ग्वालियर और श्योपुर कलां से बीच 2 फीट गेज की यह रेलवे लाइन 200 किलोमीटर लम्बी है और विश्व की सबसे लम्बी नैरो गेज की लाइन है। लेकिन इसके बनने की कहानी बडी ही दिलचस्प है। ग्वालियर के महाराजा थे माधव राव जी। कहते हैं कि उन्होंने एक बार इंग्लैण्ड से टॉय ट्रेन मंगवाई। राजा थे तो यह टॉय ट्रेन कोई छोटी-मोटी तो होगी नही। बडी बिल्कुल असली ट्रेन थी लेकिन 2 फीट गेज की पटरियों पर चलती थी। इंजन था और छह सात डिब्बे थे। आधे किलोमीटर लम्बी पटरियां भी मंगाई गईं और किले के अन्दर ही बिछा दी गईं। लेकिन दिक्कत ये हो गई कि जब तक इंजन स्पीड पकडता, तब तक पटरियां ही खत्म हो जातीं। तो महाराजा ने और पटरियां मंगाईं और किले में ही करीब दो किलोमीटर लम्बा नेटवर्क बना दिया और अपनी निजी ट्रेन का आनन्द लेने लगे।
फिर ऐसा हुआ कि यह भी महाराजा को कम लगने लगा। किले में इतनी जगह नहीं थी कि इससे भी ज्यादा पटरियां बिछाई जायें। तय हुआ कि किले से बाहर पटरियां बिछाते हैं। बात किले के अन्दर थी तो अन्दर की बात थी लेकिन बाहर ऐसा करना थोडा मुश्किल था क्योंकि उस समय रेलवे लाइन बिछाना केवल अंग्रेजों का ही कार्य था, भारतीयों का नहीं। अभी तक तो यह महाराजा की ‘टॉय ट्रेन’ थी लेकिन अब इसे ‘रेलवे’ बनना पडेगा। फिर पता नहीं महाराजा ने अंग्रेजों को क्या पढाया, क्या सिखाया; किले से बाहर लाइन बिछाने की अनुमति मिल गई। सबसे पहले इसे ग्वालियर के पास मुरार तक बनाया गया। वर्तमान में मुरार की लाइन को शहर में सडकें बनाने आदि के लिये बन्द करके हटा दिया है।
तो जी, इस तरह ग्वालियर लाइट रेलवे (GLR) का जन्म हुआ। जिस समय किसी भी भारतीय को देश में रेलवे लाइन बिछाने की अनुमति नहीं थी, उस समय ग्वालियर महाराजा ने ऐसा किया। फिर तो यह नेटवर्क बढता गया और ग्वालियर से भिण्ड तक भी नैरो गेज की लाइन बिछी, शिवपुरी तक भी और 200 किलोमीटर दूर श्योपुर कलां तक भी। कालान्तर में भिण्ड और शिवपुरी वाली लाइनों को नैरो गेज से बदलकर ब्रॉड गेज में बदला जा चुका है। आज हम श्योपुर कलां वाली नैरो गेज लाइन पर यात्रा करने वाले हैं।
इस लाइन का निर्माण चार चरणों में पूरा हुआ- जनवरी 1904 में ग्वालियर से जोरा तक, दिसम्बर 1904 में सबलगढ तक, नवम्बर 1908 में बीरपुर तक और जून 1909 में आखिरकार श्योपुर कलां तक ट्रेन पहुंची। जिस समय देश में मोटर वाहन भी ढंग से चलने शुरू नहीं हुए थे, उस समय यहां ट्रेन चलती थी। आज भी इस रेलवे लाइन के काफी बडे इलाके में सडकें नहीं हैं और आने-जाने का एकमात्र साधन यही छोटी ट्रेन है।
