Skip to main content

ज्वालामुखी - एक चमत्कारी शक्तिपीठ

इस यात्रा वृत्तान्त को शुरू से पढने के लिये यहां क्लिक करें
ज्वालामुखी देवी हिमाचल प्रदेश के कांगड़ा जिले में कांगड़ा से करीब दो घण्टे की दूरी पर है। दूरी मापने का मानक घण्टे इसलिए दे रहा हूँ कि यहाँ जाम ज़ूम नहीं लगता है और पहाड़ी रास्ता है, मतलब गाड़ियां ना तो रूकती हैं और ना ही तेज चाल से दौड़ पाती हैं। ज्वालामुखी एक शक्तिपीठ है जहाँ देवी सती की जीभ गिरी थी। सभी शक्तिपीठों में यह शक्तिपीठ अनोखा इसलिए माना जाता है कि यहाँ ना तो किसी मूर्ति की पूजा होती है ना ही किसी पिंडी की, बल्कि यहाँ पूजा होती है धरती के अन्दर से निकलती ज्वाला की।
...
धरती के गर्भ से यहाँ नौ स्थानों पर आग की ज्वाला निकलती रहती है। इन्ही पर मंदिर बना दिया गया है और इन्ही पर प्रसाद चढ़ता है। आज के आधुनिक युग में रहने वाले हम लोगों के लिए ऐसी ज्वालायें कोई आश्चर्य की बात नहीं है, क्योंकि पृथ्वी की अंदरूनी हलचल के कारण पूरी दुनिया में कहीं ज्वाला कहीं गरम पानी निकलता रहता है। कहीं-कहीं तो बाकायदा पावर हाऊस भी बनाए गए हैं, जिनसे बिजली उत्पादित की जाती है। लेकिन यहाँ पर यही तो चमत्कार है।

...
अंग्रेजी काल में अंग्रेजों ने अपनी तरफ से पूरा जोर लगा दिया कि जमीन के अन्दर से निकलती 'ऊर्जा' का इस्तेमाल किया जाए। लेकिन लाख कोशिश करने पर भी वे इस 'ऊर्जा' को नहीं ढूंढ पाए। अंत में उन्होंने घोषित किया कि यहाँ ज्वाला चमत्कारी रूप से ही निकलती है ना कि प्राकृतिक रूप से, नहीं तो आज यहाँ मंदिर की जगह मशीनें लगी होतीं और बिजली का उत्पादन होता।
...
इसके बारे में एक और कथा जुडी है। अकबर ने जब इसके बारे में सुना तो उसने इस ज्वाला को किसी भी तरह बंद करने का आदेश दिया। लेकिन अनगिनत कोशिश करने पर भी वो ऐसा ना कर सका। अंत में इसकी चमत्कारी शक्ति को जानकार उसने यहाँ पर मत्था टेका और सवा मन (पचास किलो) सोने का छत्र चढ़ाया। मंदिर के पास ही गोरख डिब्बी है। कहते हैं कि यहाँ गुरु गोरखनाथ जी पधारे थे और अपने चमत्कार दिखाए थे। असल में इस जगह पर एक कुण्ड है। इसमें भरा हुआ जल लगातार उबलता रहता है और ठंडा है।
...
यहाँ पहुंचे कैसे? यहाँ पहुंचना बेहद आसान है। दिल्ली, चंडीगढ़, कांगड़ा, शिमला, जालंधर से यहाँ के लिए नियमित बसें चलती हैं। वैसे तो निकटतम रेलवे स्टेशन ज्वालामुखी रोड है जो पठानकोट-जोगिन्दर नगर छोटी लाइन पर स्थित है लेकिन सुविधाजनक स्टेशन चंडीगढ़, ऊना, पठानकोट व जालंधर है। यहाँ जाने का उपयुक्त समय जाड़े का मौसम माना जा सकता है क्योंकि एक तो गर्मी नहीं रहती और दूसरे भीड़ भी कम रहती है।
...
तो कब जा रहे हो?
(मन्दिर की तरफ़ जाते रास्ते पर लगी प्रसाद की दुकानें। भीड़ नहीं है ना? इस मौसम में यहाँ भीड़ नहीं होती है।)
.
(ज्वाला जी बस अड्डे के सामने बना गेट। यहाँ से मन्दिर करीब आधा किलोमीटर दूर है।)
.
(आधा किलोमीटर के बाद सीढियां। इन पर चढ़ते ही सामने मन्दिर दिख जाता है।)
.
(ज्वालामुखी मन्दिर। अन्दर फोटो खींचना मना था इसलिए बाहर से ही देख लो। सोने का यह छत्र महाराजा रणजीत सिंह ने लगवाया था।)
.
(मुख्य मन्दिर के सामने ही माता का शयन स्थल है। मुझे लगता है कि यह छत्र अकबर का छत्र है। इस पर मुग़ल कालीन सजावट साफ़ दिख रही है)
.

