26 जनवरी 2016
सुबह उठे तो आसमान में बादल मिले। घने बादल। पूरी सम्भावना थी बरसने की। और बर्फबारी की भी। आखिर जनवरी का महीना है। जितना समय बीतता जायेगा, उतनी ही बारिश की सम्भावना बढती जायेगी। इसलिये जल्दी उठे और जल्दी ही नागटिब्बा के लिये चल भी दिये। इतनी जल्दी कि जिस समय हमने पहला कदम बढाया, उस समय नौ बज चुके थे।
2620 मीटर की ऊंचाई पर हमने टैंट लगाया था और नागटिब्बा 3020 मीटर के आसपास है। यानी 400 मीटर ऊपर चढना था और दूरी है 2 किमी। इसका मतलब अच्छी-खासी चढाई है। पूरा रास्ता रिज के साथ-साथ है। ऊपर चढते गये तो थोडी-थोडी बर्फ मिलने लगी। एक जगह बर्फ में किसी हथेली जैसे निशान भी थे। निशान कुछ धूमिल थे और पगडण्डी के पास ही थे। हो सकता है कि भालू के पंजों के निशान हों, या यह भी हो सकता है कि दो-चार दिन पहले किसी इंसान ने हथेली की छाप छोड दी हो।
नागटिब्बा की आखिरी दो किमी की दूरी तय करने की कवायद शुरू। |
रास्ता ऐसा है कि आप चाहकर भी नहीं भटक सकते। |
पगडण्डी अच्छी तरह बनी हुई है और कहीं भी कभी भी भटकने का कोई डर नहीं है। चारों ओर घना जंगल तो है ही। आप कभी इधर जाओ, तो दस मिनट मौका देखकर अकेले बैठना और जंगल की आवाज सुनना। बहुत अच्छा लगेगा। हमारे ग्रुप में दो-तीन सदस्य ऐसे थे कि उनके सामने लाउडस्पीकर भी शर्मा जाये। उनसे खूब कह लिया कि थोडी देर चुप रहकर देखो लेकिन उन्हें कोई फर्क नहीं पडा। जंगल में पहाडों में दूर भी कोई आवाज करता है तो आपके पास तक आ ही जाती है, इसलिये मुझे कभी भी एकान्तवास का मौका नहीं मिला। यह इस ट्रैक की मेरे लिये सीख थी। पहली बार मैं इतने बडे ग्रुप के साथ था और एक इसी बात ने मुझे निराश किया।
साढे दस बजे नागटिब्बा पहुंच गये। यहां कोई मन्दिर नहीं है बल्कि दो-तीन झण्डियां लगी हैं, इसलिये स्थानीय लोग इसे झण्डी भी कहते हैं। बगल में ही थोडी सी बर्फ थी। बर्फ तो थोडी सी ही थी लेकिन ग्रुप के ‘मौजमस्ती’ करने वाले सदस्यों के लिये काफी थी।
बर्फ दिखने की खुशी... |
नरेन्द्र |
पंकज जी |
इस यात्रा में मेरा फेवरेट सचिन त्यागी |
नागटिब्बा पर |
नागटिब्बा से अगर आपको हिमालयी चोटियां नहीं दिखीं तो समझो कि आपका आना सफल नहीं हुआ। हमें हल्की सी झलक दिख गई। |
यहां से पूरे गढवाल की बर्फीली चोटियों के दर्शन हो जाते हैं। यहां तक कि सुदूर पूर्व में स्थित नन्दादेवी भी दिखाई दे जाती है लेकिन धुंध की वजह से हम उन्हें नहीं देख सके। हालांकि एक झलक किसी चोटी की जरूर मिली।
नाग मन्दिर के बाद कहीं भी पानी नहीं है। जोरदार चढाई है, इसलिये अपने साथ पर्याप्त पानी अवश्य लेकर चलें। अच्छा हुआ कि पिछले महीने हम नागटिब्बा नहीं गये। पहले से ही प्यासे थे, अगर जाते तो और बुरा हाल हो जाता। इस बार हमारे पास खूब पानी था। सचिन त्यागी के बैग में दो लीटर की एक बोतल पूरी भरी थी। बाकियों के पास भी थोडा थोडा पानी था। ऐसे रास्ते पर दो लीटर की बोतल अपने कन्धों पर लादकर चलना वास्तव में बडा काम था। त्यागी जी के साथ मेरी यह पहली यात्रा थी। उन्होंने कदम-कदम पर सबका साथ दिया। ऐसे साथी सबको मिले।
