25 नवम्बर 2015
आज का लक्ष्य था नागपुर और नागभीड के बीच नैरोगेज ट्रेन में यात्रा करना। यह हालांकि सतपुडा नैरोगेज तो नहीं कही जा सकती लेकिन दक्षिण-पूर्व-मध्य रेलवे की नागपुर डिवीजन की एक प्रमुख नैरोगेज लाइन है, इसलिये लगे हाथों इस पर भी यात्रा करने की योजना बन गई। यह लाइन फिलहाल गेज परिवर्तन के लिये बन्द नहीं हो रही। नागपुर से नागभीड तक दिनभर में तीन ट्रेनें चलती हैं - सुबह, दोपहर और शाम को। शाम वाली ट्रेन मेरे किसी काम की नहीं थी क्योंकि इसे नागभीड तक पहुंचने में अन्धेरा हो जाना था और अन्धेरे में मैं इस तरह की यात्राएं नहीं किया करता। इसलिये दो ही विकल्प मेरे पास थे - सुबह वाली ट्रेन पकडूं या दोपहर वाली। काफी सोच-विचार के बाद तय किया कि दोपहर वाली पकडूंगा। तब तक एक चक्कर रामटेक का भी लगा आऊंगा। रामटेक के लिये एक अलग ब्रॉडगेज लाइन है जो केवल रामटेक तक ही जाती है। आज नहीं तो कभी न कभी इस लाइन पर जाना ही था। आज चला जाऊंगा तो भविष्य में नहीं जाना पडेगा।
सुबह पांच बजकर चालीस मिनट पर नागपुर से ट्रेन नम्बर 58810 चलती है रामटेक के लिये। मैं टिकट लेकर समय से पहले ही प्लेटफार्म नम्बर चार पर पहुंच गया। अभी अच्छी तरह उजाला भी नहीं हुआ था और ट्रेन पूरी तरह खाली पडी थी। रामटेक ज्यादा दूर नहीं है इसलिये वहां जाने के लिये कोई मारामारी नहीं मचती - केवल 42 किलोमीटर दूर ही है। ट्रेन में रायपुर का WDM-3A इंजन लगा था यानी डीजल इंजन। रामटेक वाली लाइन वैसे तो इलेक्ट्रिक लाइन है लेकिन पता नहीं क्यों इसमें डीजल इंजन था। यह ट्रेन रामटेक से लौटकर तिरोडी भी जाती है। क्या पता तिरोडी वाली लाइन इलेक्ट्रिक न हो।
आज का लक्ष्य था नागपुर और नागभीड के बीच नैरोगेज ट्रेन में यात्रा करना। यह हालांकि सतपुडा नैरोगेज तो नहीं कही जा सकती लेकिन दक्षिण-पूर्व-मध्य रेलवे की नागपुर डिवीजन की एक प्रमुख नैरोगेज लाइन है, इसलिये लगे हाथों इस पर भी यात्रा करने की योजना बन गई। यह लाइन फिलहाल गेज परिवर्तन के लिये बन्द नहीं हो रही। नागपुर से नागभीड तक दिनभर में तीन ट्रेनें चलती हैं - सुबह, दोपहर और शाम को। शाम वाली ट्रेन मेरे किसी काम की नहीं थी क्योंकि इसे नागभीड तक पहुंचने में अन्धेरा हो जाना था और अन्धेरे में मैं इस तरह की यात्राएं नहीं किया करता। इसलिये दो ही विकल्प मेरे पास थे - सुबह वाली ट्रेन पकडूं या दोपहर वाली। काफी सोच-विचार के बाद तय किया कि दोपहर वाली पकडूंगा। तब तक एक चक्कर रामटेक का भी लगा आऊंगा। रामटेक के लिये एक अलग ब्रॉडगेज लाइन है जो केवल रामटेक तक ही जाती है। आज नहीं तो कभी न कभी इस लाइन पर जाना ही था। आज चला जाऊंगा तो भविष्य में नहीं जाना पडेगा।
सुबह पांच बजकर चालीस मिनट पर नागपुर से ट्रेन नम्बर 58810 चलती है रामटेक के लिये। मैं टिकट लेकर समय से पहले ही प्लेटफार्म नम्बर चार पर पहुंच गया। अभी अच्छी तरह उजाला भी नहीं हुआ था और ट्रेन पूरी तरह खाली पडी थी। रामटेक ज्यादा दूर नहीं है इसलिये वहां जाने के लिये कोई मारामारी नहीं मचती - केवल 42 किलोमीटर दूर ही है। ट्रेन में रायपुर का WDM-3A इंजन लगा था यानी डीजल इंजन। रामटेक वाली लाइन वैसे तो इलेक्ट्रिक लाइन है लेकिन पता नहीं क्यों इसमें डीजल इंजन था। यह ट्रेन रामटेक से लौटकर तिरोडी भी जाती है। क्या पता तिरोडी वाली लाइन इलेक्ट्रिक न हो।
05:35 बजे गेवरा रोड से नागपुर आने वाली शिवनाथ एक्सप्रेस (18239) प्लेटफार्म तीन पर आ गई। यह रात्रि गाडी है। एक घण्टे बाद 06:30 बजे यही डिब्बे नागपुर-बिलासपुर इंटरसिटी (12856) बनकर बिलासपुर चले जायेंगे और 23:00 बजे तक नागपुर लौटेंगे। तत्पश्चात 23:35 बजे फिर से शिवनाथ एक्सप्रेस (18240) बनकर यह ट्रेन बिलासपुर चली जायेगी। नम्बर से पता चल रहा है कि शिवनाथ एक एक्सप्रेस गाडी है और इंटरसिटी सुपरफास्ट है।