(ज्वाला जी मन्दिर का एक और दृश्य)


अगला भाग: टेढ़ा मंदिर

धर्मशाला कांगडा यात्रा श्रंखला
1. धर्मशाला यात्रा
2. मैक्लोडगंज- देश में विदेश का एहसास
3. दुर्गम और रोमांचक- त्रियुण्ड
4. कांगडा का किला
5. ज्वालामुखी- एक चमत्कारी शक्तिपीठ
6. टेढा मन्दिर

Comments

  1. चित्र और जानकारी बढ़िया रहीं।।

    ReplyDelete
  2. आभार

    प्रणाम स्वीकार करें

    ReplyDelete
  3. This comment has been removed by the author.

    ReplyDelete
  4. very nice....Neeraj Jat ji.................... for Extra Details of Jawalaji ......Click here......... rhttp://muktidham.in/flash_animation/Jawala_devi.html

    ReplyDelete
  5. This comment has been removed by the author.

    ReplyDelete
  6. घुमक्कड़ी जिंदाबाद

    ReplyDelete
  7. अच्छी जानकारी

    और अब मन जा कर दर्शन करने को व्याकुल हो रहा है.

    ReplyDelete
  8. नीरज भैया ज्वालामुखी देवी मंदिर मै भी २००८ अप्रैल गया था , तब तो वहां मंदिर के अन्दर भी कैमरा ले जाना मना नहीं था, मैंने फोटो भी खींची ही जो ब्लॉग पर भी है , वहा तो सिक्यूरिटी चेकिंग थी ही नहीं .

    ReplyDelete

Post a Comment

Popular posts from this blog

तिगरी गंगा मेले में दो दिन

कार्तिक पूर्णिमा पर उत्तर प्रदेश में गढ़मुक्तेश्वर क्षेत्र में गंगा के दोनों ओर बड़ा भारी मेला लगता है। गंगा के पश्चिम में यानी हापुड़ जिले में पड़ने वाले मेले को गढ़ गंगा मेला कहा जाता है और पूर्व में यानी अमरोहा जिले में पड़ने वाले मेले को तिगरी गंगा मेला कहते हैं। गढ़ गंगा मेले में गंगा के पश्चिम में रहने वाले लोग भाग लेते हैं यानी हापुड़, मेरठ आदि जिलों के लोग; जबकि अमरोहा, मुरादाबाद आदि जिलों के लोग गंगा के पूर्वी भाग में इकट्ठे होते हैं। सभी के लिए यह मेला बहुत महत्व रखता है। लोग कार्तिक पूर्णिमा से 5-7 दिन पहले ही यहाँ आकर तंबू लगा लेते हैं और यहीं रहते हैं। गंगा के दोनों ओर 10-10 किलोमीटर तक तंबुओं का विशाल महानगर बन जाता है। जिस स्थान पर मेला लगता है, वहाँ साल के बाकी दिनों में कोई भी नहीं रहता, कोई रास्ता भी नहीं है। वहाँ मानसून में बाढ़ आती है। पानी उतरने के बाद प्रशासन मेले के लिए रास्ते बनाता है और पूरे खाली क्षेत्र को सेक्टरों में बाँटा जाता है। यह मुख्यतः किसानों का मेला है। गन्ना कट रहा होता है, गेहूँ लगभग बोया जा चुका होता है; तो किसानों को इस मेले की बहुत प्रतीक्षा रहती है। ज्...

