Skip to main content

पुस्तक प्रकाशन: लेखक और प्रकाशक का द्वंद्व

Neeraj Musafir Book Ghumakkadi Jindabad
पोस्ट लंबी है... आगे बढ़ने से पहले थोड़ा अपने बारे में बता दूँ... मेरी आज तक 4 किताबें प्रकाशित हुई हैं... एक किताब का संपादन भी किया है... वह भी मेरे ही नाम पर है... तो कुल 5 किताबें प्रकाशित हुई हैं... नवंबर 2017 में एक साथ 3 किताबें प्रकाशित हुईं... एक किताब हिंदयुग्म से और दो किताबें रेडग्रैब से... दोनों ने ही किताब प्रकाशन के लिए मुझसे एक भी पैसा नहीं लिया... यानी मैं उन खुशनसीब गिने-चुने लेखकों में से हूँ, जिनकी पहली किताब बिना खर्चे के प्रकाशित हुई है... यानी सारा खर्चा प्रकाशक ने किया है... ये जितनी भी किताबें बिकेंगी, उनकी MRP की 10% मुझे रॉयल्टी मिलेगी... एक प्रकाशक ने 31 मार्च 2018 तक बिकी किताबों की कुल रॉयल्टी मुझे दी भी है... उम्मीद है कि 31 मार्च 2019 के आसपास इस बार भी कुछ हजार रुपये मेरे खाते में आएँगे... दूसरा प्रकाशक रॉयल्टी तब देगा, जब नवंबर 2017 में छपी सारी प्रतियाँ समाप्त हो जाएँगी... किन-किन किताबों की कितनी-कितनी प्रतियाँ छपी थीं, ये बातें इस तरह पब्लिक में बताना ठीक नहीं माना जाता... और मुझे खुद भी ये किताबें प्रकाशकों से मार्केट रेट पर या थोड़े-बहुत कम रेट पर खरीदनी होती हैं... और मैं हाथों-हाथ उन्हें पूरे पैसे देता हूँ... रॉयल्टी में से काटने को नहीं कहता... उम्मीद है एक दिन सारी रॉयल्टी एक-साथ आएगी और मैं करोड़पति बन जाऊँगा...


फिर मई 2018 में मैंने एक किताब स्वयं प्रकाशित की... यानी सबकुछ खुद किया और प्रिंटिंग प्रेस जाकर किताब प्रिंट कराकर ले आया... अब वो किताब मुख्यतः अमेजन पर उपलब्ध है... और अपनी कैटेगरी में लगातार टॉप-100 में रहती है... मतलब अच्छी बिक रही है... 5वीं किताब भी इसी तरह प्रिंट कराई और आज 19 जनवरी 2019 को कुछ ही देर में वह प्रिंटिंग प्रेस से हमारे यहाँ पहुँच जाएगी...

अभी पिछले दिनों एक मित्र ने एक पोस्ट लिखी कि उनका प्रकाशक उन्हें रॉयल्टी के पैसे नहीं दे रहा है... और हमेशा से कहता आ रहा है कि जब छपी हुई सारी प्रतियाँ बिक जाएँगी, तब वह रॉयल्टी देगा... सारी प्रतियाँ बिक नहीं रहीं और रॉयल्टी मिल नहीं रही... अब प्रकाशक ने कहा है कि किताब की कुछ और प्रतियाँ छापनी है, इसलिए पैसे दो... ऑडियो बुक बनानी है, पैसे दो... बेस्टसेलर बनना है, पैसे दो... और लेखक का सवाल है - रॉयल्टी कब दोगे?...






फिलहाल मामला इतना गंभीर हो चुका है कि लेखक जी अपने प्रकाशक को जेल भेजने का मन बना चुके हैं... धोखाधड़ी का केस करने का मन बना चुके हैं... अपने समर्थन में कुछ और धोखा खाए (रॉयल्टी न मिले) लेखकों का ग्रुप बना चुके हैं... और सुना है कि कुछ जानकार जजों और वकीलों से भी बात करने का मन बना चुके हैं...

लेकिन... प्रकाशक बड़ी आसानी से सिद्ध कर देगा कि किताब की 500 प्रतियाँ ही बिकी हैं और 2500 किताबें अभी भी उनके गोदाम में बिकने के इंतजार में पड़ी हैं... तब क्या करोगे?... वह बड़ी आसानी से सिद्ध कर देगा कि 500 किताबों की बिक्री से 3000 किताबों के छपने का भी खर्चा नहीं निकला है... और वह बड़ी आसानी से यह भी सिद्ध कर देगा कि 2500 किताबें गोदाम में पड़ी होने के बाद भी वह और किताबें छापने के लिए लेखक से पैसे क्यों मांग रहा है...

