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डायरी के पन्ने- 6

16 अप्रैल 2013, मंगलवार
1. अनुज धीरज दिल्ली आया। उसे कल नोएडा किसी प्राइवेट कम्पनी में नौकरी के लिये इंटरव्यू देने जाना है। वो अभी तक गांव के पास ही उसी कॉलेज में अध्यापक था, जिसमें पिछले साल उसने डिप्लोमा किया था।

17 अप्रैल 2013, बुधवार
1. धीरज नोएडा चला गया, मैं मेरठ चला गया। कल की मेरी छुट्टी है, पिछले सप्ताह गांव जाकर उसी दिन लौटना पडा था। आज खान साहब को अच्छी तरह समझा दिया कि इस बार मुझे न बुलाया जाए। मोहननगर से हरियाणा रोडवेज की हरिद्वार जाने वाली बस पकडी, खाली पडी थी। ‘
2. पता चला कि धीरज नोएडा में धक्के खा रहा है। असल में उसका इंटरव्यू ग्रेटर नोएडा सेक्टर 41 में था, जबकि वो ढूंढ रहा था नोएडा सेक्टर 41 में। बाद में उसे समझाया गया तब वो ग्रेटर नोएडा पहुंचा। शाम तक वापस लौट आया। इंटरव्यू अच्छा हुआ और बाद में फोन करके परिणाम बताये जायेंगे।
पिताजी ने किसी जान-पहचान वाले से सिफारिश लगवाकर धीरज को उस कम्पनी में भेजा था। जब मुझे सिफारिश की बात पता चली तो मैं उबल पडा। साढे चार साल पहले भी उन्होंने इसी तरह सिफारिश लगवाने का खूब प्रचार किया था, जब मैं दिल्ली मेट्रो की लिखित परीक्षा पास कर चुका था। किसी बहुत ऊंची पहुंच वाले रिश्तेदार से उन्होंने सिफारिश की थी कि लडका इंटरव्यू में पास हो जाना चाहिये। उधर मुझे पता था कि मेरे इंटरव्यू में असफल होने की कोई वजह नहीं है। कोई इंसान दूसरों के सामने कुछ भी कहता रहे, लेकिन उसे स्वयं पता होता है कि वो कितने पानी में है। जब मुझे पता चला कि मेरे लिये सिफारिश लगाई गई है तो मैंने माथा पीट लिया। सबसे पहले यही पूछा कि इसके लिये पैसे कितने दिये। गनीमत थी कि कोई पैसा नहीं दिया गया। मैंने जी भरकर पिताजी को सुनाई।
इंटरव्यू में मुझे पास होना ही था, मात्र बीस अंकों का इंटरव्यू था, उसमें भी लिखित के अंक जुडकर फाइनल लिस्ट निकलनी थी। लेकिन पिताजी सारा श्रेय रिश्तेदार को देने लगे। गांव भर में ढोल पिट गया कि रिश्तेदार देवता की कृपा से लडका दिल्ली मेट्रो में है। लडके में इतनी योग्यता नहीं कि खुद के बल पर पास हो जाए, रिश्तेदार की मेहरबानी है। पैसे भी दिये होंगे। मेरे ऊपर क्या गुजर रही थी उस दौरान!
ठीक है कि सिफारिश से कुछ काम आसानी से हो जाते हैं लेकिन मैं सिफारिश का विरोधी हूं।

