उधर शिमला समेत पूरे पश्चिमी हिमालय में भारी बर्फ़बारी हो रही थी। ऐसे में हमारा भी शिमला जाने का मन बनने लगा था। लेकिन कुछ ही दिन बाद होने वाली अंडमान यात्रा के मद्देनज़र शिमला जाना रद्द कर दिया। अब जब अचानक दीप्ति से बरसूड़ी चलने के बारे में बताया तो वह खुश हो गयी।
उधर बीनू, ललित जी और माथुर साहब कश्मीरी गेट से कोटद्वार वाली बस में बैठ चुके थे। मोहननगर से अजय भी इसी बस को पकड़ेगा। जब मैंने अजय को फोन किया तो वह निकलने ही वाला था। सुबह कार से चलने के मेरे आग्रह को उसने तुरंत मान लिया और इसकी सूचना बाकियों को भी दे दी।
...
उत्तराखंड़ में पलायन एक बहुत बड़ी समस्या बन चुका है। अगर इसे आपदा मान लिया जाये, तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। बच्चे पढ़ाई पूरी करते ही या पढ़ाई के दौरान ही पहाड़ छोड़ देते हैं और फिर बाहर ही बस जाते हैं। पहाड़ में उन्हें कोई संभावना नज़र नहीं आती। उनके साथ बूढ़े भी पहाड़ छोड़ रहे हैं। बहुत सारे गाँव तो ऐसे हैं, जहाँ अब कोई भी नहीं रहता और बहुत सारे ऐसे भी हैं, जहाँ एकाध ही व्यक्ति रहता है। रही-सही कसर उत्तराखंड़ के मैदानी शहरों ने पूरी कर दी है; जैसे हरिद्वार, देहरादून, काशीपुर, रुद्रपुर आदि। यदि हिमाचल की तरह उत्तराखंड़ भी पूरी तरह पर्वतीय राज्य होता, तो शायद उतना पलायन न होता।
बरसूड़ी भी पलायन से अछूता नहीं है। गाँव में प्रत्येक घर में बूढ़े ही बचे हैं। बच्चे सब बाहर चले गये हैं, जो कभी-कभी छुट्टी मनाने गाँव आ जाते हैं। धीरे-धीरे यह भी बंद हो जायेगा। ऐसे में बीनू का गाँव की ओर लौटना एक सराहनीय कदम है। वह सोशल मीड़िया के माध्यम से गाँव के उत्थान के लिये अच्छा कार्य कर रहा है। पिछले दिनों उसने यहाँ एक ‘एजूकेशन कैंप’ लगाया था। आने वाले दिनों में ‘मेडिकल कैंप’ लगाने की भी योजना है।
लेकिन ‘एजूकेशन कैंप’ से गाँव के बच्चों का तात्कालिक भला हो सकता है और ‘मेडिकल कैंप’ से बूढों का। लेकिन पलायन की समस्या इनसे नहीं सुलझने वाली। बाहर निकल चुके प्रत्येक युवक को ‘बीनू’ बनना पड़ेगा और गाँवों की ओर लौटना पड़ेगा, तभी बात बनेगी। सरकार को भी इसमें शामिल होना पड़ेगा। हिमाचल जाकर अध्ययन करना पड़ेगा कि क्यों लाहौल-स्पीति और किन्नौर जैसे भयंकर इलाकों में भी पलायन नहीं है। अच्छी सड़कें और चौबीस घंटे बिजली देना पर्याप्त नहीं है, क्योंकि इस मामले में हिमाचल के मुकाबले उत्तराखंड़ आगे है।
