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Showing posts from November, 2016

तुंगनाथ और चंद्रशिला की यात्रा

2 नवंबर, 2016 पता नहीं क्या बात थी कि हमें चोपता से तुंगनाथ जाने में बहुत दिक्कत हो रही थी। चलने में मन भी नहीं लग रहा था। हालाँकि चोपता से तुंगनाथ साढ़े तीन किलोमीटर दूर ही है, लेकिन हमें तीन घंटे लग गये। तेज धूप निकली थी, लेकिन उत्तर के बर्फ़ीले पहाड़ बादलों के पीछे छुपे थे। धूप और हाई एल्टीट्यूड़ के कारण बिलकुल भी मन नहीं था चलने का। यही हाल निशा का था। थोड़ा-सा चलते और बैठ जाते और दस-पंद्रह मिनट से पहले नहीं उठते। दूसरे यात्रियों को देखा, तो उनकी भी हालत हमसे अच्छी नहीं थी। तुंगनाथ के पास एक कृषि शोध संस्थान है। मैं सोचने लगा कि जो भी कृषि-वैज्ञानिक इसमें रहते होंगे, वे खुश रहते होंगे या इसे काला पानी की सज़ा मानते होंगे। हालाँकि सरकारी होने के कारण उन्हें हर तरह की सुविधाएँ हासिल होंगी, पैसे भी अच्छे मिलते होंगे, इनसेंटिव भी ठीक मिलता होगा, लेकिन फिर भी उन्हें अकेलापन तो खलता ही होगा। 

देवरिया ताल

1 नवंबर, 2016 सुबह पौड़ी से बिना कुछ खाये-पीये चले थे, अब भूख लगने लगी थी। लेकिन खाना खायेंगे तो नींद आयेगी और मैं इस अवस्था में बाइक नहीं चलाना चाहता था। पीछे बैठी निशा को बड़ी आसानी से नींद आ जाती है और वह झूमने लगती है। इसलिये उसे भी भरपेट भोजन नहीं करने दूँगा। इसलिये हमारी इच्छा थी थोड़ी-बहुत पकौड़ियाँ चाय के साथ खाना। रुद्रप्रयाग में हमारी पकौड़ी खाने की इच्छा पूरी हो जायेगी। लेकिन रुद्रप्रयाग से आठ किलोमीटर पहले नारकोटी में कई होटल-ढाबे खुले दिखे। चहल-पहल भी थी, तो बाइक अपने आप ही रुक गयी। स्वचालित-से चलते हुए हम सबसे ज्यादा भीड़ वाले एक होटल में घुस गये और 60 रुपये थाली के हिसाब से भरपेट रोटी-सब्जी खाकर बाहर निकले। यहाँ असल में लंबी दूरी के जीप वाले रुकते हैं। जीप के ड्राइवरों के लिये अलग कमरा बना था और उनके लिये पनीर-वनीर की सब्जियाँ ले जायी जा रही थीं। बाकी अन्य यात्रियों के लिये आलू-गोभी की सब्जी, दाल-राजमा, कढी और चावल थे। हाँ, खीर भी थी। खीर एक कटोरी ही थी, बाकी कितना भी खाओ, सब 60 रुपये में। 