भले ही हमें थोडी बहुत बर्फ मिली हो, लेकिन कहीं भी बर्फ में नहीं चलना पडा। नहीं तो कल नरेश सहगल जी ने यह कहकर मेरे होश उडा दिये थे कि ऊपर बहुत बर्फ है।
नागटिब्बा इस इलाके की सबसे ऊंची चोटी है। यहां कई धारें आकर मिलती हैं। इसके आसपास की कुछ धारों पर बडे-बडे बुग्याल हैं। बुग्याल हमेशा ही अच्छे लगते हैं। अगर वो धार पर हो, मानसून का मौसम हो; फिर तो क्या कहने? अगर बैकग्राउण्ड में हिमालय की चोटियां दिख जायें तो समझना कि आप दुनिया की सबसे खूबसूरत जगह पर खडे हो। इसके चारों ओर आबादी है, गांव हैं, इसलिये चारों ओर से यहां आने के लिये पगडण्डियां मिल जायेंगी। किसी दिन आप निकल पडो और परम्परागत रास्तों के अलावा किसी अन्य रास्ते से नीचे उतर पडो। कसम से जीवन सफल लगेगा। गढवाल का यह इलाका पर्यटन और घुमक्कडी नक्शे में शामिल नहीं है। यहां आपको वो गढवाल मिलेगा, जो अभी भी भागीरथी-घाटी, अलकनन्दा-घाटी और यमुना-घाटी वाले गढवाल से अलग और सुन्दर है।
यही अधिकतम बर्फ थी |
वापस आ गये... नीचे बायें हमारे टैंट भी दिख रहे हैं। |
एक घण्टा रुके और वापस चल दिये। आश्चर्यजनक ढंग से मौसम साफ हो गया, बादल कहीं और चले गये और धूप खिल उठी। कुछ ही देर में नाग मन्दिर पर पहुंच गये। जाने से पहले स्लीपिंग बैगों और मैट्रेस को बाहर डाल गये थे। अब तक उनमें खूब धूप लग गई। वापस घर जाकर धूप दिखाने की जरुरत नहीं पडेगी।
सारा सामान बांधकर वापस चल दिये। राशन अभी भी बचा था। कुछ सदस्यों का मन था कि खिचडी बना ली जाये लेकिन एक बज चुका था। नीचे पन्तवाडी पहुंचने में अभी भी तीन-चार घण्टे लगेंगे। उधर पंकज जी की हरिद्वार से लखनऊ की ट्रेन थी- कुम्भ एक्सप्रेस रात ग्यारह बजकर पचपन मिनट पर।
वापसी में उसी बुग्याल में रुके, जहां कल रुके थे और परांठे खाये थे। अब सोनीपत वाली मूंगफलियां याद आईं। गुड की मिठाई थी अपने पास। गुड और मूंगफली एक साथ जिसने खाये हैं, वो ही जानता है कि इन दोनों का कैसा गजब का संयोग होता है।
बची-खुची टॉफियां बच्चों को दे दीं। |
चार बजे तक हम कार के पास आ गये थे। पूरे पैसे देकर खच्चर वाले को विदा किया और सामान कार में ठूंसकर वापस चल दिये। बाइक जांगडा की थी, अच्छा हुआ कि उसने मुझसे नहीं कहा बाइक ले चलने को। नरेन्द्र को पीछे बैठाया और जरा सी देर में उडनछू हो गया।
सचिन त्यागी ने कार चलाने में न कोई जल्दबाजी दिखाई और न ही कोई हडबडाहट दिखाई। त्यागी मेरे देखे सर्वश्रेष्ठ ड्राइवरों में से एक है। अन्यथा कार वाले ज्यादातर ड्राइवर बहुत भद्दी ड्राइविंग करते हैं।
