों की जिम्मेदारी मेरी होगी और मैं उन्हें किसी भी खतरे में नहीं पड़ने दूँगा।
यह निर्णय करने के बाद अब बारी थी मौसम के पूर्वानुमान लगाने की। यह जोत ब्यास और सतलुज की जलविभाजक जोत भी है, इसलिए मौसम की दृष्टि से काफी संवेदनशील हो जाती है। उधर ब्यास पर भी बांध बने हुए हैं और सतलुज पर भी बांध बने हैं, इसलिए दोनों ही तरफ से पर्याप्त नमी वाली हवाएँ चलती हैं और दोपहर बाद बारिश होती ही है। वे सभी लोग ट्रैकिंग की तैयारी करके नहीं आए थे, यहाँ आने के बाद ही ट्रैकिंग की योजना बनी, इसलिए उनके पास रेनकोट आदि नहीं थे। बारिश होगी, तो रेनकोट जरूरी होंगे। कहने का मतलब यह भी हुआ कि बिना रेनकोट के इस ट्रैक को करना ठीक नहीं।
मौसम संबंधित कई वेबसाइटों का अच्छा अध्ययन किया। पता चला कि कल वातावरण में केवल 3% ही नमी रहेगी, यानी बारिश की संभावना बहुत कम है। अगर दोनों तरफ बने बांधों की वजह से नमी कुछ बढ़ भी जाएगी, तब भी बारिश होने की संभावना बहुत कम रहेगी।
यानी बिना रेनकोट के चला जा सकता है। उन लोगों के पास रेनकोट नहीं है, इसलिए मैं भी अपना रेनकोट नहीं ले जाऊँगा। फिर भी अगर बारिश होती है, तो इसका पता दो घंटे पहले तक चल जाता है। इतने समय में हम टैंट आदि लगाकर बारिश से बचाव कर लेंगे।
इतनी कैलकुलेशन करने के बाद टैंटों, स्लीपिंग बैगों, कुलियों और राशन का इंतजाम करना तो मामूली काम था।
...
जलोड़ी पास लगभग 3100 मीटर पर है। यहाँ से सेरोलसर का रास्ता जोत के साथ-साथ जाता है। 3000 मीटर से ऊपर के जो भी ट्रैक जोत के यानी धार के साथ-साथ बने होते हैं, वे हमेशा ही अत्यधिक खूबसूरत होते हैं। क्योंकि हिमाचल में अमूमन 3200 मीटर के बाद वृक्ष-रेखा समाप्त हो जाती है। आप अचानक जंगल से निकलकर घास के खुले मैदानों में पहुँच जाते हैं। उत्तराखंड में ऐसे मैदानों को बुग्याल कहते हैं। और बुग्यालों के पार दिखाई देते हैं महाहिमालय के बर्फीले पर्वत।
जब हम सेरोलसर से आगे 3300 मीटर की ऊँचाई पर पहुँचे, तो वृक्ष-रेखा समाप्त हो गई। विशाल मैदान सामने था। 3450 मीटर पर पहुँचकर तो ग्रेट हिमालयन नेशनल पार्क की बर्फीली चोटियाँ दिखने लगीं। दाहिनी तरफ आनी के ऊपर की सेब-पट्टी दिख रही थी।
सेरोलसर झील के किनारे बूढ़ी नागिन का मंदिर |
हमारा ग्रुप... |
इसके बाद नीचे उतरना था - वही खतरनाक वाली उतराई। हमारे कुली कुछ आगे थे और वे कहाँ से मुड़ गए कि हमें पता नहीं चला। हम अंदाजे से नीचे उतरने लगे, स्पष्ट पगडंडी समाप्त हो गई और जंगल भी शुरू हो गया। सभी को लगने लगा कि हम रास्ता भटक गए हैं। मैं हमेशा की तरह सबसे पीछे था। तेजी से आगे निकला तो कहीं भी पगडंडी नहीं मिली।
“हम रास्ता भटक गए हैं। वापस ऊपर चलते हैं और वहीं से रास्ते की खोजबीन करते हैं।” मैंने घोषणा की।
तभी ग्रुप में से एक की आवाज आई - “ओ शिट... यहाँ पॉटी पड़ी है... सभी लोग देखकर चलना।”
सुनते ही मैं खुश हो गया - “कहाँ है पॉटी?... अरे वाह... यही रास्ता है... चलो यहीं से... किसी उल्लू के पट्ठे ने रास्ते में ही टट्टी कर रखी है।”
कुछ दूर और चले, लेकिन ढलान बढ़ता गया और एक जगह के बाद आगे बढ़ना नामुमकिल हो गया। कुलियों को आवाज लगाई, लेकिन कोई प्रत्युत्तर नहीं आया। तभी एक कुली का फोन ही आ गया। व्हाट्सएप पर लाइव लोकेशन शेयर की, तो हमें अपनी गलती का पता चला। वापस ऊपर गए और कुलियों के मार्गदर्शन में सही रास्ते पर चले।
