7 जनवरी 2016
सुबह उठा तो देखा कि सुमित कमरे में नहीं था। वो जरूर बाहर टहलने गया होगा। कुछ देर बाद वो वापस आ गया। बोला कि वो उजाला होने से पहले ही उठ गया था और बाहर घूमने चला गया। मैं भी कपडे-वपडे पहनकर बाहर निकला। असल में मुझे बिल्कुल भी ठण्ड नहीं लग रही थी। रात मैं कच्छे-बनियान में ही रजाई ओढकर सो गया था। स्पीति में जनवरी के लिहाज से उतनी ठण्ड नहीं थी, या फिर मुझे नहीं लग रही थी। मेरे पास एक थर्मामीटर था जिसे मैंने रात बाहर ही रख दिया था। अब सुबह आठ बजे तो ध्यान नहीं यह कितना तापमान बता रहा था लेकिन रात का न्यूनतम तापमान शून्य से दस डिग्री नीचे तक चला गया था। अभी भी शून्य से कम ही था।
मौसम विभाग की भविष्यवाणी के अनुसार हिमालय में इस सप्ताह पश्चिमी विक्षोभ सक्रिय रहेगा, इसलिये इतना तो निश्चित था कि स्पीति में आजकल में कभी भी बर्फबारी हो सकती है। अभी चूंकि बर्फबारी नहीं हुई है, इसलिये कुंजुम तक जाया जा सकता है। अगर कुंजुम तक चले गये तो चन्द्रताल भी वहां से ज्यादा दूर नहीं है। जनवरी में चन्द्रताल जाना वाकई एक बडी बात होगी। कल लोसर तक जाने के लिये एक टैक्सी ड्राइवर से बात की थी, 2500 रुपये में काजा से लोसर आना-जाना तय हुआ। स्पीति में सर्दियों में केवल एक ही बस चलती है। और वो बस है रीकांग पीओ वाली जिसमें हम यहां तक आये थे। इसके अलावा कोई बस नहीं चलती। गर्मियों में प्रत्येक मार्ग पर बसें चलती हैं। काजा से बाहर कहीं भी जाना हो, आपको टैक्सी ही करनी पडेगी।
तो जी, हमने लोसर तक जाने की बाबत बात की, 2500 रुपये में बात हो गई। हमारा इरादा था कि लोसर पहुंचकर वहां के हालात देखकर आगे कुंजुम जायेंगे और फिर से वहां के हालात देखकर चन्द्रताल भी हो आयेंगे। भले ही 2500 से 5000 रुपये खर्च हो जायें, लेकिन जनवरी में वहां जाना निश्चित ही विलक्षण होगा। फिलहाल ड्राइवर से अपनी इस खुराफात के बारे में नहीं बताया।
9 बजे नाश्ता करके और सारा सामान टैक्सी में लादकर हम लोसर की ओर चल दिये। तीन दिन के लिये यही टैक्सी बुक कर ली थी, जिसमें हम लोसर, किब्बर और धनकर गोम्पा तक जायेंगे। आज हम कहां रुकेंगे, अनिश्चित था, इसलिये सारा सामान अपने साथ ले लिया। सुमित आगे बैठ गया, मैं पीछे और चल पडे।
आसमान बिल्कुल साफ था और ऊंचाईयों पर ही थोडी बर्फ दिख रही थी। काजा से आगे स्पीति पार करके की गोम्पा बडा ही भव्य दिख रहा था। नीचे की गांव है और ऊपर पहाडी पर गोम्पा है। बडा ही शानदार दृश्य था।
रास्ते में कई गांव पडे। एक गांव में चोमो की मोनेस्ट्री है। चोमो अर्थात महिला भिक्षु। पुरुष भिक्षु लामा कहलाते हैं जबकि महिलाएं चोमो। ज्यादातर गोम्पा लामाओं के हैं, स्पीति का यह एकमात्र चोमो गोम्पा है। नाम ध्यान से उतर गया।
रास्ते में एक बडा सा मैदान मिला। इसमें फाइबर की एक हट बनी थी। ड्राइवर ने बताया कि सर्दियों में जबकि बसें नहीं चलतीं और बर्फबारी से सडकें भी बन्द हो जाती हैं तो लोसर की तरफ के ग्रामीण काजा पैदल आते हैं और एक रात यहां गुजारते हैं। इस समय इस हट में ताला लगा था। ग्रामीण अपने साथ इसकी चाबी लाते होंगे।
