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करोल के जंगलों में

एक महीने से भी ज्यादा समय हो गया था कहीं गए हुए। पिछले महीने देवप्रयाग गया था। तभी एक दोस्त ललित को पता चला कि मैं घुमक्कडी करता हूँ। बोला कि यार अब जहाँ भी जाएगा, बता देना, मैं भी चलूँगा तेरे साथ। अब मैंने अपना दिमाग लगाया। सोचा कि मेरी तरह इसे भी तीन-चार दिन की छुट्टी आराम से मिल जायेगी। चल बेटे, केदारनाथ चलते हैं। बैठे-बिठाए थोडी देर में ही तय हो गया कि कब यहाँ से चलना है, कब वहां से चलना है। लेकिन 19 अक्टूबर को केदारनाथ के कपाट बंद हो गए। कपाट बंद होते ही अगले के तो तोते उड़ गए। बोला कि नहीं यार, इस रविवार को मेरी फलानी परीक्षा है। वैसे भी अब क्या फायदा वहां जाने का? वहां तो भगवान् जी के भी दर्शन नहीं होंगे। अगली बार चलूँगा, जहाँ भी तू कहेगा, पक्का।
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ललित ने तो इस बार मेरे साथ जाने से मना कर दिया लेकिन उधर मेरी हालत खराब होनी शुरू हो गयी। पेट में घुमक्कडी के खदके लगने शुरू हो गए, गैस के गोले बनने लगे। इसका मतलब था कि कहीं ना कहीं जाना ही पड़ेगा। तभी आशीष खंडेलवाल से लाइन मिल गयी। उन्होंने फिलहाल जयपुर आने से मना कर दिया। ऑफिस वर्क की अति होने की वजह से। नैनीताल वाली विनीता यशस्वी से संपर्क किया। उन्होंने ना तो ना की, ना ही हाँ की। कहा कि बाद में बताती हूँ। अभी तक तो बताया नहीं।
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अब मैंने वो फैसला लिया, जिसे ऐसी परिस्थितियों में लेता ही हूँ। अकेला ही जाऊँगा। पहले तो हिमाचल में मण्डी जाने का प्लान बना। बना और कैंसल हो गया। फिर नैनीताल, फिर अमृतसर, फिर रेल संग्रहालय दिल्ली। शनिवार की शाम को दिमाग में आया - सोलन। हिंदुस्तान के एक व्यस्त पर्यटन मार्ग कालका-शिमला के बीचोंबीच है सोलन। हिमाचल प्रदेश का एक जिला।
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दिल्ली की रातों में आजकल ठंडक बढ़ने लगी है। तो जाहिर सी बात है कि 1600 मीटर की ऊंचाई वाले सोलन में तो और भी ज्यादा ठण्ड होगी। बैग में एक गर्म इनर रखा और चल पड़ा। कश्मीरी गेट से रात को दस बजे शिमला वाली बस पकड़ी और 25 अक्टूबर 2009 को सुबह छः बजे सोलन जा पहुंचा। मैं पहले से ही सोचकर आया था कि करोल का टिब्बा जाना है। वहां कोई गुफा-वुफा भी है। लेकिन यहाँ आते ही ठण्ड से बुरा हाल हो गया। बिलकुल पाला पड़ रहा था। बस स्टैंड के पास तो ज्यादा खुला नहीं है इसलिए धूप भी नहीं थी। मैं नीचे रेलवे स्टेशन पर चला गया। वहां धूप थी। मैं धूप में एक-डेढ़ घंटे तक बैठा रहा।
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अगर सोलन शिमला नहीं है, तो शिमला से कम भी नहीं है। यहाँ भी मॉल रोड है, जिस पर शाम के समय ट्रैफिक बंद कर दिया जाता है। शिमला की ही तरह यह भी कई पहाडियों पर काफी बड़े भाग में बसा हुआ है। लेकिन चूंकि यहाँ 'बाहरी लोग' नहीं आते, इसलिए ज्यादा शांत भी है। आसपास घूमने को भी बहुत कुछ है। चायल (चैल) है, जटोली है, अर्की है, बडोग है और करोल है। जब धूप बढ़ने लगी तो मुझमे भी हलचल हो गयी। नाश्ता करके 2-3 किलोमीटर दूर चम्बाघाट पहुंचा। करोल के लिए रास्ता यहीं से जाता है। यहाँ रेल का फाटक भी है। मेरे सामने एक ट्रेन भी गुजरी थी।
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यहाँ तक पंजाबी बोली का बाहुल्य है। मैंने एक सब्जी वाले से करोल का रास्ता पूछा तो उसने उल्टे मुझसे ही पूछ लिया -"ओ, केल्ले हो क्या?"
"हाँ जी, केल्ला ही हूँ।"
"यार, तैन्नूं बहोत चढाई करणी पड़ेगी।"
"कोई गल्ल नी जी।"
"तो जाओ, उत्थे मकानां विच्च रस्ता जांदा है। बाब्बे दी किरपा से पहोंच ही जाओगे।"

