कुछ समय के लिये घुमक्कडी से फुरसत मिली तो आज याद कर रहा हूं अपने नौकरीपेशा जीवन के बारे में। कितना उतार-चढाव भरा रहा वो समय! बल्कि उतार ही ज्यादा कहना चाहिये।
जून 2007 में मैकेनिकल से डिप्लोमा करने के बाद मैं इंजीनियर कहलाने का अधिकारी हो गया- जूनियर इंजीनियर। मई में जब प्रैक्टिकल हो रहे थे, तभी से कई कम्पनियां ताजे ताजे इंजिनियरों को लेने कॉलेज आने लगी। गाजियाबाद की प्रतिष्ठित श्रीराम पिस्टन की शर्त होती है कि इंजिनियर ने इण्टर भी कर रखी हो। इस मामले में मैं दसवीं पास होने की वजह से उसका इंटरव्यू नहीं दे पाया था। लेकिन इसका फायदा यह हुआ कि वे सबसे पहले आये और टॉपर्स को छांट-छांटकर ले गये। अब मुझे टॉपर्स से कम्पटीशन नहीं करना था।
फिर आई दो और कम्पनियां- नोयडा से डेकी इलेक्ट्रोनिक्स और कानपुर से लोहिया स्टारलिंगर लिमिटेड। कानपुर वाले बल्कि आये नहीं, उन्होंने कॉलेज में न्योता भेज दिया कि दस लडके इधर भेज दो, हम नापतौल करेंगे और एक को ही रखेंगे। दस लडकों में मेरा भी नाम था। मेरठ से कानपुर जाने के लिये सभी के साथ साथ मैंने भी संगम एक्सप्रेस से रिजर्वेशन करा लिया।
जिस दिन हमें शाम सात बजे मेरठ से ट्रेन पकडनी थी, उसी दिन सुबह कॉलेज में डेकी इलेक्ट्रोनिक्स आ धमकी। चूंकि मैं मैकेनिकल का छात्र था, इसलिये इसे नजरअन्दाज कर दिया। फिर सोचा कि इस इलेक्ट्रिनिक्स में नौकरी तो करनी नहीं है, लिखित परीक्षा देकर देख लेते हैं। लिखित परीक्षा देकर बिना परिणाम की चिन्ता किये उसी दिन शाम को कानपुर चले गये।
बाद में पता चला कि उस लिखित परीक्षा में मैं प्रथम आया था। लेकिन कोई फायदा नहीं था। एक ‘लुहार’ का कैपेसिटर बनाने वाले के यहां क्या काम?
कानपुर पहुंचे। लोहिया वालों ने बढिया खातिरदारी की। चौबेपुर वाले प्लांट में ले गये लिखित और इंटरव्यू के लिये। जिन्दगी में पहली बार इतनी उच्च क्वालिटी की साफ-सफाई देखी। संभल-संभलकर पैर रखना पड रहा था कि कहीं फिसल ना जायें। हम दस के दस हैरान थे इस ‘चकाचौंध’ को देखकर।
लिखित में सामान्य ज्ञान के प्रश्न आये, जिसमें निःसन्देह मुझे ही प्रथम आना था। निःसन्देह इसलिये कह रहा हूं कि हम सब पढाई के मामले में लगभग एक ही पायदान पर थे- औसत छात्र। लेकिन मैं जिस तरह आज देश-दुनिया को जानता हूं, तब भी वही हालत थे। इस क्षेत्र में मैं अपने समकक्षों से आगे था।
मेरे प्रथम आने ने ही तय कर दिया कि अगर इंटरव्यू में औसत से कम भी प्रदर्शन हुआ तो यहां जमना पक्का है। यह बात बाकी सभी को भी पता थी कि जाट इंटरव्यू में कैसा प्रदर्शन करेगा। इसलिये पहले ही सभी ने हार मान ली थी। कम्पनी को एक ही बन्दे की जरुरत थी।
इंटरव्यू से दस मिनट पहले हम दसों ने अपने सिर मिलाये और तय किया कि हम कम्पनी पर दबाव डालेंगे ताकि वे दो को भर्ती कर लें। हम अपनी योजना में कामयाब भी रहे जब कम्पनी के मैनेजरों के सामने हम खुद के ‘दूर देश’ के निवासी होने की दुहाई देने लगे। मेरे साथ सन्दीप पंवार की भर्ती हुई। यह सन्दीप जाटदेवता के नाम से लिखने वाला सन्दीप नहीं था। वहां असफल होने पर नितिन सैनी खूब रोया था। आज नितिन दिल्ली मेट्रो में स्टेशन नियन्त्रक है।
