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मैं सोचने लगा कि चलो देहरादून पहुंचकर कहीं आगे की गाड़ी पकड़ते हैं। हमारे पास पहला विकल्प था मसूरी जाने का लेकिन दोनों की जेबें खाली। फ़िर सोचा कि वहां चलेंगे, भला कहाँ? अरे यार वहां, क्या नाम है.....सहस्त्रधारा। या फ़िर चलेंगे डाकपत्थर। मसूरी तो जाने का सवाल ही नहीं था। तभी विभूति ने पूछा कि अब कौन सा स्टेशन आएगा? मैंने कहा- डोईवाला। तभी अचानक दिमाग में विस्फोट सा हुआ। "अरे हाँ, लच्छीवाला भी तो यहीं पर है। अब देहरादून नहीं चलते। लच्छीवाला चलते हैं।" विभूति महोदय कभी इधर आए तो थे नहीं, मैं जिधर का भी नाम ले दूँ, मेरी हाँ में हाँ।
खैर, तय हो गया कि लच्छीवाला ही चलते हैं। वैसे गाड़ी का स्टोपेज तो था नहीं, फ़िर भी हमने उतरने का पूरा मूड बना लिया। हमें यकीन था कि यहाँ पर गाड़ी की स्पीड थोडी कम तो होगी ही। बस उतर जायेंगे। लेकिन स्टेशन आते आते स्पीड और बढ़ गई। बेचारे दोनों मन मसोसकर रह गए। आगे लच्छीवाला पुल पर भी नहीं उतर सके।
दोनों ऊँट की तरह गर्दन उचका उचका कर देख रहे थे कि जंगल में कोई जानवर दिख जाए। कोई तेंदुआ या हाथी या कुछ और। तभी मुझे हिरन की प्रजाति का कोई जानवर दिखा। पेडों की पत्तियां खा रहा था। पच्चीस रूपये वसूल हो गए। चिडियाघर में तो सभी जानवर दिख जाते हैं लेकिन जंगल में देखने का मजा ही अलग है।
पहुँच गए देहरादून। स्टेशन से बाहर निकले, तो सामने पहाड़ पर मसूरी नहीं दिखाई दिया। कारण- बादल। एक बात और, यहाँ आते ही हमारी नीयत बदल गई। दोनों ने अपने अपने पैसे गिने, अंदाजा लगाया कि लौट-फेर में हमारे कितने पैसे खर्च हो जायेंगे। तय हो गया कि मसूरी चलो। मैं सामने पहाडों को देखकर खुश हो रहा था। तभी देखा कि विभूति गायब। मैंने गर्दन घुमाकर चारों और देखा। दायें भी, बाएं भी, क्लोकवाइज भी और एंटीक्लोकवाइज भी। पर वो नहीं दिखा। सोचा कि कहीं टंकी खाली करने गया होगा। चलों कहीं बैठ लूँ। पास में ही स्टेट बैंक का ATM था। मैं वहां पहुँचा और उसके चबूतरे पर बैठ गया। तभी दिमाग ने काम किया। थोडी एसी की हवा खा ली जाए। मैं अन्दर चला गया। देखा कि विभूति वहीँ पर खड़ा है। ATM की तरफ़ मुहं करके हाथ जोड़े हुए। तभी खटर पटर हुई और सौ सौ के पाँच नोट बाहर निकले। अब जाकर मेरी समझ में आया कि विभूति कहाँ चला गया था। अब तो हम बेधड़क धडधडाते हुए मसूरी जा सकते थे। सीधे पहुंचे बस अड्डे पर, किराया पूछा-इकत्तीस रूपये। बैठे और चल पड़े। बोल शंकर भगवान् की जय।
इसे कहते हैं चल पड़े जिधर दो डग मग में। थोडी देर पहले तक कभी लच्छीवाला, फ़िर सहस्त्रधारा, कभी डाकपत्थर की योजना बना रहे थे। और जा रहे हैं मसूरी। अपनी तो मुसाफिर गिरी ही ऐसी है। सोचते कहाँ की हैं, चलते कहाँ के लिए हैं, और जा पहुँचते कहाँ हैं।
राजपुर से आगे चढाई शुरू हो गई। ऊपर देखा तो बादल ही बादल दिख रहे थे। मतलब साफ़ था कि मसूरी में बारिश हो रही है। एक बार तो सोचा कि कहीं यात्रा बेकार ना हो जाए। लेकिन ओखली में सिर दिया तो मूसल से क्या डर? लो, बारिश भी शुरू हो गई। जबरदस्त मूसलाधार बारिश। जगह जगह तेज बहते बरसाती झरने। लेकिन घुमक्कडों के पैर कहाँ रुके हैं? घुमक्कडों को ऊपर वाला भी रास्ता दे देता है। मसूरी पहुंचे तो देखा कि वहां बारिश का नामोनिशान ही नहीं था। यानि कि बारिश नीचे ही हो रही थी। नीचे घने बादल होने के कारण हमें देहरादून शहर भी नहीं दिख रहा था।
