साल 2017 के दसवें महीने में मन में आया कि चलो, अपनी मोटरसाइकिल से पूर्वोत्तर घूमने चलते हैं। पूर्वोत्तर में कहाँ? कहीं भी। कुछ भी नहीं देखा हमने पूर्वोत्तर में अभी तक। तो जहाँ भी निकल जाएँगे, सब नया ही होगा।
यात्रा ठीकठाक हो जाएगी तो इस बहाने एक किताब भी तैयार हो जाएगी।
जब लिखने का चस्का पड़ जाता है तो मन करता है कि और अच्छा लिखें; और रोचक लिखें; और नए तरीके से लिखें। ब्लॉग लेखक में भी ऐसी ही सोच थी और अब किताब लेखन में भी। उस समय तक मेरी तीन किताबें प्रेस में थीं - ‘सुनो लद्दाख!’ और ‘पैडल पैडल’ को अंजुमन प्रकाशन प्रकाशित कर रहा था और ‘हमसफर एवरेस्ट’ को हिंदयुग्म। तीनों किताबें लगभग एक साथ ही आने वाली थीं, इसलिए मेरा काम बहुत बढ़ा हुआ था। इस वजह से मैं पूर्वोत्तर की यात्रा के लिए कोई तैयारी नहीं कर पाया।
लेकिन अगर तैयारी कर भी लेते, तब भी क्या फर्क पड़ता? मोटरसाइकिल पैक होकर ट्रेन से गुवाहाटी के लिए रवाना हो चुकी थी और मैं प्रिंटर के यहाँ बैठकर ‘हमसफर एवरेस्ट’ की कई सौ प्रतियों पर हस्ताक्षर कर रहा था। प्रकाशक ने प्री-बुकिंग करने वालों को लेखक की हस्ताक्षरित प्रति देने का वादा कर रखा था और मैं आश्चर्यचकित था कि इतनी प्रतियाँ प्री-बुक करेगा कौन!
खैर, गुवाहाटी में जब मोटरसाइकिल ट्रेन से उतारी जा रही थी तो इसकी दुर्दशा देखी ना गई।
“अब के बाद कभी भी ट्रेन से मोटरसाइकिल नहीं भेजेंगे।”
“हाँ, इसे हम स्वयं चलाकर दिल्ली ले जाएँगे।”
दस दिनों की इस यात्रा में हम गुवाहाटी से शिवसागर, चराइदेव, जागुन, मियाओ, नामदफा नेशनल पार्क, नामसाई, तेजू, परशुराम कुंड आदि देखते-घूमते तिनसुकिया, डिब्रुगढ़, माजुली, काजीरंगा में ब्रह्मपुत्र के इर्द-गिर्द भी बहुत घूमे और कई बार मोटरसाइकिल को नावों पर चढ़ाकर ब्रह्मपुत्र की भी सैर कराई।
हमें तो उथली नदियाँ देखने की आदत है, जिनका पानी नहरों में निकाल-निकालकर समाप्त कर दिया जाता है। लेकिन ब्रह्मपुत्र का पानी नहरों में नहीं जाता। तिब्बत-भर का पानी इसमें होता है। इसके ऊपर नौ-नौ किलोमीटर लंबे पुल बनाए जाते हैं।
हम तो खुश थे ही, मोटरसाइकिल हमसे भी ज्यादा खुश थी - ब्रह्मपुत्र की यात्रा करके।
और मोटरसाइकिल गुवाहाटी ही छोड़कर आ गए - जल्द ही फिर से इधर आएँगे और बाकी पूर्वोत्तर देखेंगे और इसे चलाकर दिल्ली भी ले जाएँगे।
अगला मौका मिला फरवरी 2018 में। मेघालय जी भरकर देखा और रास्ते में उत्तर बंगाल के पर्वतीय स्थलों जैसे लावा आदि में भी अच्छा समय व्यतीत किया।
मार्च के आखिर तक दोनों यात्राएँ लिखकर किताब छापने का पूरा मन बन गया। किताब के लिए सबसे जरूरी होता है मैटीरियल। आपके पास अगर अच्छा मैटीरियल है, तो समझिए कि किताब तो बन चुकी। फिर छपना तो औपचारिकता होती है। किताब छपने के कई तेरीके होते हैं। सबसे प्रचलित तरीका है - कोई प्रकाशक पकड़िए और छपवा लीजिए। लेकिन इस काम में प्रत्येक प्रकाशक का न्यूनतम खर्चा तो होता ही है। तो अगर प्रकाशक को लगेगा कि आपकी किताब अच्छी बिक जाएगी, तो वह आपसे कोई पैसा नहीं लेगा। लेकिन अगर लगता है कि किताब अच्छी नहीं बिकेगी, तो प्रकाशक आपसे कुछ धनराशि अवश्य लेगा। प्रकाशक का मुख्य काम आपकी किताब की मार्केटिंग करना और इसे बेचना होता है।
