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Showing posts from October, 2014

गोमो से हावडा लोकल ट्रेन यात्रा

इस यात्रा वृत्तान्त को आरम्भ से पढने के लिये यहां क्लिक करें । यह गोमो से आसनसोल जाने वाली एक मेमू ट्रेन थी जो आसनसोल में पांच मिनट रुककर बर्द्धमान के लिये चल देती है। बर्द्धमान से हावडा जाने के लिये थोडी-थोडी देर में लोकल ट्रेनें हैं जो कॉर्ड व मेन दोनों लाइनों से जाती रहती हैं। मैंने गोमो से ही सीधे हावडा का पैसेंजर का टिकट ले लिया। पूरे 300 किलोमीटर है। सुबह सवा सात बजे ट्रेन चल पडी। गोमो से निकलकर रामकुण्डा हाल्ट था जहां यह ट्रेन नहीं रुकती। शायद कोई भी ट्रेन नहीं रुकती। पहले रुकती होगी कभी। इसके बाद मतारी, नीचीतपुर हाल्ट, तेतुलमारी, भूली हाल्ट और फिर धनबाद आता है। आठ बजकर दस मिनट पर धनबाद पहुंच गये। गोमो से यहां तक ट्रेन बिल्कुल खचाखच भरी थी। सुबह का समय और धनबाद जैसी जगह; भला ट्रेन क्यों न भरे? धनबाद में खाली हो गई और फिर नये सिरे से भर गई हालांकि इस बार उतनी भीड नहीं थी।

मुगलसराय से गोमो पैसेंजर ट्रेन यात्रा

दिल्ली से मुगलसराय 1 सितम्बर 2014, सोमवार सितम्बर की पहली तारीख को मेरी नंदन कानन एक्सप्रेस छूट गई। सुबह साढे छह बजे नई दिल्ली से ट्रेन थी और मुझे ऑफिस में ही सवा छह बज गये थे। फिर नई दिल्ली जाने की कोशिश भी नहीं की और सीधा कमरे पर आ गया। इस बार मुझे मुगलसराय से हावडा को अपने पैसेंजर ट्रेन के नक्शे में जोडना था। ऐसा करने से दिल्ली और हावडा भी जुड जाते। दिल्ली-मुम्बई पहले ही जुडे हुए हैं। पहले भी हावडा की तरफ जाने की कोशिश की थी लेकिन पीछे हटना पडता था। इसका कारण था कि भारत के इस हिस्से में ट्रेनें बहुत लेट हो जाती हैं। चूंकि स्टेशनों के फोटो भी खींचने पडते थे, इसलिये सफर दिन में ही कर सकता था। इस तरह मुगलसराय से पहले दिन चलकर गोमो तक जा सकता था और दूसरे दिन हावडा तक। हावडा से वापस दिल्ली आने के लिये वैसे तो बहुत ट्रेनें हैं लेकिन शाम को ऐसी कोई ट्रेन नहीं थी जिससे मैं अगले दिन दोपहर दो बजे से पहले दिल्ली आ सकूं। थी भी तो कोई भरोसे की नहीं थी सिवाय राजधानी के। राजधानी ट्रेनें बहुत महंगी होती हैं, इसलिये मैं इन्हें ज्यादा पसन्द नहीं करता।

