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पुस्तक-चर्चा

कुछ पुस्तकें पढीं- इनमें पहली है- ‘वह भी कोई देस है महराज’। अनिल यादव की लिखी इस किताब को अन्तिका प्रकाशन, गाजियाबाद ने प्रकाशित किया है। पेपरबैक का मूल्य 150 रुपये है। आईएसबीएन नम्बर 978-93-81923-53-5 है।
‘वह भी कोई देस है महराज’ वास्तव मे शानदार यात्रा-वृत्तान्त है। लेखक ने पूर्वोत्तर के राज्यों की यात्राएं की थीं। पुस्तक की शुरूआत ही कुछ इस तरह होती है- ‘पुरानी दिल्ली के भयानक गन्दगी, बदबू और भीड से भरे प्लेटफार्म नम्बर नौ पर खडी मटमैली ब्रह्मपुत्र मेल को देखकर एकबारगी लगा कि यह ट्रेन एक जमाने से इसी तरह खडी है।’ बस, यात्रा असम पहुंचती है, फिर मेघालय, नागालैण्ड, अरुणाचल, मणिपुर और त्रिपुरा। मिजोरम छूट जाता है।
यात्रा आज से लगभग 15 साल पहले की गई थी। जाहिर है कि उस समय वहां का महौल आज के मुकाबले खराब ही रहा होगा। लेकिन यादव साहब ने पूरी किताब इस शैली में लिखी है कि कोई आज भी अगर वहां जाना चाहे तो किताब पढकर कतई नहीं जायेगा। साहब पेशे से पत्रकार हैं। पता नहीं पत्रकारों को किस चीज की ट्रेनिंग दी जाती है कि ये लोग दुनिया को नकारात्मक नजरिये से देखने लगते हैं। यही इस किताब में भी हुआ है। आतंकवाद पूरी किताब पर हावी है। इसके अलावा दूसरी गन्दगियां मारधाड, वेश्यावृत्ति आदि का वर्णन भी खूब है।
लेखक ने 2000 की पूरी सर्दियां उधर ही गुजारीं। पैसे हाथ में थे नहीं, तो गुजारा कैसे होता था, यह पढना भी मजेदार है। एक जगह लिखा है- ‘मेरी जमीन पर घिसटती चादर के कारण कुत्ते गुर्रा रहे थे।’ खूब रोचक शैली में पुस्तक लिखी गई है। आतंकवाद प्रभावित और हिन्दी विरोधी क्षेत्र में दिल्ली का एक पत्रकार इतने समय रुकता है, जाहिर है कि कुछ समस्याएं तो आई ही होंगी। फिर भी रोचकता के कारण पाठक बोर नहीं होते। इसके अलावा जो सबसे बडी खासियत लगी, वो हर राज्य का इतिहास। मिजोरम नहीं गये, इसके बावजूद भी मिजोरम का इतिहास लिखा है।
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दूसरी किताब पढी- ‘खरामा-खरामा’। पंकज बिष्ट इसके लेखक हैं। प्रकाशित किया है अन्तिका प्रकाशन ने। पेपरबैक मूल्य 150 रुपये है और आईएसबीएन नम्बर 978-93-81923-07-8 है।
बिष्ट साहब भी पत्रकार हैं लेकिन वामपंथी पत्रकार। ये वामपंथी बडे अजीब होते हैं। ये विरोधी होते हैं, हमेशा हर चीज का विरोध करते हैं। जैसे कि खराब सडकों का विरोध करेंगे तो सडक बनाने का भी विरोध करेंगे, उद्योगों का विरोध करेंगे तो बेरोजगारी का भी रोना रोयेंगे। गरीबी का विरोध करेंगे तो पूंजी का भी विरोध करेंगे। ये चाहते हैं कि हर आदमी टाटा-बिरला बन जाये लेकिन यह भी चाहते हैं कि टाटा-बिरला अपना पूंजी पैदा करने का काम छोडकर गरीबी में दिन बिताये। अजीब लोग होते हैं।
वैसे तो पंकज बिष्ट ने लिखा है कि ‘खरामा-खरामा’ एक यात्रा-वृत्तान्त है लेकिन ऐसा कतई नहीं है। यह यात्रा-वृत्तान्त बिल्कुल नहीं है। ये एक पत्रकार हैं इसलिये प्रत्येक लेख इसी नजरिये से लिखा गया है। ये जहां भी गये, रिपोर्टिंग के लिये गये। रिपोर्ट बनाई और नाम दे दिया कि यात्रा-वृत्तान्त है। सौराष्ट्र गये लेकिन सौराष्ट्र जैसा कुछ नहीं था, अण्डमान गये लेकिन अण्डमान जैसा कुछ नहीं। अण्डमान वृत्तान्त में इन्होंने जापानियों की बडी मां-बहन की। ठीक है कि जापानियों ने पचास के दशक में दो-तीन साल यहां कब्जा कर लिया, उत्पात मचाया था लेकिन इतनी मां-बहन थोडे ही करते हैं। बाद में ध्यान आया कि वामपंथी है इसलिये जापान विरोधी आदत जन्मजात ही है। वामपंथी लोग स्वदेश से इतना प्यार नहीं करते जितना चीन से करते हैं। चीन और जापान एक-दूसरे के कट्टर दुश्मन हैं इसलिये जापान वामपंथियों का भी दुश्मन अपने आप ही हो जाता है। आखिर के दो लेख पुस्तक समीक्षा हैं। संयोग से दोनों ही पुस्तकें तिब्बत के यात्रा-वृत्तान्त हैं और भारत-तिब्बत के सम्बन्धों पर हैं। लेकिन तिब्बत का जो आज हाल है चीन के कारण; पूरी दुनिया जानती है लेकिन ये शायद बिष्ट साहब नहीं जानते। इन समीक्षाओं में तिब्बत के इतिहास पर भी प्रकाश डाला है, इस पर भी कई पेज लिखे हैं कि तिब्बतियों ने अंग्रेजों को अपने यहां नहीं घुसने दिया लेकिन चीन की करतूतों पर चुप रह गये। भारत-तिब्बत सम्बन्ध जो हजारों साल से चले आ रहे थे, आज बिल्कुल बन्द हैं। क्यों बन्द हैं, इस पर इत्ता सा भी नहीं लिखा। सब जानते हैं कि यह सब चीन के कारण है लेकिन वामपंथी ऐसा क्यों लिखेगा?
