सुबह 06:40 बजे की ट्रेन थी। सुमित ने साढ़े चार बजे ही उठा दिया। उठाया, तब तो गुस्सा नहीं आया। लेकिन जब समय देखा, बड़ा गुस्सा आया। साढ़े पाँच का अलार्म लगा रखा था। सुमित को कहकर फिर से सो गया।
पता नहीं साढ़े पाँच बजे पहले अलार्म बजा या पहले विमलेश जी फोन आया। उनका उद्देश्य मुझे जगाने का ही था। जैसे ही मैंने ‘हेलो’ कहा, उन्होंने ‘हाँ, ठीक है’ कहकर फोन काट दिया।
स्टेशन आये, टिकट लिया और वेटिंग रूम में जा बैठे। इसी दौरान मैं नहा भी आया और धो भी आया। मेरे आने के बाद सुमित गया तो दो मिनट बाद ही बाहर निकला। यह देखकर कि यह ‘पुरुष प्रसाधन’ ही है, फिर से जा घुसा।
हमारा आज का लक्ष्य था भोपाल से उज्जैन पैसेंजर से मक्सी तक जाना, फिर मक्सी से इंदौर पैसेंजर से जाना, इंदौर से महू बस से, महू से वापस इंदौर और आगे रतलाम तक डी.एम.यू. से जाना। लेकिन इसमें एक पेंच था। मक्सी-इंदौर पैसेंजर 12:20 बजे इंदौर पहुँचेगी और महू-इंदौर डेमू 13:20 बजे महू से चलेगी। यानी एक घंटे में हमें इंदौर से महू पहुँचना पड़ेगा, जो कि लगभग असंभव है। इसलिये तय हुआ कि हम 12:20 बजे इंदौर में ट्रेन से उतरकर सुमित के घर जायेंगे, पेट-पूजा करेंगे और दो घंटे बाद फिर से इंदौर आ जायेंगे। मैं रतलाम वाली डेमू पकड़ लूँगा और सुमित महू वाली। महू में उसकी बाइक खड़ी है, जो हमने कल खड़ी की थी। इंदौर और महू के बीच के स्टेशनों के बोर्डों के फोटो रह जायेंगे, जिनके लिये फिर कभी इधर आना पड़ेगा। सुमित ने कहा भी कि वह इन चार-पाँच स्टेशनों के फोटो खींचकर मुझे भेज देगा, लेकिन मैं केवल स्वयं के लिये फोटो ही संग्रहीत किया करता हूँ।
ठीक समय पर भोपाल-उज्जैन पैसेंजर (59320) भोपाल से चल पड़ी। पहला स्टेशन बैरागढ़ है। अच्छा हाँ, भोपाल एक जंक्शन है। यहाँ से तीन दिशाओं में रेलवे लाइनें जाती हैं - झाँसी, इटारसी और उज्जैन। बैरागढ़ से एक बाईपास लाइन निकलकर झाँसी वाली लाइन में मिली हुई है, जिससे मालगाड़ियों को भोपाल नहीं जाना पड़ता। अब कुछ यात्री गाड़ियों को भी भोपाल की बजाय बैरागढ़ से ही निकालने की योजना बन रही है, जिनमें क्षेत्र की सबसे मुख्य गाड़ी मालवा एक्सप्रेस भी शामिल है। हालाँकि स्थानीय स्तर पर इसका विरोध हो रहा है, लेकिन व्यस्त भोपाल में गाड़ियों का इंजन बदलना इसकी व्यस्तता को और बढ़ा देता है। इसलिये उज्जैन की तरफ से आकर बीना की तरफ जाने वाली गाड़ियों को बैरागढ़ से ही निकाल देना अच्छा है। दूसरे बहुत से स्थानों पर भी ऐसा हो रहा है। इलाहाबाद के पास छिवकी, जालंधर सिटी के पास जालंधर छावनी, कटनी के पास कटनी साउथ और कटनी मुडवारा, दिल्ली में दिल्ली सफ़दरजंग भी ऐसे ही कुछ उदाहरण हैं। अभी हाल ही में पटना में पाटलिपुत्र को विकसित किया गया है और राजधानी समेत कई ट्रेनों को पाटलिपुत्र से ‘डायवर्ट’ किया गया है।