वैसे तो हमारी ट्रेन का प्रस्थान समय 05:40 था लेकिन इसे बिलासपुर राजधानी के कारण रोके रखा। 05:50 पर बिलासपुर राजधानी गई, तब 05:58 पर 18 मिनट की देरी से रामटेक पैसेंजर को रवाना किया गया। नागपुर स्टेशन से बाहर एक ऐसा स्थान है जहां उत्तर-दक्षिण अर्थात दिल्ली-चेन्नई और पूर्व-पश्चिम अर्थात हावडा-मुम्बई लाइनें एक-दूसरे को समकोण पर काटती हैं। वैसे तो नागपुर से आगे सेवाग्राम तक अर्थात 75 किलोमीटर तक ये दोनों लाइनें एक ही हैं, फिर एक दक्षिण चली जाती है और एक पश्चिम। लेकिन सांकेतिक रूप से यहां दोनों एक-दूसरे को काटती हैं। दोनों डबल हैं और विद्युतीकृत भी। हमारी ट्रेन इसी पर से होकर गुजरी। उजाला बेहद कम था और यह स्थान अचानक आया और अचानक पीछे चला गया, इसलिये मैं इसका फोटो नहीं ले सका।
अगला स्टेशन इतवारी है, फिर कलमना, फिर कामटी और फिर कन्हान जंक्शन। अभी तक तो हावडा वाली मुख्य लाइन ही थी। इसके बाद रामटेक वाली लाइन अलग हो जाती है। नागपुर से निकलकर जैसे ही मध्य रेलवे से दक्षिण-पूर्व-मध्य रेलवे में प्रवेश किया तो एक और चीज पर मैंने गौर किया। बिजली के हर खम्भे पर किलोमीटर लिखे होते हैं। नागपुर में खम्भों पर 835 के आसपास दूरी लिखी थी लेकिन अब अचानक 1100 किलोमीटर के आसपास दिखने लगा। जब कन्हान की तरफ यानी हावडा की तरफ जाने लगे तो दूरियां घटती मिलीं। इसका मतलब है कि छत्रपति शिवाजी टर्मिनल को 0 किलोमीटर मानकर वहां से दूरियां लिखीं और उधर हावडा को 0 किलोमीटर मानकर वहां से दूरियां लिखनी शुरू कीं। नागपुर और इतवारी के बीच में मध्य रेल व दक्षिण-पूर्व-मध्य रेल की सीमा है इसलिये इस सीमा तक दोनों तरफ से दूरियां बढते क्रम में आईं। यानी अगर आप मुम्बई से हावडा की ओर यात्रा कर रहे हैं तो खम्भों पर आपको मुम्बई से दूरियां बढती हुई दिखाई देंगीं। नागपुर में यह 835 किलोमीटर तक पहुंच जायेगी। फिर अचानक 1100 किलोमीटर हो जायेगी और फ़िर घटना शुरू हो जायेगी।
कन्हान में कन्हान नदी पार की। इस नदी के बारे में आपको पिछली पोस्ट में भी बताया था। इसके बाद डुमरी खुर्द, आमदी हाल्ट और आखिर में रामटेक स्टेशन हैं। अब गाडी वापस इतवारी जायेगी इसलिये इंजन इधर से उधर लगाया गया। इस दौरान मैंने नागभीड तक का टिकट भी ले लिया और कुछ देर बाहर भी घूम आया। बाहर ऑटो वालों का रेला था और सभी रामटेक-रामटेक चिल्ला रहे थे। कहा जाता है कि वनवास के समय भगवान राम ने यहां विश्राम किया था।
20 मिनट की देरी से 07:50 पर ट्रेन वापस चल पडी। अब इसका नम्बर 58809 हो गया था। अब यह नागपुर नहीं जायेगी बल्कि इतवारी तक ही जायेगी। वहां कुछ देर रुककर किसी दूसरे नम्बर से यही गाडी तिरोडी चली जायेगी। 09:05 बजे ट्रेन इतवारी पहुंची। बराबर वाले प्लेटफार्म पर टाटानगर पैसेंजर खडी थी। यह पैसेंजर कुछ ही देर पहले टाटानगर से यहां आई थी और अब रात को वापस टाटानगर के लिये चल देगी। कमाल की बात ये थी कि टाटानगर पैसेंजर में कानपुर का WAG-7#28007 इंजन लगा था।
अब मुझे दो घण्टे यहीं बिताने थे। पौने ग्यारह बजे नागभीड पैसेंजर आयेगी और पन्द्रह मिनट ठहरकर चलेगी। इस दौरान बाहर जाकर पेट-पूजा भी कर आया। प्लेटफार्म पर बैठे-बैठे अचानक याद आया कि नागभीड का टिकट भी तो लेना है। दौडा-दौडा काउण्टर पर गया और लाइन में लग गया। फिर से याद आया कि नागभीड का टिकट तो रामटेक से ही लेकर आया हूं। खुद पर बडी हंसी आई।