अदभुत फुकताल गोम्पा

इस यात्रा-वृत्तान्त को आरम्भ से पढने के लिये यहां क्लिक करें ।    जब भी विधान खुश होता था, तो कहता था- चौधरी, पैसे वसूल हो गये। फुकताल गोम्पा को देखकर भी उसने यही कहा और कई बार कहा। गेस्ट हाउस से इसकी दूरी करीब एक किलोमीटर है और यहां से यह विचित्र ढंग से ऊपर टंगा हुआ दिखता है। इसकी आकृति ऐसी है कि घण्टों निहारते रहो, थकोगे नहीं। फिर जैसे जैसे हम आगे बढते गये, हर कदम के साथ लगता कि यह और भी ज्यादा विचित्र होता जा रहा है।    गोम्पाओं के केन्द्र में एक मन्दिर होता है और उसके चारों तरफ भिक्षुओं के कमरे होते हैं। आप पूरे गोम्पा में कहीं भी घूम सकते हैं, कहीं भी फोटो ले सकते हैं, कोई मनाही व रोक-टोक नहीं है। बस, मन्दिर के अन्दर फोटो लेने की मनाही होती है। यह मन्दिर असल में एक गुफा के अन्दर बना है। कभी जिसने भी इसकी स्थापना की होगी, उसी ने इस गुफा में इस मन्दिर की नींव रखी होगी। बाद में धीरे-धीरे यह विस्तृत होता चला गया। भिक्षु आने लगे और उन्होंने अपने लिये कमरे बनाये तो यह और भी बढा। आज इसकी संरचना पहाड पर मधुमक्खी के बहुत बडे छत्ते जैसी है। पूरा गोम्पा मिट्टी, लकडी व प...

जाटराम की पहली पुस्तक: लद्दाख में पैदल यात्राएं

पुस्तक प्रकाशन की योजना तो काफी पहले से बनती आ रही थी लेकिन कुछ न कुछ समस्या आ ही जाती थी। सबसे बडी समस्या आती थी पैसों की। मैंने कई लेखकों से सुना था कि पुस्तक प्रकाशन में लगभग 25000 रुपये तक खर्च हो जाते हैं और अगर कोई नया-नवेला है यानी पहली पुस्तक प्रकाशित करा रहा है तो प्रकाशक उसे कुछ भी रॉयल्टी नहीं देते। मैंने कईयों से पूछा कि अगर ऐसा है तो आपने क्यों छपवाई? तो उत्तर मिलता कि केवल इस तसल्ली के लिये कि हमारी भी एक पुस्तक है। फिर दिसम्बर 2015 में इस बारे में नई चीज पता चली- सेल्फ पब्लिकेशन। इसके बारे में और खोजबीन की तो पता चला कि यहां पुस्तक प्रकाशित हो सकती है। इसमें पुस्तक प्रकाशन का सारा नियन्त्रण लेखक का होता है। कई कम्पनियों के बारे में पता चला। सभी के अलग-अलग रेट थे। सबसे सस्ते रेट थे एजूक्रियेशन के- 10000 रुपये। दो चैप्टर सैम्पल भेज दिये और अगले ही दिन उन्होंने एप्रूव कर दिया कि आप अच्छा लिखते हो, अब पूरी पुस्तक भेजो। मैंने इनका सबसे सस्ता प्लान लिया था। इसमें एडिटिंग शामिल नहीं थी।