बैरागढ़ से आगे के स्टेशन हैं - बकानियां भौंरी, फन्दा, पचावां, सीहोर, बकतल, पारबती, जबड़ी, काला पीपल, चाकरोद, शुजालपुर, मोहम्मद खेड़ा, अकोदिया, बौलाई, कालीसिंध, किशोनी, बेरछा, पीर उमरोद और मक्सी जंक्शन।
बैरागढ़ के पास एक बाबाजी माँगने आये - मंजीरा लेकर। मस्तमौला हँसमुख। कहने लगे - “चलती है गाड़ी, उड़ती है धूल। मत करो भूल, मत करो भूल। एक गाया आया है नया, अभी आपको सुनाता हूँ।” झूमते हुए मँजीरा बजाने लगे और गाने लगे - “सीताराम सीताराम, सीताराम सीताराम।”
पारबती और कालीसिंध तो इसी नाम की नदियों के किनारे हैं। शायद बेरछा भी नदी है। मक्सी के आसपास पवनचक्कियाँ बहुत हैं। सभी विद्युत-उत्पादन में लगी रहती हैं।
पारबती और कालीसिंध तो इसी नाम की नदियों के किनारे हैं। शायद बेरछा भी नदी है। मक्सी के आसपास पवनचक्कियाँ बहुत हैं। सभी विद्युत-उत्पादन में लगी रहती हैं।
मक्सी जंक्शन से चार दिशाओं में रेलवे लाइन जाती हैं - भोपाल, इंदौर, उज्जैन और गुना। परसों मैं गुना की तरफ से आया था और उज्जैन, नागदा की तरफ़ गया था। आज भोपाल से आया और अब इंदौर की तरफ जाऊँगा। बराबर वाले प्लेटफार्म पर मक्सी-इंदौर पैसेंजर खड़ी थी। बिलकुल खाली थी। मैं और सुमित आख़िरी डिब्बे में जाकर लेट गये। तीन घंटे से भी ज्यादा हो गये थे हमें भोपाल से चले हुए। सुमित तो हालाँकि बैठा रहा, लेकिन मुझे लगातार खिड़की पर खड़े रहना पड़ा। यह लाइन डबल थी, प्लेटफार्म दोनों तरफ आते हैं, लेकिन दो स्टेशनों पर तीन-तीन प्लेटफार्म थे, इसलिये ये हमारे दाहिनी तरफ़ आये। इनके लिये मुझे अपनी बायीं ओर वाली सीट से उठना पड़ा। एक बार आप खिड़की वाली सीट से उठ जाओ, उसके भरते देर नहीं लगती।
मक्सी से चलकर पहला स्टेशन है दोन्ता, फिर रणायला जसम्या, सीला खेड़ी, अजीत खेड़ी, देवास जंक्शन, बिंजाना, बरलई, माँगलिया गाँव, लक्ष्मीबाई नगर और आख़िर में इंदौर जंक्शन।
दोन्ता में ट्रेन का गार्ड़ टिकट देता है। सीलाखेड़ी और अजीतखेड़ी में से एक स्टेशन बंद हो चुका है और ट्रेन नहीं रुकती। बंद कौन-सा हुआ है, फिलहाल मुझे याद नहीं।
जब सीलाखेड़ी के बोर्ड़ का फोटो ले लिया, तो याद आया कि इसी नाम का एक स्टेशन हरियाणा में भी है। दिमाग पर और ज्यादा ज़ोर डाला, तो याद आ गया। जींद और पानीपत के बीच में भी एक सीलाखेड़ी है।
देवास में उज्जैन से लाइन आकर मिल जाती है। एक पहाड़ी पर एक मंदिर दिख रहा था। इसके बारे में भला सुमित से अच्छा कौन बता सकता था? चामुंड़ा मंदिर था।
अच्छा-खासा बिंजाना स्टेशन भी बंद हो चुका है। यहाँ ऊँचा और ख़ूब लंबा प्लेटफार्म है, लेकिन पैसेंजर ही नहीं रुकती तो कौन-सी रुकती होगी?