अगर आप यात्रा-वृत्तान्त के कारण ‘खरामा-खरामा’ खरीदना चाहते हैं तो बिल्कुल मत खरीदिये लेकिन अगर आपकी रुचि वामपंथ में है तो अवश्य खरीदिये।
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एक पुस्तक और पढी- निदा नवाज़ की ‘सिसकियां लेता स्वर्ग’। इसे भी अन्तिका प्रकाशन ने ही प्रकाशित किया है, पेपरबैक मूल्य 140 रुपये है और आईएसबीएन नम्बर 978-93-85013-02-7 है।
निदा नवाज़ कश्मीरी हैं और कुछ-कुछ धर्मनिरपेक्ष टाइप के हैं। कवि भी हैं लेकिन उससे भी बडी बात कि निर्भीक हैं। पुस्तक अध्यायों में बंटी हुई है जिन्हें नवाज़ साहब की डायरी कहा जा सकता है। शुरू के पन्ने पढते हैं तो पाठक हिल जाते हैं। अस्सी के दशक के आखिर में कश्मीर में आतंकवाद आया और नब्बे के दशक में इसने कश्मीर में जमकर तांडव मचाया। यह किताब भी इसी दौर से शुरू होती है। पहला अध्याय मार्च 1991 का लिखा हुआ है जब वहां आफत चरम पर थी। इनका आतंकियों ने अपहरण किया, मारा-पीटा। फौजियों ने भी खूब गाली-गलौच और मारपीट की। ज्यादातर कश्मीरियों की तरह इन्हें शिकायत जहां आतंकियों से है वहीं फौजियों से भी है। ज्यादातर कश्मीरियों के मन में यही बात बैठी हुई है कि भारत और पाकिस्तान ने आपस में कश्मीर को बांट लिया है और अब वे इसी पर राजनीति कर रहे हैं। बात काफी हद तक ठीक भी लगती है।
नवाज़ साहब ने जहां मुल्लाओं और मस्जिदों को जमकर लताडा है, वहीं हिन्दुओं की भी लताड लगाई है। इनका कहना है कि हम कभी किसी वजह से मुसलमान बन गये। पहाडी आदमी हैं, हिमालयी कौम हैं, सीधे साधे... पड गये किसी चक्कर में और बन गये मुसलमान लेकिन रीति-रिवाज आसानी से नहीं छुटते। बाद में वापस हिन्दुत्व में जाना चाहा तो हिन्दुत्व के ठेकेदारों ने हमें अछूत बना दिया और अपनाने से मना कर दिया। अगर वे हमें अपना लेते, अछूत न मानते तो आज कश्मीर में यह सब न होता। उधर एक बात और बताई। इनकी धर्मनिरपेक्षता को देखते हुए मुल्लों ने इन्हें इस्लाम से बेदखल कर दिया था यानी ये मुसलमान नहीं रहे। इस्लाम से बेदखल मतलब समाज से भी बेदखल। लेकिन काम वहीं करते रहे, रहते वहीं रहे यानी पुलवामा में, कश्मीर में, अपने गांव में। बताते हैं कि मुल्लों ने खूब कहा कि माफी मांग लो, मस्जिद में नमाज पढ लो, पुनः मुसलमान बन जाओ। हालांकि ये पुनः मुसलमान नहीं बने लेकिन इससे एक बात साफ जाहिर होती है कि हिन्दुत्व से जो कोई बाहर हो जाता है, वो अछूत हो जाता है, दरवाजे बन्द हो जाते हैं और पुनः हिन्दुत्व में नहीं लौट सकता जबकि इस्लाम के दरवाजे खुले हैं। यह उन्होंने इसलिये नहीं कहा कि इस्लाम श्रेष्ठ है बल्कि बताया कि हिन्दुत्व की सबसे बडी कमी क्या है। सामने वाले को अछूत मानना हिन्दुत्व की सबसे बडी कमी है। हिन्दुत्व में एक बहुत बडा वर्ग अभी भी अछूत है और अगर वे तंग आकर धर्म परिवर्तन करते हैं तो वे और भी बडे अछूत हो जाते हैं। फिर हिन्दुत्व का कोई द्वार नहीं जो उनके लिये खुला हो।
एक बात फौज के बारे में भी कही। फौज की कश्मीर में बहुत अहमियत है लेकिन इसके साथ ही बडी गम्भीर बीमारी भी पनप चुकी है। और वो बीमारी है फर्जी मुठभेडों की। फौजियों को आतंकियों से मुकाबला करने पर, उन्हें मारने पर, पकडने पर, जासूसों को पकडने पर पुरस्कार और पदोन्नति मिलती है। इसलिये फर्जी मुठभेडें बहुत होती हैं। किसी को अपनी पदोन्नति करानी है तो कुछ निर्दोष कश्मीरी मार दिये जाते हैं और उनका प्रमोशन हो जाता है। कुछ निर्दोषों को कथित तौर पर जासूस बना दिया जाता है। बाद में जांच होती रहे, जांच करने वाली भी फौज ही है।
पुस्तक के शुरू के अध्याय तो इनके साथ घटित घटनाएं हैं लेकिन बाद के अध्यायों में इन्होंने डायरी न लिखकर लेख लिखे हैं। इसलिये आधी किताब पढने के बाद उतना आनन्द नहीं आता। फिर भी एक कश्मीरी के अपने अनुभव और संस्मरण मूल हिन्दी में पढना शायद पहली बार मिले हैं। पुस्तक अभी जनवरी 2015 में अन्तिका प्रकाशन से प्रकाशित हुई है। इसका स्वागत होना चाहिये।
‘सिसकियां लेता स्वर्ग’ को खरीदने के लिये यहां क्लिक करें।


