11 मार्च 2016
आज तो किसी भी तरह की जल्दबाजी करने की आवश्यकता ही नहीं थी। वडोदरा आराम से उठा और नौ बजे मियागाम करजन जाने के लिये गुजरात एक्सप्रेस पकड ली। अहमदाबाद-मुम्बई मार्ग गुजरात और पश्चिम रेलवे का एक बेहद महत्वपूर्ण मार्ग है। इस पर अहमदाबाद और मुम्बई के बीच में पैसेंजर ट्रेनों के साथ साथ शताब्दी, डबल डेकर और दुरन्तो जैसी ट्रेनें भी चलती हैं और सभी भरकर चलती हैं। ट्रेनें भी खूब हैं और यात्री भी। फिर सुबह का समय था। वडोदरा का पूरा प्लेटफार्म यात्रियों से भरा पडा था। ट्रेन आई तो यह भी पूरी भरी थी। फिर बहुत से यात्री इसमें से उतरे, तब जाकर हमें चढने की जगह मिली। एक बार वडोदरा से चली तो सीधे मियागाम करजन जाकर ही रुकी।
यहां ट्रैफिक इंचार्ज मिले - चौहान साहब। अपने कार्यालय में ही नाश्ता मंगा रखा था। यहां नैरोगेज के तीन प्लेटफार्म हैं। एक लाइन डभोई और चांदोद जाती है और एक लाइन चोरन्दा जंक्शन। चोरन्दा से फिर दो दिशाओं में लाइनें हैं- मालसर और मोटी कोरल। लेकिन इन ट्रेनों की समय सारणी ऐसी है कि चांदोद से लेकर मालसर और मोटी कोरल की 116 किलोमीटर की दूरी को आप एक दिन में तय नहीं कर सकते। इसलिये खूब सोच-विचार के बाद यह तय हुआ कि पहले दिन मियागाम से मालसर और मोटी कोरल का मार्ग देखूंगा और अगले दिन बाकी। इस दिशा में मियागाम से पहली गाडी साढे दस बजे है जो मोटी कोरल तक जाती है। मैं साढे नौ बजे ही यहां आ गया था। टिकट ले लेने और उनके कार्यालय में नाश्ता करने के बाद भी काफी समय अपने पास था।
मोटी कोरल जाने वाली यह ट्रेन डभोई से आती है और साढे सात बजे ही मियागाम आ जाती है लेकिन पता नहीं क्यों तीन घण्टे तक इसे यहीं खडा रखते हैं। इधर की सभी ट्रेनों की तरह यह भी लगभग खाली ही थी। गार्ड साहब से आसानी से परिचय हो गया। वे नर्मदा के उस तरफ कहीं के रहने वाले हैं और अपने घर से यहां रोज अप-डाउन करते हैं। हेडक्वार्टर डभोई में है। सुबह 6 बजे यह ट्रेन डभोई से ही चली थी, इसलिये वे 6 बजे से पहले ही ड्यूटी पर हाजिर हो गये थे। अब इसी ट्रेन को लेकर वे वापस डभोई जायेंगे, तब उन्हें छुट्टी मिलेगी। शाम साढे छह बजे ट्रेन डभोई पहुंचेगी, इसलिये उनकी ड्यूटी बारह घण्टे से ज्यादा की हो जाती है। वापसी में भी यह ट्रेन मियागाम में दो घण्टे रुकती है। अंग्रेजी जमाने में इन ट्रेनों का मियागाम में दो-तीन घण्टे रुकना समझ में आता था लेकिन अब दो मिनट से ज्यादा इन्हें यहां नहीं रोकना चाहिये। हालांकि मियागाम में इस ट्रेन के दोनों तरफ के पांच घण्टे के ठहराव में इंजन बन्द कर दिया जाता है ताकि डीजल का नुकसान न हो लेकिन गार्ड और ड्राइवर लगातार ड्यूटी पर बने रहते हैं। उन्हें पांच घण्टे ओवरटाइम करना पडता है। ओवरटाइम में इन्हें प्रति घण्टा रेगुलर ड्यूटी के मुकाबले दोगुने पैसे मिलते हैं, इसलिये यह रेलवे के लिये भी बडा बोझ है। इसलिये अगर इस ट्रेन को आने-जाने में मियागाम में पांच घण्टे की बजाय दस-दस मिनट का भी ठहराव कर दें तो कम से कम इस ओवरटाइम की तो बचत होगी।
खैर, साढे दस बजे ट्रेन चल पडी। अगला स्टेशन भरथाली है और उससे अगला चोरन्दा जंक्शन। चोरन्दा से यह लाइन सीधी मालसर चली जाती है लेकिन ट्रेन को चूंकि मोटी कोरल जाना है, इसलिये इसका इंजन इधर से हटाकर उधर लगाया जायेगा। इस काम के लिये ट्रेन को यहां 20 मिनट का ठहराव दिया गया है।