लेकिन अब फेसबुक का जमाना है। सैंकड़ों-हजारों लोग आपके मित्र और फॉलोवर्स होते हैं। तो अगर आपको लगता है कि आप ठीकठाक संख्या में अपनी किताब स्वयं भी बेच सकते हैं, तो आपको इस काम में देरी नहीं करनी चाहिए। मैंने भी यही किया।
और इस काम में हिंदयुग्म के मालिक शैलेश जी और अंजुमन प्रकाशन के मालिक वीनस जी ने मेरी बहुत सहायता की। उधर सुरेंद्र सिंह रावत ने इसके कवर पेज डिजाइन करने की जिम्मेदारी ली। शाहदरा में प्रिंटर से बात कर आया और पता चल गया कि कितने पेज की किताब कितने रुपये में छपेगी और हमें इसकी एम.आर.पी. कितनी रखनी चाहिए। इतना सब होने के बाद 10 अप्रैल को आई.एस.बी.एन. के लिए ऑनलाइन एप्लाई कर दिया। पुख्ता सूत्रों से जानकारी मिली थी कि सप्ताह-भर में आई.एस.बी.एन. मिल जाएगा, इसलिए फेसबुक पर प्री-बुकिंग शुरू कर दी और अप्रैल के लास्ट में किताब आने की भविष्यवाणी कर दी।
ठीक इसी समय दैनिक जागरण और एक अन्य संस्था ने हिंदी किताबों की बेस्टसेलर लिस्ट जारी की। इसमें ‘हमसफर एवरेस्ट’ भी शामिल थी। इसे बेस्टसेलर बनाने में मेरा कोई योगदान नहीं था। इसमें सारा योगदान और मेहनत हिंदयुग्म ने की थी। मन डाँवाडोल हो गया। किताब खुद ही प्रकाशित करूँ या किसी स्थापित प्रकाशक से प्रकाशित कराऊँ?
दो मिनट में उत्तर भी मिल गया। खुद ही प्रकाशित करो। या तो आर, या पार। एक बार करके देखना चाहिए। ज्यादा सिरदर्दी होगी, तो अगली किताब स्थापित प्रकाशक को दे देंगे। ज्यादा सिरदर्दी नहीं होगी, तो खुद छापेंगे। करके देखते हैं।
ठीक इसी समय एक अत्यधिक घनिष्ठ मित्र का फोन आया - “नीरज, तेरी किताब बेस्टसेलर हुई है। और यह केवल प्रकाशक की बदौलत हुई है। मेरी एक सलाह है... और आज्ञा भी... कि इस किताब को तू खुद प्रकाशित नहीं कराएगा।”
“ठीक है सर, मैं इसे खुद प्रकाशित नहीं कराऊँगा।” मैंने वादा कर दिया।
लेकिन फोन कटते ही ‘करके’ देखने का भूत सवार हो गया। करके देखते हैं क्या होता है।
लेकिन आई.एस.बी.एन. मिलने में एक महीना लग गया। 9 मई को आई.एस.बी.एन. मिला। अब किताब प्रिंट होने को पूरी तरह तैयार थी। किताब की पी.डी.एफ. फाइल मोबाइल में ट्रांसफर कर ली और अगले दिन मैं प्रिंटर के पास जाने वाला था।
तभी दो घटनाएँ याद आ गईं। जब ‘हमसफर एवरेस्ट’ की प्रूफ-रीडिंग चल रही थी, तो शैलेश जी ने मुझे अपने कार्यालय बुलाया था और किताब का प्रिंट-आउट पढ़ने को दिया था।
“ऐसा क्यों? मैं पहले ही चार बार पढ़ चुका हूँ।”
“ऐसा इसलिए कि कंप्यूटर स्क्रीन पर देखने में और प्रिंट में देखने में अंतर होता है। कई बार फोंट में, विराम-चिन्हों में मामूली-सा अंतर आ जाता है।”
दूसरी घटना थी डॉ सुभाष शल्य के मित्र अशोक जी के कार्यालय में। अशोक जी समाचार-पत्रों के लिए एडिटिंग भी करते हैं और लिखते भी हैं। मेरे हाथों में तीनों किताबें थीं। अशोक जी ने इनमें से दो किताबें मेरे सामने रैंडमली खोलकर रख दीं - “ये बताओ, कौन-सी किताब आराम से पढ़ी जा रही है?”