नैरोगेज की ट्रेन का नम्बर था 58845। दस मिनट की देरी से अपनी ट्रेन आई। इसके आते ही बराबर वाली लाइन पर नागभीड से आने वाली ट्रेन आ गई। इतवारी का पूरा प्लेटफार्म भरा पडा था। ये सभी लोग मेरी वाली ट्रेन से जायेंगे। अब समझ आया कि पिछले सप्ताह आनन्द क्यों इस ट्रेन की यात्रा बीच में ही छोडकर नागपुर लौट आया था। लेकिन इन ट्रेनों का पायदान बेहद आरामदायक होता है। कितनी भी भीड हो, इसके पायदान पर खडे होने में कोई परेशानी नहीं होती थी, बल्कि आराम ही मिलता था।
नैरोगेज की ट्रेन का नम्बर था 58845। दस मिनट की देरी से अपनी ट्रेन आई। इसके आते ही बराबर वाली लाइन पर नागभीड से आने वाली ट्रेन आ गई। इतवारी का पूरा प्लेटफार्म भरा पडा था। ये सभी लोग मेरी वाली ट्रेन से जायेंगे। अब समझ आया कि पिछले सप्ताह आनन्द क्यों इस ट्रेन की यात्रा बीच में ही छोडकर नागपुर लौट आया था। लेकिन इन ट्रेनों का पायदान बेहद आरामदायक होता है। कितनी भी भीड हो, इसके पायदान पर खडे होने में कोई परेशानी नहीं होती थी, बल्कि आराम ही मिलता था।
इतवारी से आगे के स्टेशन हैं- भांडेवाडी, दिघोरी बुजुर्ग, केम पलसाड, तितुर, माहुली, कुही, मोहदरा, बाम्हणी, उमरेड, कारगांव, भिवापुर, पवनी रोड, भुयार, टेम्पा, मांगली, कोटगांव और नागभीड जंक्शन।
अब इसमें ज्यादा बताने का कुछ नहीं है। विदर्भ का ग्रामीण इलाका है यह। विदर्भ किसानों की आत्महत्या के लिये ज्यादा चर्चा में रहता है। समतल जमीन है और चारों ओर खेत। ट्रेन रुकती और चल पडती, रुकती और चल पडती। सतपुडा की नैरो गेज तो बडी हो रही है। यह पता नहीं कब बडी होगी? आखिरकार उमरेड में सभी लोग उतर गये और ट्रेन लगभग खाली हो गई। मैंने कुछ रेलवे मानचित्रों में देखा है कि उमरेड से बूटी-बोरी तक रेलवे लाइन थी। बूटी-बोरी नागपुर-मुम्बई लाइन पर है। निश्चित ही वह नैरो गेज रही होगी। लेकिन अब नहीं है। यदि है भी तो ट्रेनें नहीं चलतीं।
भिवापुर में नागभीड से नागपुर जाने वाली ट्रेन मिली। भिवापुर और पवनी रोड के बीच में कहीं हम नागपुर जिले से भंडारा जिले में प्रवेश कर जाते हैं। इस बात की सूचना दर्शाता एक बडा सूचना-पट्ट भी लगा है। लेकिन मैं इसके लिये तैयार नहीं था, इसलिये फोटो नहीं ले सका। फिर इसी तरह भुयार और टेम्पा के बीच में भी सूचना पट्ट है कि इधर भंडारा जिला है और इधर चन्द्रपुर जिला। नागभीड चन्द्रपुर में है।
अब इसमें ज्यादा बताने का कुछ नहीं है। विदर्भ का ग्रामीण इलाका है यह। विदर्भ किसानों की आत्महत्या के लिये ज्यादा चर्चा में रहता है। समतल जमीन है और चारों ओर खेत। ट्रेन रुकती और चल पडती, रुकती और चल पडती। सतपुडा की नैरो गेज तो बडी हो रही है। यह पता नहीं कब बडी होगी? आखिरकार उमरेड में सभी लोग उतर गये और ट्रेन लगभग खाली हो गई। मैंने कुछ रेलवे मानचित्रों में देखा है कि उमरेड से बूटी-बोरी तक रेलवे लाइन थी। बूटी-बोरी नागपुर-मुम्बई लाइन पर है। निश्चित ही वह नैरो गेज रही होगी। लेकिन अब नहीं है। यदि है भी तो ट्रेनें नहीं चलतीं।
भिवापुर में नागभीड से नागपुर जाने वाली ट्रेन मिली। भिवापुर और पवनी रोड के बीच में कहीं हम नागपुर जिले से भंडारा जिले में प्रवेश कर जाते हैं। इस बात की सूचना दर्शाता एक बडा सूचना-पट्ट भी लगा है। लेकिन मैं इसके लिये तैयार नहीं था, इसलिये फोटो नहीं ले सका। फिर इसी तरह भुयार और टेम्पा के बीच में भी सूचना पट्ट है कि इधर भंडारा जिला है और इधर चन्द्रपुर जिला। नागभीड चन्द्रपुर में है।