तब आप क्या करोगे?...

ऐसी स्थिति लगभग सभी लेखकों की होती है... लेखक बड़ी मेहनत से कुछ लिखता है... और प्रकाशक उसे रिजेक्ट कर देते हैं... फिर बड़ी मुश्किल से कोई प्रकाशक छापने को तैयार होता है, तो वह अच्छे-खासे पैसे लेता है... फिर किताब छप जाती है, तो लेखकों को लगता है कि यह ‘कालजयी’ किताब चार, पाँच या छह अंकों में बिक रही है और प्रकाशक बताता है कि तीन अंकों का आँकड़ा भी मुश्किल से छुआ है... और आखिर में रॉयल्टी...

अब क्या किया जाए?... और हाँ, समस्या यहीं खत्म नहीं होती... यह तो लेखक और प्रकाशक का मनमुटाव था... लेखक और पाठकों का भी मनमुटाव होता है... पाठक उम्मीद करते हैं कि लेखक हमेशा उम्दा और उम्दा ही लिखता रहे... किताब बेचने और खरीदने की बात न करे... फ्री में किताबें मुहैया कराए... कबीर और तुलसी के उदाहरण दिए जाते हैं कि उन्होंने प्रकाशन और बिकने की चिंता किए बगैर ऐसा लिखा, जो आज जन-जन की जुबान पर है... लेखक से बहुत बड़ी-बड़ी असंभव उम्मीदें लगाई जाती हैं...

तो ऐसे में क्या किया जाए?... सबसे जरूरी है आराम से बैठकर वह प्रक्रिया समझी जाए, जिससे गुजरकर कोई किताब लेखक की कलम या लैपटॉप से होती हुई पाठकों के पास पहुँचती है... इस प्रक्रिया को समझना जरूरी है... तब एक सवाल आपके मन में आएगा कि किताब आपकी और पाठक भी आपके... तो कोई प्रकाशक इसे क्यों छापे?... जाहिर है कि प्रकाशक को मुनाफा कमाना है... इसमें कुछ भी गलत नहीं है... वह उसका रोजगार है... अब बात जब मुनाफे तक आ गई, तो कभी खर्चे और आमदनी की भी बात कर लेनी चाहिए... हमने एक बार बताया था कि 200 पेजों की किसी किताब की अगर 500 प्रतियाँ छपवाई जाएँ, तो वे कम से कम 40 हजार की छपेंगी... 1000 प्रतियाँ छपवाई जाएँ, तो कम से कम 70 हजार की पड़ेंगी... ज्यादातर प्रकाशकों की खुद की प्रिंटिंग प्रेस नहीं होती है... लगभग सभी बाहर ही किताबें छपवाते हैं... यकीन न हो, तो कोई भी किताब उठाइए... प्रत्येक किताब में प्रिंटिंग प्रेस का नाम और पता लिखा होता है...

कौन लेखक इतना खर्चा करेगा?... वह भी तब, जब उसे पता न हो कि ये 500 किताबें बेचनी कैसे हैं... और किसे बेचनी हैं... क्या कहा?... फेसबुक?... अगर आप कहानी, कविताएँ लिखते हैं और फेसबुक पर आपके 5000 मित्र हैं... तो एक साल में 500 किताबें बेचकर दिखा दीजिए...

असल में किताब बेचने के लिए ही प्रकाशक की जरूरत पड़ती है... किताब की मार्केटिंग करने के लिए ही प्रकाशक की जरूरत पड़ती है... अन्यथा हर शहर की गली-गली में प्रिंटिंग प्रेस होती हैं... किताब प्रिंट कराना कोई बड़ी बात नहीं है... किताब बेचना बड़ी बात है...

आप किसी भी ऑफसेट प्रिंटिंग प्रेस में चले जाइए... वहाँ कुछ किताबें प्रिंट हो रही होंगी... ज्यादातर कहानियों, कविताओं, गजलों की ही किताबें मिलेंगी आपको... वहाँ पूछना कि ज्यादातर किताबों की कितनी प्रतियाँ प्रिंट होती हैं... आपको पता चलेगा कि 100-100 प्रतियाँ ही प्रिंट होती हैं... हद से हद 200 प्रतियाँ... ये किताबें भी प्रकाशक के लिए बेचनी मुश्किल होती हैं... और इन सबसे अनजान लेखक को लगता है कि उसकी कालजयी किताब की हजारों प्रतियाँ प्रकाशक ने बेच दीं और रॉयल्टी से बचने के लिए बता रहा है कि 200 भी नहीं बिकीं...

