रीकांग पीओ से काजा की बस सुबह सात बजे चलती है। मैं छह बजे ही बस अड्डे पर पहुंच गया। जाते ही टिकट ले लिये- आगे की ही सीटें देना। सीट नम्बर 4 और 5 मिल गईं। ये ड्राइवर के बिल्कुल पीछे वाली सीटें होती हैं। सुमित के लिये तो सबकुछ नया था ही, मेरे लिये भी यह इलाका नया ही था। बस अड्डे की कैण्टीन में ही आलू के परांठे खाये। तापमान तो सुबह सवेरे माइनस में ही था, इसलिये हम कम्बल ओढे हुए थे। छोटी सी कैण्टीन में सामानों की अधिकता में सुमित से एक स्थानीय टकरा गया और स्थानीय के हाथ से चाय का कांच का कप नीचे गिर गया और टूट गया। वो बडबडाने लगा लेकिन कैण्टीन मालिक ने तुरन्त मामला रफादफा कर दिया।
ठीक सात बजे बस चल पडी। जूते और दस्ताने पहनने के बावजूद भी उंगलियों में ठण्ड लग रही थी। पैरों पर कम्बल डाल लिया और हाथ उसमें घुसा लिये। बडा आराम मिला। बस अड्डे के सामने डाकखाना है। इतनी सुबह भी डाकखाना खुला था। काजा जाने वाली एकमात्र बस में खूब सारी डाक डाल दी गईं और उनकी लिस्ट कण्डक्टर को पकडा दी। गांव आते रहेंगे और कण्डक्टर लिस्ट में देख-देखकर सामान बाहर डालता जायेगा। दो-तीन अखबार ‘रोल’ बनाकर ड्राइवर के आगे डैशबॉर्ड पर डाल दिये। बाद में इन्हें ड्राइवर ने ही चलती बस से कुछ घरों में फेंक दिया। यह रोज का काम होता है, इसलिये इन्हें पता है कि अखबार कहां डालने हैं। सरकारी ड्राइवर फ्री में अखबार बेचने वाले ‘हॉकर’ भी बन गये।
कुछ दूर तक तो वही रास्ता है जिससे कल हम आये थे। फिर सतलुज किनारे सीधा रास्ता रामपुर यानी शिमला चला जाता है और बायें मुडकर काजा। रास्ता बहुत खराब है। कल हुई बारिश ने इस पर कीचड भी कर दी। फिलहाल कई स्थानों के नाम दिमाग में इधर से उधर हो गये हैं, इसलिये कोई स्थान आगे-पीछे हो जाये तो समझ जाना।
अक्पा में अच्छी सडक मिली। 9 बजे स्पीलो पहुंचे। इसे कई जगह सपिल्लो भी लिखा हुआ देखा और स्थानीय तो सपिल्लो ही बोलते हैं। यहां आधे घण्टे के लिये रुक गये चाय-नाश्ते के लिये। हमने केवल चाय ली। स्पीलो में एयरटेल का अच्छा नेटवर्क था और नेट भी बढिया चल रहा था। मेरे सभी यार-दोस्त इंटरनेट वाले ही हैं, मैं सभी से जुडा था। यहां के बाद पता नहीं कब नेटवर्क चला जाये। अपने घर पर तो मैं कहकर आया था, यहां सुमित ने भी बता दिया ताकि कल-परसों फोन न मिलने पर उसके घरवाले चिन्तित न हो जायें और खाना-पीना छोडकर सुमित को ढूंढने न निकल पडें।
स्पिलो में |
कई जगह वे स्थान मिले, जिन्हें मैंने राहुल सांकृत्यायन की ‘किन्नर यात्रा’ में पढे थे- जंगी, ठंगी, रोपा आदि। मेरी इस यात्रा के लिये कोई तैयारी नहीं थी। किसी दिन बाइक उठाऊंगा और किन्नौर के इन दूर दराज के गांवों में घूमकर आऊंगा। मुख्य सडक तो यही है लेकिन बहुत सारी छोटी छोटी सडकें इधर-उधर अलग-अलग घाटियों में गईं हैं। जैसे कि रोपा और ठंगी इस सडक से काफी दूर हैं। ठंगी से किन्नर कैलाश की परिक्रमा शुरू होती है। भू-दृश्य काफी हद तक लाहौल जैसा था लेकिन जैसे जैसे आगे बढते गये, इसमें परिवर्तन आता गया। पहाड और ज्यादा खुश्क होते गये। पूह तक तो सबकुछ बदल चुका था। पूह में भी एयरटेल काम कर रहा था- नेटवर्क भी और नेट भी।