मक्सी से चलकर पहला स्टेशन है दोन्ता, फिर रणायला जसम्या, सीला खेड़ी, अजीत खेड़ी, देवास जंक्शन, बिंजाना, बरलई, माँगलिया गाँव, लक्ष्मीबाई नगर और आख़िर में इंदौर जंक्शन।
दोन्ता में ट्रेन का गार्ड़ टिकट देता है। सीलाखेड़ी और अजीतखेड़ी में से एक स्टेशन बंद हो चुका है और ट्रेन नहीं रुकती। बंद कौन-सा हुआ है, फिलहाल मुझे याद नहीं।
जब सीलाखेड़ी के बोर्ड़ का फोटो ले लिया, तो याद आया कि इसी नाम का एक स्टेशन हरियाणा में भी है। दिमाग पर और ज्यादा ज़ोर डाला, तो याद आ गया। जींद और पानीपत के बीच में भी एक सीलाखेड़ी है।
देवास में उज्जैन से लाइन आकर मिल जाती है। एक पहाड़ी पर एक मंदिर दिख रहा था। इसके बारे में भला सुमित से अच्छा कौन बता सकता था? चामुंड़ा मंदिर था।
अच्छा-खासा बिंजाना स्टेशन भी बंद हो चुका है। यहाँ ऊँचा और ख़ूब लंबा प्लेटफार्म है, लेकिन पैसेंजर ही नहीं रुकती तो कौन-सी रुकती होगी?
लक्ष्मीबाई नगर उतर गये। सुमित का घर नज़दीक ही है। नहा-धोकर स्वादिष्ट पकवान निपटा डाले। आज अमावस्या थी और आख़िरी श्राद्ध था, इसलिये कई तरह के पकवान बने थे। मना करने के बावज़ूद भी कुछ पूड़ियाँ बाँधकर मुझे पकड़ा दीं। मैं कभी भी यात्रा पर निकलते समय घर से खाना बाँधकर नहीं ले चलता, रास्ते में ऊल-जलूल खाने की आदत है। पूड़ियाँ बिलकुल नहीं खाऊँगा, ये ऐसे ही बैग में रखी रहेंगी, इतना सुनने के बाद भी सुमित ने कई पूड़ियाँ पकड़ा दीं। और ‘रतलामी सेव’ का एक पैकेट भी। ये मालवा वाले इस सेव को पता नहीं इतने चाव से कैसे खा लेते हैं? मुझे यह बिलकुल भी अच्छी नहीं लगती और न ही घर में किसी और को। बड़ी मुश्किल से ख़त्म करनी पड़ती है। जबकि ये लोग रोटी भी इस सेव से खा डालते हैं।
दो बजे तक वापस इंदौर स्टेशन पहुँच गये। यहाँ से अब मुझे रतलाम जाना था और सुमित को महू। दोनों की ट्रेनें लगभग एक ही समय पर थीं। यह महू-इंदौर-रतलाम लाइन कुछ समय पहले तक मीटर गेज हुआ करती थी और इस पर मैंने मीटरगेज ट्रेन में यात्रा भी कर रखी थी। लेकिन इस बार की यात्रा केवल बोर्डों के फोटो खींचने के लिये ही थी। इंदौर-महू लाइन तो अभी हाल ही में खुली है। रतलाम लाइन को शायद डेढ़-दो साल हो गये। इन लाइनों पर अभी केवल डेमू ट्रेनें ही चलती हैं, लंबी दूरी की कोई ट्रेन नहीं चलती। लेकिन यह लाइन इंदौर-रतलाम की पुरानी ब्रॉडगेज लाइन के मुकाबले काफी छोटी है। इंदौर से रतलाम जाने के लिये डीजल वाली लोकल डेमू ट्रेन बिजली वाली अवंतिका जैसी सुपरफास्ट ट्रेन से भी कम समय लेती है और किराये में तो ज़मीन-आसमान का अंतर है ही। इसलिये भयंकर भीड़ होती है।