एक और पुस्तक है- आओ करें हिमालय में ट्रेकिंग। इसे गिरीश चंद्र मैठाणी ने लिखा है और पुस्तक सत्साहित्य प्रकाशन, दिल्ली से प्रकाशित हुई है। इसका आईएसबीएन कोड 978-81-7721-152-8 है। मूल्य हार्ड कवर का 250 रुपये है।
इसमें लेखक की हिमालयी इलाकों में ट्रेकिंग के वृत्तान्त हैं- आदि कैलाश, ओम पर्वत, डोडीताल, फूलों की घाटी, हेमकुण्ड साहिब, कफनी, पिण्डारी, सुन्दरढूंगा ग्लेशियर, चम्बा से धर्मशाला ट्रेक, काकभुशुण्डि ताल, धर्मसुरा और सियाचिन ग्लेशियर। श्याम-श्वेत चित्र हैं और उस इलाके का मानचित्र भी दिया है। निश्चित ही मैठाणी साहब की ये यात्राएं साहसिक हैं। साहसिक यात्राओं का विवरण हिन्दी में कम ही मिलता है। इनकी एक और पुस्तक है- हिमालय की श्रंखलाओं में मेरे ट्रैकिंग अभियान। इसके बारे में मुझे ज्यादा जानकारी नहीं मिली है। जानकारी मिलेगी तो इसे भी खरीदूंगा।
‘आओ करें हिमालय में ट्रैकिंग’ को खरीदने के लिये यहां क्लिक करें।