मियागाम से चोरन्दा होकर मालसर की लाइन 15 जून 1912 को खुली थी जबकि चोरन्दा से मोटी कोरल की लाइन 18 नवम्बर 1921 को खुली। वैसे मैं सोचता हूं कि क्या सोचकर मालसर और मोटी कोरल को रेलवे से जोडा गया? ये दोनों कोई शहर और कस्बे नहीं हैं। बहुत छोटे से गांव हैं। आप स्टेशन पर उतरोगे, तो चारों तरफ खेतों के अलावा कुछ नहीं दिखेगा। लेकिन चूंकि नैरोगेज की ये लाइनें बरोडा राजपरिवार ने बनवाई हैं, तो शायद इसके पीछे नर्मदा का हाथ रहा होगा। मध्य भारत और पश्चिम भारत में नर्मदा आज भी बहुत पवित्र नदी है। तब और भी ज्यादा थी। तो शायद नर्मदा दर्शन के लिये या इसके किनारे बने आश्रमों के लिये या फिर राजमहल में इधर का कोई प्रभावशाली आदमी रहा होगा, उसके कहने पर यहां रेलवे लाइन बिछाई गई। किसी लाइन को अंग्रेज बिछाते थे, तो उनका मकसद पैसा कमाना होता था, वनों का दोहन करना होता था लेकिन राजपरिवार का यह मकसद नहीं रहा होगा। यहां कपास की खेती बहुत होती है, तम्बाकू भी खूब होता है। तो कृषि उपज को रेल के मुख्य नेटवर्क तक पहुंचाना भी एक मकसद रहा होगा।
मियागाम करजन से मोटी कोरल के लिये चलने को तैयार |
भरथाली स्टेशन |
दूसरी लाइन मोटी कोरल जाती है। कुछ देर बाद हम उसी से गुजरेंगे। |
चोरन्दा जंक्शन |
चोरन्दा में इंजन की शंटिंग करते हुए |
इंजन उधर से हटाकर इधर लगा दिया |
चल पडे मोटी कोरल की ओर |
थोडी देर पहले हम इसी लाइन से आये थे |
ट्रेन मोटी कोरल की तरफ चल पडी। चोरन्दा से अगले स्टेशन बचार, सणियाद, नारेश्वर और मोटी कोरल हैं। मोटी कोरल से थोडा सा पहले एक फाटक है। गेटमैन ट्रेन में ही यात्रा करता है, इसलिये फाटक से पहले ट्रेन रुक गई। गेटमैन फाटक बन्द करने चला गया। साथ ही गार्ड साहब भी उतरकर चले गये। मैंने बाद में पूछा कि आप क्यों गये तो बताया कि स्टेशन एण्ट्री पर जो पॉइण्ट है, जिससे ट्रेन इस पटरी से उस पटरी पर जाती है, उसकी जांच करने जाना होता है। वहां जाकर मैं उसे देखूंगा, फिर वापस अपने डिब्बे में आकर हरी झण्डी दिखाकर ट्रेन को रवाना करूंगा। वास्तव में ट्रेन का मालिक गार्ड ही होता है, ड्राइवर तो ड्राइवर ही रह जाते हैं।
मोटी कोरल में ट्रेन एक घण्टा खडी रहेगी और फिर वापस चल देगी। इसलिये सभी लोग यानी गार्ड, ड्राइवर, गेटमैन, चौहान साहब और मैं; रनिंग रूम में चले गये। असल में शाम को मियागाम से एक ट्रेन यहां आती है और पूरी रात यहां खडी रहकर सुबह वापस जाती है, इसलिये उसके स्टाफ के लिये रनिंग रूम बना रखा है। चाबी चोरन्दा स्टेशन मास्टर के पास होती है। ट्रेन चोरन्दा से ही आई थी तो चाबी और चोरन्दा से एक लडका साफ-सफाई वगैरा करने यहां आ गये। रनिंग रूम में घुसने का यह मेरा पहला अनुभव था। दो कमरे थे, चार बिस्तर थे, रसोई-बाथरूम-शौचालय थे और भोजन के सारे इंतजाम और फ्रिज भी। चारों तरफ कोई आबादी नहीं। जंगल और खेत। बरगद के य्यै बडे-बडे पेड। और सबसे बडी बात कि थोडी ही दूर नर्मदा। किसी कवि को इसमें ठहरा दें तो चार दिन में ही महाकाव्य तैयार हो जायेगा।
मोटी कोरल स्टेशन |
बैकग्राउण्ड में दिखता पुनीत आश्रम का मन्दिर |
रनिंग रूम के सामने खडा इंजन |
यहां यह लाइन समाप्त हो जाती है। इस तरह के स्थान मुझे बडे रोचक लगते हैं, जहां लाइन ही समाप्त हो जाती है। |
