7 मार्च 2016 के दिन यह यात्रा आरम्भ की। मेरा मतलब दिल्ली से चल पडा। आठ दिनों की यह यात्रा थी जिसमें पश्चिम रेलवे की वडोदरा और मुम्बई डिवीजनों की सभी नैरो गेज लाइनों को देखना था और रविवार वाले दिन मुम्बई लोकल में घूमना था। सतपुडा नैरोगेज के बन्द हो जाने के बाद यह इलाका नैरोगेज का सबसे ज्यादा घनत्व वाला इलाका हो गया है। मुम्बई डिवीजन में तो खैर एक ही लाइन है लेकिन वडोदरा डिवीजन में नैरोगेज लाइनों की भरमार है। मैंने शुरूआत मुम्बई डिवीजन से ही करने की सोची यानी बिलीमोरा-वघई लाइन से।
कई दिन लगाये इन आठ दिनों के कार्यक्रम को बनाने में और एक-एक मिनट का इस्तेमाल करते हुए जो योजना बनी, वो भी फुलप्रूफ नहीं थी। उसमें भी एक पेंच फंस गया। मैंने इस कार्यक्रम को बिल्कुल एक आम यात्री के नजरिये से बनाया था। उसी हिसाब से अलग-अलग स्टेशनों पर डोरमेट्री में रुकना भी बुक कर लिया। लेकिन मियागाम करजन से सुबह 06.20 बजे जो चांदोद की ट्रेन चलती है, उसे पकडने के लिये मुझे उस रात करजन ही रुकना पडेगा। यहां डोरमेट्री नहीं है और शहर भी कोई इतना बडा नहीं है कि कोई होटल मिल सके। फिर भरूच और वडोदरा से भी इस समय कोई कनेक्टिंग ट्रेन नहीं है। हालांकि भरूच से देहरादून एक्सप्रेस जरूर है लेकिन इस ट्रेन के करजन आने का समय 06.06 बजे है यानी केवल 14 मिनट का मार्जिन। हालांकि पश्चिम रेलवे में ट्रेनें लेट नहीं होतीं लेकिन कभी-कभी 10-15 मिनट लेट हो भी जाया करती हैं। इसलिये भरूच से इस ट्रेन को पकडना खतरे वाली बात थी।
खैर, सारी परेशानियों का हल विमलेश चन्द्रा जी ने एक चुटकी में कर दिया। वे भावनगर में डिवीजनल मैकेनिकल इंजीनियर हैं और मेरी रेलयात्राओं को हमेशा बहुत ज्यादा सपोर्ट करते हैं। कुछ समय पहले वे वडोदरा डिवीजन में ही थे, परिवार भी वडोदरा में ही है, इसलिये वडोदरा से उनका ज्यादा लगाव है। ऐसे में अगर मैं भी उधर ही घूमने जाता हूं, तो इस यात्रा के लिये उनका लगाव लाजिमी है। कार्यक्रम देखते ही उन्होंने कहा- शानदार कार्यक्रम बनाया है। एक-एक मिनट का प्रयोग किया है। मियागाम करजन की समस्या भी उन्होंने यह कहते हुए खत्म कर दी कि जो भी जैसा भी कार्यक्रम है, उसे वैसा ही रहने दो। कहीं किसी भी तरह की समस्या नहीं आयेगी।
तो जी, 7 मार्च 2016 की सुबह दस बजे निजामुद्दीन से त्रिवेन्द्रम जाने वाली 22654 पकड ली। सूरत तक का आरक्षण था। यह ट्रेन बिलीमोरा नहीं रुकती। सुबह तीन बजे सूरत पहुंचती है और साढे चार बजे वापी। बिलीमोरा सूरत और वापी के बिल्कुल बीच में है। पहले तो सोचा भी कि टीटीई से कहकर अपना टिकट वापी तक करा लूंगा और डेढ घण्टा ज्यादा सोता हुआ जाऊंगा। वैसे तो शुरू में ही मैं खुद भी वापी तक टिकट करा सकता था लेकिन मुझे रात के लिये सूरत में डोरमेट्री भी बुक करनी थी, इसलिये सूरत तक का टिकट ही कराया। अगर वापी तक करा लेता तो सूरत डोरमेट्री बुक नहीं हो पाती।