मुझे भी 3 किताबें छपने के बाद ऐसा ही लगता था... फिर चौथी किताब खुद छापने का निर्णय लिया... कभी मार्केटिंग नहीं की थी, कभी किसी को 10 रुपये में भी कुछ चीज बेचने की हिम्मत नहीं की थी... कभी सोचा तक नहीं था कि मैं अपने ही मित्रों से पैसे किस प्रकार माँगूंगा... मुझे लग रहा था कि फेसबुक के 5000 मित्र और फॉलोवर्स हाथों-हाथ किताब खरीदेंगे और मैं करोड़पति बन जाऊँगा... और इन पैसों से मसूरी में रस्किन बोंड साहब के बगल में एक कोठी खरीदूँगा...

लगभग एक लाख रुपये लगाकर अपनी चौथी किताब “मेरा पूर्वोत्तर” खुद प्रिंट कराई... खुद बेची... ब्लॉग पर भी, फेसबुक पर भी और अमेजन पर तो यह लगातार टॉप-100 में चल रही है... शुरू-शुरू में इसकी बिक्री और पाठकों की टिप्पणियों ने बड़ा निराश किया... कोई पाठक नहीं चाहता कि लेखक खुद किताब बेचे... प्रत्येक पाठक यही चाहता है कि लेखक आराम से बैठकर लिखता रहे और लगभग फ्री में किताबें उसे देता रहे... और मेरे पाठक तो चाहते थे कि मैं पूरी जिंदगी अपनी नौकरी के पैसों से घर भी चलाता रहूँ, अच्छी-अच्छी यात्राएँ भी करता रहूँ और साल में चौबीस किताबें भी छापता रहूँ और फ्री में उन्हें पढ़ने को भी देता रहूँ... हालाँकि अब सब ठीक है... किताब अच्छी उत्साहजनक संख्या में बिक भी रही है और अपनी लागत निकालने के साथ-साथ बड़ी यात्राएँ करने का खर्चा भी दे रही हैं...

यही किताब अगर कोई प्रकाशक छापता और इतने समय में अगर हजार या कुछ सौ प्रतियाँ बेचकर इसकी रॉयल्टी मुझे दे भी देता, तब भी मुझे यही लगता कि प्रकाशक ने लाखों की संख्या में किताबें बेचकर मुझे लूट लिया है... और जितनी किताबें हम बेच सके; वो भी तब बेच सके, जब हिंदयुग्म और रेडग्रैब ने मेरी 3 किताबों को बेस्टसेलर बनाकर मेरा अच्छा-खासा पाठक-वर्ग तैयार कर दिया... अगर मैं अपनी पहली किताब में ही इतने रुपये लगा देता, तो दस साल बीत जाने पर भी लागत वसूल न हो पाती...

प्रकाशक आपकी मार्केटिंग करते हैं... यह हिंदयुग्म की ही मेहनत थी कि मेरी तीसरी किताब “हमसफर एवरेस्ट” कई बार जागरण-नीलसन बेस्टसेलर सर्वे की लिस्ट में टॉप-10 में आई और मुझे इसके कारण बहुत पब्लिसिटी मिली... कई जगह इंटरव्यू प्रकाशित हुए और अखबारों में अच्छी-खासी कवरेज भी मिली... तरुण गोयल की किताब “सबसे ऊँचा पहाड़” या अजीत सिंह की किताब “दद्दा की खरी-खरी” या विजय ठकुराय की “बेचैन बंदर” या मेरी किताब “मेरा पूर्वोत्तर” कभी भी वहाँ नहीं पहुँच सकती, जहाँ “हमसफर एवरेस्ट” पहुँची... या “पैडल पैडल” पहुँची... क्योंकि इन किताबों के पीछे कोई प्रकाशक नहीं है... ये किताबें केवल फेसबुक मित्रों के भरोसे खुद के खर्चे से छापी गई हैं और कुछ समय बाद कोई इनका नाम लेने वाला भी नहीं रहेगा... क्योंकि इनके लेखक फुल-टाइम बुक पब्लिशिंग नहीं करते... ये किताबें केवल फेसबुक पाठकों के भरोसे छापी गई हैं और इनका मकसद अपना प्रचार करने से ज्यादा पैसा कमाना है...