करीब ढाई बजे का टाइम था। अब क्या करें? कहाँ जाए? चलो मार्किट में घूम लेते हैं। मेरी निगाह पड़ी एक चौकीदार पर। वो गढ़वाली था। हमने उससे पूछा कि भाई, यहाँ आसपास ऐसी कोई जगह बताओ, जहाँ से हम दो तीन घंटे में ही वापस आ जायें। बोला कि गन हिल है। इधर से सीधे चले जाओ, पहले तो चढाई आएगी, फ़िर नीचे उतरकर किसी से पूछ लेना। हम उसके बताये रास्ते से चल दिए। विभूति ने बताया कि जब मैं छोटा था, तब एक बार यहाँ आया था। एक चट्टानी चोटी को देखकर बोला कि वो रही गन हिल। कहा जाता है कि अंग्रेजी काल में वहां पर एक गन रखी थी। जिससे रोज सुबह को गोला दागा जाता था। बस, नाम पड़ गया गन हिल। गन हिल जाने के लिए रोप वे की भी सुविधा है।
विभूति ने कहा कि वहां बाद में जायेंगे, पहले पेट पूजा करें। इतना सुनते ही मेरे पेट में जो चूहे सो रहे थे, जग गए और उछल कूद मचाने लगे। हम पहुंचे माल रोड पर झूलाघर वाले रेस्टोरेंट में। विभूति ने पूछा कि क्या खायेगा। अब ऐसे मौकों पर ये प्रश्न मुझे बड़ा ही खडूस लगता है। जब खाना ही है तो ले ले जो सस्ता सा दिख रहा हो। हमने उनका मेनू पढ़ा तो पढ़ते पढ़ते पसीना निकल गया। समझ कुछ नहीं आया कि क्या लें। कोई खाद्य पदार्थ बीस रूपये, पच्चीस रूपये यहाँ तक कि पचास साठ रूपये का भी था। यह मुझ जैसे एक ऐसे आदमी के लिए महंगा था, जो इधर उधर से पाँच पाँच रूपये की चाट पकौडी खाकर ही जिन्दा रहता है- खासतौर से सफर में। खा ली कभी कभाक दस रूपये की चाऊमीन वगैरा। लेकिन उसके बाद भी दो टाइम तक खाना नहीं खाता। हिसाब बराबर ही रखता हूँ। हार-झक मारकर परांठे का आर्डर दे दिया। ये पन्द्रह पन्द्रह रूपये के थे।
हमारे सामने सबसे पहले परोसा गया- अचार। रंगभेद के भेदभाव से दूर कई रंगों के आचारों को एक नन्ही सी प्लेट में लाया गया। इसमे आम का अचार, नीम्बू का अचार, मूली का अचार, गाजर का अचार, आंवले का अचार, मिर्च का अचार वगैरा। मुहं में पानी तो तभी आ गया था जब हमने आलू के परांठे का आर्डर दिया था। रही सही कसर इन अचारों ने पूरी कर दी। बस टूट पड़े दोनों।
मेरे हाथ आया सबसे पहले मिर्च का अचार। हे भगवान्, बचाओ ऐसी चीजों से। वापस रखकर आम का अचार उठाया। बड़ी शान से मुहँ में डाला। आहाहा, वाह भई वाह, मजा आ गया। उसके बाद निम्बू वाले अचार का काम तमाम। दोनों ही उँगलियाँ बड़े ही अदब से चाटी। नाखूनों के नीचे वाला भाग भी नहीं छोड़ा। मैं अचार खाने में इतना मगन हो गया कि मैंने पूरे आनंद के साथ वो "हरा अचार" उठाया। आँख मीचकर समूचा ही मुहं के अन्दर। जैसे जैसे उसे चबाता गया, मरे जिन्दे सारे रिश्तेदार याद आते चले गए। छः साल पहले स्वर्ग सिधार चुकी नानीजी तो इतनी याद आई कि आँख, नाक, कान सब सुन्न। नानी याद आना कोई मजाक बात नहीं है। जिसके याद आती है, वो ही जानता है क्या होता है। कुछ देर बाद जब जीभ व होंठ बोलने लायक हुए तो एक ही शब्द निकला- पानी। पानी पीकर बड़ी ही तसल्ली मिली। प्लेट की और देखा - बिल्कुल खाली। परांठे अभी भी नहीं आए थे। मुझे याद आई उन चूहों की जो थोडी देर पहले जबरदस्त उछल कूद मचा रहे थे। सोच रहे होंगे कि वाह आज तो आलू के परांठे आयेंगे। मुहँ ऊपर को करके बैठे होंगे। सबसे पहले पहुँचा आम का अचार, फ़िर नीम्बू का अचार। और फ़िर जो "मुसीबत" पहुँची, साले कान पकड़कर चीं-चीं कर रहे होंगे कि कभी परांठे की गुजारिश नहीं करेंगे।
काफ़ी देर होने पर भी जब परांठे नहीं आए तो विभूति बोला कि यार इधर तो भयंकर भूख लग रही है, उधर परांठे ही नहीं आ रहे। उसे क्या पता था कि मैं किस मुसीबत से निकला हूँ। बेटा उस "चीज" को तू खाता तो पता चलता कि 'भयंकर' क्या होता है। परांठे आए, और ख़त्म भी हो गए। उस नन्ही सी प्लेट में जो अचार की किरच बची हुई थी, उसे भी हमने बर्तन धोने वाले अंदाज में साफ़ कर दिया।