अभी तक तो सडक सतलुज के साथ-साथ ही थी लेकिन खाब पुल पार करते ही हम सतलुज को छोड देते हैं और स्पीति नदी के साथ साथ हो लेते हैं। खाब पुल से थोडा पहले एक रास्ता दाहिने हाथ ऊपर जाता है जो नमग्या होते हुए शिपकी-ला तक जाता है। शिपकी-ला ही भारत-तिब्बत सीमा है। कोई भी नमग्या तक तो आसानी से जा सकता है लेकिन शिपकी-ला जाना आसान नहीं है। किसी की बहुत ऊंची पहुंच होगी, वही शिपकी-ला पहुंच पाता है। इस दर्रे को यह नाम सीमा के उस तरफ स्थित शिपकी गांव के नाम पर मिला। 1962 से पहले हिन्दुस्तान-तिब्बत सडक के माध्यम से इस दर्रे से खूब आवागमन होता था। कैलाश मानसरोवर जाने वाले यात्री भी इस मार्ग का प्रयोग करते थे। आखिर सतलुज वहीं से तो आती है। लेकिन 1962 में सब बन्द हो गया। और ज्यादा कुरेद-कुरेदकर पूछताछ की तो पता चला कि अभी भी शिपकी-ला के दोनों तरफ व्यापार होता है और ट्रक आदि इधर से उधर आते-जाते हैं। लेकिन स्थानीय लोगों को ही इसकी इजाजत है।
वैसे नाथू-ला की तरह शिपकी-ला को भी आम लोगों के लिये खोल देना चाहिये। लद्दाख में पेंगोंग झील तक कोई भी बिना परमिट के जा सकता है, इसलिये अब शिपकी-ला जैसी जगहों पर इतनी सख्ती की कोई आवश्यकता नहीं रह गई है। वैसे यह इलाका तिब्बत सीमा के बहुत नजदीक है। इतना नजदीक कि अगर सीमा पर खडे हो जायेंगे तो यह सडक और इस पर चलती गाडियां आसानी से देखी जा सकती हैं। लेकिन फिर भी दशकों से शान्त पडी इस सीमा पर इतनी सख्ती ठीक नहीं। हमारा भी मन करता है शिपकी-ला तक जाने का लेकिन ऊंची पहुंच न होने के कारण मन में ही रह जाती है।
शिपकी-ला जाने वाला रास्ता खाब पुल से थोड़ा पहले से अलग होता है |
सतलुज नदी पर पुल बना है, इसे खाब पुल भी कहते हैं। सतलुज पीछे छूट जाती है और हम स्पीति के साथ साथ हो लेते हैं। यहां आकर भूदृश्य देखकर मुझे पहली बार डर लगा। बिल्कुल सीधे खडे हजारों फीट ऊंचे पहाड हैं और इनके बीच में सिंगल लेन की सुरंगनुमा सडक है। इससे ज्यादा मैं एक्सप्लेन नहीं कर सकता। डर लगा तो लगा, बस।
फिर एक जगह सीधी जाती सडक को छोडकर बस दाहिने मुड गई और नाको की चढाई चढने लगी। यह सीधी जाती सडक ही पहले मुख्य सडक हुआ करती थी लेकिन इसके रास्ते में आने वाले मुलिंग नाले के कारण अब नाको से होकर जाना पडता है और करीब 20-25 किलोमीटर की दूरी ज्यादा तय करनी पडती है। मुलिंग नाला बडा की खतरनाक है और इसके आसपास कच्ची मिट्टी की अधिकता है जिस कारण न सडक टिक पाती थी और न ही पुल बन पाता था। ढाल भी बहुत ज्यादा है। इतना ज्यादा कि बडे बडे पत्थर खूब लुढकते थे और ट्रकों तक को स्पीति में जलसमाधि करा देते थे। हालांकि अभी भी मुलिंग नाला पार करना पडता है लेकिन करीब 1000 मीटर ऊपर चढकर, जहां यह उतना खतरनाक नहीं है। स्पीति जाने वालों को नाको का अतिरिक्त चक्कर न लगाना पडे, इसलिये स्पीति के उस तरफ एक नई सडक बन रही है जो चांगो में फिर से स्पीति पार करके इसी सडक में मिल जायेगी।
आदमी वाकई कुदरत के सामने कितना बौना है!!