मलाणा- नशेडियों का गांव

इस यात्रा वृत्तान्त को आरम्भ से पढने के लिये यहां क्लिक करें । मलाणा समुद्र तल से 2685 मीटर की ऊंचाई पर बसा एक काफी बडा गांव है। यहां आने से पहले मैं इसकी बडी इज्जत करता था लेकिन अब मेरे विचार पूरी तरह बदल गये हैं। मलाणा के बारे में प्रसिद्ध है कि यहां प्राचीन काल से ही प्रजातन्त्र चलता आ रहा है। कहते हैं कि जब सिकन्दर भारत से वापस जाने लगा तो उसके सैनिक लम्बे समय से युद्ध करते-करते थक चुके थे। सिकन्दर के मरने पर या मरने से पहले कुछ सैनिक इधर आ गये और यहीं बस गये। इनकी भाषा भी आसपास के अन्य गांवों से बिल्कुल अलग है। एक और कथा है कि जमलू ऋषि ने इस गांव की स्थापना की और रहन-सहन के नियम-कायदे बनाये। प्रजातन्त्र भी इन्हीं के द्वारा बनाया गया है। आप गूगल पर Malana या मलाणा या मलाना ढूंढो, आपको जितने भी लेख मिलेंगे, इस गांव की तारीफ करते हुए ही मिलेंगे। लेकिन मैं यहां की तारीफ कतई नहीं करूंगा। इसमें हिमालयी तहजीब बिल्कुल भी नहीं है। कश्मीर जो सुलग रहा है, वहां आप कश्मीरी आतंकवादियों से मिलोगे तो भी आपको मेहमान नवाजी देखने को मिलेगी लेकिन हिमाचल के कुल्लू जिले के इस दुर्गम गांव में मेहमान नवा

चन्द्रखनी दर्रा- बेपनाह खूबसूरती

इस यात्रा वृत्तान्त को आरम्भ से पढने के लिये यहां क्लिक करें । अगले दिन यानी 19 जून को सुबह आठ बजे चल पडे। आज जहां हम रुके थे, यहां हमें कल ही आ जाना था और आज दर्रा पार करके मलाणा गांव में रुकना था लेकिन हम पूरे एक दिन की देरी से चल रहे थे। इसका मतलब था कि आज शाम तक हमें दर्रा पार करके मलाणा होते हुए जरी पहुंच जाना है। जरी से कुल्लू की बस मिलेगी और कुल्लू से दिल्ली की। अब चढाई ज्यादा नहीं थी। दर्रा सामने दिख रहा था। वे दम्पत्ति भी हमारे साथ ही चल रहे थे। कुछ आगे जाने पर थोडी बर्फ भी मिली। अक्सर जून के दिनों में 3600 मीटर की किसी भी ऊंचाई पर बर्फ नहीं होती। चन्द्रखनी दर्रा 3640 मीटर की ऊंचाई पर है जहां हम दस बजे पहुंचे। मलाणा घाटी की तरफ देखा तो अत्यधिक ढलान ने होश उडा दिये। चन्द्रखनी दर्रा बेहद खूबसूरत दर्रा है। यह एक काफी लम्बा और अपेक्षाकृत कम चौडा मैदान है। जून में जब बर्फ पिघल जाती है तो फूल खिलने लगते हैं। जमीन पर ये रंग-बिरंगे फूल और चारों ओर बर्फीली चोटियां... सोचिये कैसा लगता होगा? और हां, आज मौसम बिल्कुल साफ था। जितनी दूर तक निगाह जा सकती थी, जा रही थी। धूप में हाथ फैलाकर घास

चन्द्रखनी दर्रे के और नजदीक

इस यात्रा वृत्तान्त को आरम्भ से पढने के लिये यहां क्लिक करें । अगले दिन यानी 18 जून को सात बजे आंख खुली। रात बारिश हुई थी। मेरे टैंट में सुरेन्द्र भी सोया हुआ था। बोला कि बारिश हो रही है, टैंट में पानी तो नहीं घुसेगा। मैंने समझाया कि बेफिक्र रहो, पानी बिल्कुल नहीं घुसेगा। सुबह बारिश तो नहीं थी लेकिन मौसम खराब था। कल के कुछ परांठे रखे थे लेकिन उन्हें बाद के लिये रखे रखा और अब बिस्कुट खाकर पानी पी लिया। सुनने में तो आ रहा था कि दर्रे के पास खाने की एक दुकान है लेकिन हम इस बात पर यकीन नहीं कर सकते थे। मैंने पहले भी बताया था कि इस मैदान से कुछ ऊपर गुज्जरों का डेरा था। घने पेडों के बीच होने के कारण वह न तो कल दिख रहा था और न ही आज। हां, आवाजें खूब आ रही थीं। अभी तक हमारा सामना गद्दियों से नहीं हुआ था लेकिन उम्मीद थी कि गद्दी जरूर मिलेंगे। आखिर हिमाचल की पहचान खासकर कांगडा, चम्बा व कुल्लू की पहचान गद्दी ही तो हैं। गुज्जर व गद्दी में फर्क यह है कि गुज्जर गाय-भैंस पालते हैं जबकि गद्दी भेड-बकरियां। गुज्जर ज्यादातर मुसलमान होते हैं और गद्दी हिन्दू। ये गुज्जर पश्चिमी उत्तर प्रदेश व राजस्थान वाली