बारह मिनट पहले ही ट्रेन नागभीड पहुंच गई। अभी सवा तीन बजे थे। साढे चार बजे बल्हारशाह-गोंदिया पैसेंजर आयेगी। मैंने गोंदिया का टिकट ले लिया और ताजे बन रहे गर्मागरम आलू-बन्द खाने लगा। जैसी कि उम्मीद थी, तय समय पर ट्रेन आई और बिल्कुल खाली। मुझे कभी गोंदिया-बल्हारशार लाइन के फोटो भी लेने हैं लेकिन आज नहीं। चार घण्टे गोंदिया पहुंचने में लगेंगे और मैं नीचे वाली एक सीट पर लेट गया और सो गया। आंख खुली तो गाडी की लाइटें जली थीं और बाहर अन्धेरा था। ठीक समय पर गोंदिया पहुंचा। डोरमेट्री में एक बिस्तर बुक था। सीधे वहीं पहुंचा और नहा-धोकर पहले तो आज की थकान उतारी और फिर सो गया। एक कमरे में चार बिस्तर थे। मेरे अलावा एक यात्री और था। आराम से अन्दर से कुण्डी लगाई और किसी चोरी से बेफिक्र होकर सोये।
26 नवम्बर 2015
सुबह आठ बजकर पैंतीस मिनट पर गोंदिया से कटंगी के लिये डीएमयू थी। मैंने यहीं से मण्डला फ़ोर्ट का टिकट ले लिया। रास्ते में बालाघाट और नैनपुर में गाडी बदलनी पडेगी। ठीक समय पर ट्रेन चल पडी। बिल्कुल भी भीड नहीं थी। इस लाइन पर बिरसोला महाराष्ट्र का आखिरी स्टेशन है और उसके बाद बाघ नदी पर बना लम्बा पुल पार करके हम मध्य प्रदेश में चले जाते हैं। मध्य प्रदेश का पहला स्टेशन खारा है। बिरसोला पर टिकट चेकिंग स्टाफ की भीड खडी थी। सबके टिकट जांचे गये। कुछ पकडे भी गये।
बारह मिनट की देरी से यानी 9:42 बजे गाडी बालाघाट पहुंची। ठीक आठ मिनट बाद नैनपुर जाने वाली नैरो गेज की पैसेंजर चल पडी। पहले यह नैरो गेज वाली ट्रेन जबलपुर तक जाया करती थी लेकिन पिछले एक महीने से जबलपुर से नैनपुर की लाइन बन्द है, इसलिये अब यह नैनपुर तक ही जा रही थी। मैं पांच साल पहले इसी ट्रेन से जबलपुर तक गया था। आज दोबारा इसी ट्रेन को सामने खडे देखा तो पुरानी याद ताजा हो गई।
बालाघाट में मौका देखकर मैंने आलू-बन्द ले लिये और एक जगह रेलवे स्टाफ के पास बैठकर खाने लगा। लाइन बन्द होने की ही चर्चा चल रही थी। आपस में पूछ रहे थे कि तुम्हें कहां भेजा गया है? इसे ब्रॉड गेज में बदलने के लिये अठारह महीने यानी डेढ साल की समय सीमा रखी गई है। अब चूंकि बहुत सारे स्टाफ का कोई काम नहीं होगा, इसलिये इन्हें कहीं दूसरी जगह भेज दिया जायेगा कम से कम अठारह महीने के लिये। कुछ लोग यहीं बने रहेंगे। कुछ अपनी बदली से खुश थे, कुछ खुश नहीं थे; इसी तरह कुछ अपनी बदली न होने से खुश थे और कुछ खुश नहीं थे। सब तरह की परिस्थितियां थीं।
ट्रेन नम्बर 58867... बालाघाट से नैनपुर पैसेंजर। जैसे ही ट्रेन चली, तो मैं इसमें चढ लिया। भीड बिल्कुल भी नहीं थी। गाडी में चढने और ट्रेन के सरकने का क्षण बडा ही भावुक कर देने वाला था। आज मेरी सतपुडा नैरो गेज में आखिरी यात्रा होगी। गाडी 4 दिन और चलेगी। ट्रेन के ज्यादातर यात्रियों का इसमें यात्रा करने का आखिरी दिन है। कुछ का कल होगा, कुछ का परसों और चौथे दिन सभी का आखिरी दिन। फिर यह लाइन और यह गाडी हमेशा के लिये बन्द हो जायेगी। बालाघाट से जबलपुर तक जब यह जाया करती थी, तो इसमें भीड होती थी। लेकिन अब यह जबलपुर तक नहीं जाती तो भीड भी नहीं होती। बालाघाट से जबलपुर का सडक मार्ग नैनपुर से होकर नहीं जाता, इसलिये यात्री नैनपुर तक ट्रेन से जाकर फिर बस नहीं पकडेंगे।
सुबह आठ बजकर पैंतीस मिनट पर गोंदिया से कटंगी के लिये डीएमयू थी। मैंने यहीं से मण्डला फ़ोर्ट का टिकट ले लिया। रास्ते में बालाघाट और नैनपुर में गाडी बदलनी पडेगी। ठीक समय पर ट्रेन चल पडी। बिल्कुल भी भीड नहीं थी। इस लाइन पर बिरसोला महाराष्ट्र का आखिरी स्टेशन है और उसके बाद बाघ नदी पर बना लम्बा पुल पार करके हम मध्य प्रदेश में चले जाते हैं। मध्य प्रदेश का पहला स्टेशन खारा है। बिरसोला पर टिकट चेकिंग स्टाफ की भीड खडी थी। सबके टिकट जांचे गये। कुछ पकडे भी गये।
