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नीलकंठ से अब बारी थी वापस आने की। दोपहर बाद ढाई बजे के आसपास नीलकंठ से वापस चल दिये। बड़ी जबरदस्त तलब लगी है वापस चलने की क्योंकि अब सारे रास्ते नीचे ही उतरना है। ऋषिकेश से यहाँ आने में जो बुरी हालत हुई, अब हालत उसके बिल्कुल विपरीत होने वाली है। पैड़ल की जगह ब्रेक पर ध्यान लगाना पड़ेगा।
नीलकंठ से निकलते ही ढलान शुरू हो गयी। पाँच किलोमीटर तक बड़ी जबरदस्त ढलान है। दो सौ मीटर नीचे पहुँच जाते हैं हम इस दूरी में। एक बात बड़ी अच्छी है कि सड़क बिल्कुल मस्त है, कहीं कोई गड्ढा तक नहीं है। साइकिल की अधिकतम स्पीड़ 36.5 किलोमीटर प्रति घंटा रिकार्ड़ की गयी।
पाँच किलोमीटर बाद जब तिराहे से ऋषिकेश की तरफ़ मुड़ जाते हैं तो सड़क कुछ ऊबड़-खाबड़ हो जाती है। साइकिल के अगले पहिये को ऐसे में जबरदस्त झटके झेलने पड़ते हैं। इनसे बचने के लिये इसमें शॉकर लगे हैं।
कभी-कभी अचानक ब्रेक लगाने पड़ते तो डिस्क ब्रेक की महिमा पता चल जाती। करण की साइकिल में डिस्क ब्रेक नहीं हैं, तो पूरे जोर से ब्रेक लगाने पर भी काफ़ी आगे जाकर रुकती, जबकि मेरी वाली के पहिये डिस्क ब्रेक की वजह से वहीं के वहीं जाम हो जाते और कुछ दूर तक सड़क पर घिसटते। ऐसे में पंचर का खतरा होता है।
चाय पीकर फिर से चल पड़े। एक जगह नीचे उतरने का रास्ता बना था और हम पहुँच गये गंगा किनारे। एक बड़े-से पत्थर पर मैं लेट गया तो नींद आ गयी जबकि करण फोटो खींचता रहा।
आज रात रुकने का इरादा हरिद्वार में है। कल लालढांग से रास्ते कोटद्वार जाना है। अभी साढ़े चार बजे हैं और हमें हरिद्वार के लिये चालीस किलोमीटर और चलना है। घंटे भर बाद अंधेरा होना शुरू हो जायेगा। तब तक पशुलोक बैराज तक पहुँचना ज़रूरी है क्योंकि वहाँ तक पूरा रास्ता घने जंगल से होकर गुज़रता है। जंगल में अंधेरा और भी जल्दी हो जाता है।
रामझूला के बाद करीब दस किलोमीटर तक यह सड़क एक बेहतरीन सड़क का नमूना है। जंगल से होती हुई घुमावदार सड़क बिना ट्रैफिक के; आनंद आ गया। ज्यादातर ढलान ही ढलान है।
पशुलोक बैराज को वीरभद्र बैराज भी कहते हैं। करण मुझसे पहले वहाँ पहुँच गया था। जब तक मैं वहाँ पहुँचा, अंधेरा हो गया था। हमारी योजना चीला के रास्ते हरिद्वार जाने की थी, लेकिन करण कहने लगा कि अब अंधेरा हो गया है इसलिये इस जंगल वाले रास्ते से जाना खतरे से खाली नहीं है। मैंने मना कर दिया कि मेन रोड़ से नहीं जायेंगे, बल्कि इसी सड़क से जायेंगे। बाद में करण ने एक पुलिस वाले से भी पूछा, उसने भी यही बताया कि कोई परेशानी की बात नहीं है, आठ बजे तक हरिद्वार पहुँच जाओगे।
