Skip to main content

यात्रा में आनन्द कैसे लें?

वैसे तो आपको यात्राएं करने में आनन्द आता है, अच्छा लगता है, मन-मस्तिष्क तरोताजा हो जाता है लेकिन क्या वास्तव में ऐसा होता है? याद कीजिये जब आप पिछली बार कहीं गये थे, तो क्या सोचकर गये थे और वहां जाकर क्या वो सब मिला? सोचिये एक बार। बडी सिरदर्दी का काम होता है। पहले तो घर पर इतनी योजनाएं बनाओ, इतना सबकुछ सोचो; फिर वहां जाकर भी सारा समय योजनाएं बनाने में चला जाता है। बस, यही काम रह जाता है हमें- योजनाएं बनाते रहो, प्लानिंग करते रहो। नौकरी में भले ही मैनेजर न बन पायें हों, लेकिन यहां हम हमेशा मैनेजर होते हैं।
वो आनन्द नहीं मिलता, जिसके लिये हम जाते हैं। हां, बाद में आकर यार-दोस्तों से तो बताना ही पडता है कि इत्ता सारा मजा आया। मैं यह सब किसी और से प्रभावित होकर नहीं लिख रहा हूं, बल्कि स्वयं का अनुभव है।
आज आपको बताऊंगा कि मैं यात्रा पर जाने से पहले क्या करता हूं ताकि यात्रा का रोमांच और आनन्द बना रहे। इसके सबसे पहली चीज है मौसम। इंसान सर्दी तो बर्दाश्त कर लेता है लेकिन गर्मी बर्दाश्त नहीं होती। किस मौसम में कैसी जगह पर जाना ठीक रहेगा, यह सब अनुभव से आता है। मुझे जब अनुभव नहीं था, मैं मई 2009 में भीमताल चला गया था। कतई मजा नहीं आया। वापस आकर मैंने यही सब सोचा कि मजा क्यों नहीं आया जबकि मुझे घूमना बहुत पसन्द है। निष्कर्ष यही निकला कि मई का महीना भीमताल के लिये सर्वोत्तम नहीं है। इसका कारण ये है कि भीमताल ज्यादा ऊंचाई पर नहीं है। मई में वहां अच्छी-खासी गर्मी पडती है, हरियाली न्यूनतम होती है।
दूसरी चीज है- और यह सबसे महत्वपूर्ण है- कि हम घूमने क्यों जाना चाहते हैं? ज्यादातर का उत्तर होगा- रोजमर्रा की जीवनशैली के उबाऊपन से बचने के लिये। जबकि वास्तव में ऐसा नहीं है। सोचना एक बार। हम रोजमर्रा की जीवनशैली से बचने के लिये नहीं जाते बल्कि चाहते हैं कि हमें बाहर भी वही वातावरण मिले जैसे वातावरण में हम रहते हैं। वही दिनचर्या हो, वही खाना हो, वही नेटवर्क हो, वही फेसबुक-व्हाट्सएप हो, वही सबकुछ हो। बहुत से लोग तो घूमते घूमते बिजनेस कर लेते हैं, स्टॉक मार्किट में खरीद-बेच कर लेते हैं। मैंने ऐसे लोग देखे हैं जो स्टॉक मार्केट डाउन होने की खबर सुनकर वही हसीन वादियों में बर्फीली चोटियों के साये में माथा पकडकर बैठ जाते हैं।
मजा तो तब आता है जब लोग पूछते हैं कि हमारे पास चार दिन हैं, पांच दिन हैं; कहां जायें? यह बडा ही विचित्र प्रश्न है। मान लो मेरी इच्छा हिमालय देखने की है और मैं मित्रों से पूछ लूं कि मुझे कहां जाना चाहिये तो जिसने गोवा देख रखा होगा, वो गोवा जाने की सलाह देगा और जिसने केरल देख रखा होगा, वो केरल की सलाह देगा। मैं क्या चाहता हूं, उस बारे में न मैं सोचूंगा और न ही मित्र। इस तरह की गई गोवा या केरल यात्रा अच्छी तो हो सकती है लेकिन चूंकि मेरा मन कुछ और था, इसलिये कुछ अधूरापन भी रह जायेगा।
