Skip to main content

खंड़वा से बीड़ ट्रेन यात्रा

हमें खंड़वा से बीड़ जाना था। वैसे तो बीड़ नामक एक जिला महाराष्ट्र में भी है। महाराष्ट्र वाले बीड़ में अभी रेल नहीं पहुँची है, काम चल रहा है। लेकिन हमें महाराष्ट्र वाले बीड़ नहीं जाना था।
नर्मदा पर जब इंदिरा सागर बाँध बना, तो हरसूद शहर और उसके आसपास की रेलवे लाइन को भी डूब क्षेत्र में आ जाना था। यह मुम्बई-इटारसी वाली रेलवे लाइन ही थी - ब्रॉड़ गेज डबल ट्रैक इलेक्ट्रिफाइड़। तो रेलवे लाइन का दोबारा एलाइनमेंट किया गया। बाँध के दक्षिण में कुछ ज्यादा चक्कर लगाकर - तलवड़िया से खिरकिया तक। नये मार्ग से ट्रेनें चलने लगीं और पुराने मार्ग का काफी हिस्सा बाँध में डूब गया। फिर भी तलवड़िया से बीड़ तक का पुराना मार्ग डूबने से बचा रह गया। बीड़ में एक पावर प्लांट भी है, जिसके कारण वहाँ नियमित रूप से मालगाड़ियाँ चलती हैं। खंड़वा से बीड़ तक दिन में तीन जोड़ी पैसेंजर ट्रेनें भी चलती हैं - रविवार छोड़कर। बीड़ से छह-सात किलोमीटर आगे रेल की पटरियाँ पानी में डूब जाती हैं। सैटेलाइट से इन्हें डूबते हुए और फिर उस तरफ निकलते हुए स्पष्ट देखा जा सकता है।


खंड़वा से आगे मथेला है और फिर तलवड़िया। यहाँ तक हम मेनलाइन पर ही थे। अब मेनलाइन दाहिने घूम जायेगी और हमारी बीड़ वाली ट्रेन सीधी चलती रहेगी। फिलहाल तो तलवड़िया से बीड़ तक सिंगल लाइन ही है, लेकिन स्पष्ट पता चल जाता है कि किसी जमाने में यहाँ डबल लाइनें हुआ करती थीं। ट्रैफिक रहा नहीं, तो दूसरी लाइन को उखाड़ लिया गया। पहला स्टेशन खैगाँव है और दूसरा बीड़। ट्रेन यहाँ एक घंटा रुकती है और फिर वापस खंड़वा के लिये चल देती है। इस एक घंटे में हमारे लिये सात किलोमीटर दूर जाकर रेलवे लाइन को पानी में डूबते देखकर आ जाना संभव नहीं था। किसी दिन इंदौर से सुमित की बाइक उठाऊँगा या सुमित को ही उठाऊँगा और इस पूरे बाँध का चक्कर लगाकर आऊँगा। इसके लिये सर्दियों का समय सर्वोत्तम होगा।


बराबर में जो खाली स्थान है, वहीं पहले दूसरी लाइन हुआ करती थी। अब तो पत्थर और यत्र-तत्र स्लीपर ही पड़े मिलते हैं।



काले रंग से वर्तमान एलाइनमेंट दिखाया गया है, जबकि लाल रंग से पुराना एलाइनमेंट। 

बीड़ से आगे बाँध में डूबती रेलवे लाइन का सैटेलाइट चित्र

चित्र पर क्लिक करके बड़ा करके देख सकते हैं.