यहाँ से आगे रास्ता चीला नहर के साथ-साथ शुरू होता है। पशुलोक बैराज से एक नहर निकलती है, जिसे चीला नहर कहते हैं। यह करीब बीस किलोमीटर का सफ़र तय करके हरिद्वार के पास फिर गंगा में मिल जाती है। यह पूरी तरह पक्की बनी है और गंगा में मिलने से पहले चीला नामक स्थान पर इस पर एक विद्युत उत्पादन इकाई लगी है। जहाँ मुख्य सड़क यानी राष्ट्रीय राजमार्ग गंगा के दाहिने किनारे के साथ चलता है, वहीं यह नहर गंगा के बायें किनारे के पास से बहती है। इसी नहर की पटरी पर पक्की सड़क भी बनी है, जिस पर हम चल रहे हैं। सारा रास्ता ढलान वाला है, लेकिन उतना ढलान नहीं है कि साइकिल बिना पैड़ल मारे चल जाये।
रास्ते में एक नदी पड़ती है, जिसके नीचे से नहर निकल जाती है। इस पर कोई पुल नहीं बना है, और सड़क भी नहीं है। इस मौसम में मुझे इसमें पानी होने की कोई उम्मीद नहीं थी, लेकिन इसमें पानी था। रेत होने की वजह से धारा के बीचोंबीच साइकिल रुक गयी, हम साइकिलों को नहीं खींच पाये और बाकी धारा पैदल भीगते हुए पार करनी पड़ी।
इससे आगे चले तो एक मंदिर मिला। हालाँकि यह नहर से कुछ हटकर है और वहाँ लाइटें जली हैं, नहर के पास एक पक्का चबूतरा भी बना है। हम मंदिर की लाइटों को देखकर कुछ निर्भयी हो जाते हैं और चबूतरे पर बैठकर बिस्कुट नमकीन खाने लगते हैं।
हम राजाजी राष्ट्रीय पार्क में हैं और इसमें तेंदुओं तथा हाथियों की भरमार है। अंधेरा हो चुका है, दूर-दूर तक जंगल में और कोई आदमजात नहीं है, नहर भी चुपचाप बह रही है, हम इसी जंगल में एक पेड़ के नीचे बैठे बिस्कुट खा रहे हैं। अगर मंदिर की लाइटें न होतीं तो हमारी बिल्कुल भी हिम्मत नहीं होती कि दो मिनट के लिये भी साइकिल रोक लें। कितना निडर बना रही हैं हमें वे लाइटें!
यहाँ से फर्राटा भरा तो सीधे बिजलीघर के पुल पर ही जाकर रुके। अब हमें नहर छोड देनी है और जंगल में अन्दर घुस जाना है। नहर के साथ-साथ चलने का एक फायदा था कि इसके किनारे केवल झाड़ियाँ हैं, पेड़ नहीं हैं। अब पेड़ भी शुरू हो जायेंगे। झाड़ियों से हमें एहसास हो रहा था कि हम मैदान के बीच से चल रहे हैं। अब एहसास होने लगा कि जंगल से गुज़र रहे हैं। तीन किलोमीटर आगे भीमगोड़ा बैराज तक ऐसा ही रास्ता है। आधा किलोमीटर ही चले कि करण ने एक स्कूटर वाले को आवाज़ दी। वो नहीं रुका तो मैंने इसका कारण पूछा। बताया कि मुझे डर लग रहा है, उससे साथ चलने को कहता।