नाको में एक झील भी है। बस झील से करीब एक किलोमीटर पहले ही मुड गई। यह झील सर्दियों में जम जाती है। जमी झील को देखने की इच्छा थी, लेकिन वापसी में देखेंगे। नाको से आगे निकलकर मुलिंग नाले की भयावहता के दर्शन होते हैं। मैं इसे देखने में इतना तल्लीन हो गया कि इसके फोटो खींचने ही ध्यान नहीं रहे। वापसी में कोशिश करूंगा मुलिंग नाले के फोटो लेने की। नाला पार करके उतराई शुरू हो जाती है जो चांगो में जाकर समाप्त होती है। इसी रास्ते में काजा से पीओ जाने वाली बस मिली। दोनों बसों ने एक-दूसरी को सीटी मारकर नमस्ते कहा और ड्राइवरों ने भी हाथ मिलाये।
नाको में |
नाको गाँव |
सडक चौडी करने का काम चल चल रहा है। चट्टानी पहाड हैं, इसलिये बारूद ही प्रयोग किया जा सकता है। चट्टानों में छेद करके उनमें बारूद भरा जा रहा है, किसी दिन विस्फोट कर देंगे। सिर ऊपर उठाने पर हजारों फीट तक की ऊंचाई सिर के ऊपर दिखती है। एक पत्थर भी गिरेगा तो सीधा बस की छत पर गिरेगा और बस को ध्वस्त कर देगा।
कुछ जगहें वाकई बडी डरावनी होती हैं और यह इलाका इनमें से एक है।
साढे बारह बजे सुमडो पहुंचे। सुमडो का अर्थ होता है दो नदियों का संगम। मैं बहुत दिनों से मानता चला आ रहा था कि यहां सतलुज और स्पीति का संगम है लेकिन वो तो पीछे खाब में है। यहां स्पीति में कोई और नदी आकर मिलती है। यहां तक किन्नौर जिला है और अब लाहौल-स्पीति जिला शुरू हो जाता है। स्पीति का पुल पार करते ही एक चेकपोस्ट है। विदेशियों को यह चेकपोस्ट पार करने के लिये इनर लाइन परमिट बनवाना पडता है। विदेशी काजा की तरफ से आयें या किन्नौर की तरफ से, यहां तक बिना परमिट के आ सकते हैं लेकिन केवल चेकपोस्ट पार करने के लिये परमिट आवश्यक है। हम भारतीय बिना परमिट के आ-जा सकते हैं। हां, फोटो खींचने की मनाही है। यहीं से एक रास्ता कौरिक चला जाता है। कौरिक में भारत-तिब्बत सीमा है। यह राष्ट्रीय राजमार्ग 22 है जो अम्बाला से शुरू होकर कौरिक तक जाता है। हालांकि राजमार्गों की नई नम्बरिंग में इसे एनएच 505 नाम दिया गया है। आम आदमी कौरिक नहीं जा सकता।
सुमड़ो |
यहां कुछ देर बस चेकपोस्ट पर रुकी और रजिस्टर में कुछ दर्ज करने के बाद आगे बढ गई। पीओ से दोपहर बाद एक बस सुमडो तक आती है जो सुबह यहां से वापस पीओ चली जाती है।
अब वे खतरनाक पहाड खत्म हो जाते हैं और स्पीति की चौडी घाटी शुरू हो जाती है। सुमडो समुद्र तल से लगभग 3100 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है। इसके बावजूद भी कहीं बर्फ का नामोनिशान नहीं था और न ही वातावरण में ठण्ड थी। धूप निकली थी और जनवरी होने के बावजूद भी हमें खूब गर्मी लग रही थी। इस कारण आलस भी आ रहा था और नींद भी। हां, पैरों में जरूर ठण्ड लग रही थी खासकर उंगलियों में।