कुछ लोग सुकून और चैन के लिये बाहर जाना चाहते हैं। यकीन मानिये और एक बार स्वयं भी देखिये कि बाहर आपको सुकून और चैन कभी नहीं मिलेगा जो सुकून और चैन अपने घर में मिलता है। दो दिन की छुट्टी लीजिये और अपने घर बैठिये और फिर देखिये सुकून और चैन। दूसरी बात, अगर आपको घर में सुकून नहीं मिलता तो काफी सम्भावना है कि बाहर भी आपको सुकून नहीं मिलेगा। कभी आप सहयात्रियों के व्यवहार पर चिडचिडे हो जायेंगे तो कभी किसी रिक्शेवाले पर बीस की बजाय पन्द्रह रुपये में न ले जाने पर क्रोधित हो जायेंगे तो कभी ड्राइविंग करते समय सामने वाली गाडी के साइड न देने पर अपना माथा पकड लेंगे। अगर ऐसा होता है तो आप सुकून के लिये घूमने नहीं जा रहे हैं बल्कि अपना सिरदर्द ही बढाने जा रहे हैं।
जो शुरूआती पर्यटक होते हैं, वे सोचते हैं कि कम से कम समय में ज्यादा से ज्यादा स्थान देखते चलो। भागमभाग। यह जगह तो देख ली, अब निकलो यहां से। यहां कुछ खास नहीं है, यहां कुछ भी नहीं है। ये चार पत्थर लगाकर ड्रामा खडा कर रखा है। ये बातें भागमभाग वाले पर्यटकों के मुंह से खूब सुनी जाती है। मैं अभी खजियार के बारे में कुछ लोगों की राय पढ रहा था तो एक ने कहा कि खजियार में कुछ भी नहीं है। एक खाली मैदान है, बाकी कुछ भी नहीं। वे जब खजियार गये होंगे तो उन्होंने दस मिनट में ही पूरा खजियार देख डाला होगा। जिन्दगी भर मित्रों से भी कहेंगे कि खजियार देख रखा है। उधर कईयों ने कई कई दिन उस खाली मैदान में काट दिये और फिर भी कहा कि अभी खजियार पूरा नहीं देखा।
अपनी अपनी पसन्द होती है। आपको अपनी पसन्द विकसित करनी होगी, अन्यथा आप भागमभाग में लगे रहोगे और अपने देखे स्थानों की गिनती बढाते चले जाओगे। आनन्द आपको कहीं नहीं मिलेगा। अपनी बताऊं तो मेरी पसन्द होती है उस स्थान का भूगोल। मैं उस प्राचीन काल में चला जाता हूं जब वो जगह बनी होगी। कभी कभी उस स्थान का इतिहास भी मुझे रोचक लगता है। जैसे कि उन्नीसवीं शताब्दी के आरम्भ में पूरा उत्तराखण्ड और ज्यादातर हिमाचल गोरखों के हाथ में था अर्थात यह सब नेपाल के हिस्से थे। अंग्रेजों ने पहाडों में युद्ध लडा लेकिन गोरखों से नहीं जीत पाये। सन्धि कर ली। सन्धि में तय हुआ कि काली नदी के एक तरफ अंग्रेज राज होगा और दूसरी तरफ गोरखा राज अर्थात एक तरफ भारत होगा और दूसरी तरफ नेपाल। अंग्रेज चार दिन और लडते तो क्या पता काली की बजाय यह सीमा करनाली बनाती। पन्द्रह दिन और लडते तो नेपाल भारत का एक राज्य होता।
आपको अपनी पसन्द विकसित करनी होगी। फिर देखना यात्रा में क्या आनन्द आता है! कहीं भी जाने से पहले एक बार तय कीजिये कि आप क्यों जाना चाहते हैं? अगर सुकून के लिये जाना चाहते हैं तो सर्वोत्तम सुकून घर में मिलता है। घर में नहीं मिलता तो बाहर भी नहीं मिलेगा। याद रखें।