नर्मदा यहां से करीब एक किलोमीटर दूर है, इसलिये वहां तो हम नहीं जा सकते थे। लेकिन पास में श्री पंचकुबेरेश्वर महादेव पुनीत आश्रम है। चौहान साहब मुझे यहां ले गये। यहां श्रद्धालुओं के लिये फ्री में रुकने-खाने की सुविधा है। काफी बडे भूभाग में आश्रम फैला हुआ है और कई कमरे बने हुए हैं। यहां से आधा किलोमीटर दूर बहती नर्मदा की झलक भी मिल गई। नर्मदा एकमात्र ऐसी नदी है जिसकी परिक्रमा की जाती है, तो हर थोडी थोडी दूरी पर इसके किनारे आश्रम आदि मिलते रहते हैं। इन आश्रमों के सहारे परिक्रमा करने वालों को बडी सहूलियत हो जाती है। यह भी एक ऐसा ही आश्रम है।
अक्सर नदियों के किनारे के इलाके बडे दुर्गम होते हैं। सडकें होती नहीं हैं और बिजली आदि भी नहीं। अक्सर नदियां सीमा बनाती हैं, इसलिये अपने जिले के या राज्य के सीमावर्ती इलाकों पर कोई ध्यान भी नहीं देता। हालांकि गुजरात में हर जगह अच्छी सडकें हैं, लेकिन नर्मदा के उस तरफ से बडी संख्या में लोगबाग ट्रेन पकडने इधर आते हैं। दस-दस रुपये नाववाला ले लेता है और दस रुपये ट्रेन में देकर वे कर्जन तक पहुंच जाते हैं। यानी बीस रुपये में कर्जन और पच्चीस रुपये में वडोदरा। बस में यह मौज कहां?
पुनीत आश्रम |
नर्मदा दर्शन |
गेटमैन फाटक बन्द करके ट्रेन को हरी झण्डी दिखा रहा है। |
फाटक पार करके ट्रेन रुकती है, गेटमैन फाटक खोलकर ट्रेन में जा चढता है और फिर ट्रेन आगे चल देती है। |
अब वो बात भी बता देना जरूरी है जिससे मैं काफी विचलित था। मालसर केवल एक ही गाडी जाती है लेकिन इसकी टाइमिंग बडी खराब है। यह मियागाम से शाम छह बजे चलती है और रात आठ बजे मालसर पहुंचती है। उधर से यही ट्रेन सुबह सवेरे चार बजे मालसर से चलती है। दिन में मालसर कोई ट्रेन नहीं जाती। अब अगर मैं इस ट्रेन से मालसर जाता हूं तो यह तो निश्चित है कि उधर से वापस आने के लिये रात में मुझे कुछ भी साधन नहीं मिलेगा। सुबह चार बजे इसी ट्रेन से वापस आना पडेगा, तो मियागाम से चांदोद जाने वाली एकमात्र ट्रेन को नहीं पकड सकूंगा। यह सबसे बडी दुविधा थी। इसके बारे में विमलेश जी भी चिन्तित थे। आखिरकार इसकी जिम्मेदार चौहान साहब पर डाली गई। चौहान साहब बडी देर तक अपने होंठों पर उंगलियां लगाकर सोचते रहे, सोचते रहे और आखिरकार बोले- तुम ट्रेन में बैठकर चलो, मैं पीछे पीछे बाइक लेकर आता हूं।
बस, हो गया समाधान।
18:10 बजे चलने के कारण ट्रेन में काफी भीड थी। यह समय ही ऐसा होता है। इस समय नौकरी वाले लोगों की छुट्टी होती है। ट्रेन की टाइमिंग उनकी छुट्टी होने की टाइमिंग से मैच कर जाये तो वे ट्रेन को ही वरीयता देंगे। लेकिन यह सारी भीड चोरन्दा उतर गई। अब गाडी बिल्कुल खाली हो गई।
मियागाम करजन |
अब चल पडे मालसर की ओर... चोरन्दा जंक्शन |
चोरन्दा से मालसर की ओर प्रस्थान |
रास्ते में वैसे तो कई स्टेशन हैं लेकिन ट्रेन रुकती केवल शिनोर ही है। चोरन्दा से चलकर वेमार है और साधली भी है लेकिन ट्रेन इन दोनों जगहों पर नहीं रुकती। इसलिये मुझे गूगल मैप का सहारा लेना पडा। जहां भी वेमार और साधली आने के संकेत मिले, मैं खिडकी पर जा खडा हुआ और फ्लैश मारकर इनके बोर्ड के फोटो ले लिये। हालांकि बाहर अन्धेरा होने के कारण साधली का ठीक फोटो नहीं आया। सोच लिया कि वापसी में बाइक से इधर से ही जायेंगे, तब रुककर अच्छा फोटो लूंगा।