काफी समय से मैं इस लाइन पर यात्रा करने की योजना बना रहा था। ढाई साल पहले मई के महीने में कार्यक्रम पक्का भी हो गया था लेकिन ऐन टाइम पर जाते-जाते रह गया। मेरे लिये यहां की सबसे बडी समस्या थी भीड। खिडकियों पर लटके लोग और ठसाठस भरी छत इस लाइन की पहचान है। फ़िर दूसरी समस्या थी श्योपुर से उसी दिन वापस आने की। ट्रेन शाम साढे पांच-छह बजे श्योपुर पहुंचती है। इसका नजदीकी बडा शहर सवाई माधोपुर है। पता नहीं शाम छह बजे सवाई माधोपुर जाने के लिये कोई वाहन भी मिलेगा या नहीं- यह भी एक अडचन थी। जब तक हम कहीं नहीं जाते- ऐसी अडचनें आती रहती हैं। जाते हैं तब पता चलता है कि ऐसी कोई दिक्कत नहीं है। खैर, यह तो मुझे जाने के बाद पता चला। इस बार इरादा किया कि दिल्ली से सुबह चलकर दोपहर तक सवाई माधोपुर पहुंचो और फ़िर श्योपुर जाने के लिये भरपूर समय होगा। ऐसा ही किया। 19 अक्टूबर 2015 की सुबह निजामुद्दीन से गोल्डन टेम्पल पकड ली। इसमें मैंने परसों तत्काल में आरक्षण कराया था। नाइट ड्यूटी करके सवाई माधोपुर तक सोता गया। बिल्कुल ठीक समय पर ट्रेन निजामुद्दीन से चली थी और ठीक ही समय पर सवाई माधोपुर पहुंची।
सवाई माधोपुर स्टेशन के सामने से एक सिटी बस पकडी और उसने शहर में बस अड्डे पर उतार दिया। लेकिन बडा ही अजीब सा स्थान था यह। न बस और न बस अड्डा। ऐसे ही कथित बस अड्डे के सामने लंच किया। पता चला कि श्योपुर की बस और आधा किलोमीटर आगे से मिलेगी। पैदल आगे गया तो श्योपुर की एक बस भरी खडी थी और चलने ही वाली थी। यह एमपी की बस थी तो जाहिर है कि प्राइवेट थी। हालांकि राजस्थान की सरकारी बसें भी श्योपुर जाती हैं लेकिन पता नहीं कब। अगली प्राइवेट बस दो घण्टे बाद चलेगी तो मैं इसी की छत पर चढ लिया। पहले आराम से सभी के टिकट बनाये, तब बस चली।
रणथम्भौर राष्ट्रीय पार्क से होकर रास्ता है। जब तक राष्ट्रीय पार्क के अन्दर से जाते हैं, तब तक पतली और खराब सडक है लेकिन पार्क से निकलते ही शानदार सडक आ जाती है। चम्बल नदी पार की और हम राजस्थान से मध्य प्रदेश में पहुंच गये। यहीं बस रोक दी गई और छत पर बैठे सभी यात्रियों को नीचे उतारा गया। कुछ दूर तो मुझे खचाखच भरी बस में खडे होकर चलना पडा, फिर एक सीट मिल गई। सवाई माधोपुर से चलने के डेढ घण्टे बाद मैं श्योपुर पहुंच गया था। यहां देखा कि सवाई माधोपुर की बसें तो खडी ही थीं; ग्वालियर, भोपाल और इन्दौर तक की वोल्वो बसें भी खडी थीं। यानी अगर आप नैरो गेज की ट्रेन से ग्वालियर से यहां आते हैं तो आसानी से सवाई माधोपुर जाने की बसें मिल जायेंगीं।
150 रुपये का एक कमरा मिल गया और सो गया।
इसी दौरान विमलेश चन्द्रा जी से भी बात हुई। इस यात्रा को आरामदायक बनाने में उनका भी बहुत बडा योगदान रहा।
सुबह छह बजकर दस मिनट पर ट्रेन श्योपुर से चल देती है। मैं करीब आधा घण्टा पहले ही स्टेशन पहुंच गया। देखा कि ट्रेन पूरी भरी खडी है। छत पर भी लोग चढने लगे हैं। कुछ देर बाद दोनों ड्राइवर आये, उनके बाद गार्ड आया। सबसे पीछे वाला डिब्बा वैसे तो गार्ड का डिब्बा था, लेकिन यह डाक का भी डिब्बा था जोकि खाली था। हां, इसकी छत जरूर भरी थी।