अपने उदाहरण से इसे और स्पष्ट करूंगा। कोशिश करूंगा कि यात्राओं पर जाने से पहले मैं क्या करता हूं, कैसी तैयारियां करता हूं; यह सब बताने की।
अभी हम एक हनीमून ट्रिप की योजना बना रहे हैं। मैंने अपने जीवनसाथी से ही पूछा कि बोल, कहां जाना चाहती है? उसने तुरन्त कहा- केरल। मैंने एकदम मना कर दिया। मार्च में हमें जाना है, केरल के लिये मार्च सर्वोत्तम नहीं है। कम से कम हिमालय के नजदीक रहने वालों के लिये तो कतई नहीं। मानसून में जायेंगे केरल, अभी दो ही विकल्प हैं- हिमाचल और उत्तराखण्ड। उसने कहा हिमाचल। मैंने कहा बारह जिले हैं हिमाचल में। कहां जाना चाहती है? बोली कि जिलों के नाम बता। मैंने बताने शुरू कर दिये- चम्बा, कांगडा, कुल्लू, मण्डी, ऊना, हमीरपुर, बिलासपुर, सोलन, सिरमौर,...। बीच में ही बोल पडी- सिरमौर। क्यों? क्योंकि यह नाम मुझे मजेदार लगा- सिरमौर। मैंने कहा- मजेदार के चक्कर में मत पड। सिरमौर मुख्यतः शिवालिक की पहाडियों में बसा है। चूडधार की तरफ का कुछ हिस्सा जरूर ऊंचा है। इसलिये पहले सभी नाम सुन; और सिरमौर, ऊना, हमीरपुर, बिलासपुर छोडकर बोलना- ... शिमला, किन्नौर, लाहौल-स्पीति। जवाब आया- किन्नौर।
मेरा मकसद उसे हिमाचल से परिचित कराना था। जिसने हिमाचल नहीं देखा, वे सोचते हैं कि हिमाचल में प्रवेश करते ही ऊंची ऊंची बर्फीली चोटियों के दर्शन होंगे, बर्फ में खेलेंगे जबकि ऐसा नहीं है। बडी दूर जाना पडता है, तब जाकर बर्फीले स्थान मिलते हैं। फिर बाद में मैंने किन्नौर भी रद्द कर दिया। जून में मोटरसाइकिल से किन्नौर और स्पीति जाना ही है, तब आराम से किन्नौर देखेंगे। तय हुआ कि डलहौजी-खजियार चलते हैं। मैं भी कभी यहां नहीं गया था।
अब बारी आती है कि इस यात्रा को और ज्यादा मजेदार कैसे बनाया जाये? श्रीमतिजी मुझसे भी ज्यादा तंदुरुस्त है, उसने पहले ही कह दिया कि छोटी मोटी ट्रैकिंग भी करनी है। गूगल पर ढूंढते ढूंढते पता चला कि एक पैदल यात्रा तो कालाटॉप की होगी और एक पैदल यात्रा डैणकुण्ड की। और जैसे ही डैणकुण्ड को गूगल मैप के टैरेन मोड में देखा तो खुशी से चिल्ला उठा। डैणकुण्ड ऐसी जगह है जहां से धौलाधार पर्वतमाला आरम्भ होती है। यहां से दक्षिण-पूर्व में एक रिज चली जाती है जो और आगे जाकर ऊंची होती जाती है और 4000 मीटर तक की ऊंचाई धारण कर लेती है। डैणकुण्ड से अगर इस रिज पर चलते रहें तो करीब छह किलोमीटर बाद एक सडक है। यह स्थान चम्बा जोत है जिसे अक्सर ‘जोत’ या ‘चुवाडी जोत’ भी कह दिया जाता है। जोत अर्थात दर्रा। जोत के बाद यह रिज दक्षिण-पूर्व से पूर्व दिशा में मुड जाती है और धौलाधार का विधिवत आरम्भ हो जाता है। इसके बाद कोई भी सडक धौलाधार पर्वतमाला को नहीं काटती। इसमें केवल दर्रे हैं और बर्फ है, जिन्हें सिर्फ पैदल ही लांघा जा सकता है। आप भी देखिये।