2001 में जब उत्तराखंड़ राज्य बना, तो हरिद्वार और ऊधम सिंह नगर जिले उत्तर प्रदेश में जाने वाले थे। लेकिन उत्तराखंड़ के नीति-नियंताओं ने यह कहकर इन दोनों मैदानी जिलों को उत्तराखंड़ में शामिल करवा लिया कि राज्य की अर्थव्यवस्था के लिये इनका होना ज़रूरी है। उधर जब कभी 1971 में पंजाब से अलग होकर वर्तमान हिमाचल बना था, तो जिलों और तहसीलों तक का भी विभाजन हुआ था और मैदानी भाग पंजाब में व पर्वतीय भाग हिमाचल में चले गये थे। उस समय किसी ने नहीं कहा होगा कि होशियारपुर या रोपड़ या अंबाला का हिमाचल में होना ज़रूरी है। नतीजा यह हुआ कि हिमाचल सरकार ने जो भी कार्य किये, सब पर्वतों को ध्यान में रखकर किये। आज हिमाचल का युवा राज्य से बाहर ही चला जाये, तो अलग बात है; लेकिन राज्य में जहाँ भी कहीं रहेगा - नौकरी करेगा, रोजगार करेगा या कुछ भी करेगा - रहेगा पहाड़ में ही।
लेकिन उत्तराखंड़ में ऐसा नहीं है। हरिद्वार और ऊधमसिंह नगर तो पूरी तरह मैदानी जिले हैं। देहरादून, पौड़ी गढ़वाल, नैनीताल और बागेश्वर के भी काफ़ी इलाके मैदानी हैं। इन इलाकों में औद्योगिक क्षेत्र बन जाने से शिक्षा, रोजगार और नौकरी के अकूत द्वार खुले हैं। फिर सरकार का यह कानून भी है कि इन उद्योगों में कम से कम 75 प्रतिशत कर्मचारी उत्तराखंड़ी होंगे। इससे पहाड़ से बेतहाशा पलायन हुआ है। मैदानी जिलों में लगातार नयी-नयी कालोनियाँ बन रही हैं, जिससे पहाड़ से आये लोग मैदान में स्थायी रूप से बसने लगे हैं।
आपको उत्तराखंड़ के पहाड़ों में राष्ट्रीय राजमार्गों पर भी उतना यातायात नहीं मिलेगा, जितना हिमाचल की ग्रामीण सड़कों पर मिल जाता है।
तो मेरा बरसूड़ी जाने का एक मुख्य मक़सद यह भी था कि एक ठेठ उत्तराखंड़ी - गढ़वाली - गाँव को देख सकूँ। कोटद्वार से आगे पौड़ी रोड़ पर गुमखाल है। लैंसडाउन के एकदम बगल में। समुद्र तक से 1500 मीटर ऊपर। यहाँ से हम पौड़ी मार्ग को छोड़ देते हैं और द्वारीखाल पहुँचते हैं। रास्ते में सड़क से थोड़ा हटकर गढ़वाल के दो गढ़ - हनुमान गढ़ी और भैरों गढ़ी - आते हैं। आज मंगलवार होने के कारण उधर जाने वालों की चहल-पहल थी। इससे आगे 1600 मीटर की ऊँचाई पर द्वारीखाल है। एक तंग रास्ता दाहिने मुड़कर बरसूड़ी जाता है। यह रास्ता अभी नया बन रहा है और कच्चा है, लेकिन गाड़ियाँ चल सकती हैं। बीनू ने बता दिया था कि जहाँ तक गाड़ी ला सको, ले आओ। फिर वहीं छोड़कर पैदल आ जाना।
अजय अच्छा ड्राइवर है। जहाँ मुझे कार में बैठे हुए डर लग रहा था, उसने कुशलता से कार चलायी। फिर एक मोड़ पर भू-स्खलन से रास्ता बंद मिला तो कार यहीं छोड़ने के अलावा कोई चारा नहीं था। यहाँ से बरसूड़ी लगभग दो किलोमीटर है। एक किलोमीटर तक गाड़ी लायक रास्ता है, फिर पगडंडी है। दो-तीन दिन पहले ही यह भूस्खलन हुआ था, अन्यथा हमारी कार अभी एक किलोमीटर और जा सकती थी।
गाँव में पहुँचे तो मेरी निगाहें किसी युवा को ढूँढ़ रही थीं। लेकिन मुझे एक भी युवा नहीं दिखायी पड़ा। सभी उम्रदराज़ और बूढ़े थे। कुछ हमें देखकर हाथ जोड़कर नमस्ते कर रहे थे, तो कुछ को देखकर हम नमस्ते कर लेते। बीनू के घर तक पहुँचने के लिये किसी से पूछना नहीं पड़ा। सभी को पता था कि हम कौन हैं और किसके यहाँ जाना है।