महू से इंदौर आने वाली डेमू थोड़ी लेट हो गयी, तो मेरी रतलाम डेमू को तब तक के लिये रोके रखा। जब वह ट्रेन आ गयी और उसके यात्री इस ट्रेन में चढ़ चुके, तब पंद्रह-बीस मिनट की देरी से हमारी ट्रेन को रवाना किया गया। लेकिन तब तक पूरी ट्रेन खचाखच भर चुकी थी। अच्छा था कि मेरे पास पहले ही पूरा रिकार्ड़ था कि किस स्टेशन पर प्लेटफार्म दाहिनी तरफ़ आयेगा और किस स्टेशन पर बायीं ओर। इसलिये भीड़ में सिर घुसाता हुआ, यात्रियों के उलाहने सुनता हुआ पहले ही दरवाजा बदल लेता था, अन्यथा आज सभी बोर्डों के फोटो लेना नामुमकिन होता।
बहुत सारे यात्री नवरात्रों के मद्देनज़र देवी माँ की आदमकद से भी बड़ी प्रतिमाएँ लिये अपने गंतव्य जा रहे थे। उनका स्टेशन आता तो बड़े जोर का जयकारा लगता, जल्दी-जल्दी सावधानी से इसे ट्रेन से उतार लेते।
ठीक समय पर रतलाम पहुँच गये। हाँ, इंदौर से रतलाम के बीच के स्टेशन हैं - इंदौर जंक्शन, लक्ष्मीबाई नगर, पालिया, बालौदा टाकून, अजनोद, फतेहाबाद चंद्रवतीगंज, ओसरा, गौतमपुरा रोड़, पीरझालर, बड़नगर, सुंदराबाद, रुनीजा, प्रीतम नगर, नौगावां और रतलाम जंक्शन।
मैंने तो ध्यान नहीं दिया, लेकिन बहुत पहले सुमित ने ध्यान दिलाया था कि लक्ष्मीबाई नगर के एक तरफ माँगलिया स्टेशन है, तो दूसरी तरफ़ पालिया। इधर मांगा, उधर पाया।
दो बजे तक वापस इंदौर स्टेशन पहुँच गये। यहाँ से अब मुझे रतलाम जाना था और सुमित को महू। दोनों की ट्रेनें लगभग एक ही समय पर थीं। यह महू-इंदौर-रतलाम लाइन कुछ समय पहले तक मीटर गेज हुआ करती थी और इस पर मैंने मीटरगेज ट्रेन में यात्रा भी कर रखी थी। लेकिन इस बार की यात्रा केवल बोर्डों के फोटो खींचने के लिये ही थी। इंदौर-महू लाइन तो अभी हाल ही में खुली है। रतलाम लाइन को शायद डेढ़-दो साल हो गये। इन लाइनों पर अभी केवल डेमू ट्रेनें ही चलती हैं, लंबी दूरी की कोई ट्रेन नहीं चलती। लेकिन यह लाइन इंदौर-रतलाम की पुरानी ब्रॉडगेज लाइन के मुकाबले काफी छोटी है। इंदौर से रतलाम जाने के लिये डीजल वाली लोकल डेमू ट्रेन बिजली वाली अवंतिका जैसी सुपरफास्ट ट्रेन से भी कम समय लेती है और किराये में तो ज़मीन-आसमान का अंतर है ही। इसलिये भयंकर भीड़ होती है।