मैंने एक पर हाथ रख दिया।
बोले - “बस, यही बात है। यह फोंट का कमाल है। इस किताब का फोंट ज्यादा अच्छा है।”
मतलब फोंट का भी कुछ गणित होता है। और प्रिंट-आउट निकलने के बाद यह परिवर्तित भी हो सकता है। रात को ही मैंने अपनी इस किताब में से दो-तीन पेजों के प्रिंट-आउट निकाले। और प्रिंट-आउट निकालते ही दिमाग खराब हो गया। नहीं, यह फोंट कत्तई मंजूर नहीं। अभी तक जो फोंट स्क्रीन पर बहुत अच्छा लग रहा था और मैं फूला नहीं समा रहा था, वो प्रिंट-आउट निकलते ही धराशायी हो गया।
फोंट बदल दिया। इसमें कुछ ही सेकंड लगे। प्रिंट-आउट में भी ठीक लगा। लेकिन फोंट बदलने के बाद प्रूफ-रीडिंग भी करनी पड़ती है। और आपको पता होना चाहिए कि दुनिया का सबसे उबाऊ काम होता है प्रूफ-रीडिंग करना। जिस किताब की प्रूफ-रीडिंग मैं पहले तीन बार कर चुका था, अब फिर से करनी पड़ी और इस काम में एक सप्ताह लग गया।
फिर से किताब अगली सुबह प्रिंट होने को तैयार हो चुकी थी। तभी नजर पड़ी कि मैंने पेज नंबर तो लगाए ही नहीं। पेज नंबर लगाने, सम संख्या पर अपना नाम लिखने, विषम संख्या पर किताब का नाम लिखने और बीच-बीच में कई जगह पेज नंबर हटाने भी पड़े... इस काम को सीखने में पाँच दिन लग गए। कई दोस्तों से इस बारे में पूछा कि सम और विषम पर अलग-अलग ‘फुटर’ कैसे लगाया जाता है। उधर किताब लगातार लेट होती जा रही थी। चौथे दिन तो मैं इतना इरिटेट हो चुका था कि बिना पेज नंबर के ही किताब छाप देने का विचार करने लगा था। शुक्र हो पाँचवे दिन का, कि मैं सीख गया।
आखिरकार प्रिंटिंग प्रेस वाले ने वादा किया कि 29 मई को वह किताब छापकर मेरे हवाले कर देगा। इस वादे से उत्साहित होकर हमने अपने फेसबुक दोस्तों को 30 मई को बुला लिया... किताब के विमोचन ‘समारोह’ में शामिल होने के लिए। हिमाचल वाले तरुण गोयल भी उस समय हमारे ही यहाँ थे।
लेकिन 29 मई की शाम को प्रिंटिंग वाले ने हाथ खड़े कर दिए - “नीरज भाई, कल दोपहर तक दे पाऊँगा।”
30 मई को शाम छह बजे मित्र आने शुरू हो गए।
“किताब दिखाओ भाई, किताब दिखाओ।”
“किताब तो अभी आई ही नहीं।”
इससे पहले कि हम सभी मित्र प्रिंटिंग वाले के यहाँ जाकर उसके कंप्यूटर और मशीनें उठाकर लाते, साढ़े छह बजे किताबें आ गईं।
इसमें 224 ब्लैक-व्हाइट पेज हैं और 16 रंगीन पेज हैं, जिनमें 32 कलर फोटो भी हैं। कुछ नक्शे भी हैं, जो आपको किताब पढ़ने के दौरान बहुत काम आएँगे।
आप के इस त्याग, परिश्रम और समर्पण के कारण ही यह पुस्तक तैयार होकर प्रकाशित हो पायी है। इससे पाठकों और देश के लोगों को पूर्वोत्तर भारत के बारे में एक नया नजरिया मिलेगा और वे इससे लाभान्वित होंगें। आप के जोश और परिश्रम को सभी लोग सराहना करेंगे। बहुत बहुत शुभ कामनाएँ।
ReplyDeleteमुबारक हो श्रीमान
ReplyDeleteBahut bahut badhaiya
ReplyDeletebahut bahut badhai Neeraj.