सुमडो से थोडा ही आगे गीयू मोनेस्ट्री के लिये रास्ता जाता है। गीयू मोनेस्ट्री एक लामा की ममी के कारण प्रसिद्ध है। बीआरओ वाले इधर सडक बनाने के लिये खुदाई कर रहे थे, तब उन्हें यह ममी मिली। बताते हैं कि कुदाल लग जाने के कारण उससे खून भी निकला था और यह भी बताते हैं कि इस ममी के बाल बढते हैं। पता नहीं इसमें कितनी सच्चाई है?
डेढ बजे हुर्लिंग पहुंचे। यहां लंच के लिये बस रुक गई। हमने राजमा-चावल खाये- दोनों ने मिलकर हाफ प्लेट। बस यात्रा में पेट भरा हो तो मेरा मन खराब होने लगता है। ऐसे में अगर कोई यात्री उल्टी कर दे तो मेरा भी वैसा ही मन होने लगता है।
हुरलिंग में लंच के लिए रुके. |
हुर्लिंग से कुछ आगे स्पीति पार करके सुमरा गांव है। लोहे का पुल बना है। दूरी करीब एक किलोमीटर है। काजा वाली बसें पहले उस गांव तक जाती हैं, फिर वापस यहां आकर काजा के लिये चलती हैं। लेकिन आज ड्राइवर ने कह दिया कि बस सुमरा तक नहीं जायेगी, तेल कम है। दो-तीन उतरने वाले यात्री थे, उन्होंने मुंह भी बनाया लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ। वैसे इस तरह बस का दो किलोमीटर अतिरिक्त जाना मुझे भी ठीक नहीं लगा। ऐसे तो बहुत से गांव हैं जो पुल द्वारा मुख्य सडक से जुडे हैं लेकिन वहां मुख्य सडक पर चलने वाली बस नहीं जाती। लेकिन यह अच्छी बात भी थी, कम से कम एक गांव को तो इस अतिरिक्त सुविधा का फायदा मिल रहा है।
शिचलिंग से एक सडक ऊपर धनकर गोम्पा तक जाती है। हमारी योजना भी कल-परसों में धनकर तक जाने की है। धनकर के पास एक झील है, जहां जाने के लिये 3-4 घण्टे पैदल चलना पडता है। अभी चूंकि बर्फ नहीं है, इसलिये झील तक जाया जा सकता है और बर्फ न होने के कारण झील दिख भी जायेगी। यहां झीलें जम जाती हैं। बर्फ पडती है तो यह जमी झील के ऊपर भी गिरती है और झील को ढक लेती है। झील दिखाई नहीं देती। अगर बर्फ होती तो झील तक जाने का कोई फायदा नहीं था।
इससे आगे लिंगती में जमे हुए झरने मिले। चलती बस से फोटो खींचने का मन किया लेकिन बात नहीं बनी। एक-दो दिन में जब धनकर जायेंगे तो लिंगती के इन झरनों को जी भरकर देखेंगे।
ठीक साढे चार बजे काजा पहुंच गये। बस अड्डा खाली पडा था, कोई भी दूसरी बस नहीं थी। बगल में ही एक दुकान खुली थी। चाय बनी, हमने पी; तब तक हमारे ठिकाने का पक्का हो गया। नहीं तो हम चिन्तित थे कि सर्दियों में पता नहीं काजा में कहीं ठिकाना मिलेगा भी या नहीं। आप इंटरनेट पर सर्च करना कि काजा में सर्दियों में रुकने के क्या-क्या इंतजाम हैं तो पता चलेगा कि रुकने के लिये मिल जाता है लेकिन... लेकिन शब्द अवश्य लिखा मिलेगा। कि लेकिन अगर न मिले तो किसी का भी दरवाजा खटखटाया जा सकता है। कोई भी यकीन से नहीं बता सकता कि काजा में सर्दियों में मिल ही जायेगा।