महू से इंदौर आने वाली डेमू थोड़ी लेट हो गयी, तो मेरी रतलाम डेमू को तब तक के लिये रोके रखा। जब वह ट्रेन आ गयी और उसके यात्री इस ट्रेन में चढ़ चुके, तब पंद्रह-बीस मिनट की देरी से हमारी ट्रेन को रवाना किया गया। लेकिन तब तक पूरी ट्रेन खचाखच भर चुकी थी। अच्छा था कि मेरे पास पहले ही पूरा रिकार्ड़ था कि किस स्टेशन पर प्लेटफार्म दाहिनी तरफ़ आयेगा और किस स्टेशन पर बायीं ओर। इसलिये भीड़ में सिर घुसाता हुआ, यात्रियों के उलाहने सुनता हुआ पहले ही दरवाजा बदल लेता था, अन्यथा आज सभी बोर्डों के फोटो लेना नामुमकिन होता।
बहुत सारे यात्री नवरात्रों के मद्देनज़र देवी माँ की आदमकद से भी बड़ी प्रतिमाएँ लिये अपने गंतव्य जा रहे थे। उनका स्टेशन आता तो बड़े जोर का जयकारा लगता, जल्दी-जल्दी सावधानी से इसे ट्रेन से उतार लेते।
ठीक समय पर रतलाम पहुँच गये। हाँ, इंदौर से रतलाम के बीच के स्टेशन हैं - इंदौर जंक्शन, लक्ष्मीबाई नगर, पालिया, बालौदा टाकून, अजनोद, फतेहाबाद चंद्रवतीगंज, ओसरा, गौतमपुरा रोड़, पीरझालर, बड़नगर, सुंदराबाद, रुनीजा, प्रीतम नगर, नौगावां और रतलाम जंक्शन।
मैंने तो ध्यान नहीं दिया, लेकिन बहुत पहले सुमित ने ध्यान दिलाया था कि लक्ष्मीबाई नगर के एक तरफ माँगलिया स्टेशन है, तो दूसरी तरफ़ पालिया। इधर मांगा, उधर पाया।
फतेहाबाद चंद्रवतीगंज पहले एक जंक्शन हुआ करता था। यहाँ से मीटर गेज की एक लाइन उज्जैन जाती थी। यह लाइन अभी भी है, लेकिन अब इस पर ट्रेन नहीं चलती। शायद इसका गेज परिवर्तन का इरादा भी नहीं है। परसों जब मैं उज्जैन से नागदा जा रहा था, तो शिप्रा पार करके इसे देखा था। यह अभी भी ज्यों की त्यों है, इसे उखाड़ा नहीं गया है।
मीटरगेज पुल के अवशेष |
तो ठीक समय पर रतलाम पहुँच गया। अब मुझे लगभग छह घंटे यहीं रहना था। रात बारह बजे गुजरात संपर्क क्रांति आयेगी और उससे मैं दिल्ली जाऊँगा। तो थोड़े-से रतलाम के किस्से हो जायें:
रतलाम में ढोल वजदा। वेटिंग रूम के सामने ही कर्कश और बेसुरा ढोल-पीटन। ऐसा लगता है कि ढोल वाला यहाँ ढोल बजाने का अभ्यास कर रहा हो। लेकिन स्टेशन ऐसे अभ्यासों के लिये थोड़े ही होता है? या फिर हो सकता है कि रोज़ ही यहाँ ऐसा ही ढोल बजाया जाता हो। हम ठहरे दूर-देस के निवासी। अगर हमारी भाषा-बोली बदल सकती है, तो ढोल की क्यों नहीं?