एक महीने बाद जब दोबारा कानपुर गया नौकरी ज्वाइन करने, तो पहली नौकरी का जबरदस्त उत्साह था। इस दौरान डेकी से भी फोन आते रहे कि टॉपर साहब आ जाओ। मैंने उनके लिखित में टॉप जो किया था।
पिताजी भी साथ गये थे कानपुर। पहला दिन हमारे लिये तो अच्छा बीता लेकिन कम्पनी के बाहर हमारी ड्यूटी खत्म होने की प्रतीक्षा करते पिताजी का दिन अच्छा नहीं बीता। शाम को जब हम बाहर निकले तो पिताजी का आदेश था कि मेरठ चल। मैंने काफी विरोध किया लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ।
इस प्रकार पहली नौकरी मात्र एक ही दिन चल सकी।
घर वापस आते ही पता नहीं डेकी को कैसे पता चल गया कि ‘टॉपर साहब’ आजकल बेरोजगार हैं। झट से फोन कर दिया। मैं अब नोयडा पहुंचा।
हम छह जने थे उनके इंटरव्यू के लिये। बडे आराम से सलेक्शन हो गया। और सलेक्शन भी बडा अजीब हुआ। एक बन्दा इंटरव्यू में बाहर हो गया। बचे पांच। अब बताया गया कि तुम पांचों को हम दो सप्ताह तक ट्रेनिंग देंगे। फिर परीक्षा लेंगे। अगर साठ प्रतिशत से कम नम्बर आये तो बाहर कर देंगे।
दो सप्ताह तक खूब जी-तोड रट्टा लगवाया गया। उसमें कम्पनी के नियम कायदे ही थे जो इंग्लिश में थे। मुझे याद नहीं होते थे।
आखिरकार वो दिन भी आया, जब मेरा भविष्य निर्धारित होना था। बैग वगैरह एक कोने में रखवाकर सभी पांचों को दूर दूर बैठा दिया गया और प्रश्न-पत्र उत्तर-पुस्तिका पकडा दी गई। जैसा सोचे बैठे थे, वही हुआ। क्या लिखें, यह बात समझ से बाहर थी। जैसे ही ‘बडे लोग’ हमारी देखभाल करने के लिये एक ‘छोटे’ को छोड गये, तभी हममें से चार ने अपने बैगों से सामग्री निकाली और दे दनादन लिख मारा। एक पांचवां ईमानदार था, उसने अपनी अक्ल से लिखा।
नतीजा आया कि हम चार पास हो गये हैं और वो पांचवां फेल। उसने अधिकारियों से शिकायत की कि इन चारों ने नकल की है। हल्की फुल्की जांच हुई। देखभाल करने वाले ‘छोटे’ के बयान लिये गये। आखिरकार फैसला हुआ कि पांचवां चूंकि फेल हो गया है, इसलिये बेवजह के आरोप लगा रहा है। एक अधिकारी ने सुझाव दिया कि दोबारा पेपर करवा देते हैं जिसे हम चारों ने तत्काल खारिज कर दिया।
अब कायदे से नौकरी शुरू हो गई। शुरू में बताया गया था कि सैलरी छह हजार होगी लेकिन जल्दी ही पता चल गया कि छह नहीं बल्कि पांच है, बाकी एक हजार इंसेंटिव है जिसे प्रोडक्शन मैनेजर हमारा काम देखकर दिया करेगा। प्रोडक्शन मैनेजर अमित वर्मा था।
इस कम्पनी में कैपेसिटर बनते हैं जो इलेक्ट्रोनिक्स और इलेक्ट्रिकल में काम आते हैं। तीन शिफ्ट में काम होता था। मेरे अन्तर्गत करीब बीस मशीनें थीं और उन पर काम करने वाले कर्मचारी भी। मुझे काम पर लगातार नजर रखनी होती थी और टारगेट को पूरा करना होता था। तब आठ घण्टे की एक शिफ्ट में अस्सी हजार कैपेसिटर का टारगेट होता था। यह टारगेट बिना रुके लगातार काम करते रहने पर भी पूरा नहीं होता था। कम उत्पादन की जिम्मेदारी हमारी होती थी। आये दिन कम उत्पादन के मामले में मैनेजर से मीटिंग होती रहती थी। सुननी भी पडती थी।