यह कहने की आवश्यकता नहीं कि यहाँ हमारा बहुत अच्छा स्वागत हुआ। कल दिल्ली से चले हुए मित्र आज सुबह ही आ गये थे और अब सो रहे थे। हमारे जाते ही उठ गये।
“गाँव में स्कूल कहाँ है?” मेरे यह पूछने पर बीनू ने बताया कि उधर नीचे नदी के पास है। स्कूल गाँव से तीन-चार किलोमीटर दूर है। रास्ता तेज ढलान वाला है और घना जंगल भी है। बीनू ने बताया - “वहाँ जंगल में स्कूल इसलिये है ताकि और भी गाँवों के बच्चों को लाभ मिल सके।”
यह वास्तव में बहुत चिंताजनक था। प्रत्येक गाँव में स्कूल होना चाहिये था। कम से कम प्राइमरी स्कूल तो होना ही था। अब इतने गाँवों के बच्चों को कई किलोमीटर भालुओं और तेंदुओं से भरे जंगल में चलकर स्कूल जाना पड़ता है। इन बच्चों के पास दसवीं के बाद या बारहवीं के बाद गाँव छोड़ने के अलावा कोई और चारा नहीं रहेगा, क्योंकि नज़दीकी कॉलेज या तो कोटद्वार में है या पौड़ी में। अब जब इन्हें गाँव छोड़ना ही है और बाहर रहना ही है तो सभी अपने बच्चों को और बेहतर माहौल में भेजते हैं - देहरादून।
अब ये बच्चे कभी गाँव नहीं लौटेंगे। यही हाल बाकी गाँवों का है, लगभग पूरे जिले का है और लगभग पूरे राज्य का भी है।
भोजन और रात्रि-विश्राम के लिये हमें बीनू के चाचा के घर जाना पड़ेगा। उनका घर इस गाँव से लगभग तीन किलोमीटर दूर काफ़ी नीचे उतरकर है। जब हम अंधेरा होते-होते वहाँ पहुँचे तो मैं हैरान रह गया। यहाँ घने जंगल में केवल दो ही घर थे। और इन दो घरों में केवल चार बूढ़े प्राणी रहते हैं। पहाड़ के लिहाज़ से ये दोनों घर बहुत अच्छे बने हैं और बड़े भी हैं। दो कुत्ते बँधे थे - हिमालयी कुत्ते - जो हमें देखकर पहले तो बहुत भौंके, लेकिन दोस्त भी जल्दी ही बन गये।
आग जला ली। चारों तरफ़ सभी बैठ गये और मूँगफली खाते रहे। ललित शर्मा जी एक पुराने ब्लॉगर हैं। मैं भी आठ-नौ सालों से ब्लॉगिंग कर रहा हूँ, तो ब्लॉगिंग के पुराने दिनों पर चर्चा भी होती रही। अगर मैं और ललित जी बैठे हों और अलबेला खत्री का जिक्र न हो, यह असंभव है। वे सूरत के रहने वाले थे। दो बार मेरा उनसे मिलना हुआ था। अच्छी जान-पहचान हो गयी थी। ललित जी और उनका तो जैसे घर का मामला था। कई साल पहले जब दिल्ली में एक अख़बार के एक कोने में ख़बर पढ़ी - प्रसिद्ध कवि अलबेला खत्री का निधन - तो मैंने सबसे पहले ललित शर्मा को ही इसकी सूचना दी थी। शर्मा जी उस दिन बहुत रोये थे और आज भी रुआँसे हो गये थे।
मूँगफली समाप्त होने से पहले ही मदिरा का दौर शुरू हो गया। बीनू के चाचाजी इस माहौल का सबसे ज्यादा आनंद ले रहे थे। लग रहा था जैसे चाची उन्हें पीने नहीं देतीं। आज वे हमारी आड़ में केवल पीते ही रहना चाहते थे।