उधर सुमित ने ज़बरदस्ती पूड़ियाँ बाँधकर दे दीं। मेरा मन बाहर जाकर कुछ और खाने का है। कुछ और मतलब पता नहीं क्या। कुछ भी, जिस पर भी मन आ जाये। लेकिन पूड़ियाँ ही खानी पड़ेंगी। हालाँकि सुमित ने कहा था कि अगर पूड़ियों का मन न करे तो कुत्ते या गाय को खिला देना। लेकिन मुझे यह भी अच्छा नहीं लगता। यह भी एक तरह से भोजन को फेंक देना ही है। पूड़ियाँ ही खाऊँगा और सुमित को कोसूँगा।
लेकिन ऐसा नहीं हो सका। मैं स्टेशन से बाहर निकला - टहलने। मेरे ‘ऑल टाइम फेवरेट’ गोलगप्पे मिल गये। वो भी दस के बारह। पेल मारे। इसके बाद जो जगह बची, बीस रुपये के एक किलो केले ले लिये। मेरे पास 500 का नोट था। मैंने केले वाली को पहले ही बता दिया। उसने आनाकानी की, मैं आगे बढ़ गया। उसने बीस रुपये हाथ से निकलते देख 500 ले लिये और 480 वापस दे दिये। इतना खाने के बाद कद्दू की सब्जी और पूड़ियाँ किसे खानी थी?
वापस स्टेशन आकर मीटरगेज वाली बिल्डिंग में वेटिंग रूम में लेट गया। पाँच घंटे बाद मेरी ट्रेन थी। अब यहाँ मीटरगेज तो नहीं रही, लेकिन फिर भी मीटरगेज वाली इमारत ही कहूँगा। पता नहीं रतलामी लोग इसे क्या कहते होंगे। यह काफी बड़ा प्रतीक्षालय है। सफ़ाई है, पंखे हैं, लोहे की व कंक्रीट की बेंचें हैं। मैं कंक्रीट की एक बेंच पर पड़कर सो गया।
साढ़े नौ बजे शोर-शराबे और सीटियों की कर्कश आवाज़ से आँख खुली। देखा कि पुलिस ने ‘रेड़’ मार दी है। जो गैर-ज़रूरी लोग यहाँ थे, उन्हें भगाया जा रहा था। भगाया नहीं जा रहा, बल्कि अपने हाथ-पैर चलाने की प्रैक्टिस कर रहे थे। जैसे भारत-पाकिस्तान की जंग होने वाली हो और सैनिक युद्धाभ्यास करते हों। वैसा ही कुछ यहाँ चल रहा था। एक सिपाही पूर्ण समर्पण से सीटी पर सीटी बजाये जा रहा था। अवश्य वह भीतर ही भीतर हाँफ भी रहा होगा। दूसरे का काम संदिग्ध लोगों को उठाने और उनके पृष्ठभाग पर मुष्टिका-प्रहार करने का था। लेकिन तीसरे को देखना सबसे मजेदार था। वह स्वयं फुटबॉल जैसा था, लेकिन दूसरे लोगों को फुटबॉल समझ रहा था। इसी गलतफहमी में वह पैर से जोरदार प्रहार करता और अगले कुछ सेकंड़ तक स्वयं ठीक सीधा खड़ा होने की कोशिश करता।
मेरी इन्हे एक ही सलाह है - इसी तरह का अभ्यास सुबह परेड़ मैदान में किया करो।
रतलाम में ढोल वजदा। वेटिंग रूम के सामने ही कर्कश और बेसुरा ढोल-पीटन। ऐसा लगता है कि ढोल वाला यहाँ ढोल बजाने का अभ्यास कर रहा हो। लेकिन स्टेशन ऐसे अभ्यासों के लिये थोड़े ही होता है? या फिर हो सकता है कि रोज़ ही यहाँ ऐसा ही ढोल बजाया जाता हो। हम ठहरे दूर-देस के निवासी। अगर हमारी भाषा-बोली बदल सकती है, तो ढोल की क्यों नहीं?