बस, एक पुस्तक और- ‘नीले बर्फीले स्वप्नलोक में- कैलाश मानसरोवर यात्रा’। इसे शेखर पाठक ने लिखा है और नेशनल बुक ट्रस्ट ने प्रकाशित किया है। पेपरबैक का मूल्य 100 रुपये है। आईएसबीएन नम्बर 978-81-237-5415-4 है।
पहले तो मैंने सोचा कि यह पुस्तक भी अन्य कैलाश यात्राओं की ही तरह होगी। साल में हजारों भारतीय कैलाश जाते हैं। सभी अच्छे पढे-लिखे और साधन-सम्पन्न होते हैं। ज्यादातर लोग अपने अनुभवों को एकत्र करके पुस्तकाकार बना देते हैं। लेकिन यह ऐसी पुस्तक नहीं है। इसमें पाठक साहब ने हर स्थान के भूगोल और इतिहास की जानकारी देने का प्रयत्न किया है। यही चीज मुझे बहुत पसन्द है। हालांकि एक स्थान पर लिखा- “मुझे छह जगह जौंकों ने काटा था और एक अन्य साथी को आठ जगह। फिर भी मैं जौंकों की तुलना पूंजीपतियों या शोषकों से करने का मन नहीं बना पाया। जौंक एक बार पेट भर जाने पर हमें छोड देती थी।” यह बिल्कुल राहुल सांकृत्यायन का असर है। वही एक ऐसा इंसान था जो पूंजीपतियों को जौंक कहता था कि वे गरीबों का खून चूसते हैं। इन पंक्तियों को पढकर मुझे एकबारगी लगा कि पाठक साहब कम्यूनिस्ट हैं। लेकिन ऐसा नहीं था। एक यात्रा लेखक को राहुल की पुस्तकें जरूर पढनी होती हैं। राहुलजी घोर कम्यूनिस्ट थे, उनके लेखन में हर जगह कम्यूनिज्म ही छाया रहता है इसलिये अन्य लेखकों पर भी इस बात का कुछ कुछ असर पडता ही है चाहें वे कम्यूनिस्ट हों या न हों।




Comments

  1. इतनी किताबो की समीझा देख कर अच्छा लगा की आप केवल घुम्मा कर ही नही ,केवल अच्छे छाया कर ही नही ,केवल रोचक लेखक ही नही बल्कि एक गम्भीर पाठक भी है | ये सच है कि अच्छा लिखने के लिए अच्छा पाठक होना चाहिए |

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  2. Vah Neeraj bhai aap ghumkkar or lekhak or pathak bhi ho . Bahumukhi pratibha vale ho .
    Great NEERAJ BHAI

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  3. घुमक्डी से समीक्शा का सफर भी अच्छा लगा1 सुन्दर समीक्शा1

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  4. वाह , घुमक्कड़ी और फोटोग्राफी के आलावा अच्छे लेखक ही नहीं अच्छे पाठक और समीक्षक भी हो यह जानकर और भी अच्छा लगा .

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  5. अभी अभी "आओ करें हिमालय मैं ट्रेक्किग " को बुक किया है। पोस्ट बढ़िया है।
    हो सकता हैं कभी आपकी भी किताब पढ़ने का मौका मिलेगा।

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  6. बहुत अच्छी समीक्षा, धन्यवाद
    दो पुस्तकों को विशलिस्ट में शामिल ही कर लिया मैनें

    प्रणाम

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  7. नीरज जी आप अपनी यात्राओं सचित्र वर्णन बहुत अच्छा करते है। आपके ब्लाग पर आने वाले विज्ञापनों से आपको आय होती है क्या कृपया बताइयेगा

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  8. हमे तो आप के किताब का इंतजार है ....

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  9. बहुत अच्छी समीक्षा की आपने लेकिन यह नहीं बताया कि पाठकजी वाली पुस्तक कहां से मिल पायेगी।

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  10. Shaadi ka asar dikhna shuru ho gaya hai. hafton tak nai post nahin aa rahi.

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एक बार मैं गोरखपुर से लखनऊ जा रहा था। ट्रेन थी वैशाली एक्सप्रेस, जनरल डिब्बा। जाहिर है कि ज्यादातर यात्री बिहारी ही थे। उतनी भीड नहीं थी, जितनी अक्सर होती है। मैं ऊपर वाली बर्थ पर बैठ गया। नीचे कुछ यात्री बैठे थे जो दिल्ली जा रहे थे। ये लोग मजदूर थे और दिल्ली एयरपोर्ट के आसपास काम करते थे। इनके साथ कुछ ऐसे भी थे, जो दिल्ली जाकर मजदूर कम्पनी में नये नये भर्ती होने वाले थे। तभी एक ने पूछा कि दिल्ली में कितने रेलवे स्टेशन हैं। दूसरे ने कहा कि एक। तीसरा बोला कि नहीं, तीन हैं, नई दिल्ली, पुरानी दिल्ली और निजामुद्दीन। तभी चौथे की आवाज आई कि सराय रोहिल्ला भी तो है। यह बात करीब चार साढे चार साल पुरानी है, उस समय आनन्द विहार की पहचान नहीं थी। आनन्द विहार टर्मिनल तो बाद में बना। उनकी गिनती किसी तरह पांच तक पहुंच गई। इस गिनती को मैं आगे बढा सकता था लेकिन आदतन चुप रहा।

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