फिर डैणकुण्ड से जोत तक के भूभाग को सैटेलाइट मोड में देखा। दोनों मियां-बीवी खुश हो गये। कारण था कि छह किलोमीटर की यह पूरी रिज घास का मैदान है। डैणकुण्ड से पैदल चलकर आसानी से जोत तक पहुंचा जा सकता है। धौलाधार की चार-हजारी, पांच-हजारी ऊंचाईयों तक तो पता नहीं कब जाना हो, लेकिन यहां इसके जन्मस्थान पर कुछ दूर पैदल चल लिये तो आनन्द आ जायेगा। जोत वाली सडक चम्बा जाती है जो चम्बा को कांगडा घाटी से जोडती है। बसें मिल जायेंगीं। हालांकि इस मौसम में बर्फ बहुत मिलेगी जो परेशानी पैदा करेगी।
खोजबीन करते रहे तो पता चला कि डलहौजी के पास पंचपुला नामक स्थान है जहां से थोडी सी पैदल यात्रा करके गंजी पहाडी पर पहुंचा जा सकता है। गंजी पहाडी मुझे गूगल मैप में नहीं मिली। लेकिन चूंकि पंचपुला से गंजी पहाडी तक चढाई है और यह पहाडी गंजी इसलिये कही जाती है कि इसकी चोटी पर कोई पेड नहीं है। अब फिर से सैटेलाइट मोड काम आया। पंचपुला से कुछ ऊपर एक ऐसा स्थान दिख गया। और ज्यादा विस्तार से देखा तो पाया कि गंजी पहाडी और डैणकुण्ड एक ही रिज पर स्थित हैं और ज्यादा दूर भी नहीं हैं। जब तक गंजी पहाडी से नीचे पंचपुला उतरेंगे, तब तक ऊपर ही ऊपर डैणकुण्ड पहुंचा जा सकता है। डैणकुण्ड से या तो लक्कडमण्डी उतर जाओ, या एक दूसरी रिज पर चलकर सीधे खजियार पहुंच जाओ या फिर धौलाधार वाली रिज पर चलते चलते जोत पहुंचकर बस पकड लो। कई विकल्प मिल गये।