ट्रेन के चलने का समय हुआ। गार्ड नरेन्द्र जी अपने डिब्बे में चढने लगे तो देखा कि एक बन्दूकधारी उनकी सीट पर बैठा है। उन्होंने पूछा कि तू कौन? बोला कि जोरा तक जाऊंगा। गार्ड ने डांट दिया- तो आगे जा, यहां मेरी सीट पर क्यों बैठा है? बन्दूकधारी आंखें दिखाने लगा- तू मुझे जानता नहीं है, मुरैना का हूं मैं। गार्ड बोला- अबे निकल यहां से। तेरे जैसे सत्तर देखे हैं। और बन्दूक किसे दिखा रहा है? बीस बन्दूकें रखी हैं हमारे घर में। किसे डरा रहा है? निकल यहां से। और बन्दूकधारी इसके बाद बिना कुछ कहे निकलकर अगले ठसाठस भरे डिब्बे में चढ गया।
तो जी इस तरह शुरू हुई मेरी चम्बल क्षेत्र में नैरो गेज की ट्रेन यात्रा।
फ़िर तो गार्ड साहब से भी दोस्ती हो गई जो आज तक चल रही है। वे ग्वालियर के ही रहने वाले हैं। उन्होंने बताया कि वे इस ट्रेन में ग्वालियर तक जायेंगे जबकि दोनों ड्राइवर सबलगढ तक। साथ ही यह भी बताया कि श्योपुर में रेलवे स्टेशन पर विश्रामगृह यानी रिटायरिंग रूम भी है जहां रात को रुका जा सकता है।
इस लाइन पर ट्रेनें अधिकतम 30 किलोमीटर प्रति घण्टे की स्पीड से चलती हैं। रेलवे ट्रैक भी अच्छी हालत में नहीं है। ऐसा लगता है जैसे सीधे जमीन पर रेल की पटरियां रखी हों। स्लीपर भी अच्छी हालत में नहीं हैं। हालांकि पुराने जमाने के लोहे वाले स्लीपर हैं। बैलास्ट यानी पत्थर तो कहीं भी नहीं हैं। शिवपुरी वाली लाइन को बडा बनाकर गुना तक मिला दिया गया है, भिण्ड वाली लाइन को बडा बनाकर आगे इटावा तक मिला दिया गया है। इसे भी यथाशीघ्र बडा बनाकर आगे कोटा या सवाई माधोपुर तक मिला देना चाहिये। लेकिन फिलहाल इसके बडा बनने की कोई सम्भावना नहीं है। उल्टा सरकार इसे विश्व विरासत में शामिल करना चाहती है। पता नहीं क्यों? सुना है कि कुछ समय पहले इस लाइन पर हेरीटेज ट्रेन या वीआईपी ट्रेन जैसा कुछ चलाया गया था लेकिन बिल्कुल खाली चलने के कारण उसे बन्द करना पडा। ऐसी ट्रेनों में स्थानीय लोग तो बैठेंगे नहीं। अब तो जरुरत है इसके यथाशीघ्र बडा बनकर आगे कोटा या सवाई माधोपुर में मिलने की।
श्योपुर कलां से अगला स्टेशन दातरदा कलां है, फिर गिरधरपुर है और फ़िर दुर्गापुरी। प्रत्येक स्टेशन पर भारी भीड खडी होती और सब के सब ट्रेन में चढ भी जाते। ट्रेन अन्दर से भी पैक थी और छत भी पैक हो गई थी। खाट और बकरियां भी ट्रेन की छत पर यात्रा कर रही थीं।
दुर्गापुरी में देवी का एक मन्दिर है। यहां ट्रेक के दोनों ओर प्रसाद और खाने-पीने की दुकानें थीं। ट्रेन रुकी और पूरी ट्रेन खाली हो गई। गार्ड ने मुझसे कहा- आ चल, तुझे मन्दिर दिखाकर लाता हूं। उधर से दोनों ड्राइवर भी आ गये। मन्दिर में गये। अच्छी सजावट कर रखी है। बताते हैं कि चम्बल के डकैतों के दिनों में बडे-बडे नामी डकैत यहां आया करते थे। नरेन्द्र जी ने एक दो डकैतों के नाम भी बताये कि वो यहां नियमित आता था। आने-जाने की एकमात्र साधन ट्रेन ही है, इसलिये सब के सब ट्रेन से ही आते-जाते हैं। पहाडी भूभाग नहीं है, कहीं न कहीं से गाडी के आने-जाने का रास्ता भी मिल जायेगा लेकिन सडक नहीं है।