बीड़ से वापस खंड़वा लौटे तो सोचा कि दो घंटे इसी ट्रेन में पंखे के नीचे साफ-सुथरी सीटों पर पड़े रहेंगे। दो घंटे बाद यही डिब्बे फिर से बीड़ जायेंगे। लेकिन सारी खुशियों पर तब पानी फिर गया, जब इसे यार्ड में ले जाने लगे। खंड़वा के लिये यह समय बहुत व्यस्त होता है, इसलिये प्लेटफार्म खाली करना पड़ा।
सुमित ने बताया कि किशोर कुमार यहीं के रहने वाले थे और उनके नाम पर एक स्मारक भी है, वहाँ चलते हैं। लेकिन इस समय मेरा मन कहीं भी जाने का नहीं था। खाली पड़ी एक बेंच पकड़ ली और खंड़वा स्टेशन की गतिविधियों का आनंद लेने लगा।
सामने वाले प्लेटफार्म 2 पर लोकमान्य तिलक से गोरखपुर जाने वाली काशी एक्सप्रेस खड़ी थी। यह नेपानगर से पचास मिनट लेट चली थी, लेकिन समय-सारणी ऐसी है कि खंड़वा समय से पंद्रह मिनट पहले ही आ गयी। आख़िरकार समय पर यहाँ से चली। इसके जाने के बाद इसी प्लेटफार्म पर वास्को-पटना एक्सप्रेस आ गयी। यह कोंकण रेलमार्ग से बिहार जाने वाली एकमात्र ट्रेन है। इसी समय अमृतसर से छत्रपति शिवाजी जाने वाली गाड़ी आ गयी। इसे यहाँ ‘अमृतसर’ कहते हैं और उत्तर भारत में ‘दादर’। किसी समय यह ट्रेन दादर और अमृतसर के बीच चला करती थी। फिर कुछ समय तक लोकमान्य तिलक तक भी चली और अब छत्रपति शिवाजी तक जाती है।
लखनऊ जाने वाली पुष्पक एक्सप्रेस आ गयी। जैसे ही कोई गाड़ी आती, वेंडरों का शोर मच जाता - “हेएए पूड़ी वाला, समोसा, कचोड़ी ... बढ़िया खा लो, बढ़िया खा लो।” “हेएए दस्स रुपये, दस्स रुपये।” बीच में मरी-सी आवाज़ आती - “चाय, चाय।” ट्रेन चलते ही सन्नाट छा जाता। ये वेंड़र ढूंढ़ने से भी नज़र नहीं आते।
पाँच बजे दरभंगा से लोकमान्य तिलक जाने वाली पवन एक्सप्रेस आ गयी। इसकी पेंट्री कार को छोड़कर सभी डिब्बों पर बी.एस.एन.एल. के विज्ञापन लगे थे। पता नहीं पेंट्री कार पर विज्ञापन क्यों नहीं थे। इसमें कुछ साफ-सुथरे लोग बैठे थे और कुछ गंदे-मैले-कुचैले कपड़े पहने। गंदे वाले अवश्य ही पेंट्री कार के कर्मचारी होंगे, जो इस पूरी ट्रेन के लिये खाना बनाते हैं। साफ-सुथरे वाले इन पैंट्री वालों को पैसे देकर बैठे होंगे, उनकी सीट कन्फर्म नहीं हुई होगी। और जनरल डिब्बों में वही चिर-परिचित चेहरे, जो पूर्वी भारत की ट्रेनों की पहचान हैं - बनियान पहने, एक-दूसरे के ऊपर से झाँकते और चौबीस घंटे से भी ज्यादा की यात्रा का असर।



फिर दानापुर से उधना जाने वाली ट्रेन आ गयी। यह दो घंटे की देरी से चल रही थी। रात पौने बारह बजे उधना पहुँचने का समय है, लेकिन आज यह कम से कम एक बजे पहुँचेगी। बेचारे यात्रियों को जिनमें ज्यादातर बिहारी ही होंगे, उधना स्टेशन पर ही रात काटनी पड़ेगी। सूरत जाने के साधन पता नहीं मिलेंगे या नहीं मिलेंगे।
एक चायवाले को बेंच के नीचे अपनी चाय की केतली रखनी थी। उसने बड़े अच्छे तरीके से मुझसे पैर थोड़े-से हटाने का आग्रह किया। रखकर जाने लगा तो ‘थैंक्यू’ कहता गया। उसने एक मैली जींस पहनी हुई थी, जिसकी पीछे की दोनों जेबें फटी थीं। उसका पहले आग्रह करना और फिर ‘थैंक्यू’ कहना दिल जीत गया। मैं भला उसे क्या दुआ देता! पहले तो कहा - तेरी चाय खूब बिके। फिर कहा - तू प्रधानमंत्री न सही, लेकिन बहुत बड़ा आदमी बने।
पटना से बांद्रा जाने वाली ट्रेन यहाँ नहीं रुकती। लेकिन धीमी होने लगी तो केलों का भरा टोकरा सिर पर रखकर एक वेंड़र उसमें चढ़ने की ताक में था। नहीं चढ़ सका। दूसरे वेंड़रों ने भी उसकी तारीफ़ की कि अच्छा किया रिस्क नहीं लिया।
17:50 बजे पाटलिपुत्र से पुणे जाने वाली ट्रेन आ गयी। इसमें पुणे का डीजल इंजन लगा था। ड्राइवर ने प्लेटफार्म के बीच में ही इंजन रोक दिया। उसे शायद कोई सामान चढ़ाना या उतारना होगा। वेंड़र चीख-चीखकर अपनी बिक्री करने लगे। दो मिनट बाद ट्रेन आगे बढ़ी। इसका जनरल डिब्बा भयंकर तरीके से भरा था। अंदर बैठे एक यात्री ने पानी वाले को पैसे तो दे दिये, लेकिन ट्रेन आगे बढ़ गयी तो पानी वाले की नीयत में खोट आ गया। यात्री बेचारा चिल्लाता रहा, वेंड़र हँसता रहा। ट्रेन चल पड़ी तो सभी वेंड़र चुप हो गये। सन्नाट छा गया। आगे इंजन अपनी निर्धारित जगह पर रुका तो वेंड़र फिर से चीखने लगे। सुमित ने कहा - कैसेट चालू।
किसी ट्रेन में सभी डिब्बे बाहर से साफ-सुथरे दिख रहे हों और एक डिब्बा गंदा हो, तो समझना कि वह पैंट्री कार है।
खाकी वर्दी पहने रेलवे का एक कर्मचारी कुत्तों के पीछे पड़ा था। दसियों श्वान शाम-ए-निमाड़ का आनंद ले रहे थे। मौसम खुशगवार था, ऊपर बादल थे। लेकिन या तो उसे उनका आनंद रास नहीं आ रहा था या फिर वह उन्हें प्लेटफार्म पर नहीं आने देना चाहता था। एक डंड़ा उसके पास था, लेकिन वह पत्थरों का ज्यादा इस्तेमाल करता। निशाना बड़ा ‘अचूक’ था उसका। वह जिस भी श्वान को निशाना बनाकर पत्थर फेंकता, पत्थर पूरे तीस डिग्री दूर जा गिरता। एक बार कुत्ते हमसे तीस डिग्री दूर थे, तो पत्थर हमारे पास आया। उधर कुत्ते भी अपनी ‘शाम’ के कम मज़े ले रहे थे और प्रहरी के ज्यादा मजे ले रहे थे। दिखाने भर को थोड़ी देर को तितर-बितर हो जाते, फिर आ मिलते। प्रहरी परेशान। लेकिन हिम्मत बरकरार।
फिर हमारी कर्नाटक एक्सप्रेस आ गयी। आधी रात को भोपाल उतरे। विमलेश जी ने सुदूर भावनगर में बैठकर हमारे ठहरने की व्यवस्था करने की भरपूर कोशिश की, लेकिन ऐसा नहीं हो सका। स्टेशन के सामने एक होटल में कमरा लेना पड़ा।