तेंदुए को पूरे पहाड़ में बाघ बोला जाता है। इस जंगल में तेंदुए और बारहसिंघे इतने अधिक हैं कि लगभग रोज़ ही ये इनकी छत पर आ जाते हैं। कुत्ते दूर से ही इनकी आहट पा जाते हैं। फिर बाघ की उपस्थिति पर अलग तरीके से भौंकते हैं और बारहसिंघे की उपस्थिति पर अलग तरीके से और तीतर आने पर अलग तरीके से। सुबह हम बारहसिंघे की खोज में जंगल में घूमे भी, लेकिन मिला कोई नहीं।
माल्टे, संतरे और नींबू के बहुत पेड़ हैं यहाँ। पके हुए फलों से पेड़ लदे खड़े थे, लेकिन इन्हें तोड़ने वाला कोई नहीं। हमारा स्वागत माल्टे से हुआ। इतना खट्टा कि अब लिखते समय भी खटास का अनुभव हो रहा है। लेकिन उस समय बीनू ने इसे काटकर इसमें चीनी और चटनी मिलाकर ऐसी चाट बनायी कि हम खूब माल्टे खा गये। और नींबू इतने बड़े-बड़े कि दिल्ली लाकर जब निचोड़े तो चार नींबूओं से ही आधा लीटर रस निकल गया।
हिमालय में पहाड़ की उत्तरी ढलानों पर नमी ज्यादा होती है और जंगल भी घना होता है। ऐसे ही स्थान पर चाचाजी के ये दो घर हैं। घने जंगल में केवल दो ही घर। बीनू ने बताया कि एक बार एक बकरी को एक तरफ़ से चाचीजी ने पकड़ रखा था और दूसरी तरफ़ से तेंदुए ने। तेंदुआ उसे खा जाना चाहता था और चाचीजी उससे संघर्ष कर रही थीं। अब चौबीस घंटे जंगल में रहने से इतना डर तो समाप्त हो ही जायेगा।
अब ऐसे में यहाँ यानी बरसूड़ी गाँव में पर्यटन की क्या संभावना है? बीनू के प्रयासों से सोशल मीडिया में इस गाँव का जिक्र आने लगा है। उधर अजय भी कुछ ऐसा ही करना चाहते हैं। बाद में हम दोनों ने वैशाली स्थित उनके घर पर बैठकर बरसूड़ी समेत पूरे उत्तराखंड़ के ऐसे गाँवों में होमस्टे की रूपरेखा बनायी, जहाँ भविष्य में पर्यटन फल-फूल सकता है। उत्तराखंड़ के खाली होते गाँव एक आस भी पैदा कर रहे हैं। बिना कुछ निवेश किये इन गाँवों में होमस्टे को बढ़ावा दिया जा सकता है। अच्छा प्रचार हो तो इन गाँवों में यात्री आने लगेंगे। बरसूड़ी समुद्र तल से लगभग 1400 मीटर ऊपर है। उत्तराखंड़ में इतनी ऊँचाई पर अक्सर बर्फ़ नहीं पड़ती, लेकिन इस सीजन में अच्छी बर्फ़बारी होने के कारण यहाँ बर्फ़ पड़ चुकी है। यहाँ से हिमालय की चोटियाँ नहीं दिखायी देतीं। लेकिन जिस कारण से यहाँ पर्यटकों को आकर्षित किया जा सकता है, वो है जंगल और एकांत। किसी वन्यजीव-प्रेमी और पक्षी-प्रेमी के लिये यह स्थान बेहद उपयुक्त है।
पूरी दुनिया में जंगल काटकर खेत बनाये जा रहे हैं, लेकिन बरसूड़ी में इसका विपरीत है। कोई देखभाल न होने के कारण यहाँ के खेत जंगल में तब्दील होते जा रहे हैं। युवाशक्ति गाँव में रही नहीं और बूढ़ों को बच्चों से पर्याप्त खर्चा-पानी मिल जाता है, तो क्यों खेती करनी?