जल्दी ही मेरी उन कर्मचारियों से अच्छी बनने लगी जो मशीनें चलाते थे। मैं सोचता था कि एक शिफ्ट में सत्तर हजार का उत्पादन होता है, अगर पैंसठ हजार बन जायेंगे तो हमेशा की तरह अमित वर्मा बक-बकाकर चला जायेगा। यह रोज का काम था। उधर अमित सबके सामने मुझे सुनाकर जाता था, इधर मैं अमित-आलोचना-पुराण शुरू कर देता था। कर्मचारियों को क्या चाहिये? अधिकारियों की आलोचना। धीरे धीरे कर्मचारियों में मेरी घुसपैठ बढने लगी।
मैं चूंकि एक शिफ्ट के लिये ही जिम्मेदार था, बाकी की दो शिफ्टें मेरे समकक्ष देख रहे थे। वे कर्मचारियों में उतने लोकप्रिय नहीं थे, जितने कि मैनेजरों में। आये दिन मैनेजर मुझे बाकी लोगों का प्रदर्शन दिखाता था और कहता था कि इनके जैसे बनो। और पता नहीं कैसे वे मुझसे अच्छा ‘प्रदर्शन’ भी करते थे।
यहां मशीनें श्रंखला में चलती थीं। पहली मशीन जो आउटपुट देगी, दूसरी मशीन के लिये वो इनपुट होगा, फिर दूसरी जो आउटपुट देगी, तीसरी के लिये इनपुट होगा। इस तरह दस मशीनें थीं। और इस तरह की चार श्रंखलाएं थीं। यानी अगर एक मशीन खराब होती है तो केवल उसी श्रंखला का काम प्रभावित होगा, बाकी श्रंखलाएं चलती रहेंगी।
पहले कभी नौकरी तो की नहीं थी, आठ घण्टे काटने बडे मुश्किल होते थे। मेरे लिये यानी एक इंजीनियर के लिये कहीं कोई कुर्सी भी नहीं थी, आदेश था कि लगातार चारों श्रंखलाओं के चक्कर लगाते रहो और उत्पादन बढाते रहो। जबकि मशीन चलाने वाले कर्मचारियों को स्टूल मिलते थे।
मैंने बैठने का एक तरीका ढूंढा। सबसे पहले मशीनें चलानी सीखीं। फिर कर्मचारी से कहता कि जा बाहर पांच चार बीडी पीकर आ, मैं मशीन चलाता हूं। कर्मचारी ठहरा कई सालों का जानकार, वो भला क्यों मुझ महीने भर के छोकरे के भरोसे मशीन छोडने लगा? बोला कि मशीन खराब हो जायेगी, उत्पादन कम हो जायेगा। मैंने तुरन्त कहा कि मशीन खराब होगी तो तुम रिपॉर्ट किसे करोगे? बोला कि तुम्हें। बस तो फिर दिक्कत क्या है? अरे तुम तो कर्मचारी हो, मालिक तो मैं हूं, मशीनों की जिम्मेदारी तो मेरी है, जा बीडी पीकर आ।
कैपेसिटर चूंकि इलेक्ट्रोनिक्स चीज होते हैं, बनाते समय मामूली सा दबाव भी उन्हें बेकार कर सकता है, इसलिये मशीनें आधुनिक थीं। कर्मचारी को मात्र चालू करना था और मशीन खुद काम करती थी। हर मशीन में दुनिया भर के सेंसर भी लगे थे। यही काम मैं करने लगा। मशीन ऑन की और स्टूल पर बैठा रहता। कभी कभी आंख भी लग जाती। मशीन अपना काम करती रहती, अगर मामूली सी भी दिक्कत आती तो बन्द हो जाती। मशीन बन्द होते ही मेरी आंख भी खुल जाती। कर्मचारी खुश कि साहब मशीन चला रहा है।
पहली सैलरी तो पूरे 6000 आई। दूसरी 5700 आई। मैंने शिकायत की तो पता चला कि तुम्हारी सैलरी 5000 है, बाकी के पैसे तुम्हारा मैनेजर तुम्हारे काम से खुश होकर देता है। पिछले महीने उसने पूरे 1000 दिये थे, इस बार वो खुश नहीं है, तो 700 दिये हैं। मैं मैनेजर के पास गया। कहा कि सर, मैं ऐसा हूं, वैसा हूं, ईमानदार हूं, सारी मशीनें चलाना जानता हूं, बढिया उत्पादन भी करके देता हूं, समय से आता हूं, समय से जाता हूं, फिर 300 रुपये क्यों काटे?