बारह मिनट की देरी से यानी 9:42 बजे गाडी बालाघाट पहुंची। ठीक आठ मिनट बाद नैनपुर जाने वाली नैरो गेज की पैसेंजर चल पडी। पहले यह नैरो गेज वाली ट्रेन जबलपुर तक जाया करती थी लेकिन पिछले एक महीने से जबलपुर से नैनपुर की लाइन बन्द है, इसलिये अब यह नैनपुर तक ही जा रही थी। मैं पांच साल पहले इसी ट्रेन से जबलपुर तक गया था। आज दोबारा इसी ट्रेन को सामने खडे देखा तो पुरानी याद ताजा हो गई।
बालाघाट में मौका देखकर मैंने आलू-बन्द ले लिये और एक जगह रेलवे स्टाफ के पास बैठकर खाने लगा। लाइन बन्द होने की ही चर्चा चल रही थी। आपस में पूछ रहे थे कि तुम्हें कहां भेजा गया है? इसे ब्रॉड गेज में बदलने के लिये अठारह महीने यानी डेढ साल की समय सीमा रखी गई है। अब चूंकि बहुत सारे स्टाफ का कोई काम नहीं होगा, इसलिये इन्हें कहीं दूसरी जगह भेज दिया जायेगा कम से कम अठारह महीने के लिये। कुछ लोग यहीं बने रहेंगे। कुछ अपनी बदली से खुश थे, कुछ खुश नहीं थे; इसी तरह कुछ अपनी बदली न होने से खुश थे और कुछ खुश नहीं थे। सब तरह की परिस्थितियां थीं।
ट्रेन नम्बर 58867... बालाघाट से नैनपुर पैसेंजर। जैसे ही ट्रेन चली, तो मैं इसमें चढ लिया। भीड बिल्कुल भी नहीं थी। गाडी में चढने और ट्रेन के सरकने का क्षण बडा ही भावुक कर देने वाला था। आज मेरी सतपुडा नैरो गेज में आखिरी यात्रा होगी। गाडी 4 दिन और चलेगी। ट्रेन के ज्यादातर यात्रियों का इसमें यात्रा करने का आखिरी दिन है। कुछ का कल होगा, कुछ का परसों और चौथे दिन सभी का आखिरी दिन। फिर यह लाइन और यह गाडी हमेशा के लिये बन्द हो जायेगी। बालाघाट से जबलपुर तक जब यह जाया करती थी, तो इसमें भीड होती थी। लेकिन अब यह जबलपुर तक नहीं जाती तो भीड भी नहीं होती। बालाघाट से जबलपुर का सडक मार्ग नैनपुर से होकर नहीं जाता, इसलिये यात्री नैनपुर तक ट्रेन से जाकर फिर बस नहीं पकडेंगे।
सिंघाडे बेचने वाले खूब थे। बडे बडे टोकरों में सिंघाडे भरकर लाते और बेचते। सिंघाडे तालाब में होते हैं यानी रुके हुए पानी में। रुका हुआ पानी सडा हुआ भी होता है। इधर खूब तालाब हैं, बडे बडे भी और छोटे छोटे भी। नावों में लोगबाग सिंघाडे इकट्ठे करते मिलते। मैंने भी खरीदे। खाते खाते हाथ काले हो जाते; इसका कारण था कि इन्हें उसी तालाब के पानी में धोया जाता है, साफ पानी में नहीं धोया जाता। आदिवासी लोग हैं, साफ-सफाई के बारे में उतना नहीं जानते। फिर इनके सिंघाडे बिक भी जाते हैं, तो क्यों साफ पानी में धोने का झंझट लिया जाये? सबसे अच्छी बात लगी कि सरौते से इनके नोकदार किनारों को काटकर अलग करके ही बेचते हैं। इससे न तो ये किनारे चुभते हैं और फिर छिलते भी आसानी से हैं। सिंघाडे छीलना मेरे लिये बडा मुश्किल काम रहा है। सीधे तालाब से आने के कारण इन्हें मुंह से छीलने से बचता लेकिन मुझसे ये मुंह से ही छीले जाते हैं लेकिन सरौते के प्रयोग ने इसे छीलना आसान कर दिया। छोटे से डिब्बे में पांच मिनट में जो सिंघाडे बिकते, बिक जाते। उसके बाद पन्द्रह मिनट तक अगला स्टेशन आने तक उसे इसी डिब्बे में बैठे रहना पडता। तो इस समय का इस्तेमाल वह इनके किनारे काटने में करता। मैंने पूछा कि अब डेढ साल के लिये ट्रेन बन्द हो रही है, गुजारा कैसे होगा? बोला- बहुत मुश्किल होगा। जो आमदनी होती है, सिंघाडे ट्रेन में बेचने से ही होती है। अब सब बन्द हो जायेगी। यहां रोजगार का कोई दूसरा साधन भी नहीं है और सिंघाडे बेचने के अलावा कोई दूसरा काम भी नहीं आता। मैंने पूछा- लाइन बन्द होनी चाहिये थी या यही छोटी गाडी ही चलती रहनी चाहिये थी हमेशा के लिये। बोला- इसे बाकी देश की तरह काफी समय पहले ही बडा बन जाना चाहिये था। इन्होंने बहुत देर कर दी इसे बडा बनाने में।