18 अप्रैल 2013, गुरूवार
1. अरसे बाद ऐसा दिन आया कि मैं पूरे दिन घर पर रहा। कल दो बजे से ड्यूटी है, इसलिये कल ही दिल्ली के लिये निकलूंगा। पता नहीं कितने महीनों बाद ऐसा मौका मिला है कि दो रात लगातार गांव में रहा हूं।
2. धीरज को सलाह दी कि अब कुछ दिनों तक तेरे पास कुछ भी काम नहीं रहेगा। क्यों ना भारत भर का चक्कर लगाकर आ जा? उसने मना कर दिया। मैंने फिर प्रस्ताव रखा कि मेरे साथ हिमाचल ही चल। इसे सुनते ही पिताजी बोले कि मैं भी चलूं क्या? मैंने कहा भला तुम यहां अकेले क्या करोगे? चलो। लेकिन धीरज ने इसके लिये भी मना कर दिया। पिताजी की भी स्वयमेव मनाही हो गई।
3. ग्रेटर नोएडा से धीरज के लिये फोन आया कि सोमवार को कम्पनी ज्वाइन कर ले। मुझे इस बात की रत्ती भर भी खुशी नहीं है, जबकि वे दोनों बाप-बेटे फूले नहीं समा रहे हैं। प्राइवेट कम्पनी, आठ हजार रुपये तनख्वाह। मैंने धीरज से पूछा कि जाना जरूरी है क्या? बोला कि हां। क्यों? यहां खाली पडा-पडा क्या करूंगा? खाली कहां है तू? अपने लक्ष्य की तैयारी कर।
उसका लक्ष्य सरकारी नौकरी का है। विषय के तकनीकी ज्ञान की तो अच्छी जानकारी है, लेकिन सामान्य ज्ञान में सिफर है। पांच साल पहले जब मैंने डिप्लोमा किया था तो प्राइवेट नौकरी करने की मजबूरी थी। घर में कोई भी कमाने वाला नहीं था। मेरी इच्छा थी केवल रेलवे में जूनियर इंजीनियर बनने की। कोई और इच्छा नहीं थी। किसी दूसरे सरकारी प्रतिष्ठान में भी जाने की इच्छा नहीं थी। सिकन्दराबाद, नागपुर, दो बार गोरखपुर, चण्डीगढ जाकर असफल हो गया लेकिन आखिरकार दिल्ली मेट्रो में जूनियर इंजीनियर बना तो लगा कि रेलवे में ही जेई बन गया। फिर कभी इधर-उधर मुंह नहीं मारा।
धीरज की इच्छा जो भी हो लेकिन उसे अब छोटी छोटी प्राइवेट कम्पनियों में मुंह मारने की कोई आवश्यकता नहीं है। लक्ष्य तक पहुंचने के लिये अच्छी तैयारी चाहिये और ऐसी कम्पनियों में रहते तैयारी करना बडा मुश्किल काम है। अब हाल-फिलहाल घर में पैसों की भी कोई तंगी नहीं हैं। उसके लिये आवश्यक है एकाग्रचित्त होकर तैयारी करना और लक्ष्य फतह करना।
मैं सलाह ही दे सकता हूं। मानने न मानने का काम उसका है। उसने नहीं माना। सोमवार को ग्रेटर नोएडा जायेगा। मुझे उसका भविष्य अन्धकारमय दिखाई दे रहा है।

19 अप्रैल 2013, शुक्रवार
1. ग्यारह बजे घर से निकला। हमेशा की तरह कंकरखेडा बाइपास पहुंचा और आनन्द विहार की बस में बैठकर मोहननगर का टिकट ले लिया। कल मोहननगर से आया था तो हरियाणा रोडवेज की बस में चालीस रुपये लगे थे, अब यूपी रोडवेज की बस में बावन रुपये देने पडे। चक्कर क्या है, समझ नहीं आता।
2. मोहननगर से टम्पू पकडा और सीधा सीमापुरी बॉर्डर पर। बॉर्डर पार करके दिल्ली में घुस ही रहा था कि अंगूर दिख गये। पिछले कई महीनों से अंगूर खाते खाते पहचान हो गई है कि कौन सा मीठा है। ठेले पर सारे अंगूर मीठे वाले ही थे। मैंने भाव पूछा तो बताया पन्द्रह रुपये पाव। मैंने कहा कि भाई, पाव की बात मत कर, किलो बता। पचास रुपये किलो। एक किलो तुलवा लिये। दिल्ली में लोहे के पुल के पास शास्त्री पार्क बाजार में अंगूर गायब ही हो गये हैं। घर जाते ही धोकर फ्रिज में रख दिये। दस बजे रात को ड्यूटी से आया तो ठण्डे ठण्डे अंगूर खाने में अतुलनीय आनन्द आया।