जैसा उन होटल वाले ने बताया था और मैंने अंदाजा लगाया था, यह ढलान उससे भी मुश्किल है। 200 मीटर की उतराई उतरने में डेढ़ घंटा लग गया। वास्तव में काफी खतरनाक ढलान है। आपको अगर पैदल चलने की आदत नहीं है और केवल यह पोस्ट पढ़कर या फोटो देखकर ही यहाँ जाने की सोच रहे हैं, तो रहने दीजिए। यह तो अच्छा था कि ग्रुप के सभी लोग पैदल चलने में अच्छे थे और कुछ ने तो पहले भी कुछ ट्रैक कर रखे थे, इसलिए सभी सही-सलामत उतर गए, अन्यथा गिरने के प्रबल चांस होते हैं। झाड़ियाँ बहुतायत में हैं, जिनमें से कुछ कँटीली हैं और कुछ अ-कँटीली। इन्हें पकड़कर और झूलकर ही नीचे उतरना होता है।
नीचे सैडल तक उतरकर तुरंत ही दूसरी तरफ चढ़ाई शुरू हो गई। शुरू में तेज चढ़ाई है, लेकिन 3400 मीटर के बाद जैसे ही रास्ता वृक्ष-रेखा से ऊपर पहुँचता है, चलने का आनंद फिर से मिलने लगता है। यहीं 3600 मीटर ऊँची एक चोटी है, जिसे एक तरफ छोड़ते हुए रास्ता जाता है। उस चोटी पर भी एक देवता रहता है और स्थानीय लोग साल में एक या दो बार यहाँ जुटते हैं।
इससे आगे रास्ता 3500 मीटर की समान ऊँचाई पर आगे बढ़ता है। हम सभी अब तक काफी थक चुके थे, लेकिन इस रास्ते ने सारी थकान उतार दी। उधर हमसे केवल 8 किलोमीटर दूर तरुण गोयल बशलेव पास पार कर रहे थे।
किसी भी धार पर हमेशा ही पानी की कमी होती है। हमारा पूरा ट्रैक धार के ऊपर ही ऊपर था, तो इसमें भी पानी की कमी थी। और जैसे ही एक जगह तीन घोड़े दिखाई दिए और पानी की पतली धारा दिखाई दी, तो तय कर लिया कि आज रात टैंट यहीं लगेंगे।
...
अगले दिन यहीं से सीधे नीचे उतर गए और सजवाड़ पहुँच गए। लांभरी हिल तक नहीं पहुँच सके। इसका कारण ये था कि उन सभी छहों को हर हाल में आज दोपहर तक तीर्थन वैली से वापस चले जाना था। उनके पास समय की भारी कमी थी। इस ट्रैक को करने के लिए उन्होंने एक-एक दिन की छुट्टियाँ बढ़वाई थीं, इससे ज्यादा नहीं बढ़वा सकते थे। इसलिए उनकी इच्छा का सम्मान करते हुए मैं और स्थानीय कुली भी लांभरी पहुँचे बिना वापस हो लिए। हालाँकि कुलियों ने बहुत जोर लगाया कि हमें लांभरी हिल जरूर जाना चाहिए। सामने डेढ़-दो किलोमीटर दूर ही तो लांभरी हिल दिख रही थी।
...
अगर आप भी लांभरी हिल का यह ट्रैक करना चाहते हैं, तो जलोड़ी जोत से जाने की बजाय सजवाड़ से जाना ही ज्यादा सही रहेगा। उस खतरनाक उतराई पर उतरना सबके बस की बात नहीं है। सजवाड़ के रास्ते जाने पर वह उतराई नहीं मिलती है। इस रास्ते से लांभरी हिल तकरीबन 8 किलोमीटर है। आप सुबह सजवाड़ से चलकर शाम तक वापस भी लौट सकते हैं, लेकिन असली आनंद तो उन मैदानों में टैंट लगाकर रुकने में है।
NICE AS ALWAYS
ReplyDeleteNice description, adorable scenes
ReplyDeleteबेहतरीन विवरण और खूबसूरत फोटोग्राफी। उम्मीद है कभी जरूर करूंगा इस ट्रैक को
ReplyDeleteपढता हूँ तो लगता है मुझे भी वहां होना चाहिए।कम से कम चार पांच दिन तो होता ही।लेकिन नौकरी ने ज़िंदगी का सारा खेल बिगाड़ रखा है।
ReplyDeleteशुरुआत में ही टाइम लेप्स वीडियो देखकर मजा आ गया । और यात्रा विवरण हर बार की तरह शानदार है ।
ReplyDeleteVery nice
ReplyDelete