यह लाइन पेंच-कान्हा कॉरीडोर के बीच से गुजरती है। आप तो जानते ही होंगे कि पेंच भी राष्ट्रीय उद्यान है और कान्हा भी। उन्हीं के बीच का यह जंगल है। जंगल में गुजरती ट्रेन निःसन्देह शानदार लगती। आखिरी बार गुजरती ट्रेन तो और ज्यादा शानदार भी व भावुक भी।
ठीक एक बजे नैनपुर पहुंच गये। यहां पहले ही तीन ट्रेनें यात्रियों से भरी खडी थीं। एक छिन्दवाडा जायेगी, एक मण्डला फोर्ट जायेगी और एक बालाघाट जायेगी। जिस ट्रेन से मैं बालाघाट से यहां आया हूं, वह पहले जबलपुर जाती थी। अर्थात नैनपुर में दोपहर एक बजे का समय ऐसा होता था, जब चारों दिशाओं से ट्रेनें आती थीं और लगभग एक साथ ही चारों दिशाओं में चली जाती थीं। आज सबसे पहले बालाघाट वाली ट्रेन गई और छिन्दवाडा वाली ट्रेन भी चली गई। अब मुझे मण्डला जाना था, इसलिये इसमें चढ लिया। यह पन्द्रह मिनट की देरी से एक बजकर पच्चीस मिनट पर यहां से चली। गाडी खचाखच भरी थी, मेरी उम्मीदों से कहीं अधिक। मेरी इस मण्डला वाली लाइन पर पहली यात्रा है। पहला ही स्टेशन है धतूरा अलीपुर, फिर जामगांव, रमपुरी, चिरई डोंगरी, सिमरिया कजरवाडा, बम्हनी बंजर, लिमरुआ और आखिर में मण्डला फोर्ट। इस लाइन पर नैनपुर-मण्डला के बीच में तीन जोडी ट्रेनें चलती थीं, लेकिन रास्ते में जो भी फाटक मिले, उन्हें बन्द करने के लिये गेटमैन इस ट्रेन में ही यात्रा करता मिला। यानी पहले ट्रेन रुकती, गेटमैन दौडकर फाटक बन्द करता और ट्रेन के निकल जाने पर फाटक खोलकर पुनः ट्रेन में चढ जाता। कम ट्रैफिक वाली कई लाइनों पर ऐसा ही होता है।
बंजर नदी नर्मदा की एक सहायक नदी है। बम्हनी स्टेशन के काफी पास से बंजर नदी बहती है, इसलिये स्टेशन का नाम हो गया- बम्हनी बंजर। फिर तो यह लाइन के समान्तर ही रहती है और मण्डला में नर्मदा में मिल जाती है। अमृतलाल वेगड जी ने अपनी पुस्तक ‘तीरे-तीरे नर्मदा’ में बंजर नदी की परिक्रमा का भी विस्तार से उल्लेख किया है लेकिन उसमें बम्हनी का जिक्र नहीं है। वैसे उनके अनुसार बंजर नदी छत्तीसगढ के राजनांदगांव जिले से निकलती है। आज बम्हनी में कोई मेला लगा था। सब भीड उतर गई। ट्रेन खाली हो गई।
तय समय से दस मिनट पहले ही मण्डला फोर्ट पहुंच गये। यहां से मण्डला शहर जाने के लिये नर्मदा पार करके उस तरफ जाना होता है। नर्मदा पर पुल बनाने से बचने के लिये अंग्रेजों ने मण्डला का स्टेशन यहीं बना दिया। जैसे ही ट्रेन से नीचे उतरा, वैसे ही मेरी सतपुडा नैरो गेज की सम्पूर्ण यात्रा पूरी हो गई। इसकी प्रत्येक लाइन पर यात्रा कर ली- कुछ अब और कुछ पांच साल पहले। अब यह बनती रहे ब्रॉड गेज। हालांकि पुरानी चीजें हमें इतिहास से जोडती हैं, लेकिन आगे बढने के लिये बदलाव भी जरूरी है।
यह लाइन पेंच-कान्हा कॉरीडोर के बीच से गुजरती है। आप तो जानते ही होंगे कि पेंच भी राष्ट्रीय उद्यान है और कान्हा भी। उन्हीं के बीच का यह जंगल है। जंगल में गुजरती ट्रेन निःसन्देह शानदार लगती। आखिरी बार गुजरती ट्रेन तो और ज्यादा शानदार भी व भावुक भी।
ठीक एक बजे नैनपुर पहुंच गये। यहां पहले ही तीन ट्रेनें यात्रियों से भरी खडी थीं। एक छिन्दवाडा जायेगी, एक मण्डला फोर्ट जायेगी और एक बालाघाट जायेगी। जिस ट्रेन से मैं बालाघाट से यहां आया हूं, वह पहले जबलपुर जाती थी। अर्थात नैनपुर में दोपहर एक बजे का समय ऐसा होता था, जब चारों दिशाओं से ट्रेनें आती थीं और लगभग एक साथ ही चारों दिशाओं में चली जाती थीं। आज सबसे पहले बालाघाट वाली ट्रेन गई और छिन्दवाडा वाली ट्रेन भी चली गई। अब मुझे मण्डला जाना था, इसलिये इसमें चढ लिया। यह पन्द्रह मिनट की देरी से एक बजकर पच्चीस मिनट पर यहां से चली। गाडी खचाखच भरी थी, मेरी उम्मीदों से कहीं अधिक। मेरी इस मण्डला वाली लाइन पर पहली यात्रा है। पहला ही स्टेशन है धतूरा अलीपुर, फिर जामगांव, रमपुरी, चिरई डोंगरी, सिमरिया कजरवाडा, बम्हनी बंजर, लिमरुआ और आखिर में मण्डला फोर्ट। इस लाइन पर नैनपुर-मण्डला के बीच में तीन जोडी ट्रेनें चलती थीं, लेकिन रास्ते में जो भी फाटक मिले, उन्हें बन्द करने के लिये गेटमैन इस ट्रेन में ही यात्रा करता मिला। यानी पहले ट्रेन रुकती, गेटमैन दौडकर फाटक बन्द करता और ट्रेन के निकल जाने पर फाटक खोलकर पुनः ट्रेन में चढ जाता। कम ट्रैफिक वाली कई लाइनों पर ऐसा ही होता है।