पुजारी गार्ड और ड्राइवरों को जानता था। देखते ही इन तीनों को खूब सारा प्रसाद दे दिया जिनमें मावे की बर्फियां ही ज्यादा थीं। मुझे नहीं पता था कि मेरी यह यात्रा इतनी मजेदार बनने वाली है अन्यथा मैं बडा कैमरा लेकर आता। मैं तो छत पर भी बैठने की सोचकर आया था। स्थानीयों के बीच छोटा कैमरा ही अच्छा होता है, बडा कैमरा बेवजह ध्यानाकर्षण करता है। छोटे कैमरे की अपनी सीमाएं होती हैं, इसलिये फोटो उतनी अच्छी नहीं हैं जितनी अच्छी यात्रा रही।
काफी दूर तक रेलवे लाइन कुनो वाइल्डलाइफ सेंचुरी से होकर जाती है। यह सेंचुरी चम्बल के साथ साथ मध्य प्रदेश में है। चम्बल के उस तरफ़ राजस्थान का रणथम्भौर है इसलिये रणथम्भौर के बाघ चम्बल पार करके इधर भी आ जाते हैं। मध्य प्रदेश ने इसे सेंचुरी बना दिया। रजवाडों के समय में यह स्थान शिकारगाह हुआ करता था। सेंचुरी बना देने का राज्य को यह लाभ होता है कि उतने इलाके के बारे में सोचना नहीं पडता। न बिजली के बारे में सोचना और न सडक के बारे में। पता नहीं कब और किसने कोटा स्थित चम्बल बैराज से एक नहर निकालकर इधर भेज दी है। पानी का एकमात्र साधन यही नहर है जो यहां कहीं खुली है तो कहीं भूमिगत। इससे कहीं कहीं खेती भी हो जाती है, लेकिन ज्यादातर इलाका बेकार ही पडा है। नरेन्द्र जी ने बताया कि बहुत पहले यहां एक सरदार आया था। उसने इन लोगों को खेती करना सिखाया, तो कुछ लोग खेती करने लगे अन्यथा किसी को नहीं पता था कि खेती भी की जाती है।
नरेन्द्र जी श्योपुर से ही एक बडी पन्नी में पारले-जी के दो-दो रुपये वाले कम से कम पचास पैकेट लेकर चले थे। मैंने पूछा तो बताया कि रास्ते में बच्चों को देने के लिये हैं। गरीब लोग हैं, बेचारों को नहीं पता कि बाहर की दुनिया में क्या चल रहा है। यही इनकी जिन्दगी है। फ़िर तो मैंने भी अपनी जेबें भर लीं कई पैकेटों से। अभी तक तो ध्यान नहीं गया था लेकिन अब ध्यान देना शुरू कर दिया। बच्चे रेलवे लाइन के किनारे खडे मिलते। यह उनका रूटीन था। उन्हें पता था कि फलां फलां समय ट्रेन आयेगी। इसका मतलब सभी गार्ड और ड्राइवर इनका ध्यान रखते होंगे। बिस्कुट के पैकेट उनकी तरफ़ फेंकना मुझे अच्छा नहीं लगता था। मुझे फेंकने की बजाय हाथ में पकडाना अच्छा लगता है लेकिन चलती ट्रेन से हाथ में नहीं पकडाया जा सकता, फेंकना पडता है। उधर बच्चों ने भी कोई हडबडी नहीं की- जैसा कि अक्सर करते हैं एक-दूसरे को पीछे छोडते हुए और एक-दूसरे को दबाते हुए। जिसके जो हाथ आया, आराम से उठाते और चले जाते। जैसे उन्हें भी पता हो कि बिस्कुट से पेट नहीं भरता, इसलिये इसके लिये मारामारी करने की जरुरत नहीं है। आगे मैंने ड्राइवरों को भी 100-100 रुपये तक की पकौडियां खरीदते देखा। थोडी-थोडी पकौडियां अखबार में लपेटकर रख लेते और आगे कहीं बच्चों को दे देते।