ठीक समय पर सूरत पहुंच गये और मैं यहीं उतर गया। असल में दिल्ली से यहां तक कोई भी टीटीई नहीं आया टिकट चेक करने, इसलिये टिकट को वापी तक भी नहीं बढवाया जा सका। सुबह तीन बजे उतरा तो नींद भी आ रही थी। मेरी बिलीमोरा की ट्रेन अब सवा सात बजे है, इसलिये वेटिंग रूम में जाकर एक कोने में अखबार बिछाकर सो गया। मौसम अच्छा था, फिर से अच्छी नींद आ गई।
छह बजे उठा। सीधे वघई की टिकट मांगी तो क्लर्क साहिबा ने मना कर दिया। बिलीमोरा की टिकट ले ली। मना क्यों किया, पता नहीं। इसके बाद पहुंचा प्लेटफार्म नम्बर तीन पर। थोडी ही देर में यहां एक बडा ही मजेदार वाकया होने वाला था। आपके लिये भले ही मजेदार न हो लेकिन मेरे लिये तो मजेदार था। होता ये है कि मुम्बई से आने वाली और अहमदाबाद जाने वाली 59441 पैसेंजर ट्रेन 06.05 बजे सूरत आती है और 06.45 बजे प्रस्थान करती है। इसके बाद अहमदाबाद से मुम्बई जाने वाली 59440 पैसेंजर 06.55 बजे सूरत आती है और 07.15 बजे प्रस्थान करती है। दोनों के लिये प्लेटफार्म नम्बर तीन निर्धारित है। दोनों चूंकि जोडीदार ट्रेनें हैं इसलिये दोनों के ही डिब्बों पर लिखा है- मुम्बई सेंट्रल-अहमदाबाद पैसेंजर। डेली पैसेंजर और छात्र-छात्राएं इन दोनों ट्रेनों का खूब इस्तेमाल करते हैं। वे भली-भांति जानते हैं कि 06.45 बजे अहमदाबाद की तरफ ट्रेन प्रस्थान करेगी और 07.15 बजे मुम्बई की तरफ।
लेकिन आज मुम्बई जाने वाली ट्रेन थोडा सा पहले आ गई और अहमदाबाद वाली ट्रेन थोडी सी लेट हो गई। इसलिये प्लेटफार्म तीन पर मुम्बई वाली ट्रेन साढे छह बजे ही आ गई जो यहां से 07.15 बजे चलेगी। अहमदाबाद वाली का कोई अता-पता नहीं। डेली पैसेंजर अक्सर ट्रेन छूटने के समय पर या पांच-दस मिनट पहले ही स्टेशन पर आते हैं। रोज की आदत थी, वे आते थे, प्लेटफार्म तीन पर अहमदाबाद वाली ट्रेन खडी मिलती थी और वे उसमें चढ जाते थे। आज भी ऐसा ही हुआ। यात्री आते गये और ट्रेन में चढते गये। एनाउंसमेंट खूब हो रहा था लेकिन इन्हें गम्भीरता से सुनता ही कौन है? ज्यादातर यात्री गप्पे मार रहे थे और छात्र किताबें पढने में लगे थे। पेपर का टाइम चल रहा है।
07.15 बजे जैसे ही ट्रेन मुम्बई की तरफ चली तो कुछ को गडबडी का पता चला और कुछ को नहीं पता चला। इस समय तक अहमदाबाद जाने वाली ट्रेन प्लेटफार्म दो पर आ चुकी थी। कुछ तो कूद गये और कुछ नहीं कूद पाये। बेचारे फिर उधना उतरे और अहमदाबाद की तरफ जाने वाली किसी दूसरी ट्रेन की प्रतीक्षा करने लगे। नौकरी वालों के लिये तो उतनी बडी बात नहीं है लेकिन छात्रों के लिये यह बडी बात थी। हालांकि रेलवे की कोई गलती नहीं थी, जमकर इस बारे में एनाउंसमेंट हो रहा था। इसलिये अगर आप भी डेली पैसेंजर हैं तो इस कॉन्फिडेंस में न रहें कि आपका रोज का काम है। कभी-कभार चीजें बदल भी जाया करती हैं।
उधना में दानापुर जाने वाली ट्रेन खचाखच भरी थी। यह ट्रेन उधना से ही बनकर चलती है। अगर इसे सूरत से चलाते तो सूरत पर भारी भीड हो जाती। उधना से चलाने से सूरत भीड से बच गया।