Comments

  1. डूबी हुई रेल लाइन की रोचक जानकारी दिए और प्लेटफार्म पर बैठे बैठे स्टेशन का लाइव टेलीकास्ट किये जो क्रिकेट की लाइव टेलीकास्ट से ज्यादा मजेदार और कठिन है।

    ReplyDelete
  2. पहले तो कहा - तेरी चाय खूब बिके। फिर कहा - तू प्रधानमंत्री न सही, लेकिन बहुत बड़ा आदमी बने।

    कमाल का सेंस ऑफ ह्यूमर है आपका नीरज भाई ।
    हमारे निमाड़ और नर्मदांचल के सारे रेलवे स्टेशन बहुत व्यस्त है चाहे वो खंडवा हो इटारसी हो या भोपाल हो और इसी व्यस्तता के कारण इन स्टेशनों पर काफी गंदगी रहती है।
    फिर भी आप खंडवा गए थे तो एक बार हनुमंतिया टापु जरूर जाना था मध्य प्रदेश टूरिस्म ने काफी अच्छा पर्यटन स्थल विकसित किया है इंदिरा सागर प्रोजेक्ट मे।

    ReplyDelete
  3. तुम्हारी रेलयात्रा का मतलब और मकसद मुझे पता था,कि रेलयात्रा मतलब रेलगाड़ी की सवारी और प्लेटफॉर्म पर समय गुजरना..और कुछ भी नहीं...
    फिर भी पहली बार किशोर कुमार के शहर में था,तो मुँह से निकल ही गया...
    वैसे बहुत सी जगह है खंडवा के आसपास ही चलेंगे कभी...

    ReplyDelete
  4. सजीव चित्रण

    ReplyDelete
  5. Pletform par baith kar bahut hi achcha vivran...sabse achchi pankti mujhe ye lagi प्रहरी परेशान। लेकिन हिम्मत बरकरार ! Shaandaar lekh....

    ReplyDelete
  6. निशाना बड़ा ‘अचूक’ था उसका।
    मजेदार

    ReplyDelete
  7. किशोर कुमार का स्मारक तो देख ही आना चाहिए था !!