ठीक आठ बजे हम हरिद्वार में थे। अचानक करण ने धमाका किया कि दिल्ली चलो। मैं इस धमाके से हैरान रह गया। क्यों भाई? क्योंकि परसों मुझे पाकिस्तान जाना है, कल जाने की तैयारियाँ करूँगा। बात तो सही है, लेकिन कल से अब तक हम साथ-साथ घूम रहे हैं, दो दिनों की योजना बनाकर आये हैं, तब से क्यों नहीं सोचा था कि पाकिस्तान भी जाना है? अब जब हम बुरी तरह थके हैं, बिस्तर पर पड़कर सोने के अलावा कुछ भी नहीं सूझ रहा, अब तुम कह रहे हो कि रात्रि-बस पकड़कर दिल्ली चलो।
हममें बात बढ़ती, इससे पहले ही तय हुआ कि पैदल बस अड्डे तक चलते हैं और खाना खाते हैं। इस धमाके से मैं बुरी तरह विचलित हो गया था। लेकिन दिमाग से काम लेते हुए मैंने सोच लिया कि पैदल बस अड्डे तक जाने और खाना खाने के दौरान मैं कुछ काम की बात सोच ही लूंगा। मैं हैरान था कि इस बारे में करण ने अब तक क्यों ज़िक्र नहीं किया? क्यों छुपाये रखी अपने मन की बात। कुछ घंटों पहले जब हम नीलकंठ जा रहे थे तो यही करण कह रहा था कि दुगड्डा चलो, जो होगा देखा जायेगा।
ख़ैर, जब खाना खाकर उठे तो मेरा मन बहुत हल्का हो चुका था। मैं भी निर्णय ले चुका था।
रात तीन बजे हम दोनों दिल्ली में थे।
नीलकंठ से अब बारी थी वापस आने की। दोपहर बाद ढाई बजे के आसपास नीलकंठ से वापस चल दिये। बड़ी जबरदस्त तलब लगी है वापस चलने की क्योंकि अब सारे रास्ते नीचे ही उतरना है। ऋषिकेश से यहाँ आने में जो बुरी हालत हुई, अब हालत उसके बिल्कुल विपरीत होने वाली है। पैड़ल की जगह ब्रेक पर ध्यान लगाना पड़ेगा।
नीलकंठ से निकलते ही ढलान शुरू हो गयी। पाँच किलोमीटर तक बड़ी जबरदस्त ढलान है। दो सौ मीटर नीचे पहुँच जाते हैं हम इस दूरी में। एक बात बड़ी अच्छी है कि सड़क बिल्कुल मस्त है, कहीं कोई गड्ढा तक नहीं है। साइकिल की अधिकतम स्पीड़ 36.5 किलोमीटर प्रति घंटा रिकार्ड़ की गयी।
पाँच किलोमीटर बाद जब तिराहे से ऋषिकेश की तरफ़ मुड़ जाते हैं तो सड़क कुछ ऊबड़-खाबड़ हो जाती है। साइकिल के अगले पहिये को ऐसे में जबरदस्त झटके झेलने पड़ते हैं। इनसे बचने के लिये इसमें शॉकर लगे हैं।
कभी-कभी अचानक ब्रेक लगाने पड़ते तो डिस्क ब्रेक की महिमा पता चल जाती। करण की साइकिल में डिस्क ब्रेक नहीं हैं, तो पूरे जोर से ब्रेक लगाने पर भी काफ़ी आगे जाकर रुकती, जबकि मेरी वाली के पहिये डिस्क ब्रेक की वजह से वहीं के वहीं जाम हो जाते और कुछ दूर तक सड़क पर घिसटते। ऐसे में पंचर का खतरा होता है।
चाय पीकर फिर से चल पड़े। एक जगह नीचे उतरने का रास्ता बना था और हम पहुँच गये गंगा किनारे। एक बड़े-से पत्थर पर मैं लेट गया तो नींद आ गयी जबकि करण फोटो खींचता रहा।
आज रात रुकने का इरादा हरिद्वार में है। कल लालढांग से रास्ते कोटद्वार जाना है। अभी साढ़े चार बजे हैं और हमें हरिद्वार के लिये चालीस किलोमीटर और चलना है। घंटे भर बाद अंधेरा होना शुरू हो जायेगा। तब तक पशुलोक बैराज तक पहुँचना ज़रूरी है क्योंकि वहाँ तक पूरा रास्ता घने जंगल से होकर गुज़रता है। जंगल में अंधेरा और भी जल्दी हो जाता है।