कई बार तो स्टेशन पर खडी ट्रेन में भी बच्चे आ जाते। नरेन्द्र जी एक-एक को बिस्कुट देते। सभी बच्चे चले जाते। फिर अचानक लडते हुए आते- अंकल जी, इसने मेरा पैकेट छीन लिया है; अंकल जी, इसने दो पैकेट ले लिये हैं। दूसरे की खुशी को अपने दुख का आधार बनाकर आते। गार्ड कभी दूसरा पैकेट दे देता और कभी नहीं देता। उनका भी रोज का काम था। इधर मैं पूरे वाकये का आनन्द लेता रहा और सोचता रहा कि बडी-बडी लाइनों पर यह सब सम्भव नहीं है। लाइन बडी बन जायेगी तो ये लोग, ये बच्चे इस छोटी लाइन को, छोटी ट्रेन को बहुत याद किया करेंगे।
इकडोरी में सबलगढ-श्योपुर पैसेंजर मिली। वो भी उतनी ही भरी थी, जितनी कि यह। एक बात और, स्टेशन पर प्रवेश करने के लिये ही सिग्नल लगे हैं, प्रस्थान करने के लिये नहीं। आपसदारी से ज्यादा काम हो रहा है। पॉइण्टमैन लीवर खींचकर लाइन बना देता है और ट्रेन चलने को तैयार हो जाती है। इकडोरी में दोनों ट्रेनों के स्टाफ और स्टेशन के स्टाफ बडी देर तक बातें करते रहे, हंसी-मजाक करते रहे। दोनों की लाइन बनी हुई थी, अपनी खुशी से चलेंगे।
सिल्लीपुर में श्योपुर-मुरैना सडक मिल गई। अब सडक और रेल लगभग साथ साथ ही चलेंगे जोरा अलापुर तक। सिल्लीपुर से आगे कुनो नदी है जिसके नाम पर इस सेंचुरी का नाम पडा है। इसमें इस समय पानी था। कुनो पर लोहे का पुल बना है। इसमें ऊपर जो एंगल लगे थे, वे छत से ज्यादा ऊपर नहीं थे। कोई खडा नहीं हो सकता था। सभी आराम से बैठे रहे, पुल पार हो गया। रेलवे पुल के पास ही एक पुल और था जो चम्बल की नहर का था। नहर और नदी एक दूसरे में नहीं मिला करतीं, इसलिये पुल के द्वारा एक-दूसरे को पार करती हैं। यहां नहर बडे-बडे पाइपों से होकर बह रही थी।
रामपहाडी पर गन्ने बेचने वाले ट्रेन पर टूट पडे। दो-दो रुपये, पांच-पांच रुपये, दस दस रुपये का एक गन्ना; जिसका जैसा भी सौदा पट जाये। सभी के गन्ने बिक गये। कोई ट्रेन के अन्दर बैठकर गन्ना चूस रहा है, कोई छत पर बैठकर।
सबलगढ पहुंचे। यह इस मार्ग का सबसे बडा स्टेशन है। यहां एक ही प्लेटफार्म है। ट्रेन प्लेटफार्म वाली लाइन पर नहीं गई बल्कि दूर वाली लाइन पर गई। नरेन्द्र जी ने बता दिया था कि यहां गाडी काफी देर तक रुकेगी, लंच करते हैं। वो अपने स्टाफ कक्ष में चले गये, मैं स्टेशन से बाहर बाजार में चला गया और भरपेट भोजन करने के बाद वापस लौटा। प्लेटफार्म पर खडी भारी भीड बता रही थी कि ग्वालियर-श्योपुर पैसेंजर आने वाली है। कुछ देर बाद वो ट्रेन आ भी गई। लेकिन इसमें दो इंजन लगे थे। आगे नया और इसके पीछे पुराना। नया इंजन बिल्कुल वैसा जैसे ब्रॉड गेज में आजकल नये इंजन आ रहे हैं, दोनों तरफ़ केबिन वाले। इसमें भी दोनों तरफ केबिन थे। यह ड्राइवरों के लिये आरामदायक बात होती है। लेकिन कमाल की बात यह थी कि यह नया इंजन भी NDM5 था और पुराना वाला भी NDM5 ही। ऐसा अक्सर होता नहीं है। कोई इस बात का जानकार इस पोस्ट को पढ रहा हो तो कृपया बताये।