पैसा कमाना बहुत जरूरी है... एक लेखक का ध्यान पैसे कमाने पर होना ही चाहिए... एक कप चाय पीने के लिए भी पैसे चाहिए... और ये पैसे आपको कमाने ही पड़ेंगे... लेकिन उससे भी ज्यादा जरूरी है प्रचार... यह काम प्रकाशक करते हैं... असली पाठकों से आपका परिचय प्रकाशक कराते हैं... प्रकाशक फुल-टाइम यही काम करते हैं और अच्छी तरह जानते हैं कि तीर कब और कहाँ चलाना है... निशाना कहाँ लगाना है...

हो सकता है आप रॉयल्टी न मिलने के कारण अपने प्रकाशक पर कानूनी कार्यवाही कर दें... लेकिन ज्यादा किताबें बेचने और लेखक को कम बताने के अविश्वास का क्या करोगे?... यह एक ऐसा मुद्दा है कि प्रकाशक चाहे कितनी भी ईमानदारी से आपको सारा डाटा दे दे, लेकिन अविश्वास बना रहेगा... अमेजन बेस्टसेलर एक अत्यधिक भ्रामक चीज है, जिसका इस्तेमाल प्रकाशक लोग बिक्री बढ़ाने के लिए करते हैं और लेखक मान लेते हैं कि किताबें धड़ाधड़ बिक रही हैं... और फिर जब कुछ महीनों बाद लेखक अपनी किताबों की संख्या पूछता है, तो अविश्वास बढ़ता ही चला जाता है... आप प्रकाशक से जो भी प्रूफ माँगेंगे, वह प्रूफ आपको मिल जाएगा, लेकिन अविश्वास फिर भी बना रहेगा...

कई मित्र पूछते हैं कि खुद किताब छापने का क्या तरीका है... तो जी, जितना आसान शादी के कार्ड छपवाना है, उतना ही आसान किताब छपवाना है... हालाँकि इसमें खर्चा बहुत होता है... लेकिन जैसा खर्चा है, वैसा ही बाद में रिटर्न भी मिलता है... वन टाइम इनवेस्टमेंट है और आपकी प्लानिंग ठीक हुई, तो आप पर रोज पैसे टपकते रहेंगे... और प्लानिंग ठीक नहीं हुई, तो मैंने बहुत सारे किस्से सुने हैं कि किताब बिकी नहीं और लाखों रुपये डूब भी गए...

Neeraj Musafir Book Ghumakkadi Jindabad

तो मेरी एक ही सलाह है... अगर आप खुद किताब प्रिंट कराने जा रहे हैं, तो सावधान!... कोई आपकी किताब का इंतजार नहीं कर रहा है... यह मैं अपना अनुभव बता रहा हूँ... यह वो बता रहा हूँ, जो मैं अपनी किताब प्रिंट कराते समय सोचता हूँ... कोई इंतजार नहीं कर रहा आपकी किताब का... इसके लिए आपको अपना पाठक-वर्ग तैयार करना पड़ेगा... सालों लगते हैं इसमें... बड़ी मेहनत और संयम लगते हैं... कई साल बाद जाकर आपका डेडीकेटिड पाठक-वर्ग तैयार होता है... विजय ठकुराय ने तीन साल फेसबुक पर वो सब लिखा, जिसका पाठक इंतजार करते थे... अजीत सिंह कम से कम दस साल से ब्लॉग और फेसबुक पर लिख रहे हैं और ऐसा लिखते हैं कि आप उनसे सहमत हों या न हों, आपको उनका प्रत्येक लेख पूरा पढ़ना पड़ता है... आप किसी का बहुत बड़ा लेख पूरा पढ़ते हैं, तो समझिए कि उसका लेखन सफल है... तरुण गोयल कई वर्षों से ब्लॉग लिख रहे हैं और हिमाचल व हिमालय के बारे में अद्‍भुत जानकारियाँ निःशुल्क प्रदान कर रहे हैं... और आज जब ये लोग किताब लिखते हैं, तो उसकी प्रतीक्षा होती है...

आप भी ऐसा लिखिए कि पाठक आपके लेखन की प्रतीक्षा करें... आपकी किताब खरीदकर पढ़ें... अगर आपने अपना पाठक-वर्ग तैयार नहीं किया है, तो कभी भी खुद किताब प्रिंट कराने के बारे में न सोचें... अन्यथा आपकी भारी-भरकम राशि डूब जाएगी...