पूरा बडा देखने के लिये फोटो पर क्लिक करें।


यह तो मैंने बताई अपनी बात। आप किसी भी यात्रा को अपने अनुरूप बना सकते हैं। किसी को ट्रैकिंग पसन्द नहीं है, रिलैक्स होना पसन्द है तो उन्हें रिलैक्स होना पडेगा। किसी को मेले आदि में ज्यादा दिलचस्पी होती है तो उनका ध्यान रखना पडेगा। और भी बहुत सी बातें हैं। बस, अपनी पसन्द का चुनाव कीजिये और निकल पडिये।




Comments

  1. आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा आज मंगलवार को '
    दिन को रोज़ा रहत है ,रात हनत है गाय ; चर्चा मंच 1920
    पर भी है ।

    ReplyDelete
  2. मुझे तो पहाड़ों पर जाकर बहुत सुकून मिलता है। न बच्चों की किच कीच न बीवी की झिक झिक न ऑफिस की टेंशन (मेरा एक दोस्त है में सिर्फ और सिर्फ उसी के साथ जाता हूँ। में कभी भी परिवार के साथ घूमने नहीं गया) इसलिए में आपकी इस बात से बिलकुल भी सहमत नहीं हूँ की सुकून केवल घर पर मिलता है।

    ReplyDelete
    Replies
    1. सर जी, मैंने यह नहीं कहा कि सुकून केवल घर पर मिलता है। बल्कि लिखा है कि अगर आपको घर पर सुकून नहीं मिलता तो बाहर भी नहीं मिलेगा। घर पर सुकून है तो बाहर भी सुकून है।
      वैसे कौन सा मैंने ब्रह्मवाक्य लिख दिया कि हमेशा ठीक ही होगा। हो सकता है गलत लिख दिया हो। पोस्ट का मकसद है कि यात्रा को कैसे और ज्यादा मजेदार और आनन्ददायक बनाया जाये।

      Delete
  3. yatra ki jaankari ke liye dhanewaad bhai

    ReplyDelete
    Replies
    1. आपका भी धन्यवाद गुप्ता जी...

      Delete
  4. भाभी के साथ जा रहे हो भाई थोडा सुरक्षा के लिए भी अलर्ट रहना

    ReplyDelete
    Replies
    1. वो तो जी पहले भी रहते थे। आपका बहुत बहुत धन्यवाद।

      Delete
  5. लेख अच्छा लगा......आपको आपकी अगली यात्रा के लिए शुभकामनाएं

    ReplyDelete
  6. एक दम सटीक बाते बताई है । मेरे जानकारी के अनुसार अभी आप की नीलगिरी माउंटेन रेल्वे और दार्जिलिंग माउंटेन रेल्वे की यात्रा बाकी है। फिलहाल नए यात्रा के लिए शुभ कामनाए।

    ReplyDelete
    Replies
    1. हां जी, उनकी भी यात्रा बाकी है। करूंगा जल्द ही।

      Delete
  7. अंग्रेजों ने पहाडों में युद्ध लडा लेकिन गोरखों से नहीं जीत पाये। सन्धि कर ली। सन्धि में तय हुआ कि काली नदी के एक तरफ अंग्रेज राज होगा और दूसरी तरफ गोरखा राज अर्थात एक तरफ भारत होगा और दूसरी तरफ नेपाल। अंग्रेज चार दिन और लडते तो क्या पता काली की बजाय यह सीमा करनाली बनाती। पन्द्रह दिन और लडते तो नेपाल भारत का एक राज्य होता।
    ************************************************************************************************************************************
    इस एतिहासिक तथ्य को सुन कर अच्छा लगा ... नीरज तुम कहते हो ना ... मै मेरे student को तुम्हारे ब्लॉग मै क्या दिखाता हु ... तो इस एतिहासिक तथ्य को दिखाना मेरा दायित्व बनता है ... और तुम तो युवा पिढी के मार्गदर्शक हो ... इस बात पर कोई दोह् राई नही है ... बहुत खुब !!...

    ReplyDelete
  8. अच्छा भाई यह बताओ की भाभी जी पहले भी कही ट्रैकिंग पर गई है ना,या नीरज जाट के चक्कर में आ गई.भाई ध्यान रखियो म्हारी भाभी का...

    ReplyDelete
    Replies
    1. नहीं जी, वे कभी ट्रैकिंग पर नहीं गई हैं। इसकी उन्हें ट्रेनिंग देनी पडेगी।

      Delete
  9. बहुत बढ़िया और रोचक जानकारी दी है तुमने नीरज, अच्छा ये बताओ अप्रैल की सुरुआत में त्रिउंड जाना कैसा रहेगा? क्या वहां स्लीपिंग बैग और टेंट किराये पे मिल जायेगा? त्रिउंद और मक्लोंद्गंज से सम्बंधित और कोई विशेष बात हो तो किर्पया हमें बताएं.

    ReplyDelete
    Replies
    1. सुरेन्द्र भाई, अप्रैल के शुरू में त्रिउण्ड में बहुत बर्फ मिलेगी। पता नहीं, जाना सम्भव होगा भी या नहीं। खैर, स्लीपिंग बैग और टैंट मुझ से ले लेना किराये पर। किराया भी बताऊं क्या?