डायरी के पन्ने-23

ध्यान दें: डायरी के पन्ने यात्रा-वृत्तान्त नहीं हैं। इनसे आपकी धार्मिक और सामाजिक भावनाएं आहत हो सकती हैं। कृपया अपने विवेक से पढें। 1. 27 जून को जब ‘ आसमानी बिजली के कुछ फोटो ’ प्रकाशित किये तो उस समय सबकुछ इतना अच्छा चल रहा था कि मैं सोच भी नहीं सकता था कि तीन महीनों तक ब्लॉग बन्द हो जायेगा। अगली पोस्ट 1 जुलाई को डायरी के पन्ने प्रकाशित होनी थी। यह ‘डायरी के पन्ने’ ही एकमात्र ऐसी श्रंखला है जिसमें मुझे एक दिन पहले ही पोस्ट लिखनी, संशोधित करनी, ब्लॉग पर लगानी व सजानी पडती है। भले ही मैं दूसरे कार्यों में कितना भी व्यस्त रहूं, लेकिन निर्धारित तिथियों पर ‘डायरी के पन्ने’ प्रकाशित होने ही हैं। 30 जून को भी कुछ ऐसा ही हुआ। पिछले पन्द्रह दिनों में मैंने डायरी का एक शब्द भी नहीं लिखा था। बस कुछ शीर्षक लिख लिये थे, जिन पर आगामी डायरी में चर्चा करनी थी। 30 तारीख को मैं उन शीर्षकों को विस्तृत रूप देने में लग गया। मैं प्रत्येक लेख पहले माइक्रोसॉफ्ट वर्ड में लिखता हूं, बाद में ब्लॉग पर लगा देता हूं। उस दिन, रात होते होते 6700 शब्द लिखे जा चुके थे। काफी बडी व मनोरंजक डायरी होने वाली थी।

चन्द्रखनी ट्रेक- पहली रात

इस यात्रा वृत्तान्त को आरम्भ से पढने के लिये यहां क्लिक करें । अच्छी खासी चढाई थी। जितना आसान मैंने सोच रखा था, यह उतनी आसान थी नहीं। फिर थोडी-थोडी देर बाद कोई न कोई आता-जाता मिल जाता। पगडण्डी भी पर्याप्त चौडी थी। चारों तरफ घोर जंगल तो था ही। निःसन्देह यह भालुओं का जंगल था। लेकिन हम चार थे, इसलिये मुझे डर बिल्कुल नहीं लग रहा था। जंगल में वास्तविक से ज्यादा मानसिक डर होता है। आधे-पौने घण्टे चलने के बाद घास का एक छोटा सा मैदान मिला। चारों अपने बैग फेंककर इसमें पसर गये। सभी पसीने से लथपथ थे। मैं भी बहुत थका हुआ था। मन था कि यहीं पर टैंट लगाकर आज रुक जायें। लेकिन आज की हमारी योजना चन्द्रखनी के ज्यादा से ज्यादा नजदीक जाकर रुकने की थी ताकि कल हम दोपहर बादल होने से पहले-पहले ऊपर पहुंच जायें व चारों तरफ के नजारों का आनन्द ले सकें। अभी हम 2230 मीटर पर थे। अभी दिन भी था तो जी कडा करके आगे बढना ही पडेगा।