    ReplyDelete
  8. बहुत ही उम्दा ..... बहुत ही सुन्दर प्रस्तुति .... Thanks for sharing this!! :) :)

    ReplyDelete
  9. एक नशा है आपके लेखन में नीरज। ऐसे लग रहा था जैसे खंडवा स्टेशन के एक खाली पड़े बैंच पर बैठ कर मैंने सारी गतिविधियों का आनंद ले लिया।

    ReplyDelete

Post a Comment

Popular posts from this blog

46 रेलवे स्टेशन हैं दिल्ली में

एक बार मैं गोरखपुर से लखनऊ जा रहा था। ट्रेन थी वैशाली एक्सप्रेस, जनरल डिब्बा। जाहिर है कि ज्यादातर यात्री बिहारी ही थे। उतनी भीड नहीं थी, जितनी अक्सर होती है। मैं ऊपर वाली बर्थ पर बैठ गया। नीचे कुछ यात्री बैठे थे जो दिल्ली जा रहे थे। ये लोग मजदूर थे और दिल्ली एयरपोर्ट के आसपास काम करते थे। इनके साथ कुछ ऐसे भी थे, जो दिल्ली जाकर मजदूर कम्पनी में नये नये भर्ती होने वाले थे। तभी एक ने पूछा कि दिल्ली में कितने रेलवे स्टेशन हैं। दूसरे ने कहा कि एक। तीसरा बोला कि नहीं, तीन हैं, नई दिल्ली, पुरानी दिल्ली और निजामुद्दीन। तभी चौथे की आवाज आई कि सराय रोहिल्ला भी तो है। यह बात करीब चार साढे चार साल पुरानी है, उस समय आनन्द विहार की पहचान नहीं थी। आनन्द विहार टर्मिनल तो बाद में बना। उनकी गिनती किसी तरह पांच तक पहुंच गई। इस गिनती को मैं आगे बढा सकता था लेकिन आदतन चुप रहा।

जिम कार्बेट की हिंदी किताबें

इन पुस्तकों का परिचय यह है कि इन्हें जिम कार्बेट ने लिखा है। और जिम कार्बेट का परिचय देने की अक्ल मुझमें नहीं। उनकी तारीफ करने में मैं असमर्थ हूँ क्योंकि मुझे लगता है कि उनकी तारीफ करने में कहीं कोई भूल-चूक न हो जाए। जो भी शब्द उनके लिये प्रयुक्त करूंगा, वे अपर्याप्त होंगे। बस, यह समझ लीजिए कि लिखते समय वे आपके सामने अपना कलेजा निकालकर रख देते हैं। आप उनका लेखन नहीं, सीधे हृदय पढ़ते हैं। लेखन में तो भूल-चूक हो जाती है, हृदय में कोई भूल-चूक नहीं हो सकती। आप उनकी किताबें पढ़िए। कोई भी किताब। वे बचपन से ही जंगलों में रहे हैं। आदमी से ज्यादा जानवरों को जानते थे। उनकी भाषा-बोली समझते थे। कोई जानवर या पक्षी बोल रहा है तो क्या कह रहा है, चल रहा है तो क्या कह रहा है; वे सब समझते थे। वे नरभक्षी तेंदुए से आतंकित जंगल में खुले में एक पेड़ के नीचे सो जाते थे, क्योंकि उन्हें पता था कि इस पेड़ पर लंगूर हैं और जब तक लंगूर चुप रहेंगे, इसका अर्थ होगा कि तेंदुआ आसपास कहीं नहीं है। कभी वे जंगल में भैंसों के एक खुले बाड़े में भैंसों के बीच में ही सो जाते, कि अगर नरभक्षी आएगा तो भैंसे अपने-आप जगा देंगी।

ट्रेन में बाइक कैसे बुक करें?

अक्सर हमें ट्रेनों में बाइक की बुकिंग करने की आवश्यकता पड़ती है। इस बार मुझे भी पड़ी तो कुछ जानकारियाँ इंटरनेट के माध्यम से जुटायीं। पता चला कि टंकी एकदम खाली होनी चाहिये और बाइक पैक होनी चाहिये - अंग्रेजी में ‘गनी बैग’ कहते हैं और हिंदी में टाट। तो तमाम तरह की परेशानियों के बाद आज आख़िरकार मैं भी अपनी बाइक ट्रेन में बुक करने में सफल रहा। अपना अनुभव और जानकारी आपको भी शेयर कर रहा हूँ। हमारे सामने मुख्य परेशानी यही होती है कि हमें चीजों की जानकारी नहीं होती। ट्रेनों में दो तरह से बाइक बुक की जा सकती है: लगेज के तौर पर और पार्सल के तौर पर। पहले बात करते हैं लगेज के तौर पर बाइक बुक करने का क्या प्रोसीजर है। इसमें आपके पास ट्रेन का आरक्षित टिकट होना चाहिये। यदि आपने रेलवे काउंटर से टिकट लिया है, तब तो वेटिंग टिकट भी चल जायेगा। और अगर आपके पास ऑनलाइन टिकट है, तब या तो कन्फर्म टिकट होना चाहिये या आर.ए.सी.। यानी जब आप स्वयं यात्रा कर रहे हों, और बाइक भी उसी ट्रेन में ले जाना चाहते हों, तो आरक्षित टिकट तो होना ही चाहिये। इसके अलावा बाइक की आर.सी. व आपका कोई पहचान-पत्र भी ज़रूरी है। मतलब