अब हमारा टारगेट था- गन हिल। गन हिल मसूरी शहर का उच्चतम बिन्दु है। वहां तक जाने के लिए दो तरीके हैं। या तो रोप वे से जाओ, या फ़िर पैदल ही जा पहुँचो। हमने पैदल का रास्ता चुना। हालाँकि विभूति तो रोप वे से जाना चाहता था, कहने लगा कि यार पैदल चढ़ने में पैर टूट जायेंगे। लेकिन उसे भी मेरी जिद के आगे झुकना ही पड़ा। अब जिसके साथ ये महाकंजूस इंसान चल रहा हो, उसके पैर टूटे या ना टूटे, इसे क्या?
हमने पानी की बोतल भरी। थोडी बहुत पी भी। माल रोड पर चलते हुए थोड़ा आगे से ही गन हिल के लिए रास्ता जाता है।
पीछे मुड़कर देखा तो हवा ख़राब हो गई। पीछे बादल ही बादल दिखाई दे रहे थे। ऐसा लग रहा था कि थोडी देर में ये बादल हमारे पास तक आ जायेंगे। और फ़िर बारिश भी पड़ सकती है। पहाडों पर अक्सर ऐसा होता है कि आप तो ऊपर होते हैं और बादल नीचे। बादलों के पीछे स्थित देहरादून घाटी भी नहीं दिख रही थी।
मसूरी में इतने यात्री जाते हैं, ज्यादातर अपनी गाड़ियों से जाना पसंद करते हैं। ये लोग गाड़ियों की पार्किंग कहाँ करते होंगे? होटलों की छतों पर।
गन हिल जाने वाला रास्ता संकरा सा है। लेकिन पर्याप्त है। मैं तो ठहरा बिल्कुल उपाद्दी, जहाँ भी मौका मिलता, वहीँ गड़बड़ करनी शुरू। कहीं चट्टान पर खड़े होकर फोटू खिंचवा रहे हैं, तो कहीं चट्टान से जम्प लगा रहे हैं। हद तो तब हो गई, जब मैंने विभूति का पीछे से फोटू खींच लिया। वो एक ठूंठ की सिंचाई करने में व्यस्त था। उस कमीने विभूति ने बाद में उस यादगार फोटू को अपनी बेइज्जती समझकर डिलीट कर दिया।
लो भाई, पहुँच गए गनहिल। मैंने तो पहले ये सोचा था कि कोई तंग सी चोटी होगी। लेकिन यहाँ के ठाठ देखकर अपनी सोच बदल दी। ऊपर तो इतना बड़ा मैदान है कि चाहे क्रिकेट खेल लो। जब छक्का लगेगा तो गेंद को नीचे मसूरी से उठाकर लाना पड़ेगा। 😁
ऊपर पहुंचकर जब नीचे को देखा तो पता चला कि बादलों ने पूरी मसूरी के घेर लिया है। अब वे धीरे धीरे गन हिल को भी घेर लेंगे।
लेकिन गन हिल के दूसरी तरफ़ तो कुदरत का असली नजारा था। दूर तक फैले गढ़वाली पहाड़। एक दूरबीन वाला भी खड़ा था। जाते ही उसने हमें पकड़ लिया। बोला कि आओ साहब। हमने कहा कि क्या क्या दिखाओगे। बोला कि लाल टिब्बा, गढ़वाली गाँव,....और भी ना जाने क्या क्या बताने लगा। पैसे पूछे तो बोला कि एक जने के बीस रूपये। बीस रूपये सुनते ही हमने उसे ना कर दी। हालाँकि एक छोटा सा गाँव उस पार दूसरे पहाड़ पर हमें भी दिख रहा था।
शाम को छः बजे हमने वापसी की तैयारी कर दी। फटाफट नीचे उतरे, बस अड्डे पहुंचे। तब तक सात बज चुके थे। सात बजे वाली देहरादून जाने वाली आख़िरी बस खचाखच भरी मिली। हम देहरादून तक ही खड़े होकर आए। रास्ते में विभूति को उलटी होने लगी। उधर से नौ बजे ट्रेन और ग्यारह बजे तक अपने कमरे पर। आख़िर अगले दिन ड्यूटी भी तो जाना था।
1. मसूरी भ्रमण-1
2. मसूरी भ्रमण-2
शुरू से अंत तक रोचकता बरकरार रही.. अगली कड़ी के इंतेज़ार में बैठे है
ReplyDeletebahut badhiya laga ye exp bhi.. ab to aapka ye pura series khatm hone par hi aapka pichha chhorenge.. :D
ReplyDeleteमुसाफिर भाई एक बात समझ में नहीं आ रही कि गाडी न. 4315 तो बरेली से नई दिल्ली तक जाती हैं. देहरादून और हरीद्वार तो इसके रास्ते में नहीं आते. आप जरा बता कर मेरा ज्ञान बढाएं. वैसे टी. टी. को पुलिस के हवाले कर देते तो ठीक रहता.