थोडी देर नैनबाग रुके। देखा कि जांगडा और नरेन्द्र कोल्डड्रिंक पी रहे हैं। यहां से सभी साथ चले। सिंगल रोड है, हालांकि अच्छी बनी है। कार के आगे जांगडा की बाइक जा रही थी और दोनों की दूरियां लगातार बढती भी जा रही थीं। मैंने कार के मीटर पर नजर मारी - 55 की स्पीड से चल रहे थे। इसका मतलब बाइक 55 से ज्यादा की रफ्तार से चल रही है। मैं हैरान रह गया। बाद में जांगडा को खूब सुनाई भी। सिंगल पहाडी गोल-गोल सडक पर वह 55 से ज्यादा की रफ्तार से बाइक चला रहा है। हालांकि सभी की अपनी-अपनी स्पीड और क्षमता होती है लेकिन फिर भी ऐसी सडक के लिये यह रफ्तार बहुत ज्यादा थी।
यमुना पुल के पास जहां से मसूरी का रास्ता अलग हो जाता है, वहां नरेन्द्र बाइक से उतर गया और कार में आ बैठा। अब जांगडा और हमारा रास्ता अलग हो जाने वाला है। जांगडा पौण्टा साहिब होते हुए पानीपत अपने घर चला जायेगा और हम मसूरी होते हुए हरिद्वार।
कार में आते ही नरेन्द्र ने जो अपने अनुभव बताये, वे बता रहे थे कि जांगडा ने कितनी तेज बाइक चलाई। अक्सर बाइक पर पीछे बैठने वाले को उल्टियां नहीं आतीं लेकिन नरेन्द्र की हालत खराब हो गई थी। उसने कहा कि आज तो पुनर्जन्म हो गया। 60 की स्पीड से लगातार दाहिने-बायें-दाहिने-बायें होता रहा बेचारा 20-25 किलोमीटर तक। एक तरफ सीधा खडा चट्टानी पहाड और बराबर में नीचे बहती यमुना। देहरादून तक नरेन्द्र ने कई बार गाडी रुकवाई।
अन्धेरा हो ही गया था। मसूरी रुककर क्या करते? यूं घुसे और यूं निकल गये। देहरादून पहुंचकर ही दम लिया। पहाड से मैदान में आने का भी अपना ही आनन्द है। जैसे ही पहाडी रास्ता खत्म हुआ, गाडी एक तरफ रोक ली और चाय की पार्टी चली।
देहरादून शहर में खूब ट्रैफिक मिला। बाहर निकलकर जैसे ही बाईपास पार हुआ, अच्छी सडक मिल गई। इसे चार लेन का बनाने का काम चल रहा है। मेरी निगाहें लच्छीवाला के पास रेल-रोड क्रॉसिंग पर थीं, लेकिन सडक चौडी हो रही है, तो सडक का कुछ नया एलाइनमेंट भी हुआ है। यह दिल्ली-देहरादून हाईवे है हरिद्वार होते हुए। पूरा तो नहीं बना है लेकिन इतना जरूर बन गया है कि अब दिल्ली-देहरादून के बीच आने-जाने वाली बहुत सी गाडियां इस रास्ते से आने-जाने लगी हैं। हालांकि यह छुटमलपुर वाले रास्ते से थोडा लम्बा है।
राजाजी नेशनल पार्क में बहुत लम्बा फ्लाईओवर बन रहा है। यह फ्लाईओवर असल में हाथियों की सुरक्षा के लिये बनाया जा रहा है। ऊपर से गाडियां गुजरा करेंगीं और नीचे से हाथी स्वच्छन्द विचरण किया करेंगे। अच्छा आइडिया है। हालांकि बराबर में रेलवे लाइन भी है। वहां अक्सर हाथी घायल या मरते रहते हैं। अभी भी यह समस्या बरकरार रहेगी।
हरिद्वार शान्तिकुंज में रुकना तय हुआ। एक मित्र के माध्यम से हमारे जाने से पहले ही सारी व्यवस्था हो गई। फ्री में सभी के लिये एक बडा कमरा मिल गया। शानदार डिनर किया- पनीर वनीर वाला। डिनर शान्तिकुंज में नहीं बल्कि बाहर कहीं किया। फिर ग्यारह बजे के आसपास पंकज जी को स्टेशन पर छोडने चल दिये। रास्ते में हर की पैडी पडी तो सजावट देखकर पता चला कि अर्द्धकुम्भ चल रहा है। शानदार सजा था हरिद्वार। और भीड बिल्कुल नहीं।