उधर सुमित ने ज़बरदस्ती पूड़ियाँ बाँधकर दे दीं। मेरा मन बाहर जाकर कुछ और खाने का है। कुछ और मतलब पता नहीं क्या। कुछ भी, जिस पर भी मन आ जाये। लेकिन पूड़ियाँ ही खानी पड़ेंगी। हालाँकि सुमित ने कहा था कि अगर पूड़ियों का मन न करे तो कुत्ते या गाय को खिला देना। लेकिन मुझे यह भी अच्छा नहीं लगता। यह भी एक तरह से भोजन को फेंक देना ही है। पूड़ियाँ ही खाऊँगा और सुमित को कोसूँगा।
लेकिन ऐसा नहीं हो सका। मैं स्टेशन से बाहर निकला - टहलने। मेरे ‘ऑल टाइम फेवरेट’ गोलगप्पे मिल गये। वो भी दस के बारह। पेल मारे। इसके बाद जो जगह बची, बीस रुपये के एक किलो केले ले लिये। मेरे पास 500 का नोट था। मैंने केले वाली को पहले ही बता दिया। उसने आनाकानी की, मैं आगे बढ़ गया। उसने बीस रुपये हाथ से निकलते देख 500 ले लिये और 480 वापस दे दिये। इतना खाने के बाद कद्दू की सब्जी और पूड़ियाँ किसे खानी थी?
वापस स्टेशन आकर मीटरगेज वाली बिल्डिंग में वेटिंग रूम में लेट गया। पाँच घंटे बाद मेरी ट्रेन थी। अब यहाँ मीटरगेज तो नहीं रही, लेकिन फिर भी मीटरगेज वाली इमारत ही कहूँगा। पता नहीं रतलामी लोग इसे क्या कहते होंगे। यह काफी बड़ा प्रतीक्षालय है। सफ़ाई है, पंखे हैं, लोहे की व कंक्रीट की बेंचें हैं। मैं कंक्रीट की एक बेंच पर पड़कर सो गया।
साढ़े नौ बजे शोर-शराबे और सीटियों की कर्कश आवाज़ से आँख खुली। देखा कि पुलिस ने ‘रेड़’ मार दी है। जो गैर-ज़रूरी लोग यहाँ थे, उन्हें भगाया जा रहा था। भगाया नहीं जा रहा, बल्कि अपने हाथ-पैर चलाने की प्रैक्टिस कर रहे थे। जैसे भारत-पाकिस्तान की जंग होने वाली हो और सैनिक युद्धाभ्यास करते हों। वैसा ही कुछ यहाँ चल रहा था। एक सिपाही पूर्ण समर्पण से सीटी पर सीटी बजाये जा रहा था। अवश्य वह भीतर ही भीतर हाँफ भी रहा होगा। दूसरे का काम संदिग्ध लोगों को उठाने और उनके पृष्ठभाग पर मुष्टिका-प्रहार करने का था। लेकिन तीसरे को देखना सबसे मजेदार था। वह स्वयं फुटबॉल जैसा था, लेकिन दूसरे लोगों को फुटबॉल समझ रहा था। इसी गलतफहमी में वह पैर से जोरदार प्रहार करता और अगले कुछ सेकंड़ तक स्वयं ठीक सीधा खड़ा होने की कोशिश करता।
मेरी इन्हे एक ही सलाह है - इसी तरह का अभ्यास सुबह परेड़ मैदान में किया करो।
1. पैसेंजर ट्रेन-यात्रा: गुना-उज्जैन-नागदा-इंदौर
2. मीटरगेज ट्रेन यात्रा: महू-खंड़वा
3. खंड़वा से बीड़ ट्रेन यात्रा
4. भोपाल-इंदौर-रतलाम पैसेंजर ट्रेन यात्रा
वाह फेसबुक से कमेन्ट आने शुरू ...
ReplyDeleteअब ऑटो पब्लिश -> फेसबुक भी इनेबल करो...