(यह है ललित। बेटे, ऑफिस में बैठकर मुस्कराना बहुत आसान है, जब मेरे साथ 'साईट' पर चलेगा तब पता चलेगा।)
(सोलन में एक रेलवे सुरंग)
(सामने है सोलन का रेलवे स्टेशन। वहां धूप में मैंने डेढ़ घंटा बिताया, तब जाकर मुझे गर्मी मिली।)
(सोलन शहर का एक हिस्सा)
(चम्बाघाट में रेल-रोड क्रोसिंग और सामने से आती ट्रेन)

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यहाँ से करोल जाने का जो रास्ता मुझे बताया गया, उसकी दिशा एक ऐसी पहाडी की ओर है जो ज्यादा ऊँची नहीं दिख रही थी। मेरा अंदाजा था कि वो गुफा व गुफा के पास बना एक मंदिर इस पहाडी के उस पार होना चाहिए। जल्दी ही चम्बाघाट क़स्बा भी पीछे छूट गया। अब मेरा साथ दे रहे थे केवल जंगल, पर्वत व कंक्रीट की बनी पगडण्डी। जितना ऊपर चढ़ता जा रहा था, चम्बाघाट व सोलन शहर भी उतने ही विहंगम लग रहे थे। कभी-कभी रास्ते में कोई मिल भी जाता था, उससे रास्ता कन्फर्म कर लेता था।
तभी कुछ आगे ऊपर शोर सुनाई दिया - इंसानी शोर। शोर सुनकर ही लगभग मालूम पड़ जाता है कि यह शोर क्यों हो रहा है। मुझे लगा कि आठ-दस लड़के हैं और शायद वे भी करोल ही जा रहे हैं। वह एक हँसी-मजाक व तफरीह का शोर था। जल्दी ही मैं उनके पास जा पहुंचा। देखा कि काफी बड़ा ग्रुप है। इसमें कुछ लड़कियां व कुछ लड़के थे। खूब हा-हा, हू-हू करते हुए चल रहे थे। मेरी ये आदत है या कहिये कमी है कि मैं बाहर किसी से घुलमिल नहीं पाता हूँ। इसलिए उनसे बिना कुछ कहे सुने ही मैं आगे निकल गया। सभी के पास कमर पर लटके बैग थे तो जाहिर था कि वे भी करोल ही जा रहे होंगे।
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आगे एक महिला मिली। वे नीचे चम्बाघाट से ऊपर अपने गाँव जा रही थी। उन्होंने बताया कि गुफा अभी भी बहुत दूर है। कम से कम दो घंटे और लगेंगे। सीधे इसी पगडण्डी से चलते जाना, पहुँच जाओगे।
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आगे बिलकुल सीधी खड़ी चट्टान थी। यहाँ कंक्रीट की पगडण्डी नहीं थी। केवल कटर से चट्टान को काटकर रास्ता बना रखा था। यहीं पर एक चट्टान ऐसी काटी गयी थी कि दो दिशाओं में दो पगडंडियाँ जाती दिखाई दीं। मेरा दिमाग खराब हो गया कि किस रास्ते से जाऊं। अब मैंने एक ट्रिक सोची। यहीं बैठकर उस ग्रुप की प्रतीक्षा करने लगा। जब वे लोग पास आते दिखे, फटाफट चढ़कर एक पगडण्डी पर चलने लगा। और थोडी दूर जाकर फिर बैठ गया।
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मुझे देखना ये था कि वे लोग किस रास्ते से जायेंगे। अगर मेरी तरफ आये तो मेरी बल्ले-बल्ले हो जायेगी। और अगर दूसरी तरफ से चले गए तो मैं भी उनके पीछे-पीछे हो लूँगा। यानी कि दोनों हाथों में लड्डू। भटकूँगा नहीं। अच्छा, जब वे उस 'तिराहे' पर पहुंचे, तो उनका भी दिमाग खराब हो गया होगा। संयोग से उनमे से एक ने मुझे देख लिया। बस, फिर क्या था। सभी मेरी तरफ ही आने लगे।
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यहाँ से आगे भी पगडण्डी बहुत ही खराब हालत में थी। रास्ते में कोई मिल भी नहीं रहा था, इसलिए मुझे उस ग्रुप के साथ ही मिलना पड़ा। वे कुल सोलह जने थे - आठ लड़के व आठ लड़कियां। सोलन से लॉ स्टुडेंट थे यानी कानूनी छात्र। मेरा परिचय जानकार सभी आश्चर्यचकित रह गए कि तुम केवल करोल के लिए दिल्ली से यहाँ आये हो!
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अच्छा हाँ, हमने उस तिराहे से वो जो दूसरी पगडण्डी भ्रमवश छोड़ दी थी, वही असली रास्ता था। वही गुफा के पास से होता हुआ टिब्बे तक जाता था। इधर हम, थोडा आगे चलकर यह पगडण्डी ख़त्म होनी ही थी और ख़त्म हो भी गयी। अब हमारे आगे था चीड - देवदार का घना जंगल, घुटनों से ऊपर तक उगी घास। अब हम गुफा तक तो पहुँच ही नहीं सकते थे, टिब्बे पर पहुँच सकते थे। टिब्बा कहते हैं किसी पहाड़ की चोटी पर छोटा सा समतल भाग। चोटी पर पहुँचने के लिए हमें लगातार ऊपर चढ़ते रहना था। बिना किसी रास्ते के झाडियों में चलते हुए हम भी चढ़ते ही जा रहे थे। ज्यादातर झाडियाँ कंटीली थी। दल के सदस्य बारी-बारी से डंडे से कंटीली झाडियों को हटाते और तब बाकी वहां से निकलते।
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घंटा डेढ़ घंटा बीत गया। सभी में निराशा छाने लगी। एक ने कहा कि वापस चलो। लेकिन वापस भी नहीं जा सकते थे। आगे बढ़ रहे हैं तो आखिरकार चोटी पर पहुंचेंगे भी। अगर अभी वापस हो जायेंगे तो नीचे घाटी में खो जायेंगे। रास्ता भी नहीं मिलेगा।
...
डेढ़ घंटे बाद। एक पगडण्डी मिली। यहीं वो पगडण्डी थी, जिसे हमने उस 'तिराहे' पर छोड़ दिया था। यह सीधी चोटी पर यानी टिब्बे पर जाती है। करोल के टिब्बे पर।