मुझे चाय का यह बडा फायदा लगता है। चाय पेट भरने के लिये नहीं पी जाती। आप कहीं भी जाओ, सामने वाला आपके इंतजार में नहीं बैठा रहता कि आप आओगे और वो आपको जानकारी देना शुरू कर देगा। पांच रुपये की, दस रुपये की चाय लगती है। पहले चाय बनती है, फिर आपके पास आती है, आप इसे ठण्डी करते हो और फिर चुसक-चुसक कर पीते हो। इन 25-30 मिनटों में आपको जो भी जानकारी चाहिये, सामने वाला इत्मीनान से बताता है - चाहे वो काजा हो या कोई और स्थान हो।
बस अड्डे के बिल्कुल बगल में ही ल्हामो होमस्टे है। 500 रुपये का एक कमरा मिल गया। खाना अलग से। दो मंजिले हैं। मकान मालकिन हमें ऊपरी मंजिल में ले गई। मैंने कहा कि नीचे ही रुकेंगे, यहां ठण्ड लगेगी। बोली कि नीचे अन्धेरा है, बिजली से भी अन्धेरा खत्म नहीं होता। हमने कहा कि कोई बात नहीं। अन्धेरा होगा, ठीक है। लेकिन ठण्ड से तो बचेंगे। यहां केवल हम ही यात्री थे इसलिये न रजाईयों की तंगी और न गद्दों की। बिजली थी, मोबाइल और कैमरे भी चार्ज हो गये।
हां, यहां केवल बीएसएनएल ही काम करता है। एयरटेल का टावर भी लगा है लेकिन बीएसएनएल ने सरकारी होने की धौंस दिखाते हुए इसे नहीं चलने दिया। उसे यकीन था कि उसकी ‘उत्कृष्ट सेवाओं’ के बावजूद भी लोग एयरटेल को ज्यादा पसन्द करेंगे और बीएसएनएल घाटे में चला जायेगा।
काजा बस अड्डा |
काजा |
अगला भाग: जनवरी में स्पीति - बर्फीला लोसर
1. जनवरी में स्पीति- दिल्ली से रीकांग पीओ
2. जनवरी में स्पीति - रीकांग पीओ से काजा
3. जनवरी में स्पीति - बर्फीला लोसर
4. जनवरी मे स्पीति: की गोम्पा
5. जनवरी में स्पीति: किब्बर भ्रमण
6. जनवरी में स्पीति: किब्बर में हिम-तेंदुए की खोज
7. जनवरी में स्पीति: काजा से दिल्ली वापस
तुमने मुझ से पहले स्टेशन पहुच कर आगे ही आगे की बढ़िया सीटो को बुक लिया था।
ReplyDeleteसाइड से खिड़की और सामने के फ्रंट ग्लास से बड़ा ओपन व्यू बढ़िया संयोजन था।
सुबह सात बजे बस पीओ से निकली और करीब साढ़े चार बजे काजा पहुँची,करीब 9 घंटे का हिचकोले भरा सफ़र कभी भी आरामदयाक नहीं होता है, लेकिन किन्नुर की हरियाली,स्पीति की बंजरता,जमे हुवे झरने और सदैव आगे बढ़ती सतलुज व स्पीति नदियो को निहारते कब काजा पहुँच गए पता ही ना चला।
में हैरान था काजा में इतना सन्नाटा देखकर,एकदम शांत और वीरान।
जो भी इक्का दुक्का लोग हमे वहाँ मिले,कहरहे थे क्या करोगे यहाँ इतनी ठंड में ?