अमित वर्मा- मैनेजर- ने एक शैतानी हंसी बिखेरी। एक फाइल खोली। दिखाने लगा कि देखो, तुम्हारे समकक्ष तुमसे ज्यादा उत्पादन करके देते हैं, तुम अपना उत्पादन नहीं बढा पा रहे हो। वे मीटिंग में भी भाग लेते हैं, तुम मीटिंग में भाग लेने से कतराते हो। तुम्हें दो बार सोते हुए भी पकडा गया है।
यानी मैनेजर द्वारा दिये गये 1000 रुपये का मतलब है चापलूसी को बढावा। पिछले दो महीनों में मेरी और मैनेजर की खटपट भी काफी बढ गई थी। अब इन एक हजार रुपयों की तरफ ध्यान देना बन्द कर दिया।
एक दिन आदेश आया कि फलानी तरह का उत्पादन करना है, बडा अर्जेंट है। अर्जेंट उत्पादन आते ही सब लोग और सब मशीनें सब काम छोडकर उसी पर ध्यान लगाते थे। मैंने देखा कि श्रंखला की पहली मशीन बन्द है, कर्मचारी से पूछा तो बताया कि मशीन खराब है। मैंने भी स्टार्ट करके देखी तो नहीं हुई। जितनी जानकारी मुझे थी, सारी की सारी लगाकर देख ली लेकिन कोई खराबी पकड में नहीं आई। उधर कर्मचारी ठहरा सालों का जानकार- मशीन की नस नस तक पहुंच थी उसकी।
मेरी घुसपैठ थी ही सारे कर्मचारियों में। जितने भी पचास साठ कर्मचारी थे, सभी का नाम, परिवार और जिला, राज्य सबकी जानकारी मुझे थी। बेचारे ने एक बार पूछते ही बता दिया कि यह सेंसर हिल गया है। मैंने उसे दोबारा ठीक स्थान पर लगाया, मशीन चल पडी। अब पता नहीं क्या दिमाग में आया, मैंने सेंसर फिर उखाड दिया, मशीन बन्द। उस बडी मशीन के एक कोने में बडा मामूली सा नन्हा सा सेंसर था। मैंने रिपॉर्ट तैयार की, आगे भेज दी। थोडी देर में मशीन के ऊपर एक लाल गत्ता लहरा रहा था- मशीन खराब है।
हां, एक बात और रह गई। इस कम्पनी की शर्त थी कि हमें यहां कम से कम तीन साल तक काम करना ही है। तीन साल का अनुबन्ध था। मुझे चूंकि आगे सरकारी नौकरी चाहिये थी, इसलिये अपनी मंशा भर्ती के समय ही बता दी थी। मेरे अनुबन्ध पत्र पर लिखा था कि तुम तीन साल तक इस कम्पनी को छोडकर दूसरी कम्पनी में नहीं जाओगे। सरकारी नौकरी लगेगी तो यह अनुबन्ध उसे मान्यता देता है। साथ ही यह भी कि अगर तुम्हारे काम से परेशान होकर कम्पनी तुम्हें अनुबन्ध से पहले बाहर करती है तो तीन महीने की सैलरी देगी। मैं खुश था कि अगर मुझसे तंग आकर ये लोग बाहर करते हैं, तो तीन महीने की सैलरी मिलेगी, तब तक कहीं ना कहीं दूसरी नौकरी ढूंढ ही लूंगा।
अक्सर अमित वर्मा पूछता कि तुम्हारी शिफ्ट में सबसे कम काम क्यों होता है? मैं सीधे सीधे जवाब देता कि पता नहीं। उसने अपनी तरफ से खूब साम दाम दंड भेद अपनाया, लेकिन नीरज को अपने अनुकूल नहीं बना पाया।
अगले महीने सैलरी आई 5500 रुपये। यानी अमित ने मुझे इस बार 500 रुपये ही दिये हैं। मैं जेब में 500 का नोट लेकर सीधा अमित के ऑफिस गया। मेज पर नोट रखा और बोला कि सर, एक नालायक के प्रदर्शन के हिसाब से यह रकम बहुत ज्यादा है। इसे अपने पास रखिये, अगले महीने मुझे आपकी तरफ से कुछ भी ‘इनाम’ नहीं चाहिये।