बंजर नदी नर्मदा की एक सहायक नदी है। बम्हनी स्टेशन के काफी पास से बंजर नदी बहती है, इसलिये स्टेशन का नाम हो गया- बम्हनी बंजर। फिर तो यह लाइन के समान्तर ही रहती है और मण्डला में नर्मदा में मिल जाती है। अमृतलाल वेगड जी ने अपनी पुस्तक ‘तीरे-तीरे नर्मदा’ में बंजर नदी की परिक्रमा का भी विस्तार से उल्लेख किया है लेकिन उसमें बम्हनी का जिक्र नहीं है। वैसे उनके अनुसार बंजर नदी छत्तीसगढ के राजनांदगांव जिले से निकलती है। आज बम्हनी में कोई मेला लगा था। सब भीड उतर गई। ट्रेन खाली हो गई।
तय समय से दस मिनट पहले ही मण्डला फोर्ट पहुंच गये। यहां से मण्डला शहर जाने के लिये नर्मदा पार करके उस तरफ जाना होता है। नर्मदा पर पुल बनाने से बचने के लिये अंग्रेजों ने मण्डला का स्टेशन यहीं बना दिया। जैसे ही ट्रेन से नीचे उतरा, वैसे ही मेरी सतपुडा नैरो गेज की सम्पूर्ण यात्रा पूरी हो गई। इसकी प्रत्येक लाइन पर यात्रा कर ली- कुछ अब और कुछ पांच साल पहले। अब यह बनती रहे ब्रॉड गेज। हालांकि पुरानी चीजें हमें इतिहास से जोडती हैं, लेकिन आगे बढने के लिये बदलाव भी जरूरी है।
ऑटो वाले ने दस रुपये लेकर मण्डला बस अड्डे पर छोड दिया जहां जाते ही जबलपुर की बस मिल गई। जबलपुर यहां से 100 किलोमीटर दूर है। अन्दाजा था कि तीन घण्टे में जबलपुर पहुंच जाऊंगा। अभी ढाई बजे थे, यानी जबलपुर पहुंचने में साढे पांच बज जाने हैं। दिल्ली जाने वाली आखिरी ट्रेन छह बजे थी। अगर मण्डला से जबलपुर के तीन से ज्यादा घण्टे लग गये, तो ट्रेन छूट जायेगी। इसलिये आज का दिल्ली का आरक्षण नहीं कराया था। बल्कि योजना थी कि कल इटारसी तक पैसेंजर मार्ग देखूंगा, फिर वहां से दिल्ली जाऊंगा। आज जबलपुर डोरमेट्री में रुकने की बुकिंग थी।
वही हुआ। ज्यादातर रास्ता खराब है और पहाडी भी। फिर जबलपुर का ट्रैफिक। साढे छह बजे जबलपुर पहुंचा। इसकी सूचना फेसबुक पर लगा दी। नतीजा ये हुआ कि अनूप शुक्ल जी मिलने डोरमेट्री में ही आ गये। अनूप जी को प्रत्येक हिन्दी ब्लॉगर जानता है - कम से कम पुराने ब्लॉगर तो अच्छी तरह जानते ही हैं।
अगला भाग: जबलपुर से इटारसी पैसेंजर ट्रेन यात्रावही हुआ। ज्यादातर रास्ता खराब है और पहाडी भी। फिर जबलपुर का ट्रैफिक। साढे छह बजे जबलपुर पहुंचा। इसकी सूचना फेसबुक पर लगा दी। नतीजा ये हुआ कि अनूप शुक्ल जी मिलने डोरमेट्री में ही आ गये। अनूप जी को प्रत्येक हिन्दी ब्लॉगर जानता है - कम से कम पुराने ब्लॉगर तो अच्छी तरह जानते ही हैं।
1. सतपुडा नैरो गेज पर आखिरी यात्रा-1
2. सतपुडा नैरो गेज पर आखिरी बार- छिन्दवाडा से नागपुर
3. सतपुडा नैरो गेज में आखिरी बार-2
4. जबलपुर से इटारसी पैसेंजर ट्रेन यात्रा
ek dum fresh . ek sabse badiya photo post likhne se pahle lagao our bhi badiya lagega.picture ki quality bhi pahle se achhi hai
ReplyDeleteधन्यवाद माथुर साहब...
Deleteनिरज भाई आप का जवाब नहीं ऐसी यात्रा आप ही कर सकते हो
ReplyDeleteधन्यवाद गुप्ता जी...
DeleteUP mein kai jagah singhade ubaal kar chatni ke saath beche jate hein.........ANURAG,LUCKNOW
ReplyDeleteहाँ अनुराग जी, हमारे यहाँ मेरठ में भी उबालकर बेचे जाते हैं...