बाद में पता चला कि यह नया इंजन टेस्टिंग के लिये इधर आया है। इसका यहां ट्रायल चल रहा है। ग्वालियर से यह सबलगढ तक आया और अभी इसे फ़िर ग्वालियर ले जाया जायेगा। नया इंजन ग्वालियर से आने वाली ट्रेन से हटा दिया और हमारी यानी ग्वालियर जाने वाली ट्रेन में आगे लगा दिया गया। श्योपुर जाने वाली ट्रेन पुराने इंजन से जायेगी और अब हमारी ट्रेन को नया इंजन खींचेगा।
श्योपुर वाली ट्रेन चलने लगी तो उस समय एक सूअर उसके नीचे था। ट्रेन हल्की हल्की चली तो सूअर भी उसके नीचे उसी की स्पीड से चलने लगा। लग रहा था कि प्लेटफार्म समाप्त होते ही यह बाहर आ जायेगा। लेकिन कुछ दूर बाद उसने प्लेटफार्म पर चढने की कोशिश की, चलती ट्रेन की वजह से गिर पडा और फ़िर उसके दो टुकडे हो गये। मुझसे यह सब नहीं देखा जाता, इसलिये जब तक उसकी लाश को वहां से हटा नहीं दिया गया, मैं प्लेटफार्म पर ही बैठा रहा। बाद में उसके मालिक ने आकर हंगामा भी करने की कोशिश की लेकिन रेलवे वालों के आगे उसकी नहीं चली।
नया इंजन था, इसलिये ड्राइवरों को भी इसे चलाने का अभ्यास नहीं था। पता चला कि दोनों ड्राइवर इसे पहली बार चला रहे हैं। अगले स्टेशन पीपल वाली चौकी पर जब ट्रेन रुकने लगी तो बडे जोर से ब्रेक लगे। यह इतना तेज झटका था कि सात डिब्बों की ट्रेन में सबसे पीछे वाले डिब्बे में बैठा हुआ प्रत्येक आदमी आगे गिर पडा। झटका सबसे अगले डिब्बे पर सबसे ज्यादा लगा होगा। गनीमत रही कि छत से कोई नहीं गिरा। यह नये इंजन और अन-अभ्यस्त ड्राइवर के कारण था। जल्द ही ड्राइवर इसकी ब्रेकिंग ताकत जान गये और फ़िर ठीक ब्रेक लगे। बडी देर तक गार्ड और ड्राइवरों ने वॉकी-टॉकी पर इस बात के मजे लिये।
कैलारस में प्रवेश से पहले कुआरी नदी है। यहां सडक और रेल का एक ही पुल है। जब ट्रेन आती है तो फाटक लगाकर पुल पर वाहनों की आवाजाही बन्द कर देते हैं। फिर भी बहुत से लोग इधर उधर से निकल जाते हैं। तो जब ट्रेन पुल के पास पहुंची तो वहां जाम लगा था। ट्रेन को भी रुकना पडा। कुछ देर तक ट्रेन जाम में खडी रही। फिर पुल पार किया। अच्छा नजारा था।
जोरा अलापुर से पहले भी ऐसा ही पुल था लेकिन यहां ट्रैफिक नहीं मिला। यह पुल लोहे का था और ऊपर पुल के एंगल छत के काफी नजदीक तक हैं। छत पर बैठने वालों को चौकस रहना होता होगा।
जोरा के बाद रेलवे लाइन और सडक अलग हो जाती हैं। सडक मुरैना चली जाती है और रेल ग्वालियर की ओर मुड जाती है। कमाल की बात यह है कि किसी को अगर ग्वालियर से जोरा या सबलगढ या श्योपुर सडक से जाना हो तो उसे पहले मुरैना जाना पडेगा, फिर जोरा, सबलगढ की ओर। यानी जोरा और ग्वालियर के बीच में जिस इलाके से ट्रेन गुजरती है, वहां सडक नेटवर्क नहीं है। यहां रेलवे लाइन कम दूरी तय करती है जबकि सडक अत्यधिक ज्यादा।