एक कर्मचारी था रमेश। वो अल्मोडा के पास एक गांव का रहने वाला था। उसका भाई कैलाश भी इसी कम्पनी में मेरी निगाह में काम करता था। मुझे दो दिनों तक रमेश जब नहीं दिखाई दिया तो कैलाश से पूछा। उसने बताया कि वो गांव गया है। कितने दिन तक रहेगा? पता चला कि सोमवार को आ जायेगा।
मैंने कैलाश से उसके घर का पता लेकर वहां एक चक्कर लगाने चला गया। इस यात्रा वृत्तान्त को मैं पहले लिख चुका हूं। पढने के लिये यहां क्लिक करें।
वापस आया तो कम्पनी के मैनेजरों और बाकी इंजीनियरों में हडकम्प मचा हुआ था। नीरज- इंजीनियर- एक तुच्छ से कर्मचारी के घर गया। मेरे समकक्ष बार-बार हैरान-परेशान होकर यही पूछे जा रहे थे कि तू उस मामूली से कर्मचारी के घर क्यों गया? आनन-फानन में आपातकालीन मीटिंग की गई जिसका विषय यही था। इस मीटिंग में बाकी मैनेजरों के साथ साथ जीएम भी था।
मुझसे यही पूछा गया कि तू क्यों गया?... घूमने गया था। ... रमेश के घर ही क्यों?... क्योंकि वो पहाड का रहने वाला है। मुझे पहाड बहुत पसन्द हैं।... पहाड पसन्द हैं तो कहीं और क्यों नहीं गया?...
इस घटना के बाद वहां से मेरा मन बुरी तरह उजड गया। पहले मैं सोचता था कि अगर ये लोग मुझे निकालेंगे तो तीन महीने की सैलरी देंगे। अब उसका भी लालच नहीं रहा। दम घुटने लगा था। कर्मचारी पूरा सहयोग करते थे, समकक्ष और ऊपर वाले उस सहयोग की ऐसी तैसी कर देते थे। कम्पनी में हर कोने में सीसीटीवी कैमरे भी लगा दिये थे। मेरे लिये सख्त आदेश था कि मैं मशीन नहीं चलाऊंगा। सबको पता था कि ऐसा करके यह आराम करता है। मशीन नहीं चलाने का मतलब था कि आठ घण्टे बैठना भी निषिद्ध। खडे रहो और मशीनों के चक्कर लगाते रहो। रात की ड्यूटी में राहत मिलती थी, लेकिन जब एक दिन सुरक्षा गार्ड ने आकर मुझे मशीन से उठाया तो इस कम्पनी से नाता तोड लेने की बात दिमाग में आने लगी।
एक दिन कुरुक्षेत्र से एक प्लेसमेंट एजेंसी का फोन आया कि गुडगांव में एक कम्पनी को इंजीनियरों की जरुरत है। मैंने अमित वर्मा को फोन करके बताया कि मुझे जरूरी काम है, दो दिनों तक नहीं आऊंगा। अमित ने तुरन्त कहा कि नहीं तुम्हें छुट्टी नहीं मिलेगी। मैंने कहा कि मैं छुटी मांग नहीं रहा हूं, आपको बस सूचना दे रहा हूं। अमित ने कहा कि ठीक है, दो दिनों बाद जब आयेगा तो सबसे पहले मुझसे मिलना।
हालांकि इसके बाद कभी अमित से मिलना नहीं हो सका।
rochak
ReplyDeleteलिखते जबरदस्त हो भाई। पूरा दृश्य आंखों के सामने होता है। ऐसे ही घूमते रहो। लिखते रहो। घुमक्कड़ी जिंदाबाद
ReplyDeleteबहुत बढ़िया...यादें
ReplyDeleteनीरज बाबू, आपका नौकरी वृत्तान्त रोचक लगा, इस तरह के बंदे हर कंपनी में मिल जाते हैं, और वो अच्छा काम करने वालो से जलने लगते हैं, और चापलूसो से हमदर्दी जताने लगते हैं.पर आप जैसे लोग तरक्की करते जाते हैं...मैंने भी दिल्ली में नौकरी की हैं और ऐसे लोगो से पला पड़ा हैं.