रामझूला के बाद करीब दस किलोमीटर तक यह सड़क एक बेहतरीन सड़क का नमूना है। जंगल से होती हुई घुमावदार सड़क बिना ट्रैफिक के; आनंद आ गया। ज्यादातर ढलान ही ढलान है।
पशुलोक बैराज को वीरभद्र बैराज भी कहते हैं। करण मुझसे पहले वहाँ पहुँच गया था। जब तक मैं वहाँ पहुँचा, अंधेरा हो गया था। हमारी योजना चीला के रास्ते हरिद्वार जाने की थी, लेकिन करण कहने लगा कि अब अंधेरा हो गया है इसलिये इस जंगल वाले रास्ते से जाना खतरे से खाली नहीं है। मैंने मना कर दिया कि मेन रोड़ से नहीं जायेंगे, बल्कि इसी सड़क से जायेंगे। बाद में करण ने एक पुलिस वाले से भी पूछा, उसने भी यही बताया कि कोई परेशानी की बात नहीं है, आठ बजे तक हरिद्वार पहुँच जाओगे।
यहाँ से आगे रास्ता चीला नहर के साथ-साथ शुरू होता है। पशुलोक बैराज से एक नहर निकलती है, जिसे चीला नहर कहते हैं। यह करीब बीस किलोमीटर का सफ़र तय करके हरिद्वार के पास फिर गंगा में मिल जाती है। यह पूरी तरह पक्की बनी है और गंगा में मिलने से पहले चीला नामक स्थान पर इस पर एक विद्युत उत्पादन इकाई लगी है। जहाँ मुख्य सड़क यानी राष्ट्रीय राजमार्ग गंगा के दाहिने किनारे के साथ चलता है, वहीं यह नहर गंगा के बायें किनारे के पास से बहती है। इसी नहर की पटरी पर पक्की सड़क भी बनी है, जिस पर हम चल रहे हैं। सारा रास्ता ढलान वाला है, लेकिन उतना ढलान नहीं है कि साइकिल बिना पैड़ल मारे चल जाये।
रास्ते में एक नदी पड़ती है, जिसके नीचे से नहर निकल जाती है। इस पर कोई पुल नहीं बना है, और सड़क भी नहीं है। इस मौसम में मुझे इसमें पानी होने की कोई उम्मीद नहीं थी, लेकिन इसमें पानी था। रेत होने की वजह से धारा के बीचोंबीच साइकिल रुक गयी, हम साइकिलों को नहीं खींच पाये और बाकी धारा पैदल भीगते हुए पार करनी पड़ी।
इससे आगे चले तो एक मंदिर मिला। हालाँकि यह नहर से कुछ हटकर है और वहाँ लाइटें जली हैं, नहर के पास एक पक्का चबूतरा भी बना है। हम मंदिर की लाइटों को देखकर कुछ निर्भयी हो जाते हैं और चबूतरे पर बैठकर बिस्कुट नमकीन खाने लगते हैं।
हम राजाजी राष्ट्रीय पार्क में हैं और इसमें तेंदुओं तथा हाथियों की भरमार है। अंधेरा हो चुका है, दूर-दूर तक जंगल में और कोई आदमजात नहीं है, नहर भी चुपचाप बह रही है, हम इसी जंगल में एक पेड़ के नीचे बैठे बिस्कुट खा रहे हैं। अगर मंदिर की लाइटें न होतीं तो हमारी बिल्कुल भी हिम्मत नहीं होती कि दो मिनट के लिये भी साइकिल रोक लें। कितना निडर बना रही हैं हमें वे लाइटें!