ReplyDeleteबहुत बहुत अभिनन्दन...... आप की महेनत रंग लाएगी..... आप की बुक्स बेस्ट सेलर से भी जयादा पॉप्युलर हो जाएगी... क्यों की आप ने पूरी महेनत की है..... जी-जान लगा दी.....
ReplyDeleteनिराजभाईसब... अब आप एक कोसिस उत्तराखंड की किताब लिखने के बारे में भी कीजिये.... अगर मन डावाडोल हो तो पहले आप के सभी सोशल मीडिया के दोस्तों से अभिप्राय.... ले फिर काम शुरू करे... उत्तरा खंड के बारे में आप के पास पूरा मटेरियल तो है ही... सिर्फ सेटिंग करना है.. फोटू भी बेस्ट है.. आप के ब्लॉग में.... बस उस का इस्तेमाल करना है.......
ऐसी बुक बनाये.. जो धार्मिक के साथ साथ घुम्मकड़ों और प्रकृतिप्रेमीओ को भी पढ़ने - वह जाने का मज़ा दे.... ऋषिकेश से ऋषिकेश... मगर आप ने जैसे मज़ा लिया वैसे.... न की सिर्फ यमनोत्री, गंगोत्री और केदारनाथ बदरीनाथ जी ही जाये.. मगर रास्ते का मज़ा आप की बुक के सहारे मिल जाये... ऐसा कुछ कीजिये.. धन्यवाद्.
उत्तराखंड पर एक किताब होनी चाहिए नीरज भाई
Deleteजी बिलकुल, उत्तराखंड पर भी एक किताब होना चाहिए। लेकिन उससे पहले रेलवे पर भी दो तीन किताबें होनी चाहिए।
ReplyDeleteविमलेश जी के इस प्रस्ताव पर जोर शोर से पूर्ण समर्थन है।
DeleteRe bhai "Hum to tere aashique hain sadiyon puraane chahe tu maane chahe na maane" apna bank account number IFSC code vagairah bhej de turant bhugtaan karne ko samajh le taiyyar hi baithe hain...bugtaan confirm ho jaye to address mobile pe bhej den ge...aur bata. Pehle ki teenon kitaben khud do teen baar chat li hain aur ab doosron ko de de ke chatvate hain...kyun ki HUM TO TERE AASHIUE HAIN SADIYON PURANE.. :)
ReplyDeleteबधाई जी।
ReplyDeleteनीरजजी, क्या मुझे हिन्दयुग्म के शेलेष भारतवासी का फोन नं. मिल सकता है? मुझे अपने पिताजी की हास्यव्यंग्य की रचनाओं का संग्रह छपवाने के बारे में जानकारी लेनी थी।
ReplyDelete- Shalabh Saxena
अमेजन में किंडल एडीशन (पेपरबैक के अलावा) के लिए भी सेटअप कर लें, और उसमें भी प्रकाशित करें तो और भी पाठकों के पास पहुँचेगा.
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