20 अप्रैल 2013, शनिवार
1. 24 से 27 अप्रैल की छुट्टियां लगा दीं। जाने का ठिकाना किन्नौर लिखा। हाथों-हाथ पास भी हो गईं।
दो जगहें मन में हैं- किन्नौर और भरमौर। जहां किन्नौर का साथ सांगला-सराहन देंगे वहीं भरमौर का साथ डलहौजी-खजियार। दोनों में एक समानता भी है कि दोनों एक-एक कैलाश का आधार-स्थल हैं। किन्नौर किन्नर कैलाश का और भरमौर मणिमहेश कैलाश का।
अरे हां, मणिमहेश भी जाया जा सकता है। 4000 मीटर से ज्यादा ऊंचाई है उसकी, भारी बर्फ मिलेगी लेकिन जाया जा सकता है। कोशिश करेंगे।
2. प्रेमचन्द की मानसरोवर भाग-1 पढकर समाप्त की। इनकी सभी कहानियों का संग्रह मानसरोवर के आठ भागों में है। पाठ्य पुस्तकों के अलावा पहली बार प्रेमचन्द साहित्य पढना शुरू किया है। इस पहले भाग में जो कहानियां हैं, वे हैं- अलग्योझा, ईदगाह, मां, बेटों वाली विधवा, बडे भाई साहब, शान्ति, नशा, स्वामिनी, ठाकुर का कुआं, घरजमाई, पूस की रात, झांकी, गुल्ली डंडा, ज्योति, दिल की रानी, धिक्कार, कायर, शिकार, सुभागी, अनुभव, लांछन, आखिरी हीला, तावान, घासवाली, गिला, रसिक सम्पादक और मनोवृत्ति। इनमें कुछ कहानियों के बारे में मेरे विचार हैं-
मां- कहानी निर्जीव लगी। एक मां अपने बेटे को उच्च शिक्षा प्राप्त करने व मजिस्ट्रेट बनने से इसलिये रोकती है क्योंकि कभी एक मजिस्ट्रेट ने गलत निर्णय सुनाकर उसके पति को जेल में डाल दिया था। मैं पारिवारिक बन्धनों का विरोधी हूं, इसलिये मैं कभी पसन्द नहीं करूंगा कि बच्चों का भविष्य घरवाले तय करें।
बेटों वाली विधवा- हमेशा की तरह मार्मिक व पारिवारिक कहानी। फूलमती इसलिये परेशान है क्योंकि उसके बेटे खुद निर्णय लेने लगे हैं। पिता के मृत्युभोज में कम खर्च करना है, बहन के विवाह में भी स्वयं निर्णय लेना है, बेटों की इन बातों का फूलमती बुरा मान जाती है। आखिरकार वह भावनाशून्य हो जाती है व खुद को बेटों की नौकरानी समझने लगती है।
बडे भाई साहब- एक उत्कृष्ट कहानी। दस में से दस नम्बर। कहानी अंग्रेजों के जमाने में लिखी अवश्य गई थी लेकिन आज के दौर में और भी ज्यादा प्रासंगिक है। हमारी दोषयुक्त शिक्षा व्यवस्था की धज्जियां उडा दी।
नशा- जमींदारी प्रथा पर एक उत्तम कटाक्ष।
स्वामिनी- कहानी अच्छी लगी। क्योंकि इसमें एक परिवर्तन की हवा चलती दिखी। विधवा रामप्यारी के देवर-देवरानी जब बाल-बच्चों समेत परदेस चले गये तो वह घर में अकेली रह गई। घर का काम भी व खेत भी। नौकर जोखू के साथ मिलकर जब घर- बाहर काम किया तो दिल भी मिलने लगे। बस, यही कहानी है व एक सामाजिक परिवर्तन का सन्देश मिलता है।
घरजमाई- उत्कृष्ट। किसी समय घर से भागकर हरिधन अपनी ससुराल चला गया व घरजमाई बन गया। प्रारम्भ में बडी इज्जत होती रही व बाद में बद से बदतर व बदतम। आखिरकार ससुराल व घरवाली को छोडकर उसे अपने ही घर लौटना पडा, अपनी ही मिट्टी में आना पडा।
पूस की रात- नौवीं या दसवीं में इसका अंग्रेजी अनुवाद पढा था। मानव व पशु की आत्मीयता को हल्कू व जबरा के माध्यम से दर्शाया गया है।
झांकी- जन्माष्टमी पर भी जब घर में कलह के कारण दीया तक न जला तो जयदेव के आग्रह पर वो जबरदस्ती ठाकुरद्वारे में झांकी देखने चला गया। कहानी आध्यात्मिकता से भरपूर है। घर में फैली नकारात्मक ऊर्जा में रहकर आदमी क्या क्या सोचता है व दूसरी जगह सकारात्मक क्षेत्र में जाते ही किस तरह सोच बदलती है, कहानी में बताया है।
दिल की रानी- ऐतिहासिक कहानी जिसमें एक कन्या बर्बर शासक तैमूर को सहिष्णु बना देती है। वैसे मुझे प्रेमचन्द से ऐतिहासिक कहानी की उम्मीद नहीं थी।
धिक्कार- कहानी अच्छी लगी। इसमें प्रेम-विवाह का भी छौंक है, तो बेटे ने अपने पुरातन विचारों वाले मां-बाप को लताडा भी है- “ईश्वर न करे कि कोई बालक तुम जैसी माता के गर्भ से जन्म ले। तुम्हारा मुंह देखना भी पाप है।” मां-बाप भले ही बच्चों के भले की बात सोचते हों, लेकिन वे हमेशा सही नहीं होते।
कायर- केशव व प्रेमा दो सहपाठी व प्रेमी लेकिन भिन्न जातीय। दोनों विवाह करना चाहये हैं। केशव ने यकीन दिलाया कि घरवाले नहीं मानेंगे तो घर से भाग जाऊंगा। इसी सिलसिले में प्रेमा के घरवाले शुरू में नाराज हुए, बाद में मान गये। लेकिन केशव के घरवाले नहीं माने। कुल-मर्यादा व घरवालों पर आश्रित होने वाले केशव को प्रेमा से मना करना पडा। प्रेमा ने आत्महत्या कर ली।
समाज का नियम है कि बच्चे पैदा करो और वे आपकी सम्पत्ति हो गये। बच्चे बुढापे में हमारा सहारा बनेंगे, सब कहने की बातें हैं। असल में समाज की सडी हुई मान्यताओं का खेल है सब। आदमी अपने परिवार के लिये कुछ नहीं करता, बच्चों के लिये कुछ नहीं करता, जो भी कुछ करता है, सड चुके समाज के लिये करता है। बाद में अगर कोई समझदार बच्चा इस सडन से बचकर ताजी हवा में सांस लेना चाहे तो यही परिवार वाले उसकी जान के दुश्मन भी बन जाते हैं।
शिकार- बकवास कहानी। वास्तविकता से मीलों दूर। प्रेमचन्द महाराज शिकार कथा लिखने बैठ गये। जिस चीज का खुद तजर्बा न किया हो, उसके बारे में कभी नहीं लिखना चाहिये। शिकार-साहित्य में प्रेमचन्द कहीं नहीं ठहरे।