पौने नौ बजे बिलीमोरा पहुंच गया। यहां ठाकोर भाई मिल गये। वे सीएंडडब्लू यानी कैरिज और वैगन विभाग में सीनियर सेक्शन इंजीनियर हैं। सब कमाल विमलेश जी का था। वे कार्यक्रम के अनुसार मुझे लगातार ट्रैक कर रहे थे और मुझे कौन-कौन कहां-कहां मिलेगा, सब उन्होंने पहले ही तय कर रखा था। उन्होंने सम्बन्धित व्यक्ति को पहले ही सब बता रखा था। मेरे पहुंचने से आधे घण्टे पहले फोन आ जाता कि वे वहां मिलेंगे। तो यात्रा की पहली मुलाकात हुई ठाकोर भाई से। इनका काम यहां नैरो गेज ट्रेन की देखभाल करनी है। ट्रेन का इंजन और डिब्बे इनके नियंत्रण में हैं। इन्होंने बताया कि अभी जो ट्रेन वघई से आयेगी, उसके डिब्बे बदल दिये जायेंगे। वही इंजन दूसरे डिब्बों को लेकर वघई चला जायेगा और शाम तक वापस लौटेगा। तब डिब्बे वही रहेंगे, लेकिन इंजन बदल दिया जायेगा और ट्रेन फिर से वघई चली जायेगी। दिन में यह ट्रेन बिलीमोरा और वघई के दो चक्कर लगाती है।
ट्रेन आने में अभी समय था तो ठाकोर भाई मुझे बाजार में ले गये और खमण का नाश्ता कराया और आधा किलो अंगूर भी पकडा दिये। मुझे सभी गुजराती डिश बहुत अच्छी लगती हैं। इसका नाम तो मुझे आज पहली बार पता चला। अगर मैं अकेला होता तो इशारा करके मांग लेता। इसके बारे में ज्यादा जानकारी तो गुजराती मित्र ही दे सकते हैं लेकिन खमण मुझे इसलिये भी अच्छा लगा कि इसमें चीनी नहीं थी। यह बिल्कुल ढोकले जैसा ही होता है या फिर ढोकला की ही कोई ‘प्रजाति’ है।
वघई से ट्रेन आई और सभी यात्रियों के उतरने पर यार्ड में चली गई। इसके डिब्बे बदले गये और ट्रेन वापस स्टेशन पर आकर खडी हो गई। भीड नहीं थी, इसलिये मैं खिडकी के पास वाली एक सीट पर बैठ गया। ठाकोर भाई ने मेरा परिचय ट्रेन के ड्राइवर और गार्ड से भी करा दिया।
बिलीमोरा में यार्ड से आती ट्रेन |
विमलेश चन्द्रा जी के अनुसार -“बिलीमोरा से वघई तक की 2 फुट 6 इंच चौडाई वाली नैरो गेज रेल लाइन 62.72 किलोमीटर लम्बी है जिसे गायकवाड बडौदा स्टेट रेलवे ने 23-07-1914 से 01-04-1926 के बीच बनवाया था। अभी इसके 100 साल पूरे हुए हैं। यह मुम्बई सेण्ट्रल मण्डल की एकमात्र नैरोगेज रेललाइन है। यह गुजरात राज्य में है। वघई सतमाला पहाडी पर स्थित है। इसके पास में गुजरात का एकमात्र पर्वतीय पर्यटन स्थल सापूतारा स्थित है।”
ब्रिटिश समय में यह लाइन लकडी ढोने के लिये बिछाई गई थी। बिलीमोरा से इसे दूसरी ट्रेनों में लादकर या समुद्र के रास्ते दूर स्थानों तक भेजा जाता था। हालांकि अब तो ज्यादातर जंगल खत्म हो गये हैं लेकिन वघई के आसपास अभी भी काफी जंगल बचे हैं। वघई के बाद पहाडी इलाका है, इसलिये मानसून में यहां कई स्थान दर्शनीय हो जाते हैं। कुछ जलप्रपात हैं, मन्दिर हैं और सापूतारा तो है ही। एक दिन मैंने कहीं अखबार में पढा था कि सापूतारा में गर्मियों में भी ठण्डक का एहसास होता है। इसलिये ऐसे अखबारों के भरोसे न रहें। यह हिल स्टेशन की श्रेणी में भले ही आता हो लेकिन इसकी ऊंचाई केवल 900 मीटर ही है। गर्मियों में यह स्थान खूब गर्म रहता होगा। हां, मानसून में अवश्य दर्शनीय हो जाता होगा। सापूतारा जाना है तो मानसून बेस्ट है।