हर की पैडी का शानदार दृश्य |
अगले दिन सुबह सात बजे हरिद्वार से चल दिये। रास्ते में कहां कहां रुके, क्या क्या खाया, कितना कितना खाया, यह तो बताने की जरुरत ही नहीं।
लेकिन अब जरुरत है इस यात्रा का प्रति व्यक्ति खर्च बताने की। इस यात्रा में दिल्ली से दिल्ली तक प्रति व्यक्ति खर्च हुए 1800 रुपये। इसमें गाडी का पेट्रोल-डीजल, रुकना, खाना-पीना सब शामिल था। सचिन त्यागी को विशेष रूप से धन्यवाद दूंगा जिनकी वजह से यात्रा सस्ती और आसान हो गई। अगर वे गाडी न ले जाते तो हमारी बुरी फजीहत होती और हम कार्यक्रम के अनुसार भी नहीं चल पाते। या यूं कहिये कि त्यागी जी ने लाज बचा ली अन्यथा यह पहली ही आयोजित यात्रा थी और मिट्टी पलीत हुई पडी थी।
1. जनवरी में नागटिब्बा-1
2. जनवरी में नागटिब्बा-2
3. जनवरी में नागटिब्बा-3
आम तौर पर मुझे पानी की कमी वाली जगहें पसंद नहीं हैं। पर ये बढ़िया ट्रिप रही आप की। बजट में या ग्रुप में और भी यात्राएं आपको प्रस्तावित करनी चाहिए ऐसा मेरा मानना है। वैसे ये पूरी तरह आपका फैसला है। एक बात बताइये नागटिब्बा पर क्या टेंट एकमात्र विकल्प है?
ReplyDeleteहां जी, टैंट ही एकमात्र विकल्प है। हालांकि दो कमरे भी बने हैं, लेकिन उनमें स्थानीय लोग खच्चर बांधकर रखते हैं और वे गन्दे रहते हैं। अगर आपके पास स्लीपिंग बैग हों, तो उन कमरों में रुका जा सकता है।
Deleteसुबह 9 बजे..वाकई बहुत जल्दी कि..
ReplyDeleteखेर ग्रुप बड़ा रहता हे तो इतनी जल्दी तो हो ही जाती है।
त्यागी जी ने अपनी सुविधाओं को शेयर कर के टीम वर्क दिखाया...
वे बधाई के पात्र है...
लेखक के शब्द (केप्शन) फोटो की खूबसूरती को बड़ा रहे है।
धन्यवाद डाक्टर साहब...
Deleteसुबह 9 बजे..वाकई बहुत जल्दी कि..
ReplyDeleteखेर ग्रुप बड़ा रहता हे तो इतनी जल्दी तो हो ही जाती है।
त्यागी जी ने अपनी सुविधाओं को शेयर कर के टीम वर्क दिखाया...
वे बधाई के पात्र है...
लेखक के शब्द (केप्शन) फोटो की खूबसूरती को बड़ा रहे है।
लोगो का पता नही किसी के आगे कुछ बोलते है किसी के आगे कुछ।।।मेरे को नरेन्दर कहा रहा था की मज़ा आ गया bike पे बैठ के अब हमे क्या पता लोग उलटी कर के भी मज़ा के लेते है।।।उनसे मुझसे कहा की अगली बार हम दोनों ही जायगे bike से।।।रही bike और स्पीड की बात तो कंट्रोल होना चईये।ना तो कम स्पीड पे भी लोग मरते है ।।।जो भी कहना हो मुँह पे बोलो ना की किसी की पीठ पीछे।।।
ReplyDeleteकोई बात नहीं सचिन... वो बात पुरानी हो चुकी है... छोडो...
Deletemeri speed bhi sachin jaisi control your vehicle with speed wali hai og mera iske liys mazak udate hain ya overtake karte samay aise dekhte hain jaise kah rahe ho dekho eri speed kitni jyada hai. baharhal mera majak udata rahe. mere 1 minte peeche pahuchane se koi fark nahi padata. main gadi apne liye nahin sadak par chale wale aur logo ke liye bhi chalata hoon.