      Delete
    2. हम 4 से 5 लोग है। मुझे नही लगता की आप के एक टेंट में सब लोग आ जायेंगे :D और अगर ले भी लिया तो फिर दिल्ली से ढोना पड़ेगा। इसलिए मैक्लोडगंज से ही रेंट पे लेंगे अगर मिल जाये तो।

      Delete
  10. hanimun ytra ke liye shubhkamnaye/ yatra maglmay ho/ jeevan shukhmay ho / june2015 me himanchal ki yatra ki bat he ydi ho sake to hame bhi sath le lena hmara mobil no.09455062286

    ReplyDelete
  11. hanimun ytra ke liye shubhkamnaye/ yatra maglmay ho/ jeevan shukhmay ho / june2015 me himanchal ki yatra ki bat he ydi ho sake to hame bhi sath le lena hmara mobil no.09455062286

    ReplyDelete
  12. नीरज जी,

    उम्दा जानकारी युक्त लेख। मधुचन्द्रिका मंगलमय हो, अग्रिम शुभकामनाएं। आपकी पारिवारिक/''सपत्नीक'' यात्रा के वर्णन पढ़ने का बेसब्री से इंतज़ार है। मैं तो सोच रहा था की विवाह के बाद ब्लॉग की गति मंद पड जाएगी लेकिन ये तो दुगुनी रफ़्तार से दौड़ रहा है। शादी के बाद भी आप ब्लॉग को अच्छा समय दे रहे हैं, बहुत खुशी की बात है हम पाठकों के लिए, लेकिन नवागंतुका की खुशियों का भी खयाल रखिएगा, उनके हक का समय उन्हे भी दीजिएगा। दोनों को शुभाशीष।

    धन्यवाद।

    ReplyDelete
  13. Neeraj ji, bahut achi lekh, chalo ab dono cuple sath sath enjoy kerenge, bahut maja aye ga, am waiting for dairy,,, Riyadh

    ReplyDelete
  14. Aapne bata ki aap kisi jagah ke bhoogol ke baaren mein interested rhte hai
    Kisi jagah ke bhoogol ke barein mein aap kaise pata krye hai

    ReplyDelete
  15. Neeraj ji dhanyawad, apne yatra k bare me bahut hi satik baten batai hain...kya bata sakte hai ki may me kis kis jagah par barf dekhne mil skta hai..mai mata vaishno devi ki yatra par jane wala hu.. is se samip koi place bataiye yadi apko jankari ho to .....sa aabhar...Nagesh

    ReplyDelete
  16. मुझे जब दिल्ली की भागदौड़ में काम करते करते बोरियत महसूस होती है। तो घर से निकल जाता हूँ। और सच में नीरज भाई 3 दिन में ही तरोताज़ा होकर वापिस काम पर लग जाता हूँ। दुगने जोश और उत्साह के साथ।

    ReplyDelete

Post a Comment

Popular posts from this blog

46 रेलवे स्टेशन हैं दिल्ली में

एक बार मैं गोरखपुर से लखनऊ जा रहा था। ट्रेन थी वैशाली एक्सप्रेस, जनरल डिब्बा। जाहिर है कि ज्यादातर यात्री बिहारी ही थे। उतनी भीड नहीं थी, जितनी अक्सर होती है। मैं ऊपर वाली बर्थ पर बैठ गया। नीचे कुछ यात्री बैठे थे जो दिल्ली जा रहे थे। ये लोग मजदूर थे और दिल्ली एयरपोर्ट के आसपास काम करते थे। इनके साथ कुछ ऐसे भी थे, जो दिल्ली जाकर मजदूर कम्पनी में नये नये भर्ती होने वाले थे। तभी एक ने पूछा कि दिल्ली में कितने रेलवे स्टेशन हैं। दूसरे ने कहा कि एक। तीसरा बोला कि नहीं, तीन हैं, नई दिल्ली, पुरानी दिल्ली और निजामुद्दीन। तभी चौथे की आवाज आई कि सराय रोहिल्ला भी तो है। यह बात करीब चार साढे चार साल पुरानी है, उस समय आनन्द विहार की पहचान नहीं थी। आनन्द विहार टर्मिनल तो बाद में बना। उनकी गिनती किसी तरह पांच तक पहुंच गई। इस गिनती को मैं आगे बढा सकता था लेकिन आदतन चुप रहा।