21 अप्रैल 2013, रविवार
1. सुबह ग्यारह बजे सोकर उठते ही तरुण गोयल साहब याद आ गये। बात की तो मुद्दा मणिमहेश ही था। बोले कि यार तुम हिमाचल यात्रा की तैयारी उसी समय क्यों करते हो, जब मौसम खराब होता है? यहां भारी बारिश हो रही है, मणिमहेश में तो भारी बर्फबारी हुई होगी। फिर भी उन्होंने आश्वासन दिया कि शाम तक कुछ पक्की जानकारी दूंगा।
घण्टे भर बाद ही फोन आ गया। उनके भरमौर के किसी मित्र से पता चला कि दुस्साहसी लोग मणिमहेश जाना शुरू हो गये हैं। लेकिन आजकल बारिश हो रही है, इसलिये जाना ठीक नहीं। फिर भी दो दिन हैं अपने पास, देखते हैं मौसम जाने देगा या नहीं।
2. सन्दीप पंवार से बात हुई। वे आज ही शिकारी देवी से लौटे हैं। उन्होंने बताया कि शिकारी देवी के आसपास अभी भी भारी बर्फ है और जाना ठीक नहीं। कमरुनाग से शिकारी देवी के रास्ते में ज्यादातर दूरी बर्फ में ही तय करनी पडी। उनकी योजना इधर कुछ और दिन बिताने की थी लेकिन भारी बारिश के कारण जल्दी लौट आये। मेरे लिये किन्नौर-भरमौर के बाद तीसरा विकल्प शिकारी देवी हो गया। देखते हैं कि भीमाकाली, शिवजी और शिकारी देवी में से कहां जाना होता है।
3. बनारस से एक फोन आया। यह ‘टाइम टेबल’ के बारे में था। कह रहे थे कि किसी स्टेशन पर जो ट्रेनें खत्म होती हैं, उनका भी उल्लेख समय सारणी में करें। अभी फिलहाल भारत भर के 100 रेलवे स्टेशनों की समय सारणी है। इन्हें यथासम्भव अपडेट रखने की कोशिश करता हूं। यह अपडेट करने का काम भी काफी समयसाध्य है। ‘मुसाफिर हूं यारों’ को अपडेट रखना मेरी पहली प्राथमिकता है, इसे भी ढंग से नहीं कर पा रहा हूं। इस प्रकार सौ स्टेशनों की उन ट्रेनों की नई सारणी बनाना, जो वहां खत्म होती हैं, बेहद खर्चीला काम है। शायद उनके सुझाव पर अमल न हो।
कुछ दिन पहले अमृतसर से किसी ने कमेंट किया था कि समय सारणी में यह भी लिखा जाना चाहिये कि फलां ट्रेन किस रूट से जायेगी। केवल अमृतसर स्टेशन जोकि ट्रैफिक के लिहाज से मेरी लिस्ट में निम्न-मध्यम आकार का स्टेशन है, ट्रेनों का रूट लिखने में दो घण्टे लग गये। लखनऊ, वाराणसी, जयपुर, अहमदाबाद, दिल्ली, नागपुर, भोपाल जैसे भारी ट्रैफिक वाले स्टेशनों का रूट लिखने में पांच छह घण्टे लग जायेंगे। रूट लिखने का काम बन्द कर दिया।