कुल मिलाकर पलायन की हवा इतनी तेज है कि अब इसका रुकना लगभग नामुमकिन है। लेकिन जो एक चीज इसे रोक सकती है, वो है पर्यटन।
द्वारीखाल वाली सड़क आगे ऋषिकेश चली जाती है, जो यहाँ से 60-70 किलोमीटर दूर है। मेरी इच्छा इस सड़क पर यात्रा करने की थी। उधर जब पता चला कि आज पंकज शर्मा हरिद्वार में ही हैं, तो मेरी इच्छा भी हरिद्वार जाने की होने लगी। पिछले साल हम दो-तीन बार हरिद्वार गये थे, लेकिन पंकज से मिलना नहीं हो पाया था। बड़ी इच्छा थी इनसे मिलने की।
शाम छह बजे जब सभी लोग द्वारीखाल पहुँचे तो अंधेरा हो गया था। अगले दिन ललित शर्मा की दिल्ली से रायपुर की फ्लाइट थी। हमारे पास कार थी और हम ऋषिकेश की तरफ़ मुड़ चुके थे। उधर बीनू को भी लगने लगा कि द्वारीखाल से अब कोटद्वार के लिये कोई टैक्सी भी मिलनी मुश्किल है, इसलिये शर्मा जी को हमारे साथ जाने की अनुमति दे दी। हम आज रात हरिद्वार रुकेंगे और कल दोपहर तक दिल्ली पहुँच जायेंगे। शाम पाँच बजे की फ्लाइट थी।
संयोग की बात कि इधर हम हरिद्वार पहुँचे, उधर बीनू समेत बाकी लोग नजीबाबाद पहुँच गये। उन्हें टैक्सी मिल गयी थी। पंकज और ललित जी भी एक-दूसरे को अच्छी तरह जानते हैं, इसलिये सभी बड़े जोश से मिले। रात एक बजे तक बातें ही बातें होती रहीं। इन दोनों ने मुझ आलसी को बिजनेस और अपने हुनर की मार्केटिंग सिखाने की भरसक कोशिश की। मुझे बात समझ तो आ गयी, लेकिन अमल कब करूँगा - भगवान जाने।
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अजय के साथ
यही है बरसूड़ी गाँव... |
गाँव में बीनू के घर पर |
दो-ढाई किलोमीटर दूर चाचा के घर जाते हुए... |
ललित शर्मा जी... |
ये नींबू हैं... |
चाचाजी... |
विदाई समारोह... |
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हमारी तो आमदनी हो गयी... दीप्ति की मुँहदिखाई... बायें से: अजय, धर्मवीर माथुर जी, ललित शर्मा जी, बीनू कुकरेती और चाचाजी फोटोग्राफर हैं छत्तीसगढ़ के किशोर वैभव |
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हरिद्वार में पंकज के साथ |
बरसूड़ी गाँव की सटीक स्थिति...
आपको कौन-सा फोटो सबसे अच्छा लगा? और अपने सुझाव अवश्य दें।।
नीरज जी आपने नवयुवको के पलायन पर बहुत ही अच्छे से प्रकाश डाला है। पढ़कर अच्छा लगा।
ReplyDeleteधन्यवाद चौधरी साहब...
Deleteपढ़कर और फोटोज देखकर ऐसे लगा जैसे अपने गाँव की सैर कर ली हो।
ReplyDeleteआपका गाँव कौन-सा है?
Deleteबरसुड़ी के बारे में इतना पढ़ लिया, कि अब लगता ही नही कोई अनजाना गांव है । वैसे आपने पलायन की समस्या पर बढ़िया लिखा ।
ReplyDeleteधन्यवाद सर जी...
Deleteसरजी आप पहाड़ोंकी बात करते है। हमारे मैदानी इलकोंमेंभी वहीँ हाल है
ReplyDeleteहर जगह गाँवों से शहरों में पलायन होता है, लेकिन उत्तराखंड़ में स्थिति बेहद ख़राब है...
Delete१०
ReplyDeleteपहाड़ों से पलायन पर आपकी चिंता इस पोस्ट को पठनीय बनाती है.बढ़िया लगा.
धन्यवाद सर जी...
Deleteशानदार लेख नीरज भाई. पलायन सही में एक बहुत बड़ी आपदा है उत्तराखण्ड के लिए. सरकारी प्रयासों ने तो और भी कबाड़ा कर दिया है. उत्तराखण्ड के पास अपनी प्राकृतिक सम्पदा और पर्यटन एक ऐसा हथियार है कि जिसको यदि सही से प्रयुक्त किया जाए तो काफी हद तक यहाँ से पलायन रुक सकता है. शीघ्र ही बरसूडी में एक होम स्टे खोलने की योजना पर कार्य कर रहा हूँ, जिससे कुछ युवाओं को रोजगार मिल सके और गाँव विश्व पटल के मानचित्र पर आ सके. एक बार आप सभी का धन्यवाद बरसूडी आने के लिए.