3800 मीटर तक आते आते सडक पर भी बर्फ मिलने लगी और कई बार तो गाडी भी बर्फ में चलते हुए असन्तुलित हो जाती। लेकिन ज्यादातर रास्ता स्पीति की चौडी घाटी से होकर जाता है, इसलिये खतरे वाली कोई बात नहीं थी।
एक बजे लोसर पहुंचे। यहां तकरीबन छह इंच बर्फ थी। आखिरकार एक जगह ड्राइवर ने गाडी रोक दी। अब तक हम उससे कुंजुम तक जाने के बारे में बात कर चुके थे। यह सुनकर वो भी खुश हो गया था। कहने लगा कि जाना मुश्किल है, लेकिन जहां तक जा सकेंगे, जायेंगे। अब जिस जगह लोसर में गाडी रोकी, उससे आगे किसी भी गाडी के पहियों के निशान नहीं थे। पहियों के निशान होते तो हम उनका अनुसरण करते-करते चलते जाते। हम गाडी से नीचे उतरे। कुछ दूर पैदल चले।
कुंजुम यहां से करीब 18 किलोमीटर दूर है लेकिन चढाई ज्यादा नहीं है। पैदल चलते हुए स्पष्ट पता चल रहा था कि एक-दो दिन पहले यहां से कुंजुम की तरफ कोई गाडी गई है लेकिन आजकल में बर्फ की फुहार सी पड गई और उसके निशान दब गये। अगर कल या परसों बर्फ की यह फुहार न पडती तो हम कुंजुम चले जाते। छह इंच बर्फ यहां लोसर में थी, कुंजुम पर एक फुट बर्फ तो मिलेगी ही। फिर उधर लाहौल है, वहां स्पीति के मुकाबले ज्यादा बर्फ पडती है। हम निराश तो हुए लेकिन खुश भी थे। जैसा स्पीति हम देखना चाहते थे, वो स्पीति हमें लोसर में मिला। काश! पीओ वाली बस लोसर तक आया करती तो हम चार-पांच दिन यहीं बिता देते।
लेकिन बिताते कहां? कोई दुकान खुली नहीं थी। चाय तक भी नहीं मिली। स्पीति में सभी लोग बौद्ध हैं। कडाके की सर्दी से बचने के लिये ये लोग जाडों में नीचे चले जाते हैं, खासकर रिवालसर या धर्मशाला। काजा से सीधे रिवालसर के लिये ‘ट्रैवलर’ और सूमो खूब चलती हैं। इनका किराया काजा से रामपुर तक 1000 रुपये होता है।
घण्टे भर रुके और अब बारी थी वापस चलने की। कुछ मित्र कहते हैं कि मैं यात्रा-वृत्तान्तों को भाव-यात्रा बनाकर भी लिखा करूं। लेकिन मुझसे नहीं लिखा जाता। नजारा बेहद शानदार था। चारों ओर ऊंचे पहाड और ताजी बर्फ थी। रास्तों पर भी अनछुई बर्फ पडी थी। हम चलते तो इसमें हमारे ही पैरों के निशान बनते। मेरे लिये यह सब वाकई जन्नत जैसा था। आपके लिये भी होगा। आप यहां होते तो आपकी कलम अपने-आप ही गजब-गजब शब्द लिख देती। लेकिन भईया, मेरी कलम से यह सब नहीं लिखा जाता। सौ कोशिश करूं, हजार कोशिश करूं या लाख कोशिश करूं - नहीं लिख पाता। मेरी कलम कृष्णनाथ की ‘स्पीति में बारिश’ जैसी नहीं है, जिन्होंने यात्रा-वृत्तान्त के साथ-साथ भाव-वृत्तान्त भी जमकर लिखे। बल्कि हम तो स्वयं को राहुल सांकृत्यायन जैसा पाते हैं, जिन्होंने एक से बढकर एक नजारों का आनन्द लूटा, रस स्वयं पी गये और अपने पाठकों को ऊपर-ऊपर की बात बता दी।
चलिये, इस मामले में हम राहुल की बराबरी कर सकते हैं, अन्यथा कभी कोई उनकी बराबरी कर सकता है भला?