Neeraj Musafir Book Ghumakkadi Jindabadकिताब बेचकर पैसे कमाना गलत नहीं है... हर कोई किसी न किसी तरीके से पैसे ही कमा रहा है...
किताब का प्रचार करना गलत नहीं है... इसमें आपकी मेहनत लगी है, खून-पसीना लगा है...






और गलत क्या है?... कोई फ्री में किताब माँगे, तो उसे फ्री में किताब देना गलत है... याद रखिए, आपका पाठक आपको ढूँढकर और खरीदकर पढ़ेगा... कोई फ्री माँगता है, तो वह आपका पाठक है ही नहीं... उसे किताब में दिलचस्पी है ही नहीं... वह फ्री इसलिए माँग रहा है क्योंकि उसे अपना पैसा ऐसी जगह खर्च करना ही नहीं है, जहाँ उसकी दिलचस्पी न हो... हाँ, अपने किसी खास को फ्री में किताब देना अलग बात है... इससे किताब के साथ-साथ लेखक का भी सम्मान बढ़ता है...



ताजा अपडेट: स्वप्रकाशित “मेरा पूर्वोत्तर” की सफलता ने हमें इतना उत्साहित किया कि अभी-अभी एक नई किताब छपकर आई है - “घुमक्‍कड़ी जिंदाबाद”... इसमें 18 लेखकों के यात्रा-वृत्तांत हैं... इसे छापने का खर्चा इन सभी लेखकों ने मिलकर उठाया है... और मुनाफा भी ये सभी कमाएँगे... अब जब किताब छपकर हमारे पास आ ही गई है और इतनी लंबी पोस्ट भी इसी मुद्दे को ध्यान में रखकर लिखी गई है, तो हमारा दायित्व बनता है कि आप तक भी इस किताब को पहुँचाएँ... इसके बारे में विस्तार से फिर कभी बात करेंगे, लेकिन यह एक यूनिक किताब है और इसे हर साल दो बार निकालने का इरादा बन रहा है... खंड-1, खंड-2, खंड-3...





Comments

  1. Fantastic neeraj bhai, as always...

    ReplyDelete
  2. शानदार जानकारी

    ReplyDelete
  3. जी ये अजीत सिंह कौन है

    ReplyDelete
  4. तो भाई लब्बो लुआब यह है कि यह एक लाटरी खरीदने से भी ज्यादा जोखिम भरा काम है। भला हो आप का कई लोगों का आंखे खुल जाएँगी।

    ReplyDelete
  5. धन्यवाद,महत्वपूर्ण जानकारी के लिए। मेरी अभी तक 5 किताबें प्रकाशित हुई हैं। जो अमेज़न पर मौजूद हैं। मेरा अनुभव भी आपसे मिलता-जुलता है।
    अब मैं अपने पिछले 30 सालों के (लैपटॉप में टाइप) चुनिंदा यात्रा संस्मरणों को किताब के रूप में प्रकाशित करना चाहता हूं। परन्तु स्वयं का पैसा खर्च करने की स्थिति में बिल्कुल भी नहीं हूं। कृपया मेरा मार्गदर्शन करने का कष्ट करें।
    'घुम्मकडी जिन्दाबाद' किताब निम्न पते पर कोरियर या अन्य माध्यम से भिजवा दें। मिलते ही भुगतान कर दूंगा।
    डा. अरुण कुकसाल
    लेखक एवं प्रशिक्षक
    जीके प्लाजा, श्रीकोट,
    श्रीनगर (गढ़वाल) 246174
    उत्तराखंड
    मोबाइल नंबर- 9068513219
    arunkuksal@gmail.com

    ReplyDelete
  6. बहुत अच्छी जानकारी, शुक्रिया।

    ReplyDelete
  7. नीरज सर ! आपके इसी खरी खरी के हम फैन हैं. जबर्दस्त

    ReplyDelete
  8. I have not purchased your books yet.
    But with in two days it will be in my Amazon cart.
    And as you are on 'leave without pay '
    Whenever you are in need of support from your lovers
    Just write
    I am in need of your help
    There will be thousands of hands to help you

    Don't be worried about anything
    Just keep roaming (ghumte raho)

    ReplyDelete
  9. Neeraj bhai link kaam nahi kar raha. Please check karlo ek baar.