ReplyDeleteमस्त है जाट भाई. उन्हीं DMRC में आपके जाने के बाद ही पहली दफे आपसे बात हुई थी.
ReplyDeleteकहानी आगे बढाईये.
बढ़िया चल रही है, हमें तो अपने भी पुराने दिनों की याद आ रही है ।
ReplyDeletemast hai bhai ji app ki noukri ki suruwat ki kahani aage ka vivran bi jaldi lik do ...............Ramesh ka name sunte he apna pan mehsus huha mai bi almora se aage bageshwar distt k ahu neeraj bhai
ReplyDeleteभाई अभी तुम जिस भी कंपनी में हो, जैसा की मैं पहले भी कह चुका उसके प्रबंधन को मेरा प्रणाम कहना न भूलना !
ReplyDeleteNEERAJ BHAI AAP KI JOB KA STORY VERY GOOD HAI DMRC KA BHI STORY LIKHHANA.
ReplyDeleteBahute badhiya!
ReplyDeleteNusrat saab kehte hain,"jaamm jisne utha liya hai fana, uski kismat me kamyabi hai", bas usi type ka case hai tumhara kuch kuch :D
भाईसाहाब, आपका कथन काफी गहरा है....
ReplyDeleteबहुत प्रवाहमय लिखा है, अब ये तो जाट कथा का प्रथम अंक हुआ, आगे का इंतजार रहेगा.
ReplyDeleteरामराम.
neeraj, bahut maza aaya padk kar ... shuruati naukri aur uski pareshaniyan ... sabhi aapki aap beeti se relate kar sakte hain ... agle bhaag ke intezaar mein .. zaldi likhna bhai
ReplyDeleteMaza aa gaya yar neeraj!! Tu to mhare dimag ka hi aadami hai.
ReplyDeleteGood writing, like to know how you join Metro.
ReplyDeletemazedaar
ReplyDeleteवाह जी वाह! काश मुझे भी कोई ऐसी नौकरी दे जहाँ चक्कर लगाने के पैसे मिलें! बाकी रहे समकक्ष और "ऊपरिकक्ष", उनको तो मैं बाहर देख ही लूँगा ;)
ReplyDeleteGhum ghum ke thak ho to chalo ghuma lawooon
ReplyDeleteGhum ghum ke thak ho to chalo ghuma lawooon
ReplyDeleteGhum ghum ke thak ho to chalo ghuma lawooon
ReplyDeleteGhum ghum ke thak ho to chalo ghuma lawooon
ReplyDeleteबहुत अच्छा लिखा है ! पर तुम एसी कंपनी में कहा फस गये थे ! चलो इस मामले में में तो सही रहा अपने बैच में ! २-३ महीने ही खली बैठा ! तब से अब तक भागता हुआ हे आ रहा हूँ ! अच्छा लिखा है ! फार्मूला ३६ इस्तेमाल सही से नहीं किया वरना प्रॉब्लम कुछ नहीं होती तुमको भी ! चलो अनुभव मिला जीवन में !!! बहुत सुंदर वर्णन किया है !
ReplyDeleteफार्मूला 36 क्या होता है?
DeleteSahi se pryog nahi kiya, production badh jata warna ... anyway you take it in wrong sorry for that !
DeleteThanks
ANuj Tyagi
जनाब, आपने हमारा कमेन्ट डिलीट कर दिया ? कोई नाराजगी थी क्या??
ReplyDeleteविक्रम जी,
Deleteमैंने कोई कमेंट नहीं हटाया लेकिन फिर भी अगर ऐसा हुआ है तो भूलवश ही हुआ है। कोई नाराजगी नहीं है।
क्या आपने Pankaj के नाम से कमेंट किया था?
"नीरज मुझे तुम्हारा 500 रुपये वापस करने का कम बहुत पसंद आया। दीवार के अमिताभ की याद आ गयी " मै फेंके हुए पैसे नहीं उठता ". संस्मरण लिखने का अंदाज बहुत ही सुंदर, एकदम मझे हुए लेखक की तरह ......... "
जय हो, नौकरी चर्चा भी किसी उपन्यास से कम रोचक नहीं है।
ReplyDeleteबहुत रोचक संस्मरण! प्राइवेट कंपनियों में काम के माहौल का अंदाजा हुआ।
ReplyDeleteशानदार नोकरी प्राप्ति वर्णन
ReplyDelete