(जंगल के बीच में)
(कंक्रीट की पगडण्डी और पीछे सोलन शहर)
(ये टेढ़े मेढे रास्ते)
(यही तो हिमालय का आनंद है)
(मैंने कैमरे को एक झाड़ पर सेट कर दिया और टाइमर लगा दिया।)
(कंक्रीट की पगडण्डी ख़त्म। अब शुरू होती है खेतों के बीच से कच्ची पगडण्डी। इन खेतों में मक्का बो रखी है।)
(यहाँ टमाटर व शिमला मिर्च भी खूब बोई जाती है। अपने खेत से टमाटर इकट्ठे करता एक बालक। मैंने भी इससे बात करते-करते तीन-चार टमाटर खा डाले।)
(रास्ते में कई बुग्याल मिले। बुग्याल कहते हैं पहाड़ पर घास के मैदान को।वैसे बुग्याल एक गढ़वाली शब्द है।)
(यह एक ताल है जिसमे थोड़ा पानी था। है ना खूबसूरत नजारा!)
(इसके बारे में भी कुछ लिखने की जरुरत है?)
(रास्ता ढूंढो और आगे बढो।)
(चोटी से किन्नौर के बर्फीले पहाड़ भी दिख रहे थे। दूर एक हलकी सी लकीर दिख रही है।)