ReplyDeletepryas.wordpress.com
प्रयास जी, आप ठीक कह रहे हैं. 4315 बरेली से नई दिल्ली ही जाती है.
ReplyDeleteजिस गाड़ी का नम्बर मैंने दिया है वो असल में 4163 है. इसका नाम संगम एक्सप्रेस है. यह इलाहाबाद से मेरठ तक जाती है. रास्ते में अलीगढ से इसके कुछ डिब्बे अलग होकर लिंक एक्सप्रेस के रूप में मुरादाबाद होते हुए देहरादून को जाते हैं. मेरठ जाने वाली संगम एक्सप्रेस में मैंने कई बार सफ़र किया है.
भूल सुधार के लिए आपका धन्यवाद. मैं अभी इसे ठीक करता हूँ.
Yaha tak to apki yatra intersting rahi per aap mussoorie kab pahunch rahe ho.
ReplyDeleteविनीता जी, लगता है कि मैंने इसका टोपिक "मसूरी भ्रमण" रखकर गलत काम किया है. आप जरा गौर से पढिये. अभी दोपहर के डेढ़ दो का टाइम हुआ होगा, और हम देहरादून भी नहीं पहुंचे. मसूरी कब पहुंचेंगे? शाम को हमें वापस भी आना है. अभी तक तो हमारा प्रोग्राम देहरादून तक ही जाने का है. पता नहीं आगे क्या हो?
ReplyDeleteआपकी यात्रा मंगलमय हो भाई
ReplyDeleteMaan gaye aapke confidence ko bhi. Nakli TT ki asli khabar li aapne. Congrats.
ReplyDeleteशेष वृतान्त का इंतिज़ार रहेगा
ReplyDeleteभाई घणे गजब कर दिये ! टिकट होत्र सोते बिचारे ठग्गू को कुटवा दिया और मजे भी ले लिये !
ReplyDeleteपर काम यो घणा चोखा करया ! किस्से पढण म्ह मजे आ रे सैं !
रामराम !
ahut rochak experience raha padhna,bahut khub
ReplyDeleteजाट से पंगा न लेना चाहिये - टीटीई चाहे असली हो या नकली!
ReplyDeleteवाह।... मजा आ गया।... ब्लोग पढकर खिचडी की लज्जत भी हमने चख ली मुसाफिर।.... मेरी तरफ से नूतन वर्ष की ढेरों शुभकामनाएं।
ReplyDeleteIss post me aisa lag raha hai ki aap phenkne lag gaye ho..
ReplyDeleteMujhe to yakin nahi ho raha hain ki aapne TT ko pehchan kaise liya ki woh nakli hain..
Sahi sahi batao ki phenk rahe the ya sach keh rahe the..
Aapke javaab ke intjaar me....
DILIP GOUR
GANDHIDHAM (GUJARAT)
जाट रे जाट तेरे कैसे कैसे ठाट। वाह नकली टी टी को मजा चखा दिया।
ReplyDeletehow can you write a so cool blog,i am watting your new post in the future!
ReplyDeleteAlthough there are differences in content, but I still want you to establish Links, I do not know how you advice!
ReplyDeleteRead your article, if I just would say: very good, it is somewhat insufficient, but I am
ReplyDeletestill tempted to say: really good!
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एकबारगी तो शीर्षक पढ़कर सोचा यह क्या कर डाल आपने.. पर जो भी किया सही किया..
ReplyDeleteवैसे हमारी असली टी टी इ से कई बार बहस हो चुकी पर कभी आप जैसा मौका नहीं मिला )