खिर्सू के नज़ारे

1 नवंबर 2016 सुबह सात बजे जब उठे तो बाहर हल्की धुंध थी, अन्यथा पौड़ी से चौखंबा समेत कई चोटियाँ बहुत नज़दीक दिखायी देती हैं। फिर भी चौखंबा दिख रही थी। आज हमें चोपता तक जाना था। दूरी ज्यादा नहीं थी, इसलिये आराम-आराम से चलेंगे। पौड़ी से वापस बुवाखाल आये। यहाँ से एक रास्ता तो वही है, जिससे कल हम आये थे - कोटद्वार वाला। एक अन्य रास्ता भी पता नहीं कहाँ जाता है। हम इसी ‘पता नहीं कहाँ’ वाले पर चल दिये। थोड़ा आगे जाकर इसमें से खिर्सू वाला रास्ता अलग हो जायेगा। रास्ता धार के साथ-साथ है, इसलिये दाहिने भी और बायें भी नज़ारों की कोई कमी नहीं। दाहिने जहाँ सतपुली की घाटी दिखती है, वही बायें चौखंबा। कुछ ही आगे खिर्सू वाला रास्ता अलग हो गया। अब जंगल शुरू हो गया और इस मौसम में मुझे जंगल में एक चीज से बहुत डर लगता है - ब्लैक आइस से। यह ऐसे कोनों में आसानी से बनती है, जहाँ धूप अक्सर नहीं पहुँचती। गनीमत थी कि ब्लैक आइस नहीं मिली। वैसे मुझे काफ़ी हद तक ‘ब्लैक-आइस-फोबिया’ भी है। रास्ते में एक गाँव पड़ा - चोपट्टा। हमने आज की यात्रा का नाम रखा - चोपट्टा से चोपता तक।

बाइक यात्रा: मेरठ-लैंसडौन-पौड़ी

कल देश-दुनिया में दीपावली थी, लेकिन हमारा गाँव थोड़ा ‘एड़वांस’ चलता है। परसों ही दीपावली मना ली और कल गोवर्धन पूजा। हर साल ऐसा ही होता है। एक दिन पहले मना लेते हैं। गोवर्धन पूजा के बाद एक वाक्य अवश्य बोला जाता है - “हो ग्या दिवाली पाच्छा।” अर्थात दीपावली बीत गयी। मेरी चार दिन की छुट्टियाँ शेष थीं, तो मैंने इन्हें दीपावली के साथ ही ले लिया था। ‘दिवाली पाच्छा’ होने के बाद आज हमने सुबह ही बाइक उठायी और निकल पड़े। चोपता-तुंगनाथ जाने की मन में थी, तो घरवालों से केदारनाथ बोल दिया। वे तुंगनाथ को नहीं जानते। 4 नवंबर को वापस दिल्ली लौटेंगे। कल ही सारा सामान पैक कर लिया था। लेकिन गाँव में दिल्ली के मुकाबले ज्यादा ठंड़ होने के कारण अपनी पैकिंग पर पुनर्विचार करना पड़ा और कुछ और कपड़े शामिल करने पड़े। जिस वातावरण में बैठकर हम यात्रा की पैकिंग करते हैं, सारी योजनाएँ उसी वातावरण को ध्यान में रखकर बनायी जाती हैं। पता भी होगा, तब भी उस वातावरण का बहुत प्रभाव पड़ता है। चोपता-तुंगनाथ में भयंकर ठंड़ मिलेगी, लेकिन कपड़े पैक करते समय मानसिकता दिल्ली के वातावरण की ही रही, इसलिये उतने कपड़े नहीं रखे। यहाँ गाँव में ठं

भोपाल-इंदौर-रतलाम पैसेंजर ट्रेन यात्रा

30 सितंबर 2016, भोपाल सुबह 06:40 बजे की ट्रेन थी। सुमित ने साढ़े चार बजे ही उठा दिया। उठाया, तब तो गुस्सा नहीं आया। लेकिन जब समय देखा, बड़ा गुस्सा आया। साढ़े पाँच का अलार्म लगा रखा था। सुमित को कहकर फिर से सो गया। पता नहीं साढ़े पाँच बजे पहले अलार्म बजा या पहले विमलेश जी फोन आया। उनका उद्देश्य मुझे जगाने का ही था। जैसे ही मैंने ‘हेलो’ कहा, उन्होंने ‘हाँ, ठीक है’ कहकर फोन काट दिया। स्टेशन आये, टिकट लिया और वेटिंग रूम में जा बैठे। इसी दौरान मैं नहा भी आया और धो भी आया। मेरे आने के बाद सुमित गया तो दो मिनट बाद ही बाहर निकला। यह देखकर कि यह ‘पुरुष प्रसाधन’ ही है, फिर से जा घुसा।