करोल टिब्बा यात्रा श्रंखला
1. करोल के जंगलों में

Comments

  1. पढते-पढते ही ढंड लगना शुरू हो गई.... मुसाफिर जी

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  2. आप कमाल के इंसान हो जी...ऐसी ज़िन्दगी जीते हो जिसे देख सुन कर कोई भी आपकी किस्मत पर रश्क कर सकता है...गज़ब की हिम्मत और ज़ज्बा है आप में घूमने का...वाह...जियो नीरज जी...आप बहुत विशेष इंसान हैं ऐसा ज़ज्बा विरलों में ही होता है...समय और पैसे का रोना रोते रोते ही अधिकांश की ज़िन्दगी कट जाती है...आप को मेरा नमन है...
    सोलन यात्रा और चित्र बहुत मजेदार हैं...अगली कड़ी का बेसब्री से इंतज़ार है...वैसे जब दिल्ली में जबरदस्त ठण्ड पड़ रही हो तब खोपोली आने की सोच सकते हैं...आपको निराशा नहीं होगी...
    नीरज

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  3. मज़े है नीरज्।अब तो मौसम भी आ गया।देखता हूं मै भी निकलता हूं कंही।

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  4. सोलन बड़ी प्यारी जगह है. हाँ जहाँ जहाँ घूमना फिरना हो, अभी कर लो इस उम्र में.बाद में बड़ी कठिनाई हो सकती है..

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  5. मैं बहुत से शहर व कुछेक देश घूमना चाहता हूँ, यह वाकई अल्द्भुत और अलहदा है. आप इसका लुफ्त ले रहे हैं और रोमांच मुझे हो रहा है! घूमते रहिये! जीवन भी एक भ्रमण सा है...
    --

    अंतिम पढ़ाव पर- हिंदी ब्लोग्स में पहली बार Friends With Benefits - रिश्तों की एक नई तान (FWB) [बहस] [उल्टा तीर]

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  6. बहुत बढिया जी.

    रामराम.

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  7. कमाल के आदमी हो बन्धु!

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  8. चित्रों से सजा यात्रा संस्मरण बहुत बढ़िया रहा।

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  9. ओ..केल्ले हो क्या ..मज़ा आ गया । सुन्दर चित्र भी है ।

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  10. Niraj You are the Great, i like your attitude i am also like the things which you are doing like GHUMMAKKAD but i dont know about NORTh India so please give me all information..on my email ID

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  11. चिप्स और नमकीन खाते और कोल्ड ड्रिंक्स पीते हुए वो लोग कचरा वही फेंकते जा रहे थे(शायद उनके बाप आकर उसे बाद में साफ करेंगे) मैंने नीरज से कहा तो वो बोला,"अपन तो अपना कचरा साथ लायें हैं, नीचे कहीं सही जगह फ़ेंक देंगे " और चार बजे तक घेरा पहुचने की हिदायत उसने दे दी.

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अक्सर हमें ट्रेनों में बाइक की बुकिंग करने की आवश्यकता पड़ती है। इस बार मुझे भी पड़ी तो कुछ जानकारियाँ इंटरनेट के माध्यम से जुटायीं। पता चला कि टंकी एकदम खाली होनी चाहिये और बाइक पैक होनी चाहिये - अंग्रेजी में ‘गनी बैग’ कहते हैं और हिंदी में टाट। तो तमाम तरह की परेशानियों के बाद आज आख़िरकार मैं भी अपनी बाइक ट्रेन में बुक करने में सफल रहा। अपना अनुभव और जानकारी आपको भी शेयर कर रहा हूँ। हमारे सामने मुख्य परेशानी यही होती है कि हमें चीजों की जानकारी नहीं होती। ट्रेनों में दो तरह से बाइक बुक की जा सकती है: लगेज के तौर पर और पार्सल के तौर पर। पहले बात करते हैं लगेज के तौर पर बाइक बुक करने का क्या प्रोसीजर है। इसमें आपके पास ट्रेन का आरक्षित टिकट होना चाहिये। यदि आपने रेलवे काउंटर से टिकट लिया है, तब तो वेटिंग टिकट भी चल जायेगा। और अगर आपके पास ऑनलाइन टिकट है, तब या तो कन्फर्म टिकट होना चाहिये या आर.ए.सी.। यानी जब आप स्वयं यात्रा कर रहे हों, और बाइक भी उसी ट्रेन में ले जाना चाहते हों, तो आरक्षित टिकट तो होना ही चाहिये। इसके अलावा बाइक की आर.सी. व आपका कोई पहचान-पत्र भी ज़रूरी है। मतलब