जैसे भारत-पाकिस्तान की जंग होने वाली हो और सैनिक युद्धाभ्यास करते हों। वैसा ही कुछ यहाँ चल रहा था। एक सिपाही पूर्ण समर्पण से सीटी पर सीटी बजाये जा रहा था। अवश्य वह भीतर ही भीतर हाँफ भी रहा होगा। दूसरे का काम संदिग्ध लोगों को उठाने और उनके पृष्ठभाग पर मुष्टिका-प्रहार करने का था। लेकिन तीसरे को देखना सबसे मजेदार था। वह स्वयं फुटबॉल जैसा था, लेकिन दूसरे लोगों को फुटबॉल समझ रहा था। इसी गलतफहमी में वह पैर से जोरदार प्रहार करता और अगले कुछ सेकंड़ तक स्वयं ठीक सीधा खड़ा होने की कोशिश करता। मजेदार ! और सलाह भी सही दे दी ! डॉक्टर साब के यहां अमावस्या का भोज भी खींच लिया , वैसे रोज़ चलने वाले रेलवे के कुछ यात्री आपको पहिचानने भी लग गए होंगे , आ गया कैमरे वाला ! बहुत बेहतर कोशिश नीरज भाई
ReplyDeleteमेरे ख्याल से हरियाणा में सीलाखेडी नहीं नीलोखेडी स्टेशन है
ReplyDeleteनीलोखेडी तो मेन लाइन पर है, जबकि सिलाखेडी पानीपत-जींद लाइन पर है।
Deleteयह पोस्ट स्टेशन के नाम के मामले में रोचक भरा रहा। जैसे की पूरे भारतीय रेल मे लगभग 250 स्टेशनों के नाम अजीबो गरीब वाले है। इनमें से इस पोस्ट का फन्दा , जबड़ी , काला पीपल स्टेशन शामिल हैं। दूसरी तरफ सीहोर स्टेशन है। इस नाम का दूसरा स्टेशन गुजरात के भावनगर मण्डल में है। इस पोस्ट का फ़तेहाबाद चंद्रवतीगंज स्टेशन लंबे नाम वाले स्टेशनों में से एक है। इस पोस्ट का स्टेशन सिलाखेड़ी स्टेशन बंद है जबकि अजित खेड़ी स्टेशन चालू है जिस पर यात्री ट्रेन रुकती है। इसी तरह जींद-पानीपत सेक्शन का सिलाखेड़ी हाल्ट (SXE)स्टेशन,उत्तर रेलवे चालू है। भारतीय रेल मे करीब 30 स्टेशन एक समान या मिलते जुलते नाम वाले स्टेशन हैं। जिनमें सिलाखेड़ी स्टेशन भी शामिल है। यह एक मजेदार पोस्ट है।
ReplyDeleteऐसे नाम है कि कुछ तो बोलने में भी अटपटे लग रहे है। अच्छी पोस्ट है भाई।
ReplyDeleteमजेदार यात्रा विवरण ।
ReplyDeleteमजेदार यात्रा।फुटबॉल जैसे पुलिस वाले की एक फोटो या विडियो बना लेते😊
ReplyDeleteहाहाहा...
ReplyDeleteयाद आया...
सुबह जब प्रसाधन मे गया तो केवल नहाने के रुपये देकर अंदर चला गया..
क्योंकि घूमने जाता हु तो,मेरी बॉयोलॉजिकल क्लॉक गड़बड़ा जाती है...
इसलिए असमंजस मे था कि, दबाव बन रहा है या नहीं बन रहा,लेकिन दौ मिनिट बाद बहार आकर प्रसाधन वाले को दबाव हल्का करने के भी पैसे दिये और अंदर चला गया...सोचा जो भी हो एक कोशिश तो की ही सकती है।
लेकिन तुम ठहरे खुरापाती व्यक्ति... इस परेशानी को क्या समझते...और समझ लिया कि में बहार महिल-पुरुष का बोर्ड देखने आया हु...
बेरछा नदी नदी तो नहीं है...
ReplyDeleteलेकिन यहाँ से चीलर नामक नदी का उदगम जरूर होता है।
फतेहाबाद चंद्रवतीगंज बेहतर कोशिश नीरज भाई
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ReplyDeletePudi Khaoga aur sumit ko kosuga
ReplyDeleteBehut sahi ☺
Pudi Khaoga aur sumit ko kosuga
ReplyDeleteBehut sahi ☺