2 बजे वापस चल पडे। काजा ही रुकना है, इसलिये अबकी बार खूब रुकते-रुकते गये। आते समय तो जल्दी थी कुंजुम या चन्द्रताल पहुंचने की लेकिन अब कोई जल्दी नहीं थी। कुछ फोटो खींचे, आप भी देखना।
एक पुल के पास जब हम फोटो खींच रहे थे तो उधर से दो महिलाएं एक याक को लाती दिखीं। जब वे पुल पर पहुंचीं, तो याक ने पुल पर चढने से मना कर दिया। वह पुल से डर रहा था। पुल लोहे का था और गाडियों के आने-जाने के लिये उपयुक्त था लेकिन वह डर गया। खूब खींचा, पीछे से धकेला, लेकिन याक ने भी कसम खा ली कि पुल पर नहीं चढना तो नहीं चढना। हमने गाडी रोके रखी, हमने भी उसे डराया, हल्ला मचाया लेकिन याक नहीं माना। आखिरकार महिलाओं को उसे नदी में नीचे उतरकर पार कराना पडा। वह नदी जमी हुई थी, महिलाएं कहीं न कहीं से पार हो ही गई होंगीं।
शाम पांच बजे जब हम काजा से 4 किलोमीटर दूर उस तिराहे पर थे, जहां से की और किब्बर के लिये रास्ता जाता है, तो थोडा विचार-विमर्श करने के लिये रुक गये। बात ये थी कि सुमित एक रात किब्बर रुकना चाहता था। मेरा इरादा आज काजा रुककर कल की और किब्बर देखकर शाम तक काजा आ जाने का था। लेकिन सुमित की इच्छा का भी सम्मान करना बनता है। अब समस्या थी किब्बर में किसी निश्चित ठिकाने की। सर्दियों में काजा में रुकने के बारे में भी कोई आपको गारण्टी नहीं दे सकता, फिर किब्बर तो और भी छोटा सा और सुदूर गांव है। ड्राइवर ने किब्बर के एक मित्र से बात की लेकिन जवाब आया कि वो दो घण्टे बाद बता सकेगा। सुमित ने कहा कि चलकर देखते हैं। असल में वो ये माने बैठा था कि यहां होमस्टे है। होमस्टे यानी किसी भी घर में घुस जाओ और जम जाओ। उसका यही कहना था कि किसी भी घर में घुस जायेंगे। तब मैंने और ड्राइवर ने समझाया कि ऐसा नहीं होता है। होमस्टे भी एक तरह का होटल ही होता है जिसमें मकान-मालिक अपने घर में यात्रियों में ठहरने का इंतजाम करके रखते हैं। हर घर में यह इंतजाम नहीं होता। आप किसी भी घर में घुस तो जाओगे, घर वाला आपको मना भी नहीं करेगा लेकिन ऐसे में हम उन पर बोझ बन सकते हैं। अगर अब हम किब्बर जाते हैं और वहां कोई रुकने का इंतजाम न मिला तो हमें आज ही वापस लौटना पडेगा। ऐसे में कल हम दोबारा किब्बर जाने वाले नहीं हैं।
वापस काजा की ओर मुड गये।
अगला भाग: जनवरी मे स्पीति: की गोम्पा
1. जनवरी में स्पीति- दिल्ली से रीकांग पीओ
2. जनवरी में स्पीति - रीकांग पीओ से काजा
3. जनवरी में स्पीति - बर्फीला लोसर
4. जनवरी मे स्पीति: की गोम्पा
5. जनवरी में स्पीति: किब्बर भ्रमण
6. जनवरी में स्पीति: किब्बर में हिम-तेंदुए की खोज
7. जनवरी में स्पीति: काजा से दिल्ली वापस
शानदार नज़ारे, मेरे पास भी शब्द नहीं है व्यक्त करने के लिए।
ReplyDeleteधन्यवाद निशान्त जी, जितने शब्द आपने लिखे हैं, उनसे सबकुछ व्यक्त हो गया है...
Deleteसुन्दर यात्रा.....बेमिसाल नज़ारे ।
ReplyDeleteधन्यवाद प्रदीप जी...
Deleteसुबह जल्दी तैयार होकर सूर्योदय देखने चले गया था।
ReplyDeleteबाकि कहते है कि सुबह यहाँ जबरदस्त ठण्ड होती है,उसे भी महसूस करना था,स्पीति में रहते अपनी हर इच्छा पूरी करना चाहता था।
तूम्हारे मन कि चन्द्रताल तक जाने वाली खुराफात रोमांचित कर देने वाली थी,लेकिन अफ़सोस परिस्थितियों ने साथ नहीं दिया,लेकिन जनवरी में चन्द्रताल पहुँच जाना असामान्य घटना होती ।
खेर लोसर ही फतह कर लिया,सचमुच वहाँ पहुँच कर यही लगा कि फतह होगई,वहाँ बिताये एक एक पल की ख़ुशी बेशकीमती थी,उसे हम शब्दों में नहीं पीरो सकते।
किब्बर में एक रात गुजारने की इच्छा बड़ी बलवती थी,तब तुमने उसे थामकर अच्छा काम किया,में तो बावला ही हुए जा रहा था ।
उस वक़्त किब्बर न जाकर अगले दो दिन जो हुवा था,वह इस यात्रा के सर्वश्रेष्ठ हिस्से होंगे ??
सही कहा सुमित भाई...