22 अप्रैल 2013, सोमवार
1. ‘हिमानी चामुण्डा ट्रेक’ लेख प्रकाशित कर दिया। इससे आगे के लेख अभी भी अलिखित ही हैं, सुबह हिमाचल की इस महीने की दूसरी यात्रा पर निकल पडूंगा। शायद वहां से लौटकर बाकी वृत्तान्त छपें।
2. तरुण गोयल का फोन आया। बात का आशय था- मणिमहेश असम्भव। कह रहे थे कि ताजी बर्फ का तो तुम्हें पता ही है कि कितनी धोखेबाज होती है। वहां भारी बर्फबारी हुई है। अब भरमौर की सम्भावना कम हो गई है। पहले नम्बर पर किन्नौर, दूसरे पर शिकारी देवी हैं।
3. एक मित्र से बात हुई- फेसबुक पर चैटिंग। पहले भी हमारी चैटिंग होती रही है। इस बार ‘हाय-हाय’ के तुरन्त बाद उसने कहा कि वो आत्महत्या करने वाला है। इसे सुनते ही मैं सकते में आ गया। कोई हमारा परिचित हो, अपरिचित हो, मित्र हो, शत्रु हो, यदि आत्महत्या की बात करता है, तो हमें हर हाल में उसे ऐसा करने से रोकना चाहिये। वह घरवालों से तंग आ चुका है, मैंने सलाह दी कि या तो उनका सामना करो या घर से भाग जाओ। समस्याओं से निपटने के दो ही तरीके हैं- या तो सामना करो, या मुंह फेर लो। इसमें कोई शर्म की बात नहीं है, समस्याएं खत्म होना ज्यादा महत्वपूर्ण है। लेकिन महाराज ने घर से भागने से मना कर दिया। मैंने कहा कि तुम मरोगे, तब भी घर से बाहर ही जाओगे। इससे अच्छा है कि जीते-जागते ही घर से बाहर चले जाओ।
4. रात दस बजे ऑफिस पहुंचा। अभी तक भी निर्णय नहीं हुआ है कि सुबह कहां के लिये निकलना है। आखिरकार किन्नौर की सम्भावना प्रबल हुई तो 27 तारीख को कालका से दिल्ली आने के लिये हावडा मेल में जगह देखी, सौ से भी ज्यादा वेटिंग। इसी ट्रेन में चण्डीगढ से सौ से भी ज्यादा खाली। चण्डीगढ से आरक्षण करा लिया। लगे हाथों सराय रोहिल्ला से कालका तक हिमालयन क्वीन का भी सुबह का आरक्षण करा लिया। हिमालयन क्वीन में सेकण्ड सीटिंग होती हैं, आसानी से मिल गई।