जिम कार्बेट की हिंदी किताबें

इन पुस्तकों का परिचय यह है कि इन्हें जिम कार्बेट ने लिखा है। और जिम कार्बेट का परिचय देने की अक्ल मुझमें नहीं। उनकी तारीफ करने में मैं असमर्थ हूँ क्योंकि मुझे लगता है कि उनकी तारीफ करने में कहीं कोई भूल-चूक न हो जाए। जो भी शब्द उनके लिये प्रयुक्त करूंगा, वे अपर्याप्त होंगे। बस, यह समझ लीजिए कि लिखते समय वे आपके सामने अपना कलेजा निकालकर रख देते हैं। आप उनका लेखन नहीं, सीधे हृदय पढ़ते हैं। लेखन में तो भूल-चूक हो जाती है, हृदय में कोई भूल-चूक नहीं हो सकती। आप उनकी किताबें पढ़िए। कोई भी किताब। वे बचपन से ही जंगलों में रहे हैं। आदमी से ज्यादा जानवरों को जानते थे। उनकी भाषा-बोली समझते थे। कोई जानवर या पक्षी बोल रहा है तो क्या कह रहा है, चल रहा है तो क्या कह रहा है; वे सब समझते थे। वे नरभक्षी तेंदुए से आतंकित जंगल में खुले में एक पेड़ के नीचे सो जाते थे, क्योंकि उन्हें पता था कि इस पेड़ पर लंगूर हैं और जब तक लंगूर चुप रहेंगे, इसका अर्थ होगा कि तेंदुआ आसपास कहीं नहीं है। कभी वे जंगल में भैंसों के एक खुले बाड़े में भैंसों के बीच में ही सो जाते, कि अगर नरभक्षी आएगा तो भैंसे अपने-आप जगा देंगी।

ट्रेन में बाइक कैसे बुक करें?

अक्सर हमें ट्रेनों में बाइक की बुकिंग करने की आवश्यकता पड़ती है। इस बार मुझे भी पड़ी तो कुछ जानकारियाँ इंटरनेट के माध्यम से जुटायीं। पता चला कि टंकी एकदम खाली होनी चाहिये और बाइक पैक होनी चाहिये - अंग्रेजी में ‘गनी बैग’ कहते हैं और हिंदी में टाट। तो तमाम तरह की परेशानियों के बाद आज आख़िरकार मैं भी अपनी बाइक ट्रेन में बुक करने में सफल रहा। अपना अनुभव और जानकारी आपको भी शेयर कर रहा हूँ। हमारे सामने मुख्य परेशानी यही होती है कि हमें चीजों की जानकारी नहीं होती। ट्रेनों में दो तरह से बाइक बुक की जा सकती है: लगेज के तौर पर और पार्सल के तौर पर। पहले बात करते हैं लगेज के तौर पर बाइक बुक करने का क्या प्रोसीजर है। इसमें आपके पास ट्रेन का आरक्षित टिकट होना चाहिये। यदि आपने रेलवे काउंटर से टिकट लिया है, तब तो वेटिंग टिकट भी चल जायेगा। और अगर आपके पास ऑनलाइन टिकट है, तब या तो कन्फर्म टिकट होना चाहिये या आर.ए.सी.। यानी जब आप स्वयं यात्रा कर रहे हों, और बाइक भी उसी ट्रेन में ले जाना चाहते हों, तो आरक्षित टिकट तो होना ही चाहिये। इसके अलावा बाइक की आर.सी. व आपका कोई पहचान-पत्र भी ज़रूरी है। मतलब