Deleteकाफी रोचक जानकारी और अच्छा फोटो वाला पोस्ट। पाठको की तरफ से एक चीज कुछ कनफुयुजन वाकई लगी क्योकि इसके पहले पोस्ट मे पाठक मित्र ने लिखा है की बेतुल के आगे आमला स्टेशन से ही 05 km पहले बरसाली स्टेशन भारत के जिओग्राफिकल द्रिस्टीकोण से सेंटर में आता है ,यानि की वो भारत के बिलकुल हि मध्य स्थित रेलवे स्टेशन है ,यहा बाहर एक बोर्ड में यह जानकारी लिखा है जबकि मैंने पढ़ा और सुना है की नागपुर मे ज़ीरो माइल्स स्थान को अंग्रेज़ो ने एक दम सटीक गड़ना करके पूरे भारत का केंद्र बिन्दु माना है यहाँ तक की आप ने नागपुर की जो डायमंड क्रॉसिंग की चर्चा इस पोस्ट मे की है यहाँ का यह डायमंड क्रॉसिंग पॉइंट भी भारतीय रेल का केंद्र बिन्दु माना जाता है । न केवल चारो दिशाओ की रेल लाइन यहाँ मिलती है बल्कि अंग्रेज़ो ने इस पॉइंट को इसी हिसाब से बनाया भी था । पूरे भारतीय रेल मे पहले यहाँ सबसे ज्यादा डायमंड क्रॉसिंग थे । सबसे पुराने डायमंड क्रॉसिंग को अभी कुछ साल पहले डिसमेंटल किया गया है । अभी भी यहाँ सबसे ज्यादा 7 या 8 डायमंड क्रॉसिंग है । खैर वास्तविकता जो भी हो। हाँ दिल्ली या नई दिल्ली यार्ड मे भी इस प्रकार का एक डायमंड क्रॉसिंग है किन्तु वह कर्व लिए हुये है अर्थात समकोड पर नहीं है किन्तु नागपुर की तरह ये चारो भी एक साथ है। कृपया बाद मे हो सके तो क्लियर बताइएगा । धन्यवाद।
ReplyDeleteजहाँ तक मैने पढा है डायमंड क्रासिंग समकोण पर नही होता बल्कि इसका आकार हीरे की तरह होता है।
Deleteपहला लिंक लाईन डाईग्राम है जबकि दूसरा वास्तविक चित्र है।
http://www.dccwiki.com/images/e/ef/CrossingWiring.png
https://encrypted-tbn1.gstatic.com/images?q=tbn:ANd9GcSWdmJszTwWHUnKR7g1cfS8hL63bIFmG5XKAFiZQvTrPByMt72FlQ
विमलेश जी, बरसाली स्टेशन का उदाहरण किसी अन्य सन्दर्भ में दिया गया था जबकि नागपुर का डायमंड क्रोसिंग किसी अन्य सन्दर्भ में है... अजीत राय जी, रेलवे में कभी भी डायमंड क्रोसिंग समकोण पर नहीं बनाए जाते लेकिन नागपुर इसका अपवाद है. फिर भी इसे डायमंड क्रोसिंग ही कहा जाएगा...
Deleteअजित राय जी आप की बात बिलकुल सही है किन्तु हीरे की आकार वाले को स्टैंडर्ड डायमंड क्रोसिंग कहते है तथा समकोण वाले क्रासिंग को स्क्वायर डायमंड क्रोसिंग कहते है तथा कर्व वाले को नॉन स्टैंडर्ड डायमंड क्रोसिंग कहते हैं । कृपया लिंक देख सकते है और दिल्ली के डायमंड क्रोसिंग का लिंक भी देखे जो की कर्व मे है जिसे नॉन स्टैंडर्ड डायमंड क्रोसिंग कहते है । मतलब हीरे की आकार की तरह वाला ही नहीं बल्कि कर्व और समकोण वाला भी डायमंड क्रोसिंग ही है जैसा की श्री नीरज जी ने क्लियर किया है ।
Deletehttps://www.google.co.in/imgres?imgurl=http://im0.indiarailinfo.com/0/97258/237129//chicagodiamondcross.jpg&imgrefurl=http://indiarailinfo.com/faq/post/377&h=525&w=787&tbnid=sMMknYFbaw9_CM:&docid=LzrWurdNcYo-RM&hl=en&ei=klnQVsLtOoO1mAXAkYuIBA&tbm=isch&ved=0ahUKEwjC_qrWypXLAhWDGqYKHcDIAkEQMwglKAkwCQ
https://www.google.co.in/imgres?imgurl=http://www.translationdirectory.com/images_articles/wikipedia/railroads/Railroad_crossing_at_grade_also_known_as_a_diamond.jpg&imgrefurl=http://www.translationdirectory.com/glossaries/glossary256.php&h=375&w=500&tbnid=tS3xGhNwzcWbgM:&docid=QKxeX8ytOVDqDM&hl=en&ei=klnQVsLtOoO1mAXAkYuIBA&tbm=isch&ved=0ahUKEwjC_qrWypXLAhWDGqYKHcDIAkEQMwhEKB0wHQ
https://www.google.co.in/imgres?imgurl=http://1.bp.blogspot.com/_0y_CpqxHHX8/SdEpCcRAl0I/AAAAAAAAAQs/-e2SlY6Z4EQ/s400/Five%252BDiamonds-Delhi.jpg&imgrefurl=http://railfandelhi.blogspot.com/2009/03/delhis-own-double-junction-with-diamond.html&h=300&w=400&tbnid=vLVPSf22dAN7SM:&docid=uNudMGZ0G6dZOM&hl=en&ei=klnQVsLtOoO1mAXAkYuIBA&tbm=isch&ved=0ahUKEwjC_qrWypXLAhWDGqYKHcDIAkEQMwhnKEAwQA
विदर्भ को बस टीवी के माध्यम से ही जाना है और समझा है ! पैसेंजर ट्रैन में यात्रा करने का सबसे बड़ा फायदा उस क्षेत्र को बेहतर तरीके से जानने का है ! आपके साथ एक यात्रा और कर आया !
ReplyDeleteधन्यवाद योगी जी...
Deleteनीरज जी, सही कहूं तो लेख पढते समय ऐसा लगा जैसे आपके साथ-साथ मैं भी सतपुरा क्षेत्र की यात्रा कर रहा हूं. बहुत सुंदर वर्णन.
ReplyDeleteसंतोष प्रसाद सिंह,
जयपुर.
धन्यवाद संतोष जी...
Delete