चन्द्रखनी ट्रेक- रूमसू गांव

इस यात्रा वृत्तान्त को आरम्भ से पढने के लिये यहां क्लिक करें । अशोक व मधुर को शक था कि हम ठीक रास्ते पर जा रहे हैं। या फिर सर्वसुलभ जिज्ञासा होती है सामने वाले से हर बात पूछने की। हालांकि मैंने हर जानकारी जुटा रखी थी। उसी के अनुसार योजना बनाई थी कि आज दर्रे के जितना नजदीक जा सकते हैं, जायेंगे। कल दर्रा पार करके मलाणा गांव में रुकेंगे और परसों मलाणा से जरी होते हुए कुल्लू जायेंगे और फिर दिल्ली। रोरिक आर्ट गैलरी 1850 मीटर की ऊंचाई पर है। चन्द्रखनी 3640 मीटर पर। दूरी कितनी है ये तो पता नहीं लेकिन इस बात से दूरी का अन्दाजा लगाया जा सकता है कि आमतौर पर हम जैसे लोग इस दूरी को एक दिन में तय नहीं करते। दो दिन लगाते हैं। इससे 18-20 किलोमीटर होने का अन्दाजा लगाया जा सकता है। 18 किलोमीटर में या 20 किलोमीटर में 1850 से 3640 मीटर तक चढना कठिन नहीं कहा जा सकता। यानी चन्द्रखनी की ट्रैकिंग कठिन नहीं है।

रोरिक आर्ट गैलरी, नग्गर

इस यात्रा वृत्तान्त को आरम्भ से पढने के लिये यहां क्लिक करें । नग्गर का जिक्र हो और रोरिक आर्ट गैलरी का जिक्र न हो, असम्भव है। असल में रोरिक ने ही नग्गर को अन्तर्राष्ट्रीय पहचान दी है। निकोलस रोरिक एक रूसी चित्रकार था। उसकी जीवनी पढने से पता चलता है कि एक चित्रकार होने के साथ-साथ वह एक भयंकर घुमक्कड भी था। 1917 की रूसी क्रान्ति के समय उसने रूस छोड दिया और इधर-उधर घूमता हुआ अमेरिका चला गया। वहां से वह भारत आया लेकिन नग्गर तब भी उसकी लिस्ट में नहीं था। पंजाब से शुरू करके वह कश्मीर गया और फिर लद्दाख, कराकोरम, खोतान, काशगर होते हुए तिब्बत में प्रवेश किया। तिब्बत में उन दिनों विदेशियों के प्रवेश पर प्रतिबन्ध था। वहां किसी को मार डालना फूंक मारने के बराबर था। रोरिक भी मरते-मरते बचा और भयंकर परिस्थितियों का सामना करते हुए उसने सिक्किम के रास्ते भारत में पुनः प्रवेश किया और नग्गर जाकर बस गये। एक रूसी होने के नाते अंग्रेज सरकार निश्चित ही उससे बडी चौकस रहती होगी।

चन्द्रखनी दर्रे की ओर- दिल्ली से नग्गर

इस यात्रा पर चलने से पहले इसका परिचय दे दूं। यह दर्रा हिमाचल प्रदेश के कुल्लू जिले में है। जैसा कि हर दर्रे के साथ होता है कि ये किन्हीं दो नदी घाटियों को जोडने का काम करते हैं, तो चन्द्रखनी भी अपवाद नहीं है। यह ब्यास घाटी और मलाणा घाटी को जोडता है। मलाणा नाला या चाहें तो इसे मलाणा नदी भी कह सकते हैं, आगे चलकर जरी के पास पार्वती नदी में मिल जाता है और पार्वती भी आगे भून्तर में ब्यास में मिल जाती है। इसकी ऊंचाई समुद्र तल से 3640 मीटर है। बहुत दिन से बल्कि कई सालों से मेरी यहां जाने की इच्छा थी। काफी समय पहले जब बिजली महादेव और मणिकर्ण गया था तब भी एक बार इस दर्रे को लांघने का इरादा बन चुका था। अच्छा किया कि तब इसकी तरफ कदम नहीं बढाये। बाद में दुनियादारी की, ट्रेकिंग की ज्यादा जानकारी होने लगी तो पता चला कि चन्द्रखनी के लिये एक रात कहीं रास्ते में बितानी पडती है। उस जगह रुकने को छत मिल जायेगी या नहीं, इसी दुविधा में रहा। खाने पीने की मुझे कोई ज्यादा परेशानी नहीं थी, बस छत चाहिये थी। तभी एक दिन पता चला कि रास्ते में कहीं एक गुफा है, जहां स्लीपिंग बैग के सहारे रात गुजारी जा सकती है। लेकि