ReplyDeleteऔर हाँ...आपने सबसे अच्छी फोटो का पूछा है तो दीप्ति की ताई जी के साथ वाली फोटो सबसे खूबसूरत लगी.
बीनू भाई, विचार अच्छा है... इस मामले में आपकी सराहना करता हूँ...
Deleteसब फोटो बढ़िया लगे भाई जी ।
ReplyDeleteबढ़िया विवरण ।
वैसे मेरी ससुराल भी वही पास में है, थापली पट्टी ।
कभी बीनू की तरह हम भी शायद वहीँ रहें ।
धन्यवाद राकेश जी...
Deleteनीरज भाई आपने ब्लॉग मे पलायन रोकने का उपाय तो सुझा दिया है अब आगे की पहल उत्तराखंड के ग्रामीण युवाओ को करनी होगी। क्यों की जो रास्ता गाँव से शहर जाता है वहीँ शहर से गाँव भी आता है अब उन स्थानीय युवाओ को तय करना है की किस तरफ का रास्ता चुनना है। हालांकि गाँव मे रुकने का फैसला आसान नही है और कई मुश्किले भी है पर यदि एक बार विलेज होमस्टे का आईडिया चल गया तो बहुत पॉपुलर होगा। शर्त है कठिन परिश्रम और सही गाइडेंस।
ReplyDeleteऔर इस विचार के सफल होने की संभावना भी जयदा है क्यों की आज के युवा को ताज महल से जयदा लद्दाख के सुदूर मैदान पसंद है उसे सुदूर अंडमान और NE भा रहा है और वो प्रकृति के बीच समय बिताना चाहता है। UK TOURISM को इन क्षेत्रो मे इको टूरिस्म को बढ़ावा देना होगा।
सही कहा पवन जी आपने... सोचना स्थानीय युवाओं को ही है... हमारा प्रोत्साहन उन्हें हमेशा रहेगा...
Deleteबहुत संक्षेप में लिखा सर। फ़ोटो नंबर 14 बेस्ट है।
ReplyDeleteबढ़िया पोस्ट।
ReplyDeleteनीरज भाई ये सही है कि बरसूडी को पर्यटन डेस्टीनेसन बनाया जा सकता है लेकिन इसके लिये बीनू भाई को गम्भीरता से प्रयास करना होगा
ReplyDeleteसराहनीय चिंतन
ReplyDeleteBahut hi acha lekh bahut hi ache vichar sahi disha me. Thx for sharing this kind of information.
ReplyDeletePhotos sub bhadhiya hain. Sub No.1
Deleteपलायन विषय पर एक अलग से विस्तृत पोस्ट आराम से लिखी जा सकती है , क्योंकि पलायन सिर्फ उत्तराखंड ही नही बिहार -उत्तर प्रदेश में भी बहुत है ! लेकिन बीनू भाई का प्रयास सच में सराहनीय है , हालाँकि आपने ये सही कहा कि हर उत्तराखंड वासी को "बीनू " बनना पड़ेगा , शायद कुछ बन भी रहे हों !! चित्र तो शानदार होते ही हैं आपके
ReplyDeleteनीरज जी आपकी पोस्ट बहुत ही शानदार रही है फोटो भी अच्छे है उत्तरांचल में अभी तक जाना नही हुआ पर आपके पोस्ट को पढ़कर बरसुड़ी गांव के दर्शन करने की इच्छा होने लगी है अब देखना ये है कि कब जाना होता है
ReplyDeleteExcellent bhai. I am from Uttarakhand only but today I can say you know my place more than me.
ReplyDeleteGreat Job, execellent description
Dear Sir, very well written post by you... I spent 5 yrs of my life there, at that time whole village was at its best... now everything ruined.... I can memories each and every words written by you and also pics taken by you...
ReplyDeleteI am trying very hard to make it to civil services to do something which can stop migration. your memoir is very heart touching...
The gentle man smearing tilak on head is Respected Bheem Kukreti(pic no 18). he is really nice and brave person.
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