ट्रेन चल पडी और अगला स्टेशन गणदेवी है। मुझे बताया गया था कि इस मार्ग पर कुछ भी खाने को नहीं मिलेगा। लेकिन यहां आइसक्रीम का एक ठेला था- महाराजा आईसक्रीम। यह नाम गुजराती में लिखा था, लेकिन मैंने पढ लिया। गुजराती पढना उतना मुश्किल नहीं है। ऊपर डण्डा नहीं लगता और कुछ अक्षरों में मामूली सा फर्क होता है।
इस मार्ग पर ‘वन ट्रेन ओनली’ सिस्टम है। यानी बिलीमोरा से अगर ट्रेन चल पडी तो जब तक यह ट्रेन वापस बिलीमोरा नहीं आ जाती, तब तक लाइन पर कोई दूसरी ट्रेन नहीं भेजी जा सकती। रास्ते में किसी भी स्टेशन पर रेलवे स्टाफ नहीं होता और गार्ड ही टिकट बांटने का काम करता है। पूरा आदिवासी इलाका है, इसलिये यह ट्रेन उनके लिये किसी वरदान से कम नहीं है। थोडा सा किराया अभी बढा है, नहीं तो पांच-दस रुपये में इस पूरी लाइन पर यात्रा की जा सकती थी। अभी भी अधिकतम किराया 15 रुपये है। गुजरात में अन्य राज्यों के मुकाबले बसें भी सस्ती हैं लेकिन रेल फिर भी बस से सस्ती पडती है।
रास्ते में सभी स्टेशनों पर गार्ड टिकट देता है। |
गेटमैन ट्रेन में ही यात्रा करता है। ट्रेन फाटक से पहले रुकती है, गार्ड उतरकर फाटक बन्द करता है, ट्रेन इसे पार करती है, आखिर में गेटमैन फाटक खोलकर ट्रेन में चढ जाता है। |
धोलीकुवा रेलवे स्टेशन |
गणदेवी से अगला स्टेशन चीखली रोड है, फिर रानकुवा, धोलीकुवा, अनावल, उनाई और वासंदा रोड, केवडी रोड, काला आंबा, डुंगरडा और आखिर में वघई स्टेशन हैं। इसमें काला आंबा से वघई तक अच्छा-खासा जंगल है। डुंगरडा के पास अम्बिका नदी भी है। इसमें पानी तो थोडा सा था लेकिन पुल काफी बडा था। नीचे नदी में उतरकर ऊपर पुल पर चलती ट्रेन का फोटो बडा शानदार आयेगा। तीन डिब्बों की ट्रेन विशाल पुल पर चुहिया सी सरकती दिखेगी। रेलवे के कुछ शानदार फोटो इसी तरह लिये जाते हैं।
जंगल में वो जंगल वाली बात नहीं थी। सूखा पडा था और जो भी पत्ते पेडों पर बचे थे, सब पीले हो गये थे। मानसून आयेगा, तो इनमें भी जान आयेगी। कुल मिलाकर इधर मानसून में आने का।
62 किलोमीटर की यह यात्रा तीन घण्टों में पूरी हो जाती है। औसत स्पीड 20 की है, तो अधिकतम स्पीड 30 तक पहुंच जाती होगी। नैरोगेज लाइनों के लिये 30 की स्पीड ठीक ही रहती है। हालांकि सतपुडा नैरोगेज में 40 तक भी ट्रेनें चलती थीं।
अम्बिका नदी |
ट्रेन एक घण्टा यहां रुककर फिर से वापस बिलीमोरा के लिये चल देगी। गार्ड और ड्राइवर ने इसी ट्रेन में चलने का सुझाव दिया। लेकिन मैंने वापस सूरत जाने को बस को प्राथमिकता दी। स्टेशन से थोडी ही दूर बस अड्डा है। यहां इस समय तीन बसें खडी थीं- आहवा जाने वाली, बिलीमोरा जाने वाली और सूरत जाने वाली। मैं सूरत वाली में बैठ गया। दो बजे बस चल पडी। यह बस व्यारा होते हुए जायेगी। दूरी लगभग 120 किलोमीटर है और टिकट 60 रुपये का मिला।