लेकिन उन बावलों को क्या पता था कि काजा तो पड़ाव है।
हम दोनों सरफ़ीरो को यहाँ से भी आगे जाना है।
इस पोस्ट का सबसे पहला फ़ोटो तुम्हारे द्वारा लिए गए सर्वश्रेष्ठ फ़ोटो में से एक है।
ReplyDeleteयह जो तुम बिना बताये ऐसे ही कही भी फोटो खीच देते हो,बहुत अच्छी आती है।
SARE PHOTO LAJAWAB HAI. HAMESHA KI TRAH post padne me maja aaya.
ReplyDeleteहम लोग यहां मैदानी इलाकों में दिल्ली के आसपास लगभग सभी भौतिक सुविधाओं का उपयोग करते रहने के बावजूद जिंदगी को चाहे जब गरियाते रहते हैं ! एक बार इन जगहों पर रहने वालों की जिंदगी देख लें तो समझ आ जाए ! डॉ साब भी बहुत बेहतर फोटोग्राफी करते हैं !!
ReplyDeleteधन्यवाद योगी जी।
Deleteनीरज जी को भी आभार,जोकि खुद के विशाल संग्रह के बाद भी, मेरे फोटोओं को इस मंच पर एक विशेष स्थान दे रहे है।
बेहतरीन !!!! हमेशा की तरह !
ReplyDeleteutsukta jari, agli post ka intjar. photo pe cursor aate hi title aata hai. kaise
ReplyDeleteबहुत खूब नीरज भाई ।क्या लिखते हो।लगता है आपके साथ ही यात्रा क्र।रहा हु
ReplyDeleteबहुत खूब नीरज भाई ।क्या लिखते हो।लगता है आपके साथ ही यात्रा क्र।रहा हु
ReplyDeleteवृतांत पढ़कर व तस्वीरें देख आनंद भयो
ReplyDeleteCircle se bahar kya net roaming nahi lagti?
ReplyDeleteबहुत बढ़िया नीरज भाई....चित्र भी हमेशा की तरह बहुत उम्दा ...डॉ सुमित के खींचे चित्र भी बेहतरीन हैं । ये तो दूसरी यात्रा है आप दोनों की ।
ReplyDeleteमजा आ गया नीरज भाई। अपनी डायरी में भी नोट कर ली हैं डिटेल्स। धन्यवाद :)
ReplyDeleteक्या इस मार्ग पर जनवरी क महीने मे मोटरसाइकल से जाया जा सकता हैं? कृपया जवाब ज़रूर दीजिएग. और अगर नहीं जाया जा सकता तो कौन सा महीना उत्तम होगा जाने क लिए.
ReplyDeleteजनवरी के महीने में इस सडक पर कई जगह ब्लैक आइस जम जाती है, जिसकी वजह से बाइक फिसल जाती है। फिर बर्फबारी भी हो जाती है, जो बाइक के लिये खतरनाक है। कुछ लोग जनवरी में भी जाते हैं, लेकिन बाइक से यहां जाने का सर्वोत्तम समय जून-जुलाई के बाद है।
Deleteआपका यात्रा लेख और जानकारी मेरे स्पिती यात्रा में काफी काम आई.
ReplyDeleteधन्यवाद