सुमावली में पता चला कि सबसे आगे वाले डिब्बे में ब्रेक लगे हुए हैं और पहिये ठीक से नहीं चल रहे। कोई हादसा न हो, इस डिब्बे को यहीं छोड दिया। बाद में ग्वालियर वर्कशॉप से इंजीनियर आयेंगे, ठीक करेंगे और जरुरत पडेगी तो ग्वालियर भी ले जायेंगे। गार्ड ने बताया कि ऐसा यहां होता रहता है। पुराना ट्रैक होने के कारण कभी कभी तो ट्रेन भी पटरी से उतर जाती है। लेकिन हट्टे-कट्टे वनवासी इस गाडी में यात्रा करते हैं, ये लोग ही इसे उठाकर पटरी पर रख देते हैं। कमाल का नजारा होता होगा। ट्रेन पटरी से उतर गई और यात्रियों ने ही इसे उठाकर पटरी पर रख दिया।
मिलावली में नेशनल हाईवे 3 मिल जाता है। हाईवे के उस तरफ़ बडी लाइन यानी दिल्ली-झांसी लाइन और इस तरफ़ नैरो गेज की लाइन है। मिलावली के बाद तो ग्वालियर शहर में प्रवेश कर ही जाते हैं। यहां कई फाटक हैं जहां गेटमैन तैनात हैं अन्यथा पूरे रास्ते भर एकाध फाटक के अलावा कोई फाटक नहीं है। जहां भी कहीं सडक रेलवे लाइन को काटती, ट्रेन सीटी बजाती हुई निकल जाती। एक जगह तो पता नहीं कहां नहर के पुल पर कुछ गायें खडी थीं। उनके बिल्कुल पास ट्रेन रुक गई। ड्राइवरों ने खूब सीटी बजाई लेकिन गायें नहीं हटीं। तब एक ड्राइवर नीचे उतरा और गायों को खदेडा, तब ट्रेन चली।
ग्वालियर शहर में भी एक अच्छा नजारा मिला। एक जगह चौराहा था या पांचराहा या छहराहा भी हो सकता है। बडा चौक था। बीचोंबीच से रेलवे लाइन है। इधर से उधर, उधर से इधर वाहन आ-जा रहे थे। धीरे धीरे चलते हुए ट्रेन ने इसे पार किया। कमाल की बात ये थी कि यहां फाटक था लेकिन एक ही सडक पर। बाकी सब तरफ़ वाहनों को आने-जाने की छूट थी। लेकिन उस समय अन्धेरा हो गया था, सस्ता छोटा कैमरा था, फोटो नहीं ले सका। कभी ग्वालियर जाऊंगा तो इस चौराहे पर खडा होकर ट्रेन का जाना अवश्य देखूंगा।
स्टेशन से कुछ दूर प्रशान्त जी का घर है। तीन-चार घण्टे उनके यहीं रहा। आधी रात को पातालकोट एक्सप्रेस से दिल्ली के लिये निकल गया।
मैं यहां एक ही मकसद लेकर आया था कि हर एक स्टेशन के बोर्ड के फोटो खींचूंगा। भीड के बारे में सोच-सोचकर मैं कई सालों से परेशान हुआ करता था। छत पर नहीं बैठना चाहता था लेकिन मानसिक रूप से इसके लिये भी तैयार था। लेकिन विमलेश जी और नरेन्द्र जी की कृपा से यात्रा बेहद सफल रही और सबसे यादगार रेलयात्राओं में से एक बन गई। इस लाइन के ब्रॉड गेज में बदले जाने के अभी कोई आसार नहीं हैं लेकिन बदला जाना बेहद जरूरी है। आखिर कब तक ये लोग 200 किलोमीटर की दूरी खिडकी में लटककर या छत पर बैठकर 10-12 घण्टों में तय करते रहेंगे?
नीरज भाई की छोटी ट्रेन की बड़ी और मजेदार यात्रा l
ReplyDeleteBabhut badiya maje aa gaye.