वघई गुजरात के डांग जिले में आता है। डांग का मुख्यालय आहवा में है। सापूतारा भी डांग में ही है। यह मुख्यतः छोटी-छोटी पहाडियों वाला और ज्यादातर जंगल वाला भूभाग है। बस डांग से बाहर निकली तो पहाडियां भी समाप्त हो गईं और जंगल भी। व्यारा में एनएच 6 मिल गया। व्यारा से आगे बारदोली है। यह स्थान सरदार वल्लभ भाई पटेल के बारदोली सत्याग्रह के लिये प्रसिद्ध है। शहर में भीडभाड नहीं थी। बस अड्डे में इधर से घुसे और उधर से निकल गये।
शाम पांच बजे सूरत पहुंच गया। डोरमेट्री में बिस्तर बुक था। सूरत में फर्स्ट फ्लोर पर तो प्लेटफार्म ही है और चौथे माले पर डोरमेट्री है। लिफ्ट भी लगी है लेकिन बाबा आदम के जमाने की है। लिफ्ट में घुसकर दो दरवाजे हाथ से ही बन्द करने होते हैं, तब यह चलती है। दरवाजों में सेंसर लगे हैं, जो यह बताते हैं कि दोनों ठीक से बन्द हैं या नहीं। दोनों बन्द होंगे तभी लिफ्ट चलेगी। दुर्भाग्य से बाहर वाला दरवाजा थोडी दिक्कत कर रहा था और अपने आप थोडा सा खुल जाता था। इसके कारण लिफ्ट नहीं चलती थी। पिछले दिनों सूरत स्टेशन को देश का सबसे साफ-सुथरा स्टेशन चुना गया। निःसन्देह यह बेहद साफ-सुथरा स्टेशन है लेकिन यह लिफ्ट इसकी सुन्दरता में बट्टा लगाती है। या तो इसे उखाड फेंका जाये या फिर आधुनिक लिफ्ट लगाई जाये।
खैर, आज का दिन बिलीमोरा-वघई नैरोगेज लाइन के नाम था। तीन घण्टे की यात्रा में ढेर सारे फोटो मिले और खूब सारा अनुभव। मानसून में आप भी इधर जाने की योजना बनाना। वघई जाकर सापूतारा पहुंच जाना। अच्छा लगेगा।
अगला भाग: कोसम्बा से उमरपाडा नैरोगेज ट्रेन यात्रा
1. बिलीमोरा से वघई नैरोगेज रेलयात्रा
2. कोसम्बा से उमरपाडा नैरोगेज ट्रेन यात्रा
3. अंकलेश्वर-राजपीपला और भरूच-दहेज ट्रेन यात्रा
4. जम्बूसर-प्रतापनगर नैरोगेज यात्रा और रेल संग्रहालय
5. मियागाम करजन से मोटी कोरल और मालसर
6. मियागाम करजन - डभोई - चांदोद - छोटा उदेपुर - वडोदरा
7. मुम्बई लोकल ट्रेन यात्रा
8. वडोदरा-कठाणा और भादरण-नडियाद रेल यात्रा
9. खम्भात-आणंद-गोधरा पैसेंजर ट्रेन यात्रा
वाह भई वाह...नीरज जी, आप के उत्साह और जज्बे को सलाम..आप लोगों के प्रेरणा स्रोत हैं। ऐसे ही लगे रहिए और ऐसे ही बने रहिए..शुभकामनाएं...अभी आप की किताब मंगवा रहा हूं..
ReplyDeleteधन्यवाद प्रवीण जी...
Deleteaap ki isi post ka main intezar kar raha tha, abhi shrunkhla main aage baki hai na?
ReplyDeleteहाँ, अमित भाई... अभी बहुत कुछ बाकी है...
Deleteआपने अपने इस शानदार पोस्ट मे जानदार तरीके से जो यात्रा विवरण दिया है वह काफी मजेदार है । इसमे आप ने मेरी चर्चा किया है उसके लिए बहुत -बहुत धन्यवाद । पोस्ट पढ़ते पढ़ते खुशी के आँसू छ्लक आए। आप के साथ यात्रा न कर पाने का दुख भी है । अभी अभी आप की पुस्तक भी सप्रेम भेंट के साथ प्राप्त हो गयी । पुस्तक भेजने के लिए बहुत बहुत धन्यवाद ।
ReplyDeleteसर जी, आपके सहयोग के बिना यह यात्रा नहीं हो पाती...
Deleteखमण और ढोकला एक प्रजाति का नहीं एक ही होता है, एक चीज के दो नाम।
ReplyDeleteधन्यवाद निशांत जी...