यहाँ से फर्राटा भरा तो सीधे बिजलीघर के पुल पर ही जाकर रुके। अब हमें नहर छोड देनी है और जंगल में अन्दर घुस जाना है। नहर के साथ-साथ चलने का एक फायदा था कि इसके किनारे केवल झाड़ियाँ हैं, पेड़ नहीं हैं। अब पेड़ भी शुरू हो जायेंगे। झाड़ियों से हमें एहसास हो रहा था कि हम मैदान के बीच से चल रहे हैं। अब एहसास होने लगा कि जंगल से गुज़र रहे हैं। तीन किलोमीटर आगे भीमगोड़ा बैराज तक ऐसा ही रास्ता है। आधा किलोमीटर ही चले कि करण ने एक स्कूटर वाले को आवाज़ दी। वो नहीं रुका तो मैंने इसका कारण पूछा। बताया कि मुझे डर लग रहा है, उससे साथ चलने को कहता।
ठीक आठ बजे हम हरिद्वार में थे। अचानक करण ने धमाका किया कि दिल्ली चलो। मैं इस धमाके से हैरान रह गया। क्यों भाई? क्योंकि परसों मुझे पाकिस्तान जाना है, कल जाने की तैयारियाँ करूँगा। बात तो सही है, लेकिन कल से अब तक हम साथ-साथ घूम रहे हैं, दो दिनों की योजना बनाकर आये हैं, तब से क्यों नहीं सोचा था कि पाकिस्तान भी जाना है? अब जब हम बुरी तरह थके हैं, बिस्तर पर पड़कर सोने के अलावा कुछ भी नहीं सूझ रहा, अब तुम कह रहे हो कि रात्रि-बस पकड़कर दिल्ली चलो।
हममें बात बढ़ती, इससे पहले ही तय हुआ कि पैदल बस अड्डे तक चलते हैं और खाना खाते हैं। इस धमाके से मैं बुरी तरह विचलित हो गया था। लेकिन दिमाग से काम लेते हुए मैंने सोच लिया कि पैदल बस अड्डे तक जाने और खाना खाने के दौरान मैं कुछ काम की बात सोच ही लूंगा। मैं हैरान था कि इस बारे में करण ने अब तक क्यों ज़िक्र नहीं किया? क्यों छुपाये रखी अपने मन की बात। कुछ घंटों पहले जब हम नीलकंठ जा रहे थे तो यही करण कह रहा था कि दुगड्डा चलो, जो होगा देखा जायेगा।
ख़ैर, जब खाना खाकर उठे तो मेरा मन बहुत हल्का हो चुका था। मैं भी निर्णय ले चुका था।
रात तीन बजे हम दोनों दिल्ली में थे।
नीलकंठ साइकिल यात्रा
1. ऋषिकेश से नीलकंठ साइकिल यात्रा
2. नीलकंठ से हरिद्वार साइकिल यात्रा
दीप पर्व की
ReplyDeleteहार्दिक शुभकामनायें
देह देहरी देहरे, दो, दो दिया जलाय-रविकर
लिंक-लिक्खाड़ पर है ।।
वाह! मज़ा आ गया यह पढ़कर , हमें इन सुन्दर जगहों पर ले जाने के लिए आपका बहुत बहुत धन्यवाद् , आशा करता हूँ आपकी दिवाली अची तरह बीतेगी
ReplyDeleteनीरज जी दीवाली की बहुत बहुत शुभकामनाये...
ReplyDeleteआखिरी फोटो देखकर आपको एक नया नाम दे रहा हूँ "बाबा नीरज दास घुमंतू हिमालय वाले". दिवाली की हार्दिक शुभकामनाएं।
ReplyDeleteवाह, बहुत बढ़िया नीरज भाई... यात्रा के फोटो भी ज़बरदस्त हैं और आपका फोटो भी।
ReplyDeleteसुन्दर प्रस्तुति!
ReplyDelete--
दीवाली का पर्व है, सबको बाँटों प्यार।
आतिशबाजी का नहीं, ये पावन त्यौहार।।
लक्ष्मी और गणेश के, साथ शारदा होय।
उनका दुनिया में कभी, बाल न बाँका होय।
--
आपको दीपावली की हार्दिक शुभकामनाएँ!
एकदा साइकिले..
ReplyDeleteनीरज भाई,सादर अभिवादन ,आप का ब्लॉग पढ़ा ...इतना खूबसूरत ब्लॉग ,शब्द ऐसे कि लगता हैं मैं खुद अपनी आँखों से देख रहा हूँ ,दीपावली कि शुभकामनाये |आपका अजय
ReplyDeletemeine aapko bola tha ki raja ji national park ke lie accha hay aap ho aaye
ReplyDeleteMain bhi ek janmjat ghumakkar hoon lekin meri ichcha puri nahi ho pai, ab 50 saal ka ho gaya hoon aur ab meri Mansarovar jaane ki ichcha puri nahin hogi, meri dua hai, aap ghoomte raho aur hame gumate raho.
ReplyDeleteMunsiary jaane ki ichcha hai, pahle aap ghoom lo, aapke yatra se kafi jaankari milegi, phi mainbji jaunga.