ReplyDeleteaaj bhi garib bachche train ka wait krte h ki driver uncle biskut lekar aayenge
Bahut hi khubsurat Neeraj Bhai . Ye bas yaadey hi rah jayengi aane waale time mey. Keep it up
ReplyDeleteइस ट्रेन में तो हमने भी यात्रा की हैं।मैनें गवालियर से शुरू की थी। खुब मजा अाया कती जी सा अागै था।
ReplyDeleteBhoot badiya maza aa Gaya . Bhoot acha varnan kiya esa laga mene yatra kar le. Neeraj tune to raiway m phd kar le railway ko bhoot gayan h tumhe. Sabas.😊👍
ReplyDeleteमजेदार पोस्ट और शानदार फोटो। पोस्ट पढ़ते हुये ऐसा लगा जैसे हम खुद यात्रा कर रहे हों। फोटो संख्या 13/14 जोखिम यात्रा वाले है । पोस्ट मे मेरा नाम चर्चा करने के लिए धन्यबाद । इस एतिहासिक ट्रेन से यात्रा करना आप के लिए भी एतिहासिक यात्रा साबित हुई।
ReplyDeleteग्वालियर में तो लगभग ख़त्म सी ही है ये ट्रेन ! रोड में मिलती हुई पटरियां तो देखि हैं ! नीरज , एक अविस्मरणीय यात्रा कही जायेगी ! इसके बनने की कहानी बहुत रोमांचक है ! हालाँकि ग्वालियर के महाराज को चांदी की ट्रेन भी मिली थी या बनवाई गयी थी , ऐसा कहा जाता है ! शानदार यात्रा
ReplyDeleteबहुत ही मज़ेदार और ज्ञानवर्धक रही यह पोस्ट.
ReplyDeleteविमलेश चंद्रा जी को भी बहुत बहुत धन्यवाद।
सचमुच बड़ी यादगार पोस्ट है यह . जौरा ,कैलारस ,सबलगढ़ ,सोन नदी का लोहे का पुल ..यह सब यहाँ देख पढ़कर रोम रोम पुलकित होगया . इसी क्षेत्र में मेरा जन्म हुआ बचपन बीता .यही नही सोलह साल स्कूल में सर्विस करते हुए भी बिताए हैं .सबलगढ़ से आगे सिर्फ एक बार जाना हुआ श्योपुर तक . यहाँ पढ़कर ह सब याद आगया . कूनों नदी के पुल में से ही साइफन विधि द्वारा चम्बल नहर निकाली गई है .
ReplyDeleteनीरज आपने पहाड़ों की खूबसूरत वादियों से अलग इस इस क्षेत्र को भी पर्यटन के लिये चुना है यह बात आपको सबसे अलग और विशिष्ट बनाती है . लैपटॉप खराब होने के कारण पिछले तीन माह से मैं आपकी इन महत्त्वपर्ण यात्राओं से अनभिज्ञ रही हूँ . हाँ क्या इस बार आपके साथ निशा नही है . उनका कोई जिक्र जो नही है .
पुनः एक मज़ेदार यात्रा संस्मरण नीरज भाई....
ReplyDeleteपर वो आगामी यात्रा कार्यक्रम का क्या हुआ...???
किस्मत के धनी इरादे के पक्के आदमी कुछ भी कर सकते हैं। लुप्त होती रेल की यादगार यात्रा ।
ReplyDeleteVery interesting travelogue. Reading the article was like travelling myself. Wish you could have added some more photos.
ReplyDeleteकैमरा छोटा होने के बावजूद फोटो अछी आयी है।पोस्ट रोचक लगी एक बिलकुल नए प्रकार का यात्रा संस्मरण का अहसास हुआ।ये जानकर काफी दुःख हुआ की हमारे देश में आज भी एक पैकेट बिस्किट के लिए बच्चे तरसते है।
ReplyDeleteJitna aanand aapki post ko padh ke aaya uuse kahin adhik aanand post mai lagai gai pictures ko dekh ke aaya. Bahut khoob
ReplyDeleteVERY GOOD NEERAJ JI
ReplyDeleteDEAR ALL PLS SEE MY NEW BLOG
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पढ़कर यात्रा को महसूस किया। सड़क पर ट्रैफिक के बीच रेल का चलना, लोगों का बैठना, रेल का जाम में फसना, एक ही पुल से रेल और वाहनों का निकलना बेहद दिलचस्प। जीवंत यात्रा वृतांत।
ReplyDeleteधन्यवाद नीरज जु।
तरुण मिश्रा, पत्रकार
कोरबा छत्तीसगढ़
94252 28711, 8770452744