23 अप्रैल 2013, मंगलवार
1. हिमालयन क्वीन से कालका और उसके बाद बस से नारकण्डा पहुंचा। नारकण्डा में रात्रि विश्राम।

24 अप्रैल 2013, बुधवार
1. नारकण्डा से चला और सीधे सराहन। मन्दिर के कमरों में शरण ली।

25 अप्रैल 2013, गुरूवार
1. बशल चोटी के लिये पैदल चलना शुरू किया। रास्ते में जंगल के बीच विराजमान बाबाजी से मुलाकात की, खिचडी बनाकर खाई और बिना बशल जाये यहीं से वापस लौट आया। लौटते समय रास्ता भटक जाने की वजह से मरने से बाल बाल बचा लेकिन एक कंटीली झाडी पकडने की वजह से बायें हाथ की हथेली घायल हो गई, कुल आठ कांटे गडे जिनमें तीन ज्यादा गहरे हैं।

26 अप्रैल 2013, शुक्रवार
1. पूरे दिन सराहन में ही पडा रहा। लैपटॉप साथ ले गया था, ज्यादातर समय इसी पर बीता। शाम को दिन छिपते समय हवाघर चला गया।

27 अप्रैल 2013, शनिवार
1. सुबह साढे छह वाली बस पकडी और रामपुर में पुनः बस बदलकर डेढ बजे तक शिमला। उसके बाद ढाई बजे चलने वाली कालका पैसेंजर से साढे आठ बजे कालका, तत्पश्चात हावडा मेल से सुबह दिल्ली।

28 अप्रैल 2013. रविवार
1. आते ही ऑफिस पहुंचा। प्रातःकालीन ड्यूटी थी जो दो बजे खत्म हुई। आज ही रात्रि ड्यूटी भी है, इसलिये घर जाकर सोना पडा।

29 अप्रैल 2013, सोमवार
1. शिमला रेलवे स्टेशन पर पश्चिमी बंगाल की रोड मैप मिली। खरीद ली। अब मेरे पास हर राज्यों की रोड मैप एकत्र हो गई हैं। पूर्वोत्तर के आठों राज्यों का एक ही रोड मैप है। खैर, पश्चिमी बंगाल के जिलों के नक्शों का जब अध्ययन करना शुरू किया तो एक बडी खतरनाक चीज दिखाई पडी- जलपाईगुडी और कूचबिहार जिले। इन जिलों के बहुत सारे हिस्से ऐसे हैं जो चारों ओर से बांग्लादेश से घिरे हैं।
इस मामले में और ज्यादा जानकारी के लिये नेट का सहारा लेना पडा। पता चला कि भारत के 110 से ज्यादा टुकडे बांग्लादेश से घिरे हैं और बांग्लादेश के 60 से ज्यादा टुकडे भारत से घिरे हैं। ये टुकडे गांव भर से ज्यादा बडे नहीं हैं, या फिर हद से हद दो तीन गांव तक बस। कहीं कहीं तो दोहरा घिराव भी है यानी बांग्लादेश के अन्दर भारत का टुकडा और उस टुकडे के अन्दर पुनः बांग्लादेश का छोटा सा टुकडा। एक तो इससे भी बडा उदाहरण है- तिहरा घिराव- बांग्लादेश के अन्दर भारत, भारत के अन्दर बांग्लादेश और बांग्लादेश के अन्दर पुनः भारत।
इसकी जडें विभाजन से पूर्व रियासतों के समय से ही जुडी हैं। कूच बिहार रियासत और रंगपुर रियासत। उस समय गांव और जमीन खेत एक दूसरे की रियासतों के अन्दर होते थे। बंटवारा हुआ, कूचबिहार भारत में आ गया और रंगपुर पाकिस्तान में। ये टुकडे भी इसी तरह बंट गये।
इन ‘द्वीपों’ के लोगों की जिन्दगी बडी नारकीय होती होगी। अपने गांव से बाहर निकलते ही ये दूसरे देश में पहुंच जाते हैं, बिना वीजा के। दूसरे देश के रक्षक बहुतों को मार भी देते हैं। हालांकि कहीं कहीं इन ‘द्वीपों’ में जाने के लिये गलियारे भी हैं लेकिन सभी में नहीं। 2011 में तय भी हुआ था कि बांग्लादेश के जो टुकडे भारत में हैं, उन्हें भारतीय बना दिया जाये और भारत के जो टुकडे बांग्लादेश में हैं, उन्हें बांग्लादेशी। लेकिन इस प्रक्रिया में भारत का बहुत बडा भूभाग बांग्लादेश में चला जायेगा। हालांकि बांग्लादेश की भी कुछ जमीन भारत को मिलेगी लेकिन कुल मिलाकर नुकसान भारत का ही हो रहा है। बडा पेचीदा मामला है।
इसका जिक्र यास्मीन खान ने ‘विभाजन-भारत और पाकिस्तान का उदय’ में भी किया था लेकिन मुझे लगा कि बाद में यह मामला सुलझा लिया गया होगा।