DeleteAchhi yatra rahi aap logo ki.
नीरज भाई , आपकी यात्राओं की क्या प्रंशसा करे वो तो हमेशा ही शानदार होती है , आपकी लेखन शैली गजब की है जो पाठक को बांधे रखती है , आपकी वर्णन करने की क्षमता प्रशसनीय है। फोटोग्राफी आप गजब की करते ही है। बस आपसे एक बात पूछनी है कि नौकरी ,इतना घूमना , पारिवारिक जिम्मेवारी के बाद आप इतना लेखन, वो भी बिना किसी गलती के कैसे करते है।
ReplyDeleteमैं कुछ नहीं करता... सब अपने आप हो जाता है...
Deleteमूंगफली को हर जगह अलग साथी मिलता है |
ReplyDeleteकानपूर में कहीं हरी चटनी सुनी है मूंगफली के साथ मिलते हुए, हरियाणा में काले नमक की पुडिया होती है आज ये गुड़ वाला नया संयोग सुना अगले सीजन में ये सही... :) बढ़िया यात्रा और बढ़िया फोटू...
और रही बात नरेंद्र भाई कि तो ये स्वाभाविक होता है कि पीछे बैठने वाले को हमेशा डर ज्यादा लगता ही है हाँ ये ना समझ आने वाली बात है नरेंद्र भाई ने टोका क्यों नहीं सचिन को ... शायद संकोचवश...
(मैं भी ये अनुभव कर चुका हूं, बेटी ने झूले में बैठा लिया मेले में अब ना डरते बन रहा था और ना खुश होते...थोडा सा उसकी ख़ुशी के लिए खुश होके दिखाया तो उसने एक और चक्कर की फरमाइश रख दी :) :) :) ) तब जहां छुड़ा के भागा....
हमें तो जी गुड के साथ ही आनन्द आता है मूंगफली खाने में... जब पहली बार नमक का संयोग देखा तो हैरानी भी हुई कि नमक से कैसे खा सकते हैं? आज भी मैं नमक से नहीं खा सकता।
Deleteनाग टिब्बा पर फ़तेह आखिर हो ही गयी । पिछली बार आप पानी की बजह से न कर पाये थे। भविष्य में कभी आपके साथ किसी ट्रैक में चलेगे । समूह के साथ जाने के फायदे और नुक्सान दोनों है । अब ये निर्भर करता है की समूह में कैसे लोग साथ है ।अनजान होने से ज्यादा दिक्कत होती है । उनसे तालमेल बिठाना मुश्किल होता है ।
ReplyDeleteबहरहाल इस बार आपके पाठको को फ़ोटो वाली कंप्लेन न होगी ।
जय भारत माता की
धन्यवाद किसन जी...
Deleteधन्यवाद नीरज भाई। आप सब मेरे दोस्त है ओर जांगडा से तो बहुत अच्छी बनी, यह यात्रा मेरे लिए खास बन गई, आप सब लोगो की वजह से, मेने भी नाग टिब्बा लिखा अपने ब्लॉग पर लेकिन पढने में आन्नद यहां पर आया।
ReplyDeleteफारूख का क्या हुआ आगे कही उसका जिक्र नही किया
ReplyDeleteफारूख का क्या हुआ आगे कही उसका जिक्र नही किया
ReplyDeleteनीरज भाई मैंने तीनो पोस्ट पढ़ी. मैं आपके ब्लॉग को पिछले ५-६ से पढ़ रहा हु और हमेशा ये सोचता था की मैं भी ऐसी किसी ट्रिप पर आपके साथ जा सकता, तो ये ट्रिप तो मेरे लिए सपना सच होने जैसा था तो पैसे के बारे में सोचने की तो कोई बात ही नहीं थी। वो २-३ दिन मेरे लिए बहुत ही यादगार दिन रहेंगे हालाँकि आपके साथ एक ट्रेक और जरूर करना है। सचिन त्यागी जी के बारे में मैं आपसे बिलकुल सहमत हु,की ऐसे साथी सबको मिले।
ReplyDelete