Deleteये नैरो गेज ट्रेन भारत में सबसे पहले कब चालू हुई और कहाँ से कहा तक ।
ReplyDeleteदेखना पडेगा...
Deleteभारत और विश्व की सबसे पहली नैरो गेज ट्रेन फरवरी 1862 मे वडोदरा मण्डल मे दभोई से मियागाम के बीच बुलक ट्रेन के रूप मे शुरू हुई थी ।
Deleteयह नैरो गेज ट्रेन बाद मे भाप इंजन से तथा फिर डीजल इंजन से अभी भी चल रही है । जब यह चली थी तब ब्रिटिश समाचार पत्रों मे इसकी खूब चर्चा और बड़ाई हुई थी ।
Deleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल बुधवार (27-04-2016) को "हम किसी से कम नहीं" (चर्चा अंक-2325) पर भी होगी।
ReplyDelete--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
नीरज जी में Vyara मे ही रहता हूँ
ReplyDeleteहिन्दी मे यात्रा वर्णन लिखने के लिए आप बधाई के पात्र है। देश मे कुछ गिने चुने ब्लॉगर ही है जो हिन्दी मे ट्रैवेल ब्लॉगिंग करते है। हिन्दी के महत्व को आप जैसे ब्लॉगर ही बढ़ा रहे है।
ReplyDeleteधन्यवाद पवन जी
DeleteGhazab kar diya bhai...kahan kahan se dhoondh dhoondh kar train yatra karte ho...kamaal...aapko to Indian Railway dwara kahin bhi aane jaane ke liye free paas dena chahiye wo bhi sabse oonchi class ka...aapne jitni train yatrayen ki hain wo apne aap men kisi record se kam nahin...Kya zazba hai bhai...Salaam karte hain.
ReplyDeleteवन ट्रेन ओनली सिस्टम गजब है......और कहीं ऐसा है क्या.........
ReplyDeletewww.travelwithrd.com
भारतीय रेल मे यह सिस्टम अभी भी बहुत से जगहों पर लागू है । विशेष कर वहाँ जहां ब्रांच लाइन हैं और ट्रैफिक कम हैं । वडोदरा डिविजन मे ही ऐसी कई लाइन है । जैसे की आनंद- खंभात, नडियाड-मोदसा इत्यादि ।
Deleteप्रिय नीरज जी,
ReplyDeleteआपसे प्रेरित होकर अब मैं भी अकेले रेल-यात्राएँ करने लगा हूँ।
मुझे मेरे देश से रु-बरु करवाने के लिए कोटिशः धन्यवाद।
मोहित अग्रवाल.
Sahi me u are great.Neral se matheran tak bhi narro line hai maine to bas uska hi safar kiya hai.Another very nice experience by u.
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ReplyDeleteदानापुर -उधना ट्रेन में बैठने का मौका मिला अभी पटना से लौटते हुए ! गार्ड द्वारा टिकट वितरण और गेटमेन का ट्रेन में ही चलना अजीब और विचित्र लगा ! ऐतिहासिक यात्रा रही नीरज भाई
gajab ki ghumkkdi
ReplyDeleteसुंदर यात्रा विवरन
ReplyDeleteढोकला और खमन एक ही होता है
प्रदेशो के हिसाब से प्रकार अलग होता है
वन ट्रेन ओनली सिस्टम के बारे में जानना अच्छा लगा ...सुन्दर यात्रा वृतांत ....
ReplyDeleteशानदार आपने यादे ताजा करा दी इस रूट की देल्ली से सुरत और फिर सूरत से चिखली , चिखली से 90 बच्चो की लेकर दो बसों में नासिक लगभग 250 किलोमीटर का सफ़र पूरे सफ़र में याद है तो सपुतारा और अंगूर की खेती एक पहाड़ी होने के नाते महाराष्ट्र और गुजरात के पहाड़ अच्छे लगे लेकिन वहा पहाड़ो पर गाँव नहीं है ऐसा मैंने मसहूस किया तो बात करते है सापूतारा की बड़ी चहल पहल थी अक्टूबर में अच्छा लगा झील होने के नाते बाद में पता चला सापूतारा महाराष्ट्र में है गुजरात की सीमा के निकट तो जिस जीज की गुजरात के पूर्ण बंदी है वही महाराष्ट्र में आसानी से उपलब्ध है चहल पहल का आशय समझ में आ गया आठ घंटे बाद नासिक पहुचे और फिर वहा से न्यू जलपाईगुडी दार्जलिंग जाने के लिए
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