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नक्शे को बडा किया जा सकता है।

30 अप्रैल 2013, मंगलवार
1. चन्द्रेश का फोन आया। महाराज एक नम्बर के घुमक्कड हैं तथा चारधाम और गंगासागर सहित भारत के बडे भूभाग में घूमे हैं। पूछा कि आजकल मणिमहेश जाया जा सकता है क्या? मैंने कहा कि हां। फिर पूछने लगे कि वहां बर्फ मिलेगी क्या? –हां, जी-भरकर बर्फ मिलेगी। -क्या ताजी गिरती हुई भी मिलेगी? –अगर मौसम खराब हुआ तो ताजी गिरती भी मिल जायेगी। -हम पांच लोग कल निकल रहे हैं वहां के लिये। -मुझे लगता है कि आप सब मणिमहेश नहीं जा पाओगे। -क्यों? –बस, ऐसे ही। मैं नहीं गया हूं ना अभी तक वहां इसलिये कह रहा हूं। -मैं आपको वहां जाकर दिखाऊंगा। -वाह, बहुत बहुत शुभकामनाएं।
उन्होंने बर्फ देखने का जो नाम लिया, उससे सिद्ध होता है कि वे सब पिकनिक मनाने जा रहे हैं। जिन्होंने बर्फ को दूर से देखा है, वे नहीं जानते कि पास से यह कितनी बेवफा होती है। खैर, मेरा तो यही अन्दाजा है कि इनमें से कोई भी इस समय यानी मई की शुरूआत में मणिमहेश तक नहीं जा पायेगा। हालांकि चन्द्रेश अपवाद हो सकता है।
2. बाल बहुत बढ गये। आज मूड बना और गांधीनगर चला गया। लेकिन बुरा हो मंगल तेरा, सभी नाई मंगलवार मना रहे हैं। दुकानें बन्द हैं। भरी दोपहरी में घण्टा भर हो गया बाजार में घूमते घूमते। अब पता नहीं कितने दिन बाद मन करे।

डायरी के पन्ने-5 | डायरी के पन्ने-7

Comments

  1. नीरज आपकी डायरी से तो बहुत सारी बातें नई पता चलीं, वैसे धीरज के बारे में मेरा मत भी यही है कि उसे प्रतियोगिता की तैयारी करनी चाहिये, वह अभी आज के बारे में सोचकर उत्साहित हो रहा है, पर पूरी जिंदगी के लिये प्रतियोगिता में सफ़ल होगा तो वह अच्छा होगा ।

    सिफ़ारिश के लिये तो हम भी कभी नहीं मानते न करते हैं ना करवाते हैं ।

    कभी बर्फ़ के पहाड़ों पर जाने की इच्छा है और थोड़े दिन वहीं ट्रेकिंग करने की और रहने की, जब भी जाना होगा आपसे जरूर मार्गदर्शन लेंगे, अभी तक बस हम रोहतांग पास में बर्फ़ पर होकर आये हैं ।

    डायरी अच्छी लगी, लिखते रहो, प्रकाशित करते रहो ।

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  2. काश, आप जैसा व्यस्त जीवन हमारा भी हो जाये..