Deleteमैंने ऐसे चित्र सिर्फ पेंटिंग में ही देखे हैं ! नीरज जी , आपकी प्रकृति के साथ ये जुगलबंदी बहुत ही अच्छी लगी ! वो महिलाएं किधर से आ रही थीं ? कुन्जुम की तरफ से ? तब फिर उनसे बात करके आगे जाया जा सकता था ? किब्बर का इंतज़ार रहेगा
ReplyDeleteनहीं योगी जी, वे महिलाएं कुंजुम की तरफ से नहीं आ रही थीं... जब हम वापस काजा लौट रहे थे, तो वे हमें आधे रास्ते में काजा की तरफ से आती दिखाई दीं... कुंजुम के बारे में उनसे बात करना सही नहीं था... हम लोसर में सब अपनी आँखों से देखकर आये थे कि आगे बढना ठीक नहीं था...
DeleteAtisundar prastuti, behtreen najare, bahut se logo ko aap atulya aanand pradaan karte hain neeraj ji.
ReplyDeleteधन्यवाद जी...
Deleteब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, " दूसरों को मूर्ख समझना सबसे बड़ी मूर्खता " , मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
ReplyDeleteमेरी इस यात्रा का `मूर्खता' से क्या सम्बन्ध है??? अजीब हो आप लोग भी....
DeleteBhai Ghazab likha hai...Hamesha ki tarah...Bhot maza aaya
ReplyDeleteधन्यवाद सर जी...
Deleteधन्यवाद अमित जी...
ReplyDeleteअब तक के सबसे शानदार चित्र नीरज जी
ReplyDeleteधन्यवाद लोकेन्द्र जी...
Deleteवाह वाह नीरजजी! सुन्दर! बहुत प्रेरणादायी! :)
ReplyDeleteधन्यवाद निरंजन जी...
Deleteआज सारी यात्रा पढी, मजा आया यह जगह देंखे,फोटो बेहतरीन है,चाहे आप ने खिंचे हो या सुमित ने। इस जगह को देखने के लिए बहुत समय चाहिए, क्योंकि यहां तो हर जगह बेहद खूबसूरत नजर आ रही है।
ReplyDeleteसही कहा सचिन भाई...
Deleteबेहतरीन नजारें... खो से गये भाई नीरज हम तो !
ReplyDeleteकाश मैं भी आप लोगों के साथ होता...
कोई बात नहीं कोठारीजी... कभी बाइक से जायेंगे, तब साथ चलेंगे...
DeleteBeautiful Photos...
ReplyDeleteGOOD DEAR NEERAJ KEP IT UP
ReplyDeleteIHAD ALSO STARTED A BLOG PLS VISIT
http://kucugrabaatein.blogspot.in/2016/03/blog-post.html
Thanks Niranjan Ji....
DeleteShandar Najare Dikhane ke liye Dhanyavad Neeraj .Jinko ye Shikayat Rahti thi ki Photo (35) kam Post Karte ho. ji Bhar ke Nature ke Darshan kar. CAT Shayad apne Ilake me Aane Se Naraj ho Gayi Lagti hai.
ReplyDeleteधन्यवाद माथुर साहब...
DeleteAwesame Photography
ReplyDeleteसफ़र में धूप तो होगी, जो चल सको तो चलो
सभी हैं भीड़ में, तुम भी निकल सको तो चलो
किसी के वास्ते राहें कहाँ बदलती हैं
तुम अपने आप को खुद ही बदल सको तो चलो
यहाँ किसी को कोई रास्ता नहीं देता
मुझे गिराके अगर तुम संभल सको तो चलो
यही है जिंदगी, कुछ ख़्वाब चंद उम्मीदें
इन्ही खिलौनों से तुम भी बहल सको तो चलो
वाह...
Deleteबहुत अच्छे भैया जी सच में मजा आ गया आपकी हर यात्रा मस्त हो
ReplyDeleteधन्यवाद मनीष जी...
Deletenice photography
ReplyDeleteभाई मेरी मानो तो कभी लेखन शैली मत बदलना.... आपकी आम बोलचाल वाली भाषाशैली से सजीवता बानी रहती है। भाव सौंदर्य वाले भारी-भरकम शब्द कृत्रिम लगते हैं । मैं आपकी इस खास शैली की वजह से ही आपका ब्लॉग नियमित पढता हूँ । आपके लिखने के तरीके से ऐसा महसूस होता है जैसे सब दोस्त मिलकर ग्रुप में बैठे हो और एक मित्र बोलकर अपनी यात्रा के मनोरंजक कहानीयाँ, किस्से सुना रहा हो ,हम सब सुन रहे हों । कभी भी ये महसूस नहीं होता कि हम ब्लॉग पर लिखा हुआ वृतांत पढ़ रहे हैं ।
ReplyDeleteNeeraj,
ReplyDeletei visited Losar in Sep 2015 and Chandrataal too, you made me nostalgic, lovely write up very beautiful language , you actually gave feel of travel, while reading i was literally traveling with you. nice clicks.
Aaj fir dubara ye yatra vritant pada maza agya
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