खाली डिब्बा, मोबाइल में गूगल मैप और बैटरी बैंक |
मालसर स्टेशन पर बरगद के खूब पेड हैं और यह रात में बेहद भयावह लग रहा था। मैं छोटा कैमरा लेकर गया था अन्यथा कैमरे में शटर स्पीड आदि का संयोजन करके शानदार फोटो लेता। ड्राइवरों और गेटमैन ने मिलकर इंजन को दो मिनट में ही इधर से उधर लगा दिया ताकि सुबह उठते ही ट्रेन लेकर चल पडें।
रनिंग रूम में पानी पीया और हल्का-फुल्का कुछ खाकर बाइक से वापसी की यात्रा आरम्भ हो गई। साधली में फाटक के पास थोडी देर रुके। तब तक मैं स्टेशन बोर्ड का फोटो खींच आया।
मालसर स्टेशन |
रनिंग रूम के सामने खडी ट्रेन |
सुबह छह बजकर बीस मिनट पर चांदोद जाने वाली एकमात्र ट्रेन यहां से प्रस्थान करती है। मेरी एक चिन्ता यह भी थी कि इतनी सुबह करजन कैसे पहुंचूंगा? वडोदरा से कोई कनेक्टिंग ट्रेन नहीं है और भरूच से है तो लेकिन उसमें भी चिन्ता वाली बात ही थी। करजन में ठहरने के लिये कुछ भी नहीं है। भला हो विमलेश जी का, उन्होंने मुझसे कहा था- ‘अब कार्यक्रम में कोई तब्दीली मत करना।’ यहां रनिंग रूम में एक बिस्तर मिल गया। बगल वाले बिस्तर पर एक स्टाफ सो रहा था, चौकीदार ने बताया कि वो सुबह चांदोद वाली ट्रेन लेकर जायेगा।
अब अगर मैं कहूं कि जहां चाह वहां राह, तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। मेरी दो मुख्य चिन्ताएं थीं- मालसर से वापस आना और करजन में रात रुकना। ये दोनों काम चौहान साहब और विमलेश जी की बदौलत ही हुए लेकिन इससे आपको यह सीख ले लेनी चाहिये कि जहां चाह, वहां राह।
अगला भाग: मियागाम करजन - डभोई - चांदोद - छोटा उदेपुर - वडोदरा
1. बिलीमोरा से वघई नैरोगेज रेलयात्रा
2. कोसम्बा से उमरपाडा नैरोगेज ट्रेन यात्रा
3. अंकलेश्वर-राजपीपला और भरूच-दहेज ट्रेन यात्रा
4. जम्बूसर-प्रतापनगर नैरोगेज यात्रा और रेल संग्रहालय
5. मियागाम करजन से मोटी कोरल और मालसर
6. मियागाम करजन - डभोई - चांदोद - छोटा उदेपुर - वडोदरा
7. मुम्बई लोकल ट्रेन यात्रा
8. वडोदरा-कठाणा और भादरण-नडियाद रेल यात्रा
9. खम्भात-आणंद-गोधरा पैसेंजर ट्रेन यात्रा
रोचक पोस्ट और अद्भुत फोटो की भरमार और इस वीरान एरिया की जीती जागती तस्वीर ने इस पोस्ट मे जान डाल दिया । उस समय दूर दराज से रेल गाड़ियो को जोड़ने का तीन मुख्य मकसद था । पहला वहाँ के किसानो की कपास की उपज को मियागाम तक लाना और यहाँ से बड़ी लाइन की रेलगाड़ी से बंबई भेजवाना और फिर बंबई से समूद्री जहाज से ब्रिटेन या इंगलेंड भेजना। दूसरा मकसद था किसानो के फसलों और जानवरो की चारा या घास को यान मंडी मे पहुचाना । तीसरा कारण लोगो को यातायात या परिवहन की नजरिया से सभी को बड़ी लाइन की रेल गाड़ी से जोड़ना। जहां तक वरगद के पेड़ की बात है पूरे वरोदरा मे यह पेड़ सब जगह मिलिंगे क्योकि यह भी गायकवाड राजाओ की दें है और इसी के कारण वडोदरा नाम पड़ा ।
ReplyDeletegood !..
ReplyDeleteइस तरह की posts मेरी favorite होती है, जो एक अपनी ही pace से, एक अपनी ही लेय में चलती है
ReplyDeleteबहुत कुछ बताया आपने इस पोस्ट में जो की आम ज़िन्दगी में हम कभी जान ही नहीं सकते थे
बिलकुल दिल के करीब लग्गी यह पोस्ट.
शुक्रिया , घूमते रहिये, और हमें भी घूमते रहिये :-)