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  3. नीरज जी रोड मैप इकट्ठा करने का शोंक तो मुझे भी हैं. काफी राज्यों के हैं. इनसे उन राज्यों के बारे में अच्छी जानकारी मिल जाती हैं...

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  4. सिफारिश पसन्द नहीं है-आपके स्वाभिमान को सैल्यूट
    सलाह ही दे सकते हैं- भाई माने ना माने
    बंगलादेश-भारत के बारे में जानकारी से हैरत हुई
    आज डायरी के ये पन्ने बहुत रोचक लगे

    प्रणाम

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  5. diary to dekh li, par photo kahan hai?

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  6. इतनी व्यस्तता के बावजूद पढने का समय निकाल लेना वाकई अदभुत है,

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46 रेलवे स्टेशन हैं दिल्ली में

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इन पुस्तकों का परिचय यह है कि इन्हें जिम कार्बेट ने लिखा है। और जिम कार्बेट का परिचय देने की अक्ल मुझमें नहीं। उनकी तारीफ करने में मैं असमर्थ हूँ क्योंकि मुझे लगता है कि उनकी तारीफ करने में कहीं कोई भूल-चूक न हो जाए। जो भी शब्द उनके लिये प्रयुक्त करूंगा, वे अपर्याप्त होंगे। बस, यह समझ लीजिए कि लिखते समय वे आपके सामने अपना कलेजा निकालकर रख देते हैं। आप उनका लेखन नहीं, सीधे हृदय पढ़ते हैं। लेखन में तो भूल-चूक हो जाती है, हृदय में कोई भूल-चूक नहीं हो सकती। आप उनकी किताबें पढ़िए। कोई भी किताब। वे बचपन से ही जंगलों में रहे हैं। आदमी से ज्यादा जानवरों को जानते थे। उनकी भाषा-बोली समझते थे। कोई जानवर या पक्षी बोल रहा है तो क्या कह रहा है, चल रहा है तो क्या कह रहा है; वे सब समझते थे। वे नरभक्षी तेंदुए से आतंकित जंगल में खुले में एक पेड़ के नीचे सो जाते थे, क्योंकि उन्हें पता था कि इस पेड़ पर लंगूर हैं और जब तक लंगूर चुप रहेंगे, इसका अर्थ होगा कि तेंदुआ आसपास कहीं नहीं है। कभी वे जंगल में भैंसों के एक खुले बाड़े में भैंसों के बीच में ही सो जाते, कि अगर नरभक्षी आएगा तो भैंसे अपने-आप जगा देंगी।

ट्रेन में बाइक कैसे बुक करें?

अक्सर हमें ट्रेनों में बाइक की बुकिंग करने की आवश्यकता पड़ती है। इस बार मुझे भी पड़ी तो कुछ जानकारियाँ इंटरनेट के माध्यम से जुटायीं। पता चला कि टंकी एकदम खाली होनी चाहिये और बाइक पैक होनी चाहिये - अंग्रेजी में ‘गनी बैग’ कहते हैं और हिंदी में टाट। तो तमाम तरह की परेशानियों के बाद आज आख़िरकार मैं भी अपनी बाइक ट्रेन में बुक करने में सफल रहा। अपना अनुभव और जानकारी आपको भी शेयर कर रहा हूँ। हमारे सामने मुख्य परेशानी यही होती है कि हमें चीजों की जानकारी नहीं होती। ट्रेनों में दो तरह से बाइक बुक की जा सकती है: लगेज के तौर पर और पार्सल के तौर पर। पहले बात करते हैं लगेज के तौर पर बाइक बुक करने का क्या प्रोसीजर है। इसमें आपके पास ट्रेन का आरक्षित टिकट होना चाहिये। यदि आपने रेलवे काउंटर से टिकट लिया है, तब तो वेटिंग टिकट भी चल जायेगा। और अगर आपके पास ऑनलाइन टिकट है, तब या तो कन्फर्म टिकट होना चाहिये या आर.ए.सी.। यानी जब आप स्वयं यात्रा कर रहे हों, और बाइक भी उसी ट्रेन में ले जाना चाहते हों, तो आरक्षित टिकट तो होना ही चाहिये। इसके अलावा बाइक की आर.सी. व आपका कोई पहचान-पत्र भी ज़रूरी है। मतलब