इस यात्रा के फोटो आरंभ से देखने के लिये यहाँ क्लिक करें । 17 मई 2016 “पता नहीं बंदा किस मिट्टी का बना था, आपे से बाहर हो गया - “आपको यहाँ कोई दिक्कत है, तो दूसरे होटल में चले जाईये।” इसके बाद कोठारी जी और उसमें बहस होने लगी। मैंने बीच-बचाव किया - “भाई देख, हम ग्राहक हैं। हमें कोई असुविधा हो रही है, तो हम किससे शिकायत करें? तुम शांत रहो और एक-एक शिकायत पर ध्यान दो। यह कहना बिल्कुल भी ठीक नहीं है कि होटल छोड़ दो।” मन तो खट्टा हो ही चुका था। मैंने फिर कोठारी जी से कहा - “सर, होटल छोड़ देते हैं।” ... “लॉज में हम आलू के पराँठे का ऑर्डर देने वाले थे, इसलिये यहाँ भी इसी के बारे में पूछा। होटल मालिक व मालकिन ने एक-दूसरे को देखा, फिर हमसे पूछा - “यह क्या होता है?” इसके बाद बारी थी मेरी और दीप्ति को एक-दूसरे को देखने की - “हम बनायेंगे।” कुकर में आलू उबाले। भर-भरकर पाँच पराँठे बनाये। दो कोठारी जी ने, एक-एक हमने और एक होटल मालिक ने खाया। शानदार अनुभव था। दीप्ति पराँठे बना रही थी, मैं परोस रहा था और होटल मालिक बैठकर खा रहे थे। बाद में जब हमने पूछा कि पराँठे कैसे लगे, तो उत्तर मिला - “बहुत शानदार, ल
नीरज मुसाफिर का यात्रा ब्लॉग