    ReplyDelete
  10. Hello Ser Kya koi aapka storyiyo ka belog app h kya

    ReplyDelete
  11. शानदार किताब।

    ReplyDelete

Post a Comment

Popular posts from this blog

46 रेलवे स्टेशन हैं दिल्ली में

एक बार मैं गोरखपुर से लखनऊ जा रहा था। ट्रेन थी वैशाली एक्सप्रेस, जनरल डिब्बा। जाहिर है कि ज्यादातर यात्री बिहारी ही थे। उतनी भीड नहीं थी, जितनी अक्सर होती है। मैं ऊपर वाली बर्थ पर बैठ गया। नीचे कुछ यात्री बैठे थे जो दिल्ली जा रहे थे। ये लोग मजदूर थे और दिल्ली एयरपोर्ट के आसपास काम करते थे। इनके साथ कुछ ऐसे भी थे, जो दिल्ली जाकर मजदूर कम्पनी में नये नये भर्ती होने वाले थे। तभी एक ने पूछा कि दिल्ली में कितने रेलवे स्टेशन हैं। दूसरे ने कहा कि एक। तीसरा बोला कि नहीं, तीन हैं, नई दिल्ली, पुरानी दिल्ली और निजामुद्दीन। तभी चौथे की आवाज आई कि सराय रोहिल्ला भी तो है। यह बात करीब चार साढे चार साल पुरानी है, उस समय आनन्द विहार की पहचान नहीं थी। आनन्द विहार टर्मिनल तो बाद में बना। उनकी गिनती किसी तरह पांच तक पहुंच गई। इस गिनती को मैं आगे बढा सकता था लेकिन आदतन चुप रहा।

जिम कार्बेट की हिंदी किताबें

इन पुस्तकों का परिचय यह है कि इन्हें जिम कार्बेट ने लिखा है। और जिम कार्बेट का परिचय देने की अक्ल मुझमें नहीं। उनकी तारीफ करने में मैं असमर्थ हूँ क्योंकि मुझे लगता है कि उनकी तारीफ करने में कहीं कोई भूल-चूक न हो जाए। जो भी शब्द उनके लिये प्रयुक्त करूंगा, वे अपर्याप्त होंगे। बस, यह समझ लीजिए कि लिखते समय वे आपके सामने अपना कलेजा निकालकर रख देते हैं। आप उनका लेखन नहीं, सीधे हृदय पढ़ते हैं। लेखन में तो भूल-चूक हो जाती है, हृदय में कोई भूल-चूक नहीं हो सकती। आप उनकी किताबें पढ़िए। कोई भी किताब। वे बचपन से ही जंगलों में रहे हैं। आदमी से ज्यादा जानवरों को जानते थे। उनकी भाषा-बोली समझते थे। कोई जानवर या पक्षी बोल रहा है तो क्या कह रहा है, चल रहा है तो क्या कह रहा है; वे सब समझते थे। वे नरभक्षी तेंदुए से आतंकित जंगल में खुले में एक पेड़ के नीचे सो जाते थे, क्योंकि उन्हें पता था कि इस पेड़ पर लंगूर हैं और जब तक लंगूर चुप रहेंगे, इसका अर्थ होगा कि तेंदुआ आसपास कहीं नहीं है। कभी वे जंगल में भैंसों के एक खुले बाड़े में भैंसों के बीच में ही सो जाते, कि अगर नरभक्षी आएगा तो भैंसे अपने-आप जगा देंगी।

लद्दाख बाइक यात्रा-5 (पारना-सिंथन टॉप-श्रीनगर)

10 जून 2015 सात बजे सोकर उठे। हम चाहते तो बडी आसानी से गर्म पानी उपलब्ध हो जाता लेकिन हमने नहीं चाहा। नहाने से बच गये। ताजा पानी बेहद ठण्डा था। जहां हमने टैंट लगाया था, वहां बल्ब नहीं जल रहा था। रात पुजारीजी ने बहुत कोशिश कर ली लेकिन सफल नहीं हुए। अब हमने उसे देखा। पाया कि तार बहुत पुराना हो चुका था और एक जगह हमें लगा कि वहां से टूट गया है। वहां एक जोड था और उसे पन्नी से बांधा हुआ था। उसे ठीक करने की जिम्मेदारी मैंने ली। वहीं रखे एक ड्रम पर चढकर तार ठीक किया लेकिन फिर भी बल्ब नहीं जला। बल्ब खराब है- यह सोचकर उसे भी बदला, फिर भी नहीं जला। और गौर की तो पाया कि बल्ब का होल्डर अन्दर से टूटा है। उसे उसी समय बदलना उपयुक्त नहीं लगा और बिजली मरम्मत